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प्रस्तावना
स्यानुपपत्तेः । शास्त्रन्यायानुसारितया तथैवोपन्यासात् ।'
अष्टश० अष्टस० पृ० २ । __ विद्यानन्दने अकलङ्कदेवके इस प्रतिपादन और अपने उक्त कथनका इसी अष्टसहस्री (पृ० ३) में समन्वय भी किया है और इस तरह अपने निरूपणको उन्होंने परम्परागत सिद्ध करके उसमें प्रामाण्य स्थापित किया है। (ङ) 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' स्तोत्र तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण :
जहाँ विद्यानन्द और अकलङ्कदेवके उपर्युक्त उल्लेखोंसे सिद्ध है कि स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा 'मोक्षमर्गस्य नेतारम्' आदि स्तोत्रके व्याख्यानमें लिखी गई है वहाँ विद्यानन्दके ही उक्त उल्लेखोंपरसे यह भी स्पष्ट है कि वे उक्त स्तोत्रको तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थशास्त्रका मंगलाचरण मानते हैं। तथा तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थशास्त्रसे उन्हें आचार्य गृद्धपिच्छरचित दशाध्यायी तत्त्वार्थसूत्र ही विवक्षित है।' इस सम्बन्धमें पर्याप्त ऊहापोह एवं विस्तारपूर्वक विचार अन्यत्र किया जा चुका है । परन्तु कुछ विद्वान विद्यानन्दके उक्त उल्लेखोंका साभिप्राय अर्थविपर्यास करके उसे सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद-देवनन्दिकी रचना बतलाते हैं ।
१. (क) कथं पुनस्तत्त्वार्थः शास्त्रं येन तदारम्भे परमेष्ठिनामाध्यानं
विधीयत इति चेत् तल्लक्षणयोगत्वात् ।'"तच्च तत्त्वार्थस्य दशाध्यायीरूपस्यास्तीति शास्त्रं तत्त्वार्थः ।' -त० श्लो० पृ० २ । (ख) 'इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा ।'-आप्त० १२४ । (ग) दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति ।।
फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवः ॥ २. 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक लेखकके दो लेख, अनेकान्त वर्ष
५, किरण ६-७, १०-११ । ३. 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्, के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दि', शीर्षक लेख,
मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ पृ० ५६३ ।
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