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प्रस्तावना
भी नहीं हो सकते । इसी तरह एकान्त नित्य पक्षमें पुरुषकी तरह सत्कार्यकी न उत्पत्ति सम्भव है और न अभिव्यक्ति, क्योंकि सदा विद्यमान रहने से उसमें किसी भी तरहका परिणमन ( परिवर्तन), चाहे वह उत्पत्तिरूप हो और चाहे अभिव्यक्तिरूप, नहीं बन सकता है । पुण्य, पाप, प्रेत्यभाव ( पर्यायान्तर ), बन्ध और मोक्ष ये सब परिणाम भी एकान्त नित्य ( अपरिणामी पुरुषवाद ) में असम्भव हैं । नित्य जब सदा एकरूप ( कूटस्य ) रहेगा तो उसमें कोई विकृति नहीं हो सकती । तथा बिना विकृतिके पुण्यपापादि, जो भिन्न कालोंमें होनेवाली अवस्थाविशेष हैं, कैसे सम्भव हैं, यह विचारणीय है ।
४१-५४ तक चउदह कारिकाओं द्वारा एकान्त अनित्यपक्ष ( क्षणिकवाद) में दोष दिये गये हैं । कहा गया है कि वस्तुको सर्वथा अनित्य (क्षणिक) स्वीकार करनेपर भी उक्त प्रेत्यभावादि नहीं बन सकते, क्योंकि पूर्वापर क्षणोंमें परस्पर अन्वय ( ध्रौव्यात्मक बन्धन - कड़ी ) न होनेके कारण प्रत्यभिज्ञा, स्मरण, अनुभव, अभिलाषा आदि ज्ञानधारा प्रवाहित नहीं हो सकती। ऐसी दशा में न पूर्व क्षणको कारण और न उत्तर क्षणको कार्य कहा जा सकता है । सर्वथा क्षणिकवादमें न असत्कार्य की उत्पत्ति, न कार्यकारणभाव, न हिंस्यहिंसकभाव, न गुरुशिष्यभाव, न पतिपत्नीभाव, न मातृपुत्रभाव, न बद्धमुक्तभाव और न स्कन्धसन्ततियाँ ही बन सकती हैं ।
५५ के द्वारा सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य दोनों (उभयैकान्त) के स्वीकार में विरोध और न सर्वथा नित्य तथा न सर्वथा अनित्य दोनोंके निषेधरूप ( अनुभयैकान्त) में 'अवाच्य' शब्दसे उसका कथन न कर सकने - का दोष प्रदर्शित किया गया है ।
५६-६० तक ५ कारिकाओं द्वारा स्याद्वादनयसे वस्तुको कथञ्चित् नित्य, कथञ्चित् अनित्य, कथञ्चित् उभय, कथञ्चित् अनुभय आदि सप्तभङ्गात्मक अनेकान्त सिद्ध किया है । इस प्रकार इस परिच्छेद में नित्यानित्यके विरोधी युगलकी अपेक्षा पूर्ववत् सप्तभङ्गी दिखायी गई है । उल्लेखनीय है कि दो महत्त्वपूर्ण दृष्टान्तों (लौकिक एवं लोकोत्तर)
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