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हिन्दी के माधुनिक जैन महाकाव्य
चित्रित किया गया है। महाकाव्य को सर्व बोष गम्य बनाने को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देने वाले १०गी प्रगत के लिए विद्वान् कवि ने दुरूह, क्लिष्ट संस्कृतभित प्रभावकारी है। यद्यपि इन गीतो से कथा-प्रवाह प्रबद्ध शब्दावली का मोह परित्याग कर जन-प्रचलित, सरल हो गया है तदपि प्रभावोत्पादन में वे पूर्ण सफल हो .खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है और उसके महाकाव्यान्त में भी कवि ने एक स्वतन्त्र गीत भगवान परिणामस्वरूप प्रस्तुत महाकाव्य सरस, सुग्राह्य व प्रवाह- महावीर के ढाई हजारवें निर्वाण-वर्ष पर विशेषत: रचा शील बन सका है।
है। इस प्रकार कथ्य, विषय-वर्णन तथा शिल्प-सौष्ठव तीर्थकर महावीर' में महाकाब्यकार ने न सर्गों को सभी दृष्टियो से डा० छैलबिहारी गुप्त प्रणीत 'तीर्थकर शीर्षक दिए है, न छन्दों की संख्या । 'वीरायन' की भाति महावीर' उच्च कोटि का महाकाव्य है। प्राशा है कि बहुछन्दात्मक इस ग्रन्थ मे भी एकाधिक स्थलो पर मुक्तक निकट भविष्य मे न केवल भगवान महावीर पर ही, प्रीतों की सयोजना हुई है। द्वितीय सर्ग मे सन्मति प्रभु अपितु 'जिन' परम्परा के पोषक अन्य महानायको क महावीर द्वारा अभिचितित, जीवन की क्षणभंगुरता, पावन-वृत पर भी, उत्कृष्ट महाकाव्य साहित्य प्रागण वस्तूमों व स्वजनो के प्रति मोह-मायादिक की निस्सारता मे पदार्पण करेंगे।
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प्राकत. अपभ्रन्श तथा अन्य भारतीय भाषाएं भाषा व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राधुनिक भाषाम्रो का विकास इसी जनभाषा से रखती है। जीवन का हरेक क्षण भाषा के माध्यम जुड़ा हुआ है। से अभिव्यक्त होता है। यदि भाषा स्वाभाविक, प्राकृत भाषा का सबन्ध भारतीय प्रार्य शाखा सुबोध और सम्प्रेषणयुक्त है तो व्यक्ति का परिवार से है। विद्वानों ने भारतीय प्रार्य शाखा जीवन दर्पण की भाँति उजागर होता रहेगा और परिवार की भाषामों के विकासको तीन युगों यदि भाषा क्लिष्ट, थोपी हुई तथा रूढ हो तो मे विभक्त किया है :जीवनदर्शन सामान्य जन की परिधि से बाहर १. प्राचीन भारतीय पार्य भापाकाल (१६०० ही घूमता रहता है। उसमे लोकतन्त्रात्मक विकास ई० पू० से ६०० ई०पू० तक), की संभावनाएं क्रमशः कम होती जाती है। मानव २. मध्यकालीन आर्य भाषाकाल (६००ई० पू० इतिहास मे भाषा का यह उतार-चढ़ाव संस्कृति को
उतार-चढ़ाव संस्कृति को से १००० ई. तक) तथा बहुत परिवर्तित करता रहा है। भारत में प्राचीन ३. माधुनिक आर्य भाषाकाल (१००० ई. से समय से ही शिष्ट और जन-सामान्य की भाषा वर्तमान समय नक) का समानान्तर, प्रयोग होता रहा है। भगवान् प्राकृत भाषा का जो विकास हुआ है वह महावीर और बुद्ध के समय भी यही स्थिति थी। किसी न किसी रूप में भारतीय भाषामों के इन इन दोनों महापुरुषों ने भाषा की इसी महत्ता को तीनो कालो से जुड़ा हमा है। इस संबन्ध का समझते हुए जनभाषा को ही अपने उपदेशों का अध्ययन करने से प्राकृत और भारतीय प्राधुनिक माध्यम बनाया था। तत्कालीन वह जनभाषा भाषाओं के परस्पर साम्य-वंषम्य का पता इतिहास में मागधी (पालि) व मद्धमागधी चलता है। (प्राकृत) के नाम से जानी गयी है। भारतीय
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