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हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य
कु० इन्दु राय, एम. ए., शोधछात्रा, लखनऊ
भारतवर्ष की विविध संस्कृतियों में अवस्थित है अधिकांश जैन धर्मानुयायियों ने सकुचित प्रवत्तिवश ग्रन्थों जैन संस्कृति, जिसका अपना विशेष दर्शन है, विशिश्ट के मुद्रण का विरोध किया। परिणामस्वरूप जैन साहित्य दृष्टि है। जैन मतावलम्बियों की अपनी पृथक् प्राचार. का अपेक्षित प्रचार एवं प्रसार नहीं हो सका। अन्ततोविचार संहिता है, निजी जीवन पद्धति है। उन माचार. गत्वा १९वीं शती के अन्त तथा २०वी शती के प्रारम्भ विचारों, दर्शन, मादों व मूल्यों को अभिव्यक्त करने में कई जैन तथा जैनेतर विद्वान् 'जैन वाङ्मय' के प्रकाशन वाला वाङ्मय ही "जैन साहित्य ' है। अखिल भारतीय की ओर आकृष्ट हुए और तब से यह साहित्य समस्त ज्ञान-संवर्धन एवं साहित्य-निर्माण के क्षेत्र में जैन साहित्य- विधानों व क्षेत्रों में विपुल मात्रा मे प्रकाश मे पा रहा कारों ने प्राचीन एवं अर्वाचीन समस्त भारतीय भाषाओं है, रचा जा रहा है। यही कारण है कि अब भारतीय में विविध विषयक, बहुविद्यात्मक विपुल साहित्य का मृजन साहित्य का सर्वागपूर्ण इतिहास लिखने वाले मनीषी 'जन करके भारती के भंडार को सुसमद्ध एव समलंकृत किया साहित्य' की पूर्ण उपेक्षा करने में हिचकने लगे है। वर्तहै। "संस्कृत एवं प्राकृत भाषामो में तो अगणित जैन मान समय में रचे जा रहे साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य रचा ही गया, पर माधुनिक देशी भाषाओं की कृतियो का परिचय समाविष्ट हो रहा है।' जननी अपभ्रंश पर तो जैन साहित्यकारो का एकाधिकार- जैन साहित्य अत्यन्त व्यापक, अनेक रूपात्मक और सा ही रहा है । पुरातन हिन्दी भाषा में भी गद्य एवं पद्य बहुमुखी है । अन्यान्य विधानों की भाति जैन प्रबन्धकाव्यों साहित्य का बहुभाग जैन प्रणीत है। परन्तु दुर्भाग्यवश (महाकाव्य तथा खण्डकाव्य) को भी एक सुदीर्घ एवं भारतीय साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य की उपेक्षा सुसमृद्ध परम्परा है । सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश वाङ्मय की जाती रही है। इस उपेक्षा का एक प्रमुख कारण की श्रीवृद्धि करने वाली, जैन काव्यो की परम्परा, सम्प्रति स्वयं जैनियों की धर्मान्धता व रूढ़िवादिता भी था। हिन्दी भाषा में भी प्रगतिमान है। गत सौ वर्षों मे खड़ी
इतिहासकारो के अनुसार, मुद्रण कला का कार्य सन् बोली हिन्दी मे अनेकानेक जैन प्रवन्धकाव्यों की सृष्टि ८६८ ई० में चीन में प्रारम्भ हुआ था। भारतवर्ष मे हुई है, जिनमें उल्लेखनीय है - कवि कृष्णलाल विरचित उसका श्रीगणेश सन् १५५६ ई० मे हुमा तथा देवनागरी 'वियोग मालती', श्री दयाचन्द गोयलीय कृत 'सीता लिपि का प्रथम लेख सन १६७८ में छापा गया। मुद्रण चरित्र', कवि राजघरलाल जैन केवलारी कृत 'वीर चरित्र', का यह कार्य अद्यावधि द्रुत वेग से प्रवाहमान है।' १७वीं पन्नालाल जैन विरचित 'मनोरमा चरित्र' व 'भरतेश्वर शती तक अनेकानेक ज्ञान-क्षेत्रों व साहित्यिक विधाओं में काव्य', भंवरलाल सेठी द्वारा रचित 'अंजना पवनञ्जय' जैन वाङ्मय का प्रभूत मात्रा में सृजन हो चुका था, किन्तु कवि मंगलसिंह रचित 'तीर्थकरार्चन', युवा कवि बालचन्द्र
१. तीर्थकरो का सर्वोदय मार्ग-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० ५६ २. प्रकाशित जैन साहित्य-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० ५-६ ३. (क) हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ-डा. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल
(ख) हिन्दी साहित्य का इतिहास-सम्पादक डा० नगेन्द्र (ग) हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड)-सम्पादक डा० धीरेन्द्र वर्मा मादि