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१५८, वर्ष २६, कि०४
अनेकान्त
महावीर के पावन चरित्र का सरल, प्राडम्बर-रहित, सरस काव्य को अलंकृत करने का प्रयत्न किया है।" भाषा में मनोग्राही चित्रण किया है। बिवेच्य महाकाव्य कथा वस्तु की दृष्टि से 'परम ज्योति महावीर' में में छन्द संख्याबद्ध नहीं हैं, किन्तु महाकाव्यकार के शब्दों अपने पूर्वरचित महाकाव्यों से पृथकता इस बात में है कि में-... वास्तव में यह भक्ति की शक्ति ही है जिसने केवल इस कृति में सन्मति भगवान के ४१ चातुर्मासों व मुझसे मेरे प्राराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए।" साधनाकाल का विशद वर्णन कर नायक के जीवनवृत्त को महाकाव्य के परम्परागत लक्षण का अनुकरण करते हए सम्पूर्णता प्रदान की गई है। उल्लेख्य महाकाव्य मे प्रादि कवि ने प्रत्येक सर्ग के अन्त मे छन्द परिवर्तन-क्रम का से अन्त पर्यन्त केवल एक ही छन्द का प्रयोग किया गया निर्वाह किया है । काब्य में आद्योपॉत गेयता व लयात्म- है । ग्रन्थ को माधुर्य एवं प्रसाद गुण सम्पन्न बनाए रखने कता का भी ध्यान रखा है।
के लिए सुबोध, सुकोमल व जन प्रचलित भाषा का प्राश्रय ___'वर्द्धमान' तथा 'तीर्थकर भगवान महावीर' के ही लिया गया है । काव्य मध्य मे प्रसंगानुकूल प्रागत जैन पारिवर्ण-विपय पर लिखा जाने वाला तीसरा हिन्दी जैन भाषिक शब्दो, यथा-प्रास्रव, निर्जरा, पुद्गल, प्रासुक, महाकाब्य है, कविवर धन्यकुमार जैन 'सुधेश' विरचित निगोद, पड़गाहना, कुलकर, पचास्तिकाय, अनगार, मानपरम ज्योति महावीर", जो सन् १९६१ मे 'श्री फूल. स्तम्भ, द्वादश भावना
स्तम्भ, द्वादश भावनाए प्रादि, की महाकाव्यान्त में
प्रादि. की म चन्द जवरचन्द गोधा जैन ग्रथ माला', इन्दौर से प्रकाशित
सरल व्याख्या दी गई है। इसी प्रकार, परिशिष्ट २ व पाकवि ने अपने इम ग्रन्थ को 'करुण, धर्मवीर एवं परिशिष्ट ३ मे क्रमशः काव्यान्तर्गत प्रयुक्त ऐतिहासिक शांत रस प्रधान महाकाव्य' संज्ञा प्रदान की है।
स्थलों व पात्रों का भी परिचय कवि ने दिया है। सारांपरम ज्योति महावीर" महाकाव्य मे सर्गों की संख्या शतः काव्यशास्त्रीय दृष्टि व महत् प्रयोजन दोनों दृष्टियों २३ है। इस वसत्मिक ग्रथ में कुल २५१६ छन्द हैं से प्रस्तुत महाकाव्य उत्कृष्ट है। जिनका नियमपूर्वक विभाजन किया गया है। प्रत्येक पूर्व विवेचित महाकाव्यों से भिन्न कथ्य व पृथक् प्रासीखित सर्ग में १०८ छन्द है । इसके अतिरिक्त ३३ शैली मे कवि मोतीलाल 'मार्तण्ड' ऋषभदेव ने 'श्री ऋषभ छन्द प्रस्तावना में पृथक रूप से निबद्ध है।' महाकवि ने चरितसार' नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना की है। प्रस्तुत इस बात का ध्यान रखा है कि तीर्थकर भगवान महावीर कृति को लघु प्राकार का महाकाव्य मानना अनुचित न के जीवन व तदसम्बन्धित घटनामों के सम्यक् निर्वाह होगा । विवेच्य महाकाव्य १५ फरवरी, सन् १९६४ में के साथ-साथ महावीर युगीन राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, 'श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगज' से प्रकाशित ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पक्षों का भी समुचित निरू. किया गया। पण हो। अपने इस प्रयास मे कवि पर्याप्त सफल हुआ है। 'श्री ऋषभ चरितसार' को कथावस्तु आदि तीर्थकर जैन संहिता, दर्शन, धर्मादि से भलीभाँति भिज्ञ कवि 'सुधेश' भगवान ऋषभदेव अथवा ऋषभनाथ के पावन चरित्र पर ने जिनेन्द्र भगवान की दिव्य वाणी की मौलिकता को प्राधृत है । हिन्दी भाषा मे तीर्थकर वृषभदेव पर रचा अक्षुण्ण रखने का स्तुत्य प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर तथा जाने वाला कदाचित् उपरोक्त काव्य ग्रन्थ ही प्रकाश में दिगम्बर अवधारणाओं के सत् समन्वय के सम्बन्ध में पाया है। प्रस्तुत महाकाव्य का प्राकार शास्त्र-ग्रन्थों के महाकाव्यकार ने लिखा है-"दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों से समान है तथा इसे तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' जो कुछ सत्, शिव, सुन्दर प्राप्त हुआ है, उससे इस महा- की शैली का अनुसरण करते हुए दोहा, चौपाई, सोरठा
१. 'लीर्थकर भगवान महावीर': "दो शब्द"-श्री वीरेन्द्रप्रसाद जैन, पृ० ३ २. विस्तृत विवरण हेतु देखिए
'कृति की कथा'-'परम ज्योति महावीर' में-श्री धन्यकुमार जैन 'सुधेश', पृ०२०-२१ ३. 'कृति की कथा' : 'परम ज्योति महावीर' में - श्री धन्यकुमार 'सुधेश' पृ० २०-२१