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महाबीर का धर्म-वर्मन : माज के सन्दर्भ में
व्यवहार करें। वस्तु-सम्पदा पर अधिकार करना ही इस प्रकार प्राप देखेंगे कि जेनों का पंच प्रणवती या चोरी है। जीवन-जगत् की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, महाव्रती प्राचार-मार्ग जीवन से पलायन करने या उसका कि वस्तुमात्र सर्वकी सम्पत्ति रहे और आवश्यकतानुसार विरोध करने की शिक्षा नहीं देता। वह जीवन-जगत के सबको गब कुछ प्राप्त हो । सम्पतिवाद, पूजीवाद, पूर्ण भोक्ता और स्वाधीन स्वामी होने की पराविद्या हमे अधिनायकवाद प्रादि प्राज की सारी व्यवस्थाए चोरी पर सिखाता है। क्या प्राज का मनुष्य, ऐमी ही किसी परा. टिकी हुई है। प्रचौर्य की व्यवस्था लाने के लिए ही प्राज विद्या की खोज मे नही भटक रहा है ? ये पथ-भ्रष्ट दीखने की सारी प्रजाएं समाजवाद की पुकार उठा रही है। वाले, स्वैराचारी, स्वच्छन्दविहारी 'हिप्पी' वैभव और जैनधर्म के सत्य, अहिंसा, प्रचौर्य, अपरिग्रह और अनेकान्त सुरक्षा की गोद को ठुकरा कर उसी पराविद्या की खोज में आगामी मच्चे और स्थायी समाजवाद की कुजी मे निकल पड़े है। वे अधेरे में भटक रहे है बेशक, मगर छिपी है ।
सच पूछो तो वे अनजाने ही परम लक्ष्य से चालित है, अपरिग्रह का अर्थ है कि मोह-मी में पडकर, यानी वे मनुष्य की असली स्वतन्त्रता के अभिलाषी है। वस्तु यो और व्यक्तियो पर अधिकार न जमाया जाए। जैनधर्म के अनुमार, वे स्वभावत, अपनी मजिल पर पहुंमनुष्य, मनुष्य और वस्तुओं के स्वभावगत स्वतन्त्र परि- चेग ही, क्योकि मजिल पाखिर नो अपनी प्रात्मा ही है णमन को पहचाने और स्वय भी बता रहे तथा प्रोगे पोर अपनी प्रात्मा से बिछड कर प्रादमी कब तक भटकता की म्वतन्त्रता का अपहरण न करे। परिग्रह यानी प्रमाद- रह सकता है ? अाखिर पराकाष्ठा तक भटक कर, वह वश चीजो के अधीन होना और उन्हें अपने अधीन रखना। अपने घर लौटेगा ही। इसी कारण जिनेश्वरी ने पाप को यह बन्धक और काटदायक है । परिग्रही-वृत्ति से ही होना नही बनाया है। पाप के भय को उन्होने मल में ही मम्पतिवाद, पूजीवाद, मत्तावाद जन्मे है । परिग्रह को ही काट दिया है, यानी प्रात्मा पाप कर ही नहीं सकता, जिनेश्वरी ने बहुत बड़ा पाप कहा है। जिनेश्वग के धर्म- वह उसका स्वगाव नहीं। पाप है केवल प्रज्ञान । मही शामन में पूजीवाद और अधिनायकवाद को स्थान नही। ज्ञान हो जान पर प्रादमी अपने पाप ही सही प्राचरण म्वतन्त्र मानववाद और सर्वकल्याणकारी ममाजवाद ही करता है। तब वह अनायाम ही पाम से ऊपर उठकर, जिनेश्वगे के अनुमार सच्ची और मोक्षदायक जोवन- प्रान्मा का मज्ञान, निष्पाप जीवन जीता है। व्यवस्था हो सकती है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी प्रात्मा में ही निरन्तर विज्ञान की तरह ही जनधर्म का ज्ञानमार्ग भी विश्लेरमण करने और भोग करने की स्वाधीन मत्ता प्राप्त कर षण-प्रधान है। इसी कारण यह कहा जा सकता है कि लेना । नर-नारी के यौन-भोग और काम-भोग तन, मन, समार के सभी जीवित धर्मों में जैनधर्म ही सबसे अधिक प्राण, इन्द्रियो के सर पर सर्वथा म्वाभाविक है और वैज्ञानिक है। उसका जीव-शास्त्र और कर्म-शास्त्र इसके उचित है पर प्रात्मा परम स्वतन्त्र है । बाहर के भोग- ज्वलन्त प्रमाण है। इतना अधिक वैज्ञानिक और ताकिक रमण में रहते हुए भी, वह अपनी नृग्नि के लि, टनकी है गैनधर्म, कि मनुष्य की भाव-चेतना को तृप्त करने में गुलाम नही। हर नर-नारी के भीतर नर और नारी दोनों गमर्थ नहीं हो पाता। अपनी प्रात्मा के अतिरिक्त अन्य है । अपने ही भीतर बैठे रमण या ग्मणी को पहचान कर किमी ईश्वरीय शक्ति को अम्वीकृत करके जैनधर्म ने पा लेने पर, बाहर रमण करते हुए भी, हम एक-दूसरे के भक्तिमात्र के ग्राधार को ही खत्म कर दिया है। पर गुलाम या बन्धन हो कर न रहे। अपने-अपने प्रात्म म ग्रानी इम अनिवजानिकता और बुद्धिवादिता के कारण म्वतन्त्र, निमोह, अबाध विचर। इस प्रकार ब्रह्मचर्य ही, वह माज के विज्ञानवेना मनुष्य के बहुत अनुकूल वीतगगी, प्रात्म रसलीन, पूर्ण भोक्ता होने की परम रम- है। वन्ती कला सिखाता है।
विज्ञान की तरह ही जनधर्म मनुष्य को स्वतन्त्रता