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देवागम - आप्तमीमांसा
द्वारा भी वस्तुमें नित्यता ( ध्रौव्य ) और अनित्यता ( उत्पाद व्यय) दोनोंको
प्रतीतिसिद्ध बतलाया गया है । चतुर्थ परिच्छेद :
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चौथे परिच्छेद में ६१-७२ तक १२ कारिकाएँ हैं, जिनके द्वारा भेद और अभेदका विचार किया गया है । ६१-६६ तक ६ कारिकाओं में भेद ( अन्यता ) वादी वैशेषिकोंकी एकान्त भेद - मान्यताकी समीक्षा की गई है । कहा गया है कि यदि कार्य और कारणमें, गुण और गुणीमें तथा - सामान्य और सामान्यवानों ( द्रव्य-गुण-कर्म ) में सर्वथा अन्यत्व ( भेद ) माना जाय तो एक (कार्य - अवयवी आदि) का अनेकों (कारणों - अवयवों आदि) में रहना ( वृत्ति) सम्भव नहीं है; क्योंकि प्रश्न उठता है कि वह एक अनेकोंमें प्रत्येक में अंशरूपसे रहता है या सम्पूर्णरूपसे ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं, कारण कि उस एकके अंशोंको नहीं माना है— उसे निरंश स्वीकार किया गया है । द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि जितने कारण (अवयव) होंगे उतने ही कार्य ( अवयवी ) मानना पड़ेंगे । यदि उस एक ( अवयवी ) में अंश- कल्पना करें, जो यथार्थ में स्वकीय सिद्धान्तविरुद्ध है, तो फिर उसे एक कैसे कहा जा सकता है— उसे सांश ( अनेक ) ही प्रतिपादन करना चाहिए। इस तरह सर्वथा भेदवाद में यह वृत्ति - दोष अनिवार्य है— जिसे दूर नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार इस भेदवाद में सामान्य व समवायसम्बन्धकी, जिन्हें भिन्न पदार्थ स्वीकार किया है, अपने आश्रयोंमें वृत्ति नहीं बनती । कारण यह है कि जिन नाशशील एवं उत्पादशील व्यक्तियों ( घट-पट गौ आदि ) में उन दोनों की स्थिति स्वीकार की गई है उनके नाश या उत्पाद होनेपर उन दोनोंका न नाश होता है और न उत्पाद | ऐसी स्थिति में आश्रयके बिना आश्रयी (सामान्य तथा समवाय) कहाँ और कैसे रहेंगे ? जब कि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति में सम्पूर्ण रूपसे रहनेवाला तथा नित्य और निष्क्रिय माना गया है । निष्क्रिय होनेसे वे नाशशील व्यक्तिके नाश और उत्पादशील व्यक्तिके उत्पाद के समय अन्यत्र ( दूसरे व्यक्तियों में ) जा नहीं सकते तथा नित्य होनेसे वे व्यक्ति के साथ न नष्ट हो सकते हैं और न उत्पन्न | अतः
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