________________
समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १ उपायस्वरूप आगमतीर्थके प्रवर्तक माने जाते हैं, तब वे सब भी आप्त-सर्वज्ञ ठहरते हैं, अतः तीर्थकरत्व हेतु भी व्यभिचार-दोषसे दूषित है। और यदि सभी तीर्थंकरोंको आप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात भी नहीं बनती; क्योंकि ) तीर्थंकरोंके आगमोंमें परस्पर विरोध पाया जाता है, जो कि सभीके आप्त होनेपर न होना चाहिए। अतः इस विरोधदोषके कारण सभी तीर्थंकरोंके आप्तता-निर्दोष-सर्वज्ञता-घटित नहीं होती।
(इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन . परस्पर-विरुद्ध आगमके प्ररूपक सभी तीर्थंकरोंमें कोई एक भी आप्त नहीं है और यदि है तो वह कौन है ? इसका उत्तर इतना ही है कि ) उनमें कोई तीर्थकर आप्त अवश्य हो सकता है और वह वही पुरुष हो सकता है जो चित् ही हो-चैतन्यके पूर्ण विकासको लिए हुए हो, अर्थात् जिसमें दोषों तथा आवरणोंकी पूर्णतः हानि होकर शुद्ध चैतन्य निखर आया हो ।'
दोषों तथा आवरणोंकी पूर्णतः हानि संभव दोषाऽऽवरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।४।। '( यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसमें अज्ञान-रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म-आवरणोंकी पूर्णतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि ) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहीं-कहीं सातिशय हानि देखने में आती है--अनेक पुरुषोंमें अज्ञान तथा राग-द्वेष-काम-क्रोधादिक दोषोंकी एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहुत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेषमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पूर्णतः अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि ( सुवर्णादिकमें ) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य और अन्तरंग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org