________________
१०
समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद १ ( जन्म ) भी नहीं बनता, शुभ-अशुभ कर्मोंका फल भी नहीं बनता और न बन्ध तथा मोक्ष ही बनते हैं-किसी भी तत्त्व अथवा पदार्थकी सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठती। और इस तरह उनका मत प्रत्यक्षसे ही बाधित नहीं, बल्कि अपने इष्टसे अपने इष्टका भी बाधक है।'
व्याख्या--वास्तवमें प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें अनेक अन्त-धर्म, गुण-स्वभाव, अंग अथवा अंश हैं। जो मनुष्य किसी भी वस्तुको एक तरफसे देखता है--उसके एक ही अन्तधर्म अथवा गुण-स्वभावपर दृष्टि डालता है--वह उसका सम्यग्द्रष्टा ( उसे ठीक तौरसे देखने-पहचाननेवाला ) नहीं कहला सकता। सम्यग्द्रष्टा होनेके लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिये और उसके सब अन्तों, अंगों, धर्मों अथवा स्वभावोंपर नजर डालनी चाहिये । सिक्केके एक ही मुखको देखकर सिक्केका निर्णय करनेवाला उस सिक्केको दूसरे मुखसे पड़ा देखकर वह सिक्का नहीं समझता और इसलिये धोखा खाता है। इसीसे अनेकान्तदृष्टिको सम्यग्दृष्टि और एकान्तदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहा है।
जो मनुष्य किसी वस्तुके एक ही अन्त, अंग, धर्म अथवा गुण-स्वभावको देखकर उसे उस ही स्वरूप मानता है-दूसरे रूप स्वीकार नहीं करता-और इस तरह अपनी एकान्त-धारणा बना लेता है और उसे ही जैसे तैसे पूष्ट किया करता है, उसको 'एकान्त-ग्रहरक्त', एकान्तपक्षपाती अथवा सर्वथा एकान्तवादी कहते हैं। ऐसे मनुष्य हाथीके स्वरूपका विधान करनेवाले जन्मान्ध पुरुषोंकी तरह आपसमें लड़ते-झगड़ते हैं और एक दूसरेसे शत्रुता धारण करके जहाँ परके बैरी बनते हैं वहाँ अपनेको हाथीके १. अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only