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प्रस्तावना
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के परहितसम्पादनप्रवण हृदयका और उनकी दर्शनविशुद्धि, प्रचनवात्सल्य तथा मार्गप्रभावना जैसी उच्च भावनाओंका परिचय मिलता है। . (ग) देवागमकी व्याख्याएँ :
ऊपर देवागम और उसके प्रतिपाद्य विषयका कुछ परिचय दिया गया है । अब उसकी व्याख्याओंका भी परिचय देनेका प्रयास किया जाता है।
देवागमपर तीन व्याख्याएँ उपलब्ध हैं'-१. देवागम-विवृति (अष्टशती-भाष्य), २. देवागमालङ्कार (आप्तमीमांसालङ्कार-अष्टसहस्री) और ३. देवागमवृत्ति । १. देवागम-विवृति :
इसके रचयिता आ० अकलङ्क देव हैं। यह देवागमकी उपलब्ध व्याख्याओंमें सबसे प्राचीन और अत्यन्त दुरूह व्याख्या है। परिच्छेदोंके अन्तमें जो समाप्ति-पुष्पिकावाक्य पाये जाते हैं उनमें इसका आप्तमीमांसा
१. आ० विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके अन्तमें आ० अकलङ्कदेवके समाप्तिमङ्गलसे पूर्व 'केचित्' शब्दोंके साथ देवागमके किसी व्याख्याकारका 'जयति जगति' आदि समाप्ति-मङ्गल पद्य दिया है। उससे प्रतीत होता है कि अकलङ्कदेवसे पूर्व भी देवागमपर किसी आचार्यकी व्याख्या रही है, जो विद्यानन्दको प्राप्त थी या उसकी उन्हें जानकारी थी और उसपरसे ही उन्होंने उल्लिखित समाप्ति-मङ्गलपद्य दिया है। लघुसमन्तभद्र (वि० सं० १३वीं शती) ने वादीसिंहद्वारा देवागम ( आप्तमीमांसा) के उपलालन-व्याख्यान करनेका उल्लेख अष्टसहस्री-टिप्पण (१० १) में किया है। पर वह भी आज अनुपलब्ध है। देवागमके महत्त्व और विश्रुतिको देखते हुए आश्चर्य नहीं कि उसपर विभिन्न कालोंमें विविध टीका-टिप्पणादि लिखे गये हों। अकलङ्कदेवने अष्टशती ( का० ३३ की विवृति ) में एक स्थानपर 'पाठान्तरमिदं बहु संगृहीतं भवति' शब्दोंका प्रयोग करके देवागमके पाठभेदों और उसकी अनेक व्याख्याओंकी ओर स्पष्ट संकेत किया है ।
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