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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १ अब देखना यह है कि ऐसे स्व-पर-वैरी एकान्तवादियोंके मतमें शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल,-सुख-दुःख, जन्म-जन्मान्तर (लोकपरलोक ) और बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था कैसे नहीं बन सकती। बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब व्यवस्थाएँ चूँकि अनेकान्ताश्रित हैं-अनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़नेवालो सापेक्ष अवस्थाओंको कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नहीं बन सकतो- इसलिये जो अनेकान्तके वरी हैं-अनेकान्तसिद्धान्तसे द्वेष रखते हैं-उनके यहाँ ये सब व्यवस्थाएं सुघटित नहीं हो सकती । अनेकान्तके प्रतिषेधसे क्रम-अक्रमका प्रतिषेध हो जाता है; क्योंकि क्रम-अक्रमकी अनेकान्तके साथ व्याप्ति है। जब अनेकान्त ही नहीं तब क्रम-अक्रमकी व्यवस्था कैसे बन सकती है ? अर्थात् द्रव्यके अभावमें जिस प्रकार गुण-पर्यायकी और वृक्षके अभावमें शीशम, जामन, नीम, आम्रादिकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती उसी प्रकार अनेकान्तके अभावमें क्रम-अक्रमकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती। क्रम-अक्रमकी व्यवस्था न बननेसे अर्थक्रियाका निषेध हो जाता है; क्योंकि अर्थक्रियाकी क्रम-अक्रमके साथ व्याप्ति है। और अर्थक्रियाके अभावमें कर्मादिक नहीं बन सकते--कर्मादिककी अर्थक्रियाके साथ व्याप्ति है। जब शुभअशुभ-कर्म ही नहीं बन सकते तब उनका फल सुख-दुःख, फलभोगका क्षेत्र जन्म-जन्मातर (लोक-परलोक ) और कर्मोसे बँधने तथा छूटनेकी बात तो कैसे बन सकती है ? सारांश यह कि अनेकान्तके आश्रय बिना ये सब शुभाऽशुभ-कर्मादिक निराश्रित हो जाते हैं, और इसलिए सर्वथा नित्यत्वादि एकान्तवादियोंके मतमें इनकी कोई ठीक व्यवस्था नहीं बन सकती। वे यदि इन्हें मानते हैं और तपश्चरणादिके अनुष्ठान-द्वारा सत्कर्मोंका अर्जन करके उनका सत्फल लेना चाहते हैं अथवा कर्मोंसे मुक्त होना चाहते हैं तो वे अपने इस इष्टको अनेकान्तका विरोध करके बाधा पहुँचाते हैं, और इस तरह भी अपनेको स्व-पर-वैरी सिद्ध करते हैं।
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