Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 170
________________ १५२, वर्ष २६, कि० ४ अनेकान्त सिंदुवार मंदार कुरवा कंदिहि सुंदरु । पवले षय चमर सिंगार प्रारत्ति मंगल पईव । जाइजह सयवन्नि विन्नि पुलेहि निरंतर । तिलव मऊ कुंडलहार मेघाउंबर जाविये ए॥१०॥ विट्ठय छत्र सिल कड गि अबवणि सह सारामु । विहिं नर जो पवर चन्द्रीय नेमि जिणेसरियर भयभि। नेमि जिणेसर विक्ख नाण निब्वाण हठायु । इह भविए भुजवि भोय सो तित्थे सर सिरि लहइए ॥११" चतुर्थ कडवम् चहु विहए संघु करेइ जो प्रावह उज्जित गिरि । गिरि! गह पा(ए) सिहरि चडेवि अब जवाहि बबालिउए। विविसवह रागुकरे सो मंचइ चउगहे गयणि ।। १२ ।। संमिणि णिए अवि देवि देउल कडु रम्माउलए ॥१॥ प्रहबिहएज्जय करति प्रहाई जो तहि करइ ए । वज्जद एताल कंसाल वज्जइ मदल गुहिर सर । भट्ट विहए करम हणंति सो प्रभाव सिज्झाइ॥१३ ।। रंगिहि नच्चइ बाल पेरिववि अंबिक मुहकमल ।।२।। अंबिल एजो उपवास एगासण नीवी करई ए। सुमकरु एक ठविउ उछगि विमकरो नंदण पासिकए। तसुमणिए प्रच्छह मास इह भव परभव विहव परे ॥ १४ ।। सोहइ एऊजिलि सिगि सामिणिसीह सिषासणीए ॥ ३ ॥ पेमिहि मुनि प्रत्रहदाणु धम्मियबच्छलुकरई ए। दावह ए दुक्खहं मगु पुरहए वंछिउ भविय जण । तसु कही नहीं उपमाणु परभाति सरण तिणउ ।। १५ ।। रक्खइए उविहु संघ सामिणि सीह सिषासणीए॥४॥ प्रावद ए जेन उज्जितिघर घरह धंधोलियाए। दस विसि ए नेमि कुमारि प्रारोही अवलोइ पडंए। प्राविहीए हीयइ न संतिनिफ्फल जीविउसासतणऊ॥१६॥ बीजइ एतहि गिरिनारि गयणांगणु अवलोण सिहरो ॥५॥ जीविउ ए सोजि परघन्नु तासु समच्छर निच्छणु ए। पहिलइ ए सांव कुमार वीजा सिहरि पज्जून पुण। सोपरिए मासु परिधन्नु वलिहीजइ नहि वासर ए॥१७॥ पणभई ए पामहं पार भवियण भोसणभव भमण ॥६॥ ज(जि) ही जिणुए उज्जिलठामि सोहग सुंदर सामलु ए। ठामिहि ए ठामि रयण सोवन्न बिबजिणेसुरतहि ठविय। दोसइ ए तिहुवण सामिनयण सलणऊं नेमिजिण ॥ १८ ॥ पणभइ ए ते नर धन्न जेन कलिकालि मल भयलियए ॥७॥ नोझरण ए चमर ढुलंति मेघाडंबर सिरी धरोई। जं फखु ए सिहर सभेय अढावय नंदो सरिहि । तित्यह ए सउ रेवदो सिंहासणि जयइ नेमि जिण ॥ १६ । तं फलु ए भवि पामेइं पोवेविण रेवंत सिहरो ॥८॥ रंगिहि ए रमइ जो रासु (सिरिविजयसेण सूरि निमविजए।' गहगण एमाहि जिम भाणु पन्वय माहि जिम मेरुगिरि। नेमिजिणुतूसह तासु प्रबिक पूरह मणिरलीए ।। २० ॥ त्रिभवणे तेय पहाण तित्थं माहि रेवंतगिरि ।। ६ ।। || समत्तरेवतगिरि रासु॥ (पृ० १५३ का शेषाश) पाठ के मूलभूत अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म के विशेष 'स्वस्तिक' नाम में मिलता है, क्योकि यह पहले ही कहा गुण पढ़ने पड़ते है । यथा जा चका है कि 'स्वस्ति एवं स्वस्तिकम्' में ऊपर के 'स्वस्ति' त्रिनोकगुरुवे जिनपुंगवाय, वर्णन में हमें देव (अरहंत-सिद्ध) और धर्म (बोध) की स्वस्ति स्वभावमहिमोदयसुस्थिताय । स्पष्ट झलक मिल रही है और इनको मंगल कहा गया स्वस्ति प्रकाशसहजीजितदृङ्मयाय, है; तथा 'स्वस्ति' और स्वस्तिक दोनों का अर्थ मंगल है। स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भूतवैभवाय ।। प्रागे चलकर इसी पूजा प्रसंग मे हम साधुओं की 'स्वस्तिस्वस्त्युछलविमलबोधसुधाप्लवाय, रूपता' उनकी ऋद्धियों के वर्णन में पढ़ते है। अरहंत रूप स्वस्ति स्वभावपरभावविभासकाय । में तीर्थकरों की 'स्वस्ति'-रूपता पढ़ने को मिलती है। स्वस्ति त्रिलोकविततकचिदूद्गमाय, प्ररहंत और साधुओ के लिए निम्न 'स्वस्ति' विधान हैस्वस्ति त्रिकालसकलायतविस्तृताय ॥' परहंत स्वस्तिइत्यादि। श्री वृषभो न: स्वस्ति, स्वति श्री अजितः । उक्त प्रसंग में हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इन श्री संभवः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनंदनः ॥ सभी श्लोकों में ग्रहीत पद 'स्वस्ति' ही है, जो हमें इत्यादि । - क्रमशः

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