________________
प्रस्तावना
प्रथम परिच्छेद :
इसके दस परिच्छेदों में कुल ११४ कारिकाएँ हैं। प्रथम परिच्छेदमें १-२३ कारिकाएँ हैं। १-३ तक उन विशेषताओंका उल्लेख करके मीमांसा की गई है जिनसे आप्त माननेकी बात कही जाती है। ४थीमें ऐसे व्यक्ति-विशेषकी सम्भावना की है जो निर्दोष हो सकता है । ५वीं में ऐसे हेतुसे सामान्य आप्त (सर्वज्ञ) का संस्थापन (अनुमान) किया है जो साध्यका अविनाभावी तथा निर्दोष है । ६ठीमें वह सामान्य आप्तत्व युक्तिपूर्वक अर्हत्में पर्यवसित किया गया है और कहा गया है कि चूंकि उनका शासन ( तत्त्वप्ररूपण ) प्रमाणाविरुद्ध है, अतः वही आप्त प्रमाणित होते हैं। ७वींमें वर्णित है कि जो एकान्त तत्त्वके प्ररूपक हैं उनका वह एकान्त प्ररूपण प्रत्यक्ष-विरुद्ध है । ८वीमें यह बताया गया है कि एकान्तवादियोंका वह तत्त्व-प्ररूपण प्रत्यक्ष-विरुद्ध कैसे है। यतः एकान्तवादी स्वपरवैरी हैं, अतः उनका पुण्य-पापादि प्ररूपण उनके यहाँ सम्भव नहीं है । ९-११ तक तीन कारिकाओं द्वारा वस्तुको सर्वथा भाव (विधि) रूप स्वीकार करनेपर प्रागभाव आदि चारों अभावोंके अपह्नवका दोष दिया गया है। बताया गया है कि प्रागभावका अपलाप करने पर किसीका उत्पाद नहीं हो सकेगा-अर्थात् कार्य अनादि हो जायेगा, प्रध्वंसाभावके न रहनेपर किसीका नाश नहीं होगा-अर्थात् कार्यद्रव्य अनन्त हो जायेगा, अन्योन्याभावके निषेध करनेपर 'यह अमुक है, अमुक नहीं' ऐसा निर्धारण नहीं हो सकेगा-अर्थात् सब सबरूप हो जायेगा। और अत्यन्ताभावके लोप हो जानेपर वस्तुका अपना प्रतिनियत स्वरूप न रहेगा। इस तरह सारी वस्तुव्यवस्था चौपट ( समाप्त ) हो जायगी।
कारिका १२ द्वारा उन्हें दोष दिया गया है जो वस्तुको सर्वथा अभाव ( शून्य ) रूप मानते हैं। कहा गया है कि अभावरूप वस्तु स्वीकार करनेपर उसे स्वयं जाननेके लिए बोध ( ज्ञान ) और दूसरोंको जनानेबतानेके लिए वचनरूप साधन-प्रमाणों तथा अनभिमत भावरूप वस्तुको स्वयं दोषपूर्ण जानने और दूसरोंको दोषपूर्ण बतानेके लिए उक्त दोनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org