________________
मध्य युग में जैन धर्म प्रौर संस्कृति
धर्म के प्रति पर्याप्त बढ़ा रखते थे। गुजरात नि पाटन के सोलंकी वंश ने भी जैन धर्म को अत्यन्त लोकप्रिय बनाया । अमोघवर्ष और कर्क भी जैन धर्म के प्रति प्रत्यन्त श्रद्धालु थे । राजा जयसिंह ने अन्हिलपाटन को ज्ञान केन्द्र बनाकर प्राचार्य हेमचन्द्र को उसका कार्यभार सौपा। इस वश के भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनानायक विमलशाह ने श्राबू का कलानिकेतन १०३२ ई० में बनवाया। इसी शासनकाल में हेमचन्द्र ने दूताश्रय काव्य, सिद्धहेम व्याकरण प्रादि बीसों ग्रन्थ तथा वाग्भट्ट ने अलंकार ग्रंथ की रचना की। कुमारपाल भी निर्विवाद रूप से जैन धर्म का अनुयायी था । कुमारपाल के मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल का सम्बन्ध धाबू के सुप्रसिद्ध जैन मन्दिरों से है । उन्होने इन मन्दिरों को बनवाने में विशेष यत्न किया ।
दक्षिण में पल्लव राज्य में जैन धर्म थोड़े समय फलाफूला, लेकिन शैव धर्म के प्रभाव से बाद में उसके साहित्य श्री कला के केन्द्रों को नष्ट कर दिया गया। बाद में, चालुक्य वंश ने जैन साहित्य और कला को लोकप्रिय बनाया। महाकवि जोइन्दु, मनन्तवीर्य, विद्यानन्द, रविपेण, पद्मनन्दि, धनञ्जय पार्वनन्दि, प्रभाचन्द्र, परवादिमल्ल आदि प्रसिद्ध जैनाचार्य इस काल में हुए है जिन्होंने जैन साहित्य का संस्कृत, प्राकृत और प्रपभ्रंश के अतिरिक्त कन्नड, तमिल श्रादि भाषाओं मे निर्माण किया। इसी समय में चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोल में ६७८ ई० में गोम्मटेश्वर बाहुबली की सुविशाल प्रतिमा निर्मित करायी ।
बंगाल में जैन धर्म का अस्तित्व ११-१२वी शती तक विशेष रहा है। बंगाल मे पाल वंश का साम्राज्य रहा । वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसके राजा देवपाल ने जैन धर्म के कलाकेन्द्र नष्ट-भ्रष्ट किये। सिन्ध, काश्मीर, नेपाल आदि प्रदेशो मे भी जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार था ।
राष्ट्रकूट वंश ने जैन धर्म को विशेष प्रश्रय दिया । इसी समय में गुणभद्र, महावीराचार्य, स्वयंभू, जिनसेन, वीरसेन, पात्यकीर्ति आदि ने प्रचुर जैन साहित्य की रचना की कल्याणी के कहपुरीकाल मे श धर्म की कुछ परम्परात्रों और जैन धर्म के सिद्धांतों का मिश्रण कर १२वीं शती में लिंगायत धर्म की स्थापना
११८
की। उन्होंने जैनों पर कठोर प्रत्याचार किये तथा बाद में वैष्णवी ने भी जैनों के पंचालयों और मन्दिरों को जलवाया। इसका फल यह हुआ कि अधिकांश जैन धर्मावलम्बी धर्म परिवर्तन कर शेव भोर वैष्णव गन गये ।
अरबों, तुर्कों और मुगलों ने भी जनों पर भीषण अत्याचार किये। उनके भयंकर आक्रमणों का प्रभाव जैन साहित्य और मन्दिरों पर पड़ा। उन्हे भूमिसात् कर दिया गया अथवा मस्जिदों में परिणत कर दिया गया । इन्ही परिस्थितियो के कारण भट्टारक प्रथा का उदय और विकास हुआ। इस काल में मूर्ति-पूजा का भी विरोध हुआ । इस काल में ही लोदी वंश के राज्यकाल में तारण स्वामी ( १४४८ - १५१५ ई०) हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया और 'तारण तरण" पंथ चलाया। प्राचार्य सकलकीर्ति, ब्रह्मजय सागर आदि विद्वान इसी समय हुए इसी काल मे प्रबन्धों और परितों का सरल हिन्दी और संस्कृत में लेखन कर जैन साहित्यकारों ने साहित्य क्षेत्र मे एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया जिसका उत्तरकालीन हिन्दी साहित्य पर काफी प्रभाव पडा । इस समय तक दिल्ली, जयपुर आदि स्थानों पर भट्टारक गद्दियां स्थापित हो चुकी थी। सूरत, भड़ौच, ईडर प्रादि अनेक स्थानों पर भी इन भट्टारकीय गद्दियों का निर्माण हो चुका था ।
इस परिस्थिति के कारण जैन साहित्य की अपार एवं अपूरणीय हानि हुई, फिर भी अकबर ( १५५६१६०५ ई०) जैसे महान शासक ने जैनाचार्यों को समुचित सम्मान दिया। इसी समय अध्यात्म शैली के प्रवर्तक बनारसीदास, कवि परमस्तरामस्वरूप पि राममल पांडे बादि हिन्दी के अनेक जैन कवि हुए साइ टोडरमल अकबर की टकसाल के अध्यक्ष थे। जहांगीर के समय मे भी अनेक जैन हिन्दी काव्यकार हुए जिनमें से ब्रह्मगुलाल, भगवतीदाम, सुन्दरदास, रायमल्ल आदि विशेष प्रसिद्ध है। इन काल मे एक पार जहा जनेतर कविगण तत्कालीन परिस्थिनियो के वश मुगलों और अन्य राजाम्रो को श्रृंगार श्रीर प्रम-वासना के सागर में डुबो कर उनकी दूषित वृत्तियों को निखार रहे थे, वही दूसरी ओर जैन (शेष पृ० १२२ पर)
·