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प्रस्तावना
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वे वही हैं जो 'मोक्षमार्गस्य नेतारम् आदि स्तोत्र में अभिहित हैं —उसीका यहाँ उन्होंने अनुवाद ( दोहराना ) किया है। 'सिद्धे मुनीन्द्रसंस्तुत्ये' पदके द्वारा तो उन्होंने स्पस्ट कर दिया है कि मुनीन्द्र ( सूत्रकार ) ने उक्त विशेषणों से आप्तकी स्तुति करनेके बाद ही आदिसूत्र रचा। हमें आश्चर्य है कि विद्यानन्दके जो उल्लेख स्थापनाकारके रंचमात्र भी साधक न होकर उनके लिए 'स्ववधाय कृत्योत्थापन' रूप हैं उन्हें प्रस्तुत करनेका साहस क्यों किया जाता है ।
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तीसरी स्थापनामें जो उक्त स्तोत्र के व्याख्यानस्वरूप आतमीमांसाके लिखे जाने की बात कही गई है उसमें कोई विवाद नहीं है । पर जब उस स्तोत्रको विद्यानन्दके उल्लेखों द्वारा, जो स्थापनाकार के अभिप्रायके लेशमात्र भी साधक नहीं हैं, पूज्यपाद - देवनन्दिका सिद्ध करनेकी असफल चेष्टा की जाती है तब भारी आश्चर्य होता हैं । 'प्रोत्थानारम्भकाले' इस आप्तपरीक्षागत पदका सीधा और प्रकरणसंगत अर्थ है - प्रयत्नारम्भसमय में अथवा अवतरणारम्भसमय में । परन्तु इस सीधे अर्थको अङ्गीकार न कर उसका अर्थ किया गया है कि 'उत्थान शब्दका अर्थ है पुस्तक, अतएव प्रोत्थान शब्दका अर्थ हुआ प्रकृष्ट उत्थान अर्थात् वृत्ति या व्याख्यान, अतएव 'प्रोत्थानारम्भकाले' का अर्थ हुआ व्याख्यानारम्भकाले' । प्रश्न है कि प्रकृष्टज्ञानसे वृत्ति या व्याख्यानका ग्रहण कैसे कर लिया गया ? क्योंकि उसका समर्थन न किसी कोषसे होता है और न परम्परागत किसी स्रोतसे । यदि विद्यानन्दको उक्त स्तोत्र पूज्यपाद - देवनन्दिकी वृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि ) का बताना इष्ट होता तो वे इतना बुद्धिव्यायाम न कर पाठकों को उलझनमें न डालते और 'प्रोत्थानारम्भकाले' न लिखकर 'व्याख्यानारम्भकाले' लिख सकते थे । इसी तरह 'शास्त्रकारैः कृतं' के स्थानपर 'वृत्तिकारै: कृतं' दे सकते थे । इससे श्लोककी रचनामें कोई क्षति भी नहीं होती । किन्तु विद्यानन्दको यह सब इष्ट ही नहीं था । वे असन्दिग्ध रूपमें उक्त स्त्रोत्रको तत्त्वार्थशास्त्रका मानते थे और उसे शास्त्रकार --- न कि वृत्तिकार रचित स्वीकार करते थे और शास्त्रकार या सूत्रकारसे उन्हें आ० गृद्धपिच्छ ( उमास्वामी ) ही अभिप्रेत थे ।
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