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हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य जैन प्रणीत 'राजल', कविरत्न गुणभद्र पागास विरचित नहीं रह पाई है, स्थल-स्थल पर कवि का ब्राह्मणत्व 'राम वनवास', 'प्रद्यम्नचरित्र' तथा 'कूमारी अनन्तमती', काव्यावरण से बाहर झलकने लगा है। भगवान महावीर कविवर धन्यकुमार सुधेश कृत 'विराग' और 'परम ज्योति के सम्पूर्ण जीवन की प्रमुख कथा 'अघारव्य लहिदप-मर्दन', महावीर', कवि नाथलाल त्रिवेदी का 'महावीर चरित्रामृत', 'चन्दना-उद्धार' तथा 'अनंग-परीक्षा' प्रादि गौण प्रकरण महाकवि अनप शर्मा प्रणीत 'वर्द्धमान', राजस्थानी कवि सुष्ठ रूप से सुनियोजित है। मूलदास मोहनदास नीमावत कृत 'वीरायण', श्री यति शिल्प सौष्ठव एवं काध्यगत उत्कृष्टता की दृष्टि से मोती हंस जी कृत 'तीर्थकर श्री वर्द्धमान'. कविवर वीरेन्द्र- 'वर्द्धमान' एक सफल महाकाव्य है। महाकवि ने केवल प्रसाद जैन विरचित 'तीर्थकर भगवान महावीर' और चार प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। १९९७ छन्द 'पार्श्व प्रभाकर', श्री मोतीलाल 'मार्तण्ड' ऋषभ प्रणीत संयुत प्रस्तुत महाकाव्य में १९२२ वंशस्थ, ७० द्रुतविल'श्री ऋषभ चरित्र सार', गुजराती कवि हीराचन्द झवेरी म्बित, ३ शार्दूलविक्रीडित तथा २ मालिनी छन्द हैं। कृत 'त्रिभुवन तिलक', श्री गणेश मनि का 'विश्व ज्योति हिन्दी में इतने अधिक वशस्थ छन्दो का प्रयोग और महावीर', महाकवि रघवीर शरण 'मित्र' विरचित 'वीरा- किसी काव्यकार ने एक कृति मे नही किया है। काव्य यन' तथा डा० छल बिहारी गप्त प्रणीत 'तीर्थकर महा- की भाषा प्राद्योपांत प्रांजल व सस्कृतनिष्ठ है। प्रत्यधिक वीर' । उपर्युक्त प्रबन्ध काव्यों में से बीसवी शताब्दी में
मोती जाती सामासिक पदावली के प्रयोग से काव्यार्थ में दुलहता मा रचे गये हिन्दी के प्रमख जैन महाकाव्यो का सक्षिप्त गई हैं, कथा प्रवाह भी स्थान-स्थान पर अवरुद्ध हो गया विवरण अग्रिम पंक्तियों में दिया गया है ।
है। शृगार एव शात रस प्रधान इस महाकाव्य मे अन्य प्राधुनिक युग मे खड़ी बोली हिन्दी मे, सर्वप्रथम सभी रसों का भी प्रसंगानुकूल परिपाक हुमा है। जैन महाकाव्य प्रणयन का श्रेय जैनेतर कवि पण्डित अनूप महाकवि अनूप के उपर्युक्त महाकाव्य के उपरांत शर्मा को प्राप्त है। महाकवि अनप प्रणीत महाकाव्य
सन् १९५४ ई० मे कवि धन्यकुमार 'सुधेश' ने 'परम "वर्द्धमान" वीर शासन जयन्ती, श्रावण कृष्ण एक, वीर
ही ज्योति महावीर' नामक महाकाव्य का सृजन प्रारम्भ निर्वाण सवत् २४७७ (जलाई सन् १९५१) को भारतीय किया, परन्तु काव्य क
किया, परन्तु काव्य की समाप्ति व प्रकाशन से पूर्व सन् ज्ञानपीठ प्रकाशन, बनारस से मद्रित हया था। सम्प्रति १९५६ में कवि वरिन्द्रप्रसाद जैन प्रणीत भनाकाव्य यह महाकाव्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, कनाट प्लेस, नई "तीर्थकर भगवान महाबीर" प्रकाशित हो गया था। ६ दिल्ली से प्राप्त किया जा सकता है। १७ सर्गों में निबद्ध वर्ष के अन्तराल पर, यत्किचित् परिवर्द्धन के साथ सन्
महाकाठा के कल १६१ छन्दों में जैन तीर्थकर १९६५ में 'तीर्थंकर भगवान महावीर' महाकाब्य का परम्परा के अन्तिम प्रथांत २४वें तीर्थकर भगवान महावीर, द्वितीय संस्करण 'धी अखिल विश्व जैन मिशन, मलीगंज के जिनका एक नाम वर्द्धमान भी है, पूर्व भवों से लेकर से प्रसारित हुआ। प्रस्तुत महाकाव्य में कुल ७ सर्ग है निर्वाण पर्यन्त तक के जीवन को काव्यात्मक रूप में अनु- जिनका नामकरण क्रमश:-पूर्वाभास, जन्म महोत्सव, स्यूत किया गया है। महाकाव्यकार ने भगवान वर्धमान शिशुवय, किशोरवय, तरुणाई एवं विराग, अभिनिष्क्रमण के इतिवृत्त चित्रण मे दिगम्बर एव श्वेताम्बर मान्यतामों एवं तप, तथा निर्वाण एवं वन्दना-रूप में किया गया है। मे समन्वय स्थापन का प्रयास किया है।' समन्वयवादी सर्ग शीर्षकों से ही तदन्तर्गत निहित कथ्य का माभास दृष्टिकोण अपनाने के अनन्तर भी जैन मान्यतायें प्रक्षण्ण मिल जाता है। महाकाव्यकार ने लोक रजक भगवान १. ' .. कवि न दिगम्बर और श्वेताम्बर माम्नाय मे ही नही, जैन धर्म और ब्राह्मण धर्म में भी सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न किया है।"
--"वर्द्धमान" का 'प्रामुख'-लेखक लक्ष्मीचन्द्र जैन, पृ० १७ १. अनूप शर्मा : कृतियाँ और कला-सम्पादक डा० प्रेमनारायण टण्डन, पृ० २०८