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कर्णाटक में जैन शिल्पकला का विकास
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दूसरी मूर्ति की एक प्रबशिष्ट भुजा में मंकुश तथा तीसरी से हुआ है। अनुमान है कि मूर्ति का वजन करीब ४०० मूर्ति में प्रासन के नीचे उत्कीर्ण वाहन संभवतः कुक्कुट टन है । मूर्तिकार का असली नाम प्रज्ञात है। कार्कल की या शुक है । यक्षा वरद, अकुश, पाश एव सर्प से युक्त है। इस मूर्ति के निर्माण के सम्बन्ध मे 'चन्द्रम कवि' ने अपने
बादामी में तीन ब्राह्मण गुफाओं के साथ पूर्व की पोर 'गोम्मटेश्वरचरित' में बहुत कुछ लिखा है। कार्कल के एक जैन गृहा भी है, जिसका निर्माण काल ६५० ई० के गोम्मटेश्वर प्रतिष्ठापन समारोह मे विजयनगर ने तत्कालगभग है। उक्त गुफा में पीछे की दीवाल में सिंहासन लीन राजा द्वितीय देवराज उपस्थित थे। मूति के दाहिनी पर चौबीसवें तीर्थकर महावीर विराजमान हैं। उनके प्रोर अकित संस्कृत लेख से ज्ञात होता है कि शालिवाहन दोनों ओर दो चवरधारी है और बरामदे के दोनों छोरों शक १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) में विरोधिकृत संवत् पर क्रमशः पाश्वनाथ एवं बाहुबली ७ फुट ऊँचे उत्कीर्ण की फाल्गुन शुक्ला ११ बुधवार को, कार्कल के भैररसो है। इसी प्रकार, स्तंभो पर तीर्थकर मूर्तियां उत्कीर्ण है। के गुरु मंसूर के हनसोगे देशी गण के ललितकीतिजी के
बादामी की ही तरह ऐहोल में भी जैन गुफाए है। आदेश से चन्द्रवश के भैरव राजा के पुत्र वीर पांड्य ने इसमें सहस्त्र फणयुक्त पाश्वनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसे स्थापित किया। पार्श्वनाथ के अतिरिक्त भगवान महावीर की भी प्राकृति
वेणर स्थित गोम्मट-मूर्ति को वहा के समीपवर्ती यहाँ दृष्टिगोचर होती है। उपर्युक्त दोनो स्थल-बादामी
कल्याणी नामक स्थल की शिला से निर्मित किया गया है। एवं ऐहोल चालुक्य नृपतियों को राजधानी रहे है । इससे
श्रवणबेलगोल मे चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मट मूर्ति ज्ञात होता है कि चालुक्यों के काल में निर्मित जैनकला उनके
को देखकर तिम्मण अजिल ने अपनी राजधानी में ऐसी ही जैन धर्मावलम्बी अथवा धर्म-सहिष्णु होने का परिणाम था।
एक मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया और यह मति कर्णाटक मे गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ है। चालुक्यो
खुदवाई। मूर्ति के दाहिनी ओर उत्कीर्ण संस्कृत लेख में के काल मे निर्मित ई० सन् ६५० की गोम्मट की एक बताया गया है कि चामुण्डराय के वश के तिम्मराज ने प्रतिमा बादामी मे स्थित है। तलकाडु के गग राजाप्रो के
श्रवणबेलगोल के अपने गुरु भट्टारक चारुकीति के शासनकाल में गगराज रायमल्ल सत्यवाक्य के सेनापति
प्रादेशानुसार शालिवाहन शक १५२५ शोधकृत सवत् के व मत्री चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोल मे ई० सन् १८२
गुरुवार १ मार्च १६०४ को इसका प्रतिष्ठापन कराया। मे स्थापित विश्व-प्रसिद्ध गोम्मट मूर्ति है। यह ५७ मूर्ति के बायी ओर कन्नड पदो मे भी यही बात उल्लिफुट ऊँची है। मैसूर के समीप गोम्मट गिरि मे १४ फुट खित है। ऊँची एक गोम्मट प्रतिमा है जो १४वीं सदी की है। श्रवणबेलगोल के उत्तराभिमुख स्थित मूर्ति विश्व इसके समीप ही कन्नबाड़ी (कृष्णसागर) के उस पार १२ की प्रसिद्ध आश्चर्यजनक वस्तुप्रो मे से एक है। लम्बे मील की दूरी पर स्थित बसदि होस कोटे हल्ली मे गग- बड़े कान, लम्बवाहु, विशाल वक्षस्थल, पतली कमर, कालीन गोम्मट की एक अन्य १८ फुट ऊंचो प्रतिमा है। सुगठित शरीर आदि ने मूर्ति की सुन्दरता को और अधिक कार्कल में ४२ फुट ऊँची १५६२ ई० में वीरपाण्ड द्वारा बढ़ा दिया है। कायोत्सर्ग मुद्रा मे ५७ फुट ऊची तपोरत निमित गोम्मट प्रतिमा है। श्रवण-बेलगोल के भट्टारक यह प्रतिमा मीलो दूर से ही दर्शक को अपनी पोर माकृष्ट चारुकीति की प्रेरणा से तिम्मराज अजिल ने वेणर में ई० कर लेती है। सन १६०८ मे ३५ फुट ऊँची गोम्मट मूर्ति की स्थापना इस विशालकाय प्रतिमा के निर्माण के विषय में हमे कराई।
एक अभिलेख से जानकारी उपलब्ध होती है, जो मूर्ति कार्कल की गोम्मट मूर्ति का निर्माण पहाड़ी शिला के पाश्र्वभाग मे उत्कीर्ण है। अभिलेख से यह ज्ञात होत, १०. प्राकियालोजिकल सर्वे आफ इडिया रिपोर्ट, भाग ११. कर्नाटक की गोम्मट मूर्तियाँ-प० के० भुजबली १, प० २५
. शास्त्री, मानेकान अगस्त १९७२