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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १
अधिक मात्रामें भी दे देता है। नतीजा यह होता है कि वे रोगी मर जाते हैं या अधिक कष्ट तथा वेदना उठाते हैं और वह मनुष्य कुचलेका ठीक प्रयोग न जानकर उसका मिथ्या प्रयोग करनेके कारण दण्ड पाता है, तथा कभी स्वयं कुचला खाकर अपनी प्राणहानि भी कर डालता है । इस तरह कुचलेके विषय में एकान्त आग्रह रखनेवाला जिस प्रकार स्व-पर-वैरी होता है उसी प्रकार दूसरी वस्तुओंके विषय में भी एकान्त हठ पकड़नेवालों को स्व-पर-वैरी समझना चाहिये ।
सच पूछिये तो जो अनेकान्तके द्वषी हैं वे अपने एकान्तके भी द्वेषी हैं; क्योंकि अनेकान्तके बिना वे एकान्तको प्रतिष्ठित नहीं कर सकते - अनेकान्तके बिना एकान्तका अस्तित्व उसी तरह नहीं बन सकता जिस तरह कि सामान्यके बिना विशेषका या द्रव्य के बिना पर्यायका अस्तित्व नहीं बनता । सामान्य और विशेष, अस्तित्व और नास्तित्व तथा नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जिस प्रकार परस्पर में अविनाभाव- सम्बन्धको लिये हुए हैंएकके बिना दूसरेका सद्भाव नहीं बनता — उसी प्रकार एकान्त और अनेकान्त में भी परस्पर अविनाभाव - सम्बन्ध है । ये सब सप्रतिपक्षधर्म एक ही वस्तुमें परस्पर अपेक्षाको लिए हुए होते हैं । उदाहरण के तौरपर अनामिका अंगुली छोटी भी है और बड़ी भी कनिष्ठासे वह बड़ी है और मध्यमासे छोटी है । इस तरह अनामिकामें छोटापन और बड़ापन दोनों धर्म सापेक्ष हैं, अथवा छोटी है और छोटी नहीं है ऐसे छोटेपनके अस्तित्व और नास्तित्वरूप दो अविनाभावी धर्म भी उसमें सापेक्षरूपसे पाये जाते हैं- अपेक्षाको छोड़ देनेपर दोनोंमेंस कोई भी धर्म नहीं बनता । इसी प्रकार नदीके प्रत्येक तटमें इस पारपन और उस पारपनके दोनों धर्मं होते हैं और वे सापेक्ष होनेसे ही अविरोधरूप रहते हैं ।
जो धर्म एक ही वस्तुमें परस्पर अपेक्षाको लिये हुए होते हैं वे अपने और दूसरेको उपकारी ( मित्र ) होते हैं और अपनी तथा
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