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प्रस्तावना
प्रकार प्रतिषेधवाक्य भी अपने विवक्षित प्रतिषेध धर्मका कथन करनेके साथ अविनाभावी विधि धर्मका भी मौन ज्ञापन करता है उसका निरास या उपेक्षा करके केवल निषेधको ही सूचित नहीं करता। इसका कारण यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मा है-तद् और अतद् इन विरोधो धर्मों को अपनेमें समाये हुए है । अतः कोई भी वाक्य उसके इस स्वरूपका लोप करके मनमानी नहीं कर सकता । हाँ, वह अपने विवक्षित वाच्यका मुख्यतया और शेषका गौणरूपसे अवगम कराता है। इसी तथ्यको प्रस्तुत करनेके लिए स्याद्वाददर्शनमें वक्ता द्वारा बोले गये प्रत्येक वाक्यमें 'स्यात्' निपात-पद कहीं प्रकट और कहीं अप्रकट रूपसे अवश्य रहता है। यदि विधिवाक्य या निषेधवाक्य केवल विधि या केवल निषेधके ही नियामक हों तो अन्य विरोधी धर्मका लोप होनेसे उसका अविनाभावी अभिधेय धर्मका भी अभाव हो जायेगा और तब वस्तुमें कोई भी धर्म ( विशेषण ) न रहने पर वह अविशेष्य ( शून्य ) हो जायगी।
११०-११३ तक चार कारिकाओंके द्वारा वाच्यके स्वरूपमें अङ्गीकृत एकान्तवादियोंके अभिनिवेशोंकी समीक्षा करते हए स्याद्वादसे वाच्यके भी स्वरूपकी स्थापना की है। ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रत्येक वचन (वाक्य) तद् और अतद् रूप वस्तुको कहता है, यह हम ऊपर देख चुके हैं, तो 'तद्प ही वस्तु है' ऐसा कथन करने वाला वचन सत्य नहीं है और जब वह सत्य नहीं तब असत्य वाक्योंके द्वारा तत्त्वार्थ ( यथार्थ वस्तु) का उपदेश कैसे हो सकता है ? विधिवादियोंको इसपर गम्भीरतासे विचार करना चाहिए।
'अन्य नहीं' इतना ही प्रत्येक वचन सूचन करते हैं, यह एकान्त मान्यता भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि वाणीका स्वभाव है कि वह अन्य वचन द्वारा प्रतिपाद्य अर्थका निषेध करती हई अपने अर्थ सामान्यका भी प्रतिपादन करती है। जो वाणी ऐसी नहीं है वह खपुष्पके समान मिथ्या है।
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