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देवागम - आप्तमीमांसा
कहा है और कारिका ६७ के द्वारा उसकी भी समीक्षा की है ।' उन्होंने इस मान्यतामें दोषोद्घाटन करते हुए बताया है कि यदि अणु द्वयणु कादि संघातदशा में भी उसी प्रकारके बने रहते हैं जिस प्रकार वे विभागके समय हैं; ( क्योंकि उनमें अन्यता भिन्नरूपता नहीं होती, अन्यथा उनमें अनित्यताका प्रसंग आयेगा ), तो वे असंहत ( अमिश्र - बिना मिले ) ही रहेंगे और उस हालत में अवयवीरूप पृथिवी आदि चारों भूत भ्रान्त ( मिथ्या ) ही होंगे । और जब पृथिवी आदि अवयवीरूप कार्य भ्रान्त ठहरते हैं तो उनके जनक परमाणु भी भ्रान्त स्वतः सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि कार्य निश्चय ही अनुरूप कारणकी ही सूचना करता है । इस तरह वैशेषिकोंके अनन्यतैकान्तमें न वास्तविक पृथिव्यादिरूप अवयवी बनता है और न वास्तविक उनके कारणरूप परमाणु ही सिद्ध होते हैं तथा इन दोनोंके न बननेपर उनमें रहनेवाले गुण, जाति ( सामान्य ), विशेष समवाय और कर्म ये कोई भी पदार्थ घटित नहीं होते ।
आगे कारिका ६८के द्वारा सांख्योंके अनन्यतैकान्त ( अभेदैकान्त ) की भी आलोचना करते हुए कहा गया है कि यदि कार्य ( महदादि ) और कारण ( प्रधान ) दोनोंमें सर्वथा अनन्यता ( अभेद ) हो, तो उनमेंसे एकका अस्तित्व रहेगा, दूसरेका अभाव हो जायेगा । फलतः वह एक भी दूसरेका अविनाभावी होनेसे उसके अभाव में न रह सकेगा । इसके अतिरिक्त इस अभेदैकान्तमें कार्य और कारणकी लोकप्रसिद्ध द्वित्वसंख्या कभी भी उपलब्ध न होगी । यदि उसे संवृतिसे माना जाय तो वह संवृति मिथ्या ही है और इसलिए संवृति तथा शून्यता दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है ।
कारिका ७० के द्वारा सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद दोनोंके स्वीकार में विरोध तथा न सर्वथा भेद और न सर्वथा अभेद अर्थात् अनुभय (अवाच्य ) मानने में 'अवाच्य' शब्द द्वारा भी उसका निरूपण न हो सकनेका दोष प्रदर्शित किया गया है ।
१. अष्टसहस्री ( पृ० २२२ ) में इस ६७वीं कारिकाके उत्थानिकावाक्यके आरम्भिक 'अपरः प्राह' पदपर टिप्पण देते हुए टिप्पणकारने जो उसका अर्थ 'सौगतः' दिया है वह ठीक नहीं है । यहाँ सारा सन्दर्भ वैशेषिक का है, सौगतोंका नहीं ।
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