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प्रस्तावना
२७
गमकी कारिकाओं और उनके प्रत्येक पद-वाक्यादिका विस्तारपूर्वक अर्थोद्घाटन किया है । साथ ही उपर्युक्त अष्टशतीके प्रत्येक पदवाक्यादिका भी विशद अर्थ एवं मर्म प्रस्तुत किया है। अष्टशतीको अष्टसहस्रीमें इस तरह
आत्मसात् कर लिया गया है कि यदि दोनोंको भेद-सूचक पृथक्-पृथक् टाइपोंमें न रखा जाय तो पाठकको यह जानना कठिन है कि यह अष्टशतीका अंश है और यह अष्टसहस्रीका। विद्यानन्दने अष्टशतीके आगे, पीछे और मध्यकी आवश्यक एवं अर्थोपयोगी सान्दर्भिक वाक्यरचना करके अष्टशतीको अष्टसहस्रीमें मणि-प्रवाल न्यायसे अनुस्यूत किया है और अपनी तलस्पर्शिनी अद्भुत प्रतिभाका चमत्कार दिखाया है। वस्तुतः यदि विद्यानन्द यह देवागमालंकृति न रचते तो अष्टशतीका गूढ़ रहस्य अष्टशतीमें ही छिपा रहता और मेधावियोंके लिए वह रहस्यपूर्ण बनी रहती। देवागम
और अष्टशतीके व्याख्यानोंके अतिरिक्त इसमें विद्यानन्दने कितना ही नया विचारपूर्ण प्रमेय और अपूर्व चर्चाएं भी प्रस्तुत की हैं । व्याख्याकारने अपनी इस व्याख्याके महत्त्वको उद्घोषणा करते हुए लिखा है'हजार शास्त्रोंका पढ़ना-सुनना एक तरफ है और एकमात्र इस कृतिका अध्ययन एक ओर है; क्योंकि इस एकके अभ्याससे ही स्वसमय और परसमय दोनोंका ज्ञान हो जाता है।' व्याख्याकारकी यह घोषणा न मदोक्ति है और न अतिशयोक्ति । अष्टसहस्री स्वयं इसकी निर्णायिका है । देवागममें यतः दश परिच्छेद हैं अतः उसके व्याख्यानस्वरूप अष्टसहस्रीमें भी दश परिच्छेद हैं । प्रत्येक परिच्छेदका आरम्भ और समाप्ति दोनों एकएक गम्भीर पद्य द्वारा किये गये हैं। इसपर लघुसमन्तभद्र (१३वीं शती) ने 'अष्ठसहस्री-विषमपदतात्पर्यटोका' और श्वेताम्बर विद्वान् यशोविजय (१७वीं शती) ने 'अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण' नामकी व्याख्याएँ लिखी हैं, जो अष्टसहस्रीके विषमपदों, वाक्यों और स्थलोंका स्पष्टीकरण करती हैं। यह देवागमालंकृति कोई ५२ वर्ष पूर्व सन् १९१५ में सेठ नाथारङ्गजी गांधी द्वारा एक बार प्रकाशित हो चुकी है। पर वह अब अप्राप्य है । अब आधुनिक सम्पादनके साथ इसका दूसरा शुद्ध संस्करण प्रकट होना चहिये।
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