Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनकान्त वर्ष २६ : किरण १ जनवरी-मार्च १९७६ परामर्श-मण्डल : डा. प्रेमसागर जैन, श्री यशपाल जैन सम्पादक: श्री गोकुलप्रसाद जैन एम. ए., एल-एल. बी., साहित्यरत्न विश्वधर्म के प्रेरक उपाध्याय मनि श्री विद्यानन्द प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वीर-सेवा-मन्दिर के अभिनव प्रकाशन जैन लक्षणावली (दूसरा भाग) विषय-सूची क० विषय १. परमात्मा का स्वरूप २. जैन रास साहित्य का दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ विक्रम लीलावती चौपाई-डा. सुरेन्द्र कुमार मार्य, उज्जैन ३. देवानांप्रिय प्रियदर्शी अशोकराज कौन था ? चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक -डा. सत्यपाल गुप्त, एम. ए., पी-एच डी., शब्दकोश) का द्वितीय भाग भी छप चुका है । इसमे लगलखनऊ भग ४०० जैन ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के अनसार लक्षणों का ४. हस्तिमल्ल के विक्रान्तकौरव में प्रादि तीर्थकर संकलन किया गया है। लक्षणो के सकलन में प्रन्थकारों ऋषभदेव-श्री बापूलाल प्रांजना, उदयपुर के कालक्रम को मुख्यता दी गई है । एक शब्द के अन्तर्गत ५. महावीर का धर्म-दशन : आज के सन्दर्भ में जितने ग्रन्थों के लक्षण संग्रहीत हैं. उनमें से प्राय: एक -~-श्री वीरेन्द्र कुमार जैन, बम्बई १२ प्राचीनतम ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में ६. ज्ञान की पावन ज्योति बुझ गई है हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। जहां विवक्षित लक्षण -श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहां उन ग्रन्थों के ७. भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति निर्देश के साथ २-४ प्रन्थों के प्राश्रय से भी अनुवाद ---श्री राजमल जैन, नई दिल्ली किया गया है। इस भाग में केवल 'क से प' तक लक्षणों ५. मालवा के शाजापुर जिले की अप्रकाशित का संकलन किया जा सका है। थोड़े ही समय में इसका जन प्रतिमाएँ-डा. सुरेन्द्र कुमार आर्य, उज्जैन २४ तीसरा भाग भी प्रगट हो रहा है। प्रस्तुत प्रन्थ शोधाथियों ६. तीन प्रप्रकाशित रचनायें-श्री कुन्दनलाल के लिए तो विशेष उपयोगो है ही, साथ ही हिन्दी अनुवाद जैन, दिल्ली के रहने से वह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी है। १०. रयणसार : स्वाध्याय की परम्परा मे द्वितीय भाग बड़ प्राकार में ४१८++२२ पृष्ठो का -डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच है। कागज पुष्ट व जिल्द कपड़े को मजबूत है । ११. भास के श्रमण क --डा. राजपुरोहित मल्य २५-०० ० है। यह प्रत्येक यूनीवसिटी, सावं१२. वेदो मे जैन सस्कृति के गूजते स्वर -श्री जी. मी जन । जनिक पुस्तकालय एव मन्दिरो मे स ग्रहणीय है। ऐसे १३. जैन सस्कृत नाट को की कथावस्तु : एक विवेचन ग्रन्थ बार-बार नहीं छप सकते। समाप्त हो जाने पर - श्री बापूलाल ग्रांजना. उदयपुर फिर मिलना अशक्य हो जाता है। १४. प्रायुर्वेद के ज्ञाता जैनाचार्य जैन लक्षणावली (तृतीय भाग) ---डा. हरिश्चन्द्र जैन, जामनगर (मुद्रणाधीन) १५. तीर्य कर महावीर - श्री प्रेमचन्द जैन, श्रवक धर्म सहिता : श्री दरियावसिंह सोधिया ५.