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देवागम और उसकी व्याख्याओंके प्रसङ्गसे इतनी चर्चा करनेके उपरान्त अब उसके कर्त्ता के सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है ।
प्रस्तावना
२. समन्तभद्र :
इस मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण कृतिके उपस्थापक आचार्य समन्तभद्र हैं, जो साहित्य और शिलालेखों में विशिष्ट सम्मानके प्रदर्शक 'स्वामी' पदसे विभूषित मिलते हैं । आ० कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छके पश्चात् जैन वाङ्मयको जिस मनीषीने सर्वाधिक प्रभावित किया और यशोभाजन हुआ वह यही स्वामी समन्तभद्र हैं । इनका यशोगान शिलालेखों तथा वाङ्मयके मूर्धन्य ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंमें बहुलतया उपलब्ध है । अकलङ्कदेवने स्याद्वादतीर्थका प्रभावक और स्याद्वादमार्गका परिपालक, विद्यानन्दने स्याद्वादमार्गाग्रणी वादिराजने सर्वज्ञका प्रदर्शक, मलयगिरिने आद्यस्तुतिकार तथा शिलालेखकोंने वीरशासनकी सहस्रगुणी वृद्धि करनेवाला, श्रुतकेवलिसन्तानोन्नायक, समस्तविद्यानिधि, शास्त्रकर्त्ता एवं कलिकालगणधर कहकर उनका कीर्तिगान किया है । यथार्थमें जब तत्त्वनिर्णय ऐकान्तिक होने लगा और उसे उतना ही माना जाने लगा तथा आर्हत-परम्परा ऋषभादि तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व व्यवस्थापक स्याद्वादन्यायको भूलने लगी, तो इसी महान् आचार्यने उसे उज्जीवित एवं प्रभावित किया । अतः ऐसे शासन प्रभावक और तत्त्वज्ञानप्रसारक मूर्धन्य मनीषीका विद्वानों द्वारा गुणगान हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
इनका विस्तृत परिचय और समयादिका निर्णय श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक इतिहास- ग्रन्थ में दिया है । वह इतना प्रमाणपूर्ण, अविकल और शोधात्मक है कि ४२ वर्ष बाद भी उसमें संशोधन, परिवर्तन या परिवर्धनकी गुंजाइश प्रतीत नहीं होती । वह आज भी बिल्कुल नया और चिन्तनपूर्ण है । उसमें इतनी सामग्री है कि उसपर शोधार्थी अनेक शोध-प्रबन्ध लिख सकते हैं । अतएव यहाँ समन्तभद्र के परिचयादिकी पुनरावृत्ति न करके केवल उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डालनेका प्रयास करेंगे ।
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