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देवागम-आप्तमीमांसा स्वीकार करनेपर 'अवाच्य' शब्द द्वारा भी उसका निर्वचन न हो सकनेका दोष प्रदर्शित किया गया है ।
३३-३६ तक ४ कारिकाओं द्वारा स्याद्वादनय ( कथञ्चिद्वाद ) से एक और अनेकके विरोधी युगलकी अपेक्षासे सप्तभङ्गीकी योजना करके वस्तुमें कथंचित् एक और कथंचित् अनेकके अनेकान्तकी स्थापना की
इस प्रकार दूसरे परिच्छेदमें एक ( अद्वैत ) और अनेक (द्वैत ) के बारेमें रूढ़ एकान्त धारणाओंकी समालोचना करके इस युगलकी अपेक्षा बस्तुको सप्तभङ्गात्मक ( अनेकान्तरूप ) सिद्ध किया गया है । तृतीय परिच्छेद :
तृतीय परिच्छेदमें ३७-६० तक २४ कारिकाएँ हैं। ३७-४० तक चार कारिकाओं द्वारा सांख्यदर्शनके एकान्त नित्यवादको आलोचनामें कहा गया है कि प्रधान एवं पुरुषको सर्वथा नित्य स्वीकार करने पर उनमें किसी भी प्रकारके विकारकी सम्भावना नहीं है। क्योंकि उत्पत्तिसे पूर्व न किसीको कारक कहा जा सकता है और न ज्ञप्तिसे पूर्व किसीको प्रमाण कह सकते हैं। अकारकस्वभाव छोड़कर कारकस्वभाव ग्रहण करने रूप उत्पत्ति होने के बाद कारक और अज्ञापकस्वभाव छोड़कर ज्ञापकस्वभाव ग्रहण करनेरूप ज्ञप्ति होनेके अनन्तर ज्ञापक ( प्रमाण ) व्यवहार होता है। एकरूप रहने के कारण एकान्त नित्य ( प्रधान व पुरुष ) से किसीकी उत्पत्ति अथवा ज्ञप्ति आदिरूप कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है और इसलिए उसे न कारक कहा जा सकता है और न प्रमाण । इन्द्रियोंसे जैसे घटादि अर्थकी अभिव्यक्ति होती है वैसे ही प्रधानरूप कारक या प्रमाणसे महदादिकी अभिव्यक्ति होती है, इस प्रकारकी मान्यता भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रमाण तथा कारक दोनोंरूप प्रधान सर्वथा नित्य होनेसे उसका अभिव्यक्तिके लिए भी व्यापार सम्भव नहीं है। अन्यथा अभिव्यक्तिसे पूर्व रहनेवाले अनभिव्यञ्जक स्वभावको छोड़ने तथा व्यञ्जक स्वभावको ग्रहण करनेरूप अवस्थान्तरको प्राप्त करनेसे उसे अनित्य मानना पड़ेगा। अतः महदादि प्रधानसे अभिव्यंग्य (विकार्य)
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