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देवागम-आप्तमीमांसा
ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है । पर बाह्य प्रमेयकी अपेक्षा प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों है । जिस ज्ञानका बाह्य प्रमेय ज्ञात होनेके बाद वही उपलब्ध होता है वह प्रमाण है तथा जिसका बाह्य प्रमेय ज्ञात होनेके बाद वही उपलब्ध नहीं होता, अपितु अन्य मिलता है वह प्रमाणाभास है। इस तरह स्वरूपसंवेदनकी अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण है, कोई प्रमाणाभास नहीं हैं। किन्तु बाह्य प्रमेयकी सत्यतासे प्रमाण और असत्यतासे प्रमाणाभास हैं। अतः प्रमाण और प्रमाणाभासकी व्यवस्था अन्तरङ्गार्थ (ज्ञान) और बाह्यार्थ दोनोंको स्वीकार करनेसे होती है, किसी एकसे नहीं। यही अनेकान्तरूप वस्तुतत्त्व है जिसकी स्याद्वादसे उक्त प्रकार व्यवस्था होती है ।
कारिका ८४ के द्वारा उन (बौद्धों) का समाधान किया गया है जो बाह्यार्थ नहीं मानते, केवल उसकी शाब्दिक (काल्पनिक) प्रतीति स्वीकार करते हैं। उनके लिए कहा गया है कि कोई भी शब्द क्यों न हो, उसका वाच्य बाह्यार्थ अवश्य होता है। उदाहरणार्थ जीवशब्दको ही लीजिए, उसका वाच्य बाह्यार्थ अवश्य है क्योंकि बह एक संज्ञा है। जो संज्ञा होती है उसका वाच्य बाह्यार्थ अवश्य होता है, जैसे हेतुशब्द अपने वाच्य हेतुरूप बाह्यार्थको लिए हुए है। यह भी उल्लेखनीय है कि जीवशब्दका प्रयोग शरीरमें या इन्द्रियों आदिके समूहमें नहीं होता, क्योंकि ऐसी लोकरूढि नहीं है । 'जीव गया, जीव मौजूद है' इस प्रकारका जिसमें व्यवहार होता है उसीमें यह लोकरूढ़ि नियत है। कोई भी व्यक्ति यह व्यवहार न शरीरमें करता है, क्योंकि वह अचेतन है, न इन्द्रियोंमें करता है, क्योंकि वे मात्र उपभोगकी साधन हैं और न शब्दादि विषयोंमें करता है, क्योंकि वे भोग्य रूपसे व्यहत होते हैं । वह तो भोक्ता आत्मामें 'जीव' यह व्यवहार करता है। अतः 'जीव' शब्द जीवरूप बाह्यार्थ सहित है। माया, अविद्या, अप्रमा आदि जो भ्रान्तिसूचक संज्ञायें हैं वे भी माया, अविद्या, अप्रमा आदि अपने भावात्मक अर्थोंसे सहित हैं। जैसे प्रमासंज्ञा अपने प्रमारूप अर्थसे सहित है। इन संज्ञाओंको मात्र वक्ताके अभिप्रायको सूचिका भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि श्रोताओंकी जो उन संज्ञाओं (नामों) को सुनकर उस-उस अर्थक्रियामें प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है वह अभिप्रया
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