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देवागम - आप्तमीमांसा
मोक्षके साथ अन्वयव्यभिचार तथा व्यतिरेकव्यभिचार होनेसे उनका उनके साथ न अन्वय हैं और न व्यरिरेक । और जब उनका उनके साथ अन्वयव्यतिरेक नहीं है तो उनमें कार्यकारणभाव भी नहीं बन सकता । अतः मोहसहित अज्ञानसे बन्ध और मोहरहित थोडेसे भी ज्ञानसे मोक्षको व्यवस्था मानी जानी चाहिए ।
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कारिका ९९ में उनकी समीक्षा अन्तर्निहित है जो प्राणियोंकी अनेक प्रकारकी इच्छादि सृष्टिको ईश्वरकृत मानते हैं— उसे उनके शुभाशुभकर्मजन्य स्वीकार नहीं करते । ग्रन्थकार कहते हैं कि प्राणियोंकी इच्छा दि विचित्र सृष्टि उनके स्वकर्मानुसार होती है, ईश्वर उसका कर्त्ता नहीं है । और उनका वह कर्म उनके शुभाशुभ परिणामोंसे अर्जित होता है, क्योंकि समस्त संसारी जीव शुद्धि (शुभ परिणाम) और अशुद्धि (अशुभ परिणाम ) की अपेक्षासे दो भागों में विभक्त हैं ।
उल्लिखित शुद्धि और अशुद्धि ये शक्तियाँ हैं जो उनमें पाक्य और अपाक्य हैं, यह कारिका १०० में प्रतिपादन है ।
दोनों जीवोंकी एक प्रकारकी शक्तियोंकी तरह नैसर्गिक होती
कारिका १०१ में जैन प्रमाणका स्वरूप और उसके अक्रमभावि तथा क्रमभावि ये दो भेद निर्दिष्ट हैं ।
कारिका १०२ में प्रमाणफलका निर्देश करते हुए उसे दो प्रकारका बतलाया है—एक साक्षात्फल और दूसरा परम्पराफल । अक्रमभावि ( केवल ) प्रमाणका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफल उपेक्षा ( वस्तुओं में रागद्वेषका अभाव ) है । क्रमभावि प्रमाणका भी साक्षात्फल अज्ञाननाश है और परम्पराफल हानबुद्धि, उपादानबुद्धि तथा उपेक्षाबुद्धि है |
कारिका १०३ में सूचित किया है कि वक्ता के प्रत्येक वाक्यमें उसके आशयका बोधक 'स्यात्' निपातपद प्रकट या अप्रकट रूप में अवश्य विद्यमान रहता है जो एक धर्म ( बोध्य ) का बोधक (वाचक) होता हुआ अन्य अनेक धर्मों (अनेकान्त) का द्योतक होता है । यह बात सामान्य वक्ताके
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