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कारिका ८ ]
देवागम दुसरेकी सत्ताको बनाये रखते हैं। और जो धर्म परस्पर अपेक्षाको लिये हुए नहीं होते वे अपने और दूसरेके अपकारी ( शत्रु ) होते हैं--स्व-पर-प्रणाशक होते हैं, और इसलिये न अपनी सत्ताको कायम रख सकते हैं और न दूसरेकी। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयंभूस्तोत्रमें भी
"मिथाऽनपेक्षाः स्व-पर-प्रणाशिनः"
"परस्परेक्षा स्व-परोपकारिणः" इन वाक्योंके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट घोषणा की है। आप निरपेक्ष नयोंको मिथ्या और सापेक्ष नयोंको सम्यक् बतलाते हैं । आपके विचारसे निरपेक्ष नयोंका विषय अर्थक्रियाकारी न होनेसे अवस्तु है और सापेक्ष नयोंका विषय अर्थकृत् ( प्रयोजनसाधक ) होनेसे वस्तुतत्त्व है', निरपेक्ष नयोंका विषय 'मिथ्या एकान्त' और सापेक्ष नयोंका विषय 'सम्यक् एकान्त' है। और यह सम्यक् एकान्त ही प्रस्तुत अनेकान्तके साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए है । जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते हैं उन्हें ही 'एकान्तग्रहरवत' कहा गया है, वे ही 'सर्वथा एकान्तवादी' कहलाते हैं और उन्हें ही यहाँ 'स्वपरवैरी' समझना चाहिये । जो सम्यक् एकान्तके उपासक होते हैं उन्हें 'एकान्तग्रहरक्त' नहीं कहते, उनका नेता ‘स्यात्' पद होता है, वे उस एकान्तको कथंचित् रूपसे स्वीकार करते हैं, इसलिये उसमें सर्वथा आसक्त नहीं होते और न प्रतिपक्ष-धर्मका विरोध अथवा निराकरण ही करते हैंसापेक्षावस्थामें विचारके समय प्रतिपक्ष-धर्मकी अपेक्षा न होनेसे उसके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा तो होतो है किन्तु उसका विरोध अथवा निराकरण नहीं होता। और इसीसे वे 'स्व-पर-वैरी' नहीं कहे जा सकते । अतः स्वामी समन्तभद्रका यह कहना बिल्कुल ठीक है कि 'जो एकान्तग्रहरक्त होते हैं वे स्वपरवैरी होते हैं।'
१. निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ -देवागम १०८
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