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कारिका ७-८]
देवागम हैं--उसे न मानकर उससे द्वष रखते हैं--, सर्वथा एकान्तवादी हैं-स्वरूप-पररूप तथा विधि-निषेधरूप सभी. प्रकारोंसे एक ही धर्म नित्यत्वादिको मानने एवं प्रतिपादन करनेवाले हैं और आप्ताऽभिमानसे दग्ध हैं-वस्तुतः आप्त-सर्वज्ञ न होते हुए भी 'हम आप्त हैं' इस अहंकारसे भुने हुए अथवा जले हुएके समान हैं-,उनका जो अपना इष्ट हैं-सर्वथा एकान्तात्मक अभिमत है-वह प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है--- प्रत्यक्षमें कोई भी वस्तु सर्वथा नित्य या अनित्यरूप, सर्वथा एक या अनेकरूप, सर्वथा भाव या अभावरूप इत्यादि नजर नहीं आती-अथवा यों कहिये कि प्रत्यक्ष-सिद्ध अनेकान्तात्मक वस्तु-तत्त्वके साथ साक्षात् विरोधको लिये हुए होनेके कारण अमान्य है।'
सर्वथैकान्त-रक्तोंके शुभाऽशुभकर्मादिक नहीं बनते कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न अवचित् ।
एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर चैरिषु ।।८।। 'जो लोग एकान्तके ग्रहण-स्वीकरणम आसक्त हैं, अथवा एकान्तरूप ग्रहके वशीभूत हुए उसीके रंगमे रंगे हैं—सर्वथा एकान्त-पक्षके पक्षपाती एवं भक्त बने हुए हैं और अनेकान्तको नहीं मानते, वस्तुंमें अनेक गुण-धर्मों (अन्तों) के होते हुए भी उसे एक ही गुण-धर्म ( अन्त ) रूप अंगीकार करते हैं-( और इसीसे ) जो स्व-परके बैरी हैं-दूसरोंके सिद्धान्तोंका विरोध कर उन्होंके शत्रु नहीं, किन्तु अपने एक सिद्धान्तसे अपने दूसरे सिद्धान्तोंका विरोध कर और इस तरह अपने किसी भी सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करने में समर्थ न होकर अपने भी शत्रु बने हुए हैं-, उनमेंसे प्रायः किसीके भी यहाँ अथवा किसीके भी मतमें, हे वीर भगवन् ! न तो कोई शुभ कर्म बनता है, न अशुभ कर्म, न परलोक ( अन्य जन्म ) बनता है और ( चकारसे ) यह लोक
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