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देवागम-आप्तमीमांसा
है। अन्यथा किसी भी वस्तुका अपना स्वतंत्र स्वरूप नहीं बन सकेगा। जैसे कर्ताका स्वरूप कर्मापेक्ष और कर्मका स्वरूप कत्रपेक्ष नहीं है तथा बोधकका स्वरूप बोध्यापेक्ष और बोध्यका स्वरूप बोधकापेक्ष नहीं है । पर उनका व्यवहार अवश्य परस्पर-सापेक्ष है। उसी प्रकार धर्मधर्मी आदिका स्वरूप तो स्वयं सिद्ध है किन्तु उनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है। इस तरह इस परिच्छेदमें अपेक्षा और अनपेक्षाके विरोधी युगलमें भी सप्तभङ्गीकी योजना करके अनेकान्तकी व्यवस्था की गई है। षष्ठ परिच्छेद
षष्ठ परिच्छेदमें ७६-७८ तक तीन कारिकाओं द्वारा हेतुवाद और अहेतुवादकी एकान्त मान्यताओंमें दोषोद्घाटन करते हुए उनमें सप्तभङ्गीयोजनापूर्वक समन्वय (अनेकान्तस्थापन) किया गया है।
__ कारिका ७६ में सर्वथा हेतुवादसे वस्तुसिद्धि मानने पर प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे वस्तुज्ञानके अभावका प्रसङ्ग तथा आगमसे सर्वसिद्धि स्वीकार करनेपर परस्पर विरुद्ध सिद्धान्तोंके प्रतिपादक वचनोंसे भी विरोधी तत्त्वोंकी सिद्धिका प्रसङ्ग दिया गया है ।
कारिका ७७ में पूर्ववत् उभयकान्तमें विरोध और आवाच्यतैकान्तमें 'अवाच्य' शब्दद्वारा भी उसका निर्वचन न कर सकनेका दोष प्रदर्शित है ।
इस परिच्छेदकी अन्तिम ७८ वीं कारिकामें हेतुवाद और अहेतुवाद दोनोंसे वस्तुसिद्धि होनेका निर्देश करते हुए सप्तभङ्गात्मक अनेकान्त प्रदर्शित किया गया है । कहा गया है कि जहाँ आप्त वक्ता न हो वहाँ हेतुसे साध्यकी सिद्धि की जाती है और उस सिद्धिको हेतु-साधित कहा जाता है तथा जहाँ आप्त वक्ता हो वहाँ उसके वचनसे वस्तुकी सिद्धि होती है और वह सिद्धि आगम-साधित कही जाती है । इस प्रकार वस्तु-सिद्धिका अङ्ग उपायतत्त्व ( हेतुवाद और अहेतुवाद ) भी अनेकान्तात्मक है । सप्तम परिच्छेद :
इस परिच्छेदमें ७९-८७ तक ९ कारिकाएँ हैं, जिनके द्वारा ज्ञानैकान्त और बाह्यार्थंकान्त आदि एक-एक एकान्तोंके स्वीकार करनेमें आनेवाले दोषोंको दिखलाते हुए निर्दोष अनेकान्तकी स्थापना की गई है ।
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