०० एम. ए, दर्शनानाय, जयपुर Jain Bibliography १६. ग्वजराहो के पाश्र्वनाथ जैन मन्दिर का (Universal Encyclopaedia of Jain References) Pp. 2250 शिला वैव-श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, (Under print) प्राजमगढ सध्यानशतक हिन्दी टोका-श्री बालचन्द्र शास्त्री १.०० १७. जैन प्राचायों द्वारा सस्कृत मे स्वतन्त्र ग्रथो प्राप्तिस्थान का प्रणयन - मुनि श्री सुशीलकुमार वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, १८. जैन मस्कृति की समृद्ध परम्परा दिल्ली ---- श्री जयन्ती प्रसाद जैन, मजफ्फरनगर अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा मण्डल उत्त दायो नहीं है। --सम्पादक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् प्रहम् Jনকাল परमागमस्य बीज निबिडजात्यन्ध सिन्परविधानम् । सकलनविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २६ किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २५०२, वि० सं० २०३२ जनवरी-मार्च । १९७६ - परमात्मा का स्वरूप जह सलिलेण प लिप्पड कमलिण-पत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पइ कसाय-विसएहि सप्पुरिसो॥ -भावपाहुम, १५४. जैसे कमलिनीपत्र जल में रहता हुमा भी पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध प्रात्मा को प्राप्त करनेवाला विषय-वासनामों में तथा भावों में लिप्त नहीं होता। वह अपने वीतराग-स्वभाव को प्राप्त करता है। जिस्सेस-दोस-रहिमो केवलणाणाइ-परमविभव-बुदो। सो परमप्पा उच्च तषिवरीमो परमप्पा ॥ -नियमसार, ७. वो सभी प्रकार के दोषों रहित शुद्ध, निर्मल पात्मा है पौर केवल-ज्ञान मादि परम वैभव से युक्त है, वह परमात्मा कहा जाता है । उससे विपरीत परमात्मा नही है । स-सरोरा परहंता केवल-गाणेण मुणिय सयलत्था । णाण-सरीरा सिखा सम्वुत्तम-सुक्ख-संपत्ता ॥ ___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १९८. केवल ज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानने वाले, शरीर सहित प्रहन्त और सर्वोत्तम सुख को प्राप्त करनेवाले तथा ज्ञानमय शरीरवाले सिद्ध परमात्मा है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रास साहित्य का दुर्लम हस्तलिखित ग्रन्थ विक्रम-लीलावती चौपाई ॥ डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, उज्जैन उज्जयिनी के प्राचीन-रचित काव्य, नाटक एवं कथा- सुनकर विक्रमादित्य उस राज्य में पहुंचे तथा उस राजसाहित्य में उदयन, वासवदत्ता और विक्रमादित्य ऐसे पात्र कुमारी से विवाह कर स्वदेश लौट आये। हैं जिन पर मातान्दियों तक साहित्य सजन चलता रहा। ग्रन्थ के प्रारंभ मे सरस्वती की वंदना है और यह चंडप्रद्योत (ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी) के काल से लेकर महत्वपूर्ण सूचना दी गई है कि जैन मत्तिशिल्प में सरस्वती कवि कालिदास तक उदयन-वासवदत्ता की कथाएँ, उन पर की प्रतिमा किन लक्षणों पर निर्मित होती थी। "वीणा प्रभिनीत नाटक और काव्य अवंतिका के ग्राम वद्ध सुना पुस्तक धारणी, हंसासन कवि माय प्रात समये नित नम् मोर देखा करते थे। इसी प्रकार, बैताल, भतहरी, सारद तोरा पाय ।" कह कर स्तुति की गई है । तत्पश्चात् पिंगला और विक्रमादित्य की कथाएँ यहां लोकप्रिय रही। मालव वेश और उज्जैन का वर्णन है । जम्बूद्वीप में भरता खण्ड और उसमें तीर्थ-स्थान उज्जैन और वहां के गढ़, मठ, विक्रमादित्य से सम्बद्ध साहित्य उज्जैन के सिंधिया मन्दिरों के वैभव का काव्यात्मक भाषा मे वर्णन है :प्राच्य-विद्या शोध प्रतिष्ठान में इन दुर्लभ प्रतियों में सुरक्षित "नंबूद्वीपे भरत विशाला, मालव वेश सदा सुकाला। है: (१) विक्रमसेन चरित (२) सिंहासन बत्तीसी (३) उज्जेणी नगरी गणे भरी, गढ़, मठ, मन्दिर देवल करी॥ सिंहासन बत्तीसी कथानक (४) सिंहासन बत्तीसी बखर सात भूमि प्रसाद उत्तंग, तोरण मंडप सोहे संग। (५) बैताल पंचविंशति बखर (६) विक्रम लीलावती ठामें ठामें साहकार, इतर पान जिहां जय जयकार ।। चौपाई । अंतिम ग्रन्थ मालवा और विक्रम पर अनेक सूचनायें चारवर्ग बसे तिण पुरं, पवन बत्तीस बसे बऊपरे । देता है। प्रतिष्ठान मे इस कथानक को दो प्रतियाँ है राजा विक्रम देव प्रकार, बंक्षस त्रिस ऊपर सार । जिनके नाम क्रमशः विक्रम-लीलावती चौपाई (ग्रंथ क्रमांक राजा नित पाले राजान, न्याय समंत्रणों उपमान । ५३२) तथा विक्रमाचरित्र लीला चौपाई (ग्रन्थ ग्रंक सबल सौभाग बहुगुण मिली, सरवीर उपकारी भली ॥" ५२८६) हैं। ग्रन्थ के अंत में कहा गया है कि श्रीचंद सूरि के यह एक जैन रास है जिसकी रचना गुजराती मूलक शिष्य अभय सोम खरतर गच्छ के श्रावक थे। ग्रन्थ से हिन्दी भाषा में श्री अभय सोम ने संवत् १७२४ में की थी। मालवा की भौगोलिक स्थिति, प्रतिमा-लक्षण और इस ग्रंथ में विक्रमादित्य को परमार वंशीय माना गया है। विक्रमादित्य का परमार काल से सबन्ध ज्ञात होता है। रास का मुख्य कथानक यह है कि एक बार जब विक्रमा- यह प्रति दुर्लभ है और प्रायः मेरे देखने में और कहीं दित्य रात्रि में नगर-भ्रमण कर रहे थे, उन्हें किसी नाग- नहीं पाई है। रिक के घर से शुकसारिका का यह संवाद सुनाई दिया ४, धन्वन्तरि मार्ग, गली न० ४, कि दक्षिण देश के स्त्री राज्य में पुरुषों से द्वेष करने वाली माधव नगर उज्जन अत्यन्त लावण्यमयी राजकुमारी रहती है। यह वार्ता (म.प्र.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानांप्रिय प्रियदर्शी अशोकराज कौन था ? डा० सत्यपाल गुप्त, एम. ए., पी-एच. डी. लखनऊ सम्पूर्ण भारतवर्ष मे विखरे हुए बहुत से स्तम्भ-लेख भाषण में मेगास्थनीज़ के सैडाकोटस को चन्द्रगुप्त मौर्य से तथा शिलालेख मिले है जिनमे देवानाप्रिय प्रियदर्शी राजा भभिन्न माना था। इस अद्भुत खोज के एक वर्ष बाद का उल्लेख है। गुजर्रा तथा मास्की से प्राप्त लघ शिला- अप्रैल, १९७४ मे उनका देहावसान हो गया। उन्होंने लेखों में देवानां प्रिय अशोकराज नाम देखकर विदवानों जिसको एक सम्भावना माना था, भाज लगभग १७० वर्ष ने इन समस्त अभिलेखों को चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक बाद भी इतिहासकार उसी निराधार सम्भावना को दोहमौर्य का मान लिया है। इन अभिलेखों में ऐसी कोई सामग्री राते पा रहे है । उस समय तक यह ज्ञात नहीं था कि नही मिलती जिसके प्राधार पर इनका सम्बन्ध मौर्य वंश गुप्तवंश में भी कोई चन्द्रगुप्त नाम का राजा हुमा था। से जोड़ा जा सके । ये लेख बहुत दिनो तक नहीं पढे जा सैडाकोटम चन्द्रगुप्त का द्योतक तो अवश्य है परन्तु यह सके थे, परन्तु सबसे पहले १८३८ ई० में प्रिसेप ने गिरनार चन्द्रगुप्त मौर्य न होकर गुप्तवंश का चन्द्र गुप्त प्रथम है। के दिवतीय शिलालेख को पढ़ा और प्रकाशित किया। भारतीय इतिहास की खोज प्रत्यन्त कष्टसाध्य है और जल्दप्रारम्भ मे उसका मत यह था कि ये लेख लंका के देवानां बाजी में किसी सत्य निष्कर्ष पर नही पहुंचा जा सकता। प्रिय तिष्य के है। परन्तु बाद मे नागार्जुन पहाड़ियों में रुद्रदामा के जनागढ़ लेख से इतना तो स्पष्ट है कि (गया से १५ मील उत्तर) दशरथ मौर्य के गृहालेखों को " मौर्य वंश मे अशोक नाम का राजा हा था (प्रशोकस्य , देखकर तथा दीपवश में प्रशोक नाम के साथ प्रियदर्शन मौर्यस्य कृते यवनराज तुषास्फेनाधिष्ठाय...) और काठिलगा देखकर उसने उनको प्रशोक मौर्य का माना। इन गुहाओं यावाड़ उसके राज्य के अन्तर्गत था, परन्तु अन्य कोई ऐसे का दान राजा दशरथ दवारा प्राजीवक सम्प्रदाय के लिए प्रमाण अभिलेख प्रादि के रुप में नहीं मिले है जिनसे उसके किया गया था। गत १४० वर्षों में भारतीय तथा पाश्चात्य कार्यकलापों पर प्रकाश पड़े। बौद्ध साहित्य के अध्ययन विद्वानों ने अनेक खोजपूर्ण लेख तथा ग्रन्थ लिखे है, स्थान से तथा फाहियान और ह्वेनसांग आदि चीनी यात्रियों के स्थान पर खुदाइयाँ हुई है, सस्कृत के अनेक प्राचीन विवरण से ज्ञात होता है कि भारतीय इतिहास मे दो प्रशोक हस्तलिखित ग्रन्थों का प्रकाशन हुप्रा है। प्रतएव १८३८ राजा हुए है। ह्वेनसांग ने लिखा है : "तथागत के निर्वाण के ई० की तुलना में प्राज बहुत अधिक ऐतिहासिक सामग्री १०० वर्ष पश्चात् एक अशोक नामक राजा हुमा जो उपलब्ध है, जिससे इन स्तम्भ-लेखों तथा शिलालेखों के विम्बसार का प्रपौत्र था। उसने राजगृहसे लाकर पाटलिपुत्र वास्तविक निर्माता का पता चल सकता है । सन् १९४७ को राजधानी बनाया था।" उसने पाटलिपुत्र के निर्माण ई० में भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् अनुसन्धान क्षेत्र में के सम्बन्ध में बदध की भविष्यवाणी का भी उल्लेख एक नवीन राष्ट्रीय चेतना का उदय हुमा है और प्राजकल किया है। इससे इतना स्पष्ट है कि हनसाग के काल में इतिहासकार उपलब्ध सामग्री के आधार पर भारत का भारतवासी बौद्ध यह मानते थे कि सबसे पहले अशोक ने वास्तविक नवीन इतिहास तैयार करने में सलग्न है। पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया था। वह बिम्बसार का भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि प्रपