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देवागम-आप्तमीमांसा
(ग) समन्तभद्रकी देन
समन्तभद्रने प्रतिपादन किया कि तत्त्व उक्त चार ही कोटियोंमें समाप्त नहीं हैं, अपितु सात कोटियोंमें वह पूर्ण होता है । उन्होंने स्पष्ट किया कि तत्त्व तो अनेकान्तरूप है-एकान्तरूप नहीं और अनेकान्त विरोधी दो धर्मों ( सत्-असत्, शाश्वत-अशाश्वत, एक-अनेक आदि ) के युगलके आश्रयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धर्मीका समुच्चय है। और ऐसे-ऐसे अनन्त सप्तधर्म-समुच्चय विराट अनेकान्तात्मक तत्त्व-सागरमें अनन्त लहरोंकी तरह लहरा रहे हैं और इसीसे उसमें अनन्त सप्तकोटियाँ ( सप्तभङ्गियाँ) भरी पड़ी हैं। हाँ, द्रष्टाको सजग और समदृष्टि होना चाहिए। उसे यह ध्यान रहे कि वक्ता या ज्ञाता तत्त्वको जब अमुक एक कोटिसे कहता या जानता है तो तत्त्वमें वह धर्म अमुक अपेक्षा से रहता हुआ भी अन्य धर्मोका निषेधक नहीं है। केवल वह विवक्षावश १. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः ।
सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।। आप्तमी० का० १०४ । २. (अ) 'तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम'-युक्त्यनु० ४६ । (आ) एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि तत्त्वं प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभावम् ।
स्वयम्भू० ४१ । (इ) न सच्च नासच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्वनिषेधगम्यम् । दृष्टं विमिश्रं तदुपाधिभेदात् स्वप्नेऽपि नैतत्त्वदृषः परेषाम् ।।
-युक्त्य० ३२ । ३. (क) विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव । त्रयो विकल्पास्तव सप्तधाऽमी स्याच्छब्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ॥
-युक्त्य ० ४५ । (ख) विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत्
विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयश्चापरिमितैः । सदन्योन्यापेक्षः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा . त्वया गीतं तत्त्वं बहुनयविवक्षेतरवशात् ।।
स्वयम्भू० ११८ ।
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