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देवागम-आप्तमीमांसा
इससे प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्दके समयमें जैनवाङ्मयमें दर्शनका रूप तो आने लगा था, पर उसका अभी विकास नहीं हो सका था। आ० गृद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्रमें कुन्दकुन्दद्वारा प्रदर्शित दर्शनके रूपमें कुछ वृद्धि मिलती है। एक तो उन्होंने प्राकृतमें सिद्धान्त-प्रतिपादनकी पद्धतिको संस्कृत-गद्य सूत्रोमें बदल दिया। दूसरे, उपपत्तिपूर्वक सिद्धान्तोंका निरूपण आरम्भ किया। तीसरे, आगम-प्रतिपादित ज्ञानमार्गणागत मत्यादि ज्ञानोंको प्रमाण-संज्ञा देना. उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद करना, दर्शनान्तरोंमें पथक प्रमाणरूपमें स्वीकृत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और अनुमानको मतिज्ञान कहकर उनका ‘आद्य परोक्षम्' (त० सू० १-११) सूत्रद्वारा परोक्षप्रमाणमें ही अन्तर्भाव करना और नैगमादि नयोंको अर्थाधिगमका उपाय बताना आदि नया चिन्तन प्रारम्भ किया। इतना होनेपर भी दर्शनमें उन एकान्तवादों, संघर्षों और अनिश्चयोंका तार्किक समाधान नहीं आ पाया था, जो उस समयकी चर्चाके विषय थे। ( ख ) तत्कालीन स्थिति :
विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीका समय भारतवर्षके इतिहासमें दार्शनिक क्रान्तिका समय रहा है। इस समय विभिन्न दर्शनोंमें अनेक क्रान्तिकारी विद्वान हुए हैं । श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराओंमे अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनि जैसे प्रतिद्वन्द्वी विद्वानोंका आविर्भाव हुआ और ये सभी अपने मंडन और दूसरेके खंडनमें लग गये। शास्त्रार्थों की बाढ़-सी आ गई। सदाद-असद्वाद, शाश्वतवाद-उच्छेदवाद, अद्वैतवाद-द्वैतवाद और अवक्तव्यवाद-वक्तव्यवाद इन चार विरोधी युगलोंको लेकर तत्त्वकी मुख्यतया चर्चा होती थी और उनका चार कोटियोंसे विचार किया जाता था । तथा वादियोंका अपनी इष्ट एक-एक कोटि (पक्ष) को ही माननेका आग्रह रहता था। इस खींचतानके कारण अनिश्चय ( अज्ञान )
१. 'सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । __ सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते ।।
स्वयम्भू० श्लो० १०१।
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