________________
प्रस्तावना
क्रमशः उनसे पुण्यास्रव और पापास्रव होता है। यदि ऐसा नहीं है तो जो दोष ऊपर दिया गया हैं उसका होना दुनिवार है । यथार्थमें पुण्य और पाप अपनेको या परको सुख-दुःख पहुँचाने मात्रसे नहीं होते हैं, अपितु अपने शभाशुभ परिणामोंपर उनका होना निर्भर है। जो सुख-दुःख शुभ परिणामोंसे जन्य हैं या उनके जनक हैं उनसे तो पुण्यका आस्रव होता है और जो अशुभपरिणामोंसे जन्य या उनके जनक हैं वे नियमसे पापास्रवके और कारण या कार्य हैं । यह वस्तुव्यवस्था है। इस प्रकार स्याद्वादमें ही पुण्य पापकी व्यवस्था बनती हैं, एकान्तवादमें नहीं । दशम परिच्छेद :
इस अन्तिम परिच्छेदमें ९६-११४ तक बीस कारिकायें हैं । कारिका ९६ के द्वारा सांख्यदर्शनके उस सिद्धान्तकी समीक्षा की गई है जिसमें कहा गया है कि 'अज्ञानसे बन्ध होता है और ज्ञानसे मोक्ष' । परन्तु यह सिद्धान्त युक्त नही है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त हैं और इसलिए किसी-न-किसी ज्ञेय का अज्ञान बना रहेगा । ऐसी स्थिति में कभी भी कोई पुरुष केवली नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पज्ञान ( प्रकृति-पुरुषका विवेक मात्र ) से मोक्ष मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अल्पज्ञानके साथ बहुत-सा अज्ञान भी रहेगा । ऐसी दशामें बन्ध ही होगा, मोक्ष कभी न हो सकेगा । इस प्रकार विचार करनेपर ये दोनों ही एकान्त दोषपूर्ण हैं और इसलिए वे ग्राह्य नहीं है।
९७ के द्वारा उभयकान्तमें विरोध और आवाच्यतैकान्तमें 'अवाच्य' शब्दके द्वारा भी उसका निर्देश न हो सकनेका दोष दिया गया है।
९८ के द्वारा स्याद्वादसे बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था बतलाते हुए कहा है कि मोहसहित अज्ञानसे बन्ध होता है, मोहरहित अज्ञानसे नहीं । इसी तरह मोहरहित अल्पज्ञानसे मोक्ष सम्भव है और मोहसहित अल्पज्ञानसे नहीं। अतः बन्धका कारण केवल अज्ञान नहीं है और न मोक्षका कारण केवल अल्पज्ञान है । यथार्थमें मोहके सद्भावमें बन्ध और मोहके अभावमें मोक्ष अन्वय-व्यतिरेकसे सिद्ध होते हैं । अज्ञानका बन्धके साथ और ज्ञानका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org