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प्रथम परिच्छेद देवागमादि विभूतियाँ आप्त-गुरुत्वकी हेतु नहीं दवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ (हे वीरजिन !) देवोंके आगमनके कारण-स्वर्गादिकके देव आपके जन्मादिक कल्याणकोंके अवसरपर आपके पास आते हैं इसलिए-आकाशमें गमनके कारण-गगनमें बिना किसी विमानादिकी सहायताके आपका सहज-स्वभावसे विचरण होता है इस हेतु-और चामरादि-विभूतियोंके कारण-चुंवर, छत्र, सिंहासन, देवदुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, अशोकवृक्ष, भामण्डल और दिव्यध्वनि-जैसे अष्ट प्रातिहार्योंका तथा समवसरणकी दूसरी विभूतियोंका आपके अथवा आपके निमित्त प्रादुर्भाव होता है इसकी वजहसे-- आप हमारे-मुझ-जैसे परीक्षा-प्रधानियोंके-गुरु-पूज्य अथवा आप्तपुरुष नहीं हैं भले ही समाजके दूसरे लोग या अन्य लौकिक जन इन देवागमनादि अतिशियोंके कारण आपको गुरु, पूज्य अथवा आप्त मानते हों। क्योंकि ये अतिशय मायावियोंमें-मस्करिपूरणादि इन्द्रजालियोंमें ... भी देखे जाते हैं। इनके कारण ही यदि आप गुरु, पूज्य अथवा आप्त हों तो वे मायावी इन्द्रजालिये भी गुरु, पूज्य तथा आप्त ठहरते हैं; जब कि वे वैसे नहीं हैं। अतः उक्त कारण-कलाप व्यभिचार-दोषसे दूषित होनेके कारण अनैकान्तिक हेतु है, उससे आपकी गुरुता एवं विशिष्टताको पृथक
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