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कारिका १३, १४ ]
देवागम
विकल्प हैं उनकी विवक्षासे अथवा दृष्टिसे है - सर्वथारूपसे नहींनयदृष्टिको छोड़कर सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूप में कोई भी वस्तुतत्त्व व्यवस्थित नहीं होता ।'
सत्-असत् - मान्यताकी निर्दोष विधि
सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते || १५ ||
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' ( हे वीर जिन ! ) ऐसा कौन है जो सबको - चेतनअचेतनको, द्रव्य - पर्यायादिको भ्रान्त-अभ्रान्तको अथवा स्वयंके लिए इष्ट-अनिष्टको – स्वरूपादिचतुष्टय की दृष्टिसे - स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षासे - सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयको दृष्टिसे - परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षासे -असत् रूप ही अंगीकार न करे ? - कोई भी लौकिकजन, परीक्षक, स्याद्वादी, सर्वथा एकान्तवादी अथवा सचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लोप करनेमें समर्थ न होनेके कारण इस बातको न मानता हो । यदि ( स्वयं प्रतीत करता हुआ भी कुनयके वश विपरीतबुद्धि अथवा दुराग्रहको प्राप्त हुआ ) कोई ऐसा नहीं मानता है तो वह ( अपने किसी भी इष्ट-तत्त्व में ) अवस्थित अथवा व्यवस्थित नहीं होता हैउसकी कोई भी तत्त्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें वस्तुत्वकी व्यवस्था सुघटित होती है, अन्यथा नहीं । स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किसीको सत् माना जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग आता है । और पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है । अथवा जिस रूपसे सत्त्व है उसी रूपसे असत्त्वको और जिस रूपसे असत्त्व है उसी रूपसे सत्त्वको माना जाय, तो कुछ भी
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