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प्रस्तावना
यदि उसकी निष्पत्ति अन्य दैवसे कही जाय तो मोक्ष कभी किसीको हो ही नहीं सकेगा, क्योंकि वह अन्य दैव पूर्व देवसे उत्पन्न होगा और वह पूर्व दैव भी और पूर्ववर्ती देवसे होगा और इस तरह पूर्व-पूर्व देवोंका जहां तांता बना रहेगा वहाँ पौरुष निष्फल सिद्ध होगा।
८९ वीं कारिकाके द्वारा सर्वथा पौरुषवादको भी दोषपूर्ण बतलाते हुए कहा गया है कि यदि सर्वथा पौरुषसे ही सभी इष्टानिष्ट वस्तुओंकी निष्पत्ति हो तो पौरुष किससे उत्पन्न होता है, यह बताया जाय ? दैवसे तो उसकी उत्पत्ति कही नहीं जा सकती; क्योंकि 'पौरुषसे ही सब पदार्थोंकी सिद्धि होती है' यह प्रतिज्ञा टूट जाती है । अगर अन्य पौरुषसे उसकी निष्पत्ति कही जाय तो किसी भी प्राणीका पौरुष (प्रयत्न ) निष्फल नहीं होना चाहिए- सभीका पौरुष सफल होना चाहिए । पर ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः देवैकान्तकी तरह पौरुषकान्त भी सदोष है और इसलिए वह भी ग्राह्य नहीं है।
कारिका ९० के द्वारा उभयैकान्तमें विरोध और अनुभयैकान्तमें 'अनुभय' शब्दसे भी उसका प्रतिपादन न हो सकनेका दोष पूर्ववत् बताया गया है।
कारिका ९१ के द्वारा स्याद्वादसे पदार्थोंकी सिद्धि की गई है। जहाँ इष्टानिष्ट वस्तुओंका समागम बुद्धिव्यापारके बिना मिलता है वहाँ उनकी प्राप्ति देवसे है और जहाँ उनका गमागम बुद्धिव्यापारपूर्वक होता है वहाँ पौरुषकृत है। ___इस प्रकार इस परिच्छेदमें देवैकान्त, पौरुषैकान्त आदि एकान्तोंको त्रुटिपूर्ण बतलाते हुए उनमें स्याद्वादसे वस्तुसिद्धिकी व्यवस्था की गई है और यहाँ भी पूर्ववत् सप्तभङ्गीकी योजना दिखलाई है। नवम परिच्छेद : ___ इस परिच्छेदमें पिछले परिच्छेदमें वर्णित दैवकारकोपायतत्त्वके पुण्य और पाप ये दो भेद करके उनकी स्थितिपर विचार किया गया हैं। पुण्य ।
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