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देवागम - आप्तमीमांसा
'भक्तामर', 'एकीभाव' आदि स्तोत्र 'कल्याणमन्दिर', 'भक्तामर', 'एकीभाव', जैसे आद्य पदोंसे आरम्भ होनेके कारण वे उन नामों से ख्यात हैं उसी प्रकार यह स्तव भी 'देवागम' पदसे आरम्भ होनेसे 'देवागम' नामसे अधिक प्रसिद्ध रहा हो और इसीसे ग्रन्थकारों द्वारा वह इसी नामसे विशेष उल्लिखित हुआ हो । स्तवकारने ' इसका 'आप्तमीमांसा' नाम दिया है, जिसे अकलङ्कदेवने' 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' कहा है । विद्यानन्दनं ३ अपने ग्रन्थोंमें 'देवागम' नामके अतिरिक्त इस 'आप्तमीमांसा' नामका भी उपयोग किया है । इससे मालूम पड़ता है कि यह कृति जहाँ 'देवागम' नामसे जैन साहित्य में विश्रुत है वहाँ वह 'आप्तमीमांसा' नामसे भी । और इस तरह यह महत्त्वपूर्ण रचना दोनों नामोंसे प्रख्यात है । (ख) परिचय :
यह दश परिच्छेदों में विभक्त है और ये परिच्छेद विषय-विभाजनकी दृष्टिसे स्वयं ग्रन्थकारोक्त हैं । ग्रन्थकारकी यह दश-संख्यक परिच्छेदोंकी कल्पना हमें आचार्य गृद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्र के दश अध्यायों और महर्षि कणादके 'वैशेषिकसूत्र' के दश अध्यायोंका स्मरण दिलाती है । अन्तर इतना ही है कि ये सूत्र -ग्रन्थ गद्यात्मक तथा सिद्धान्तशैलीमें रचित हैं और देवागम पद्यात्मक एवं दार्शनिक शैलीमें रचा गया है । उस समय दार्शनिक रचनाएँ प्रायः कारिकात्मक तथा इष्टदेवकी स्तुतिरूपमें रची जाती थीं । नागार्जुन, वसुबन्धु आदि दार्शनिकों की रचनाएँ इसी प्रकारकी उपलब्ध होती हैं । समन्तभद्रने भी समयकी माँगके अनुरूप अपने तीन '( स्वयम्भू, युत्क्यनुशासन और देवागम) स्तोत्र दार्शनिक एवं कारिकात्मक शैली में रचे हैं ।
१. 'इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।'
- देवागम का० ११४ ।
२. अष्टश० देवागम का० ११४ ।
३. अष्टस० पृ० १, आप्तपरीक्षा पृ० २३३, २६२
दरियागंज, दिल्ली । ४. 'स्वोक्तपरिच्छेदे
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वीरसेवामन्दिर,
'अष्टश०, देवागम का० ११४ ।
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