________________
२९
है कि प्रस्तुत वृत्ति में न कहीं अष्टशतीके पदवाक्यादिका निर्देश मिलता है और न कहीं अष्टसहस्त्रीके । अस्तु । यह देवागमवृत्ति कलकत्ताकी सनातन जैन ग्रन्थमाला द्वारा सन् १९१४ में एक बार प्रकाशित हो चुकी है । यह अब अच्छे संस्करण के रूपमें पुनः मुद्रित होना चाहिए ।
(घ) देवागम - रचनाका मूलाधार :
ऊपर देवागम और उसकी व्याख्याओंका परिचय देनेके बाद उसकी रचनाके मूलाधारपर भी यहाँ विचार किया जाता है ।
प्रस्तावना
आ. विद्यानन्दका जैन वाङ्मयमें सम्मानपूर्ण स्थान है और उनकी कृतियोंको आप्त-वचन जैसा माना जाता है । इन विद्यानन्दके उल्लेखानुसार स्वामी समन्तभद्रने देवागमकी रचना तत्त्वार्थ सूत्रके आरम्भमें स्तुत आप्तकी मीमांसा के लिये की थी । उनके वे उल्लेख निम्न प्रकार हैं :( १ ) ' शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसिशं कृति ...... अष्टस. आदिमङ्गलश्लो. १, पृ. १ । ( २ ) 'शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभृद्भेतृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरा परीक्षेयं विहिता ।'
"
अष्टस. पृ० २९४ ।
( ३ ) श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथित - पृथु-पथं स्वामि-मीमांसितं तत् विद्यानन्दः स्वशक्त्या
11 आप्तप० का. १२३, पृ० २६५ । ( ४ ) '''''इति संक्षेपतः शास्त्रादौ परमेष्ठिगुणस्तोत्रस्य मुनिपुङ्गवै - विधीयमानस्यान्वयः सम्प्रदायाव्यवच्छेदलक्षण: पदार्थघटनालक्षणो वा लक्षणीयः, प्रपञ्चतस्तदन्वयस्याक्षेप समाधानश्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिर्देवागमाख्याप्तमीमांसायां
- आप्तप० का ० १२०, पृ० २६१-२६२ ।
लक्षणस्य
प्रकाशनात् । '
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org