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उक्त सभी शब्द-रूपों में मंगल भाव ध्वनित है। कामना में साधु-साध्वियों से प्रार्थना करता है कि महा. प्रतः यह निश्चय सहज ही हो जाता है कि 'स्वस्ति' और राज ! 'मंगली' सुना दीजिए, तो वे सहर्ष 'चत्तारिपाठ' 'स्वस्तिक' का प्रयोग भी 'ॐ' की भांति मगल निमित्त द्वारा उसे पाशीर्वाद देते है । इस मंगल पाठ का भाषान्तर होना चाहिए।
(हिन्दी रूप) भी बहुत बहुलता से प्रचारित है, यथाअब प्रश्न यह होता है कि जैसे 'ॐ' को पंच परमेष्ठी
'अरिहत जय जय, सिद्ध प्रभु जय जय । का प्रतिनिधित्व प्राप्त है, वैसे स्वस्तिक को किसका प्रति- साधु जीवन जय जय, जिन धर्म जय जय ।। निधित्व प्राप्त है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि:- अरिहंत मंगलं, सिद्ध प्रभु मगल ।
जब यह निश्चय हो चुका कि 'स्वस्तिक' निर्माण में साधु जीवन मंगलं, जिन धर्म मगल । मंगल कामना निहित है, तो यह भी आवश्यक है कि
भरिहत उत्तमा, सिद्ध प्रभु उत्तमा । इसमें भी 'ॐ' की भांति कोई मगल निहित होना चाहिए।
साधु जीवन उत्तमा, जिन धर्म उत्तमा । इसकी खोज के लिए जब हम णमोकार मन्त्र से आगे अरिहंत शरणा, सिद्ध प्रभु शरणा। चलते है, तब हमे उसी पाठ परम्परागत चतुःशरण पाठ ___ साधु जीवन शरणा, जिन धर्म शरणा ।। मिलता है और इम पाठ को स्पष्ट रूप से मंगल घोषित ये ही चार शरणा, दुख दूर हरना । किया गया है, यथा --'चत्तारिमगल' इत्यादि। इस पाठ शिव सुख करना, भवि जीव तरणा ।' को आज सभी जैन आबालवृद्ध पढ़ते है । पूरा पाठ इस ___ इस सर्व प्रसंग का तात्पर्य ऐसा निकला कि उक्त भांति है
मूल-पाठ जो प्राकृत में है और 'चतुः मंगल' रूप मे है, __'चत्तारि मंगलं'। अरहन्ता मगलं । सिद्धा मंगलं, वह मंगल, कल्याण, शान्ति और सुख के लिए पढ़ा जाता साहू मगल, केवलि पण्णत्तो धम्मो मगलं ।
है तथा 'स्वस्ति या स्वस्तिक' (मगल कामना) से सम्बचत्तारि लोगुत्तमा । अरहन्ता लोगुत्तमा । सिद्धा धित है। लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलि पण तो धम्मो दिगम्बर माम्नाय' में पूजा को श्रावक के दैनिक षटलोगुत्तमा ।
कर्मों में प्रथम गिनाया गया है। वहा प्रथम ही देवशास्त्रचत्तारिसरण पवज्जामि । अरहते सरणं पवज्जामि। गुरु की पूजा की जाती है और पूजा का प्रारम्भ दोनो सिद्धे सरण पवज्जामि । साहसरणं पवज्जामि। केवलि (णमोकारमत्र और चतु शरण पाठ) और उनके माहात्म्य पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि ।
से होता है। जैसे णमोकार मन्त्र वाचन का प्रथम क्रम है, उक्त पूरा पाठ 'मंगलोत्तमशरण' या 'चतुःशरण' पाठ वैसे उसके माहात्म्य वाचन का क्रम भी प्रथम है, यथाके नाम से प्रसिद्ध है और णमोकार मन्त्र के क्रम से उसी
अपवित्रः पवित्रो वा सु.स्थितो दु.स्थितोऽपि वा। के बाद बोला जाता है। यह मगल अर्थात् 'स्वस्ति पाठ' ध्यायेत् पचनमस्कार सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ णमोकार मन्त्र की भाति प्राचीनतम प्राकृत भापा मे अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। निबद्ध और मंगल शब्द के निर्देश से युक्त है । अन्य स्थलो य. स्मरेत् परमात्मान सः बाह्यऽभ्यतरः शुचिः । पर हमें बहुत से अन्य मंगल भी मिलते है। पर वे न तो अपराजितमन्त्रोऽय सर्वविघ्नविनाशनः । प्रतिदिन निययित रूप से सर्व साधारण में पढ़े जाते है मगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।। और न ही मूल मन्त्र-णमोकारगत पच परमेष्ठियो का एसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणो । बोध कराते है। अत: 'मंगल' मे चत्तारि-पाठ की
मगलाण च सव्वेसि, पढ़म हवइ मगलं ॥ प्रमुखता णमोकार मन्त्र की भाति सहज सिद्ध हो जाती है। इसी क्रम मे जब हम पूजन प्रारम्भ करते है, हमे __ स्थानकवासी संप्रदाय में 'चत्तारिमंगलं' पाठ 'मगली' 'मगलोत्तमशरण पाठ का माहात्म्य और मंगलोत्तमशरण के नाम से भी प्रनिद है। यतः जब कोई श्रावक मगल
((शेष १० १५२ वर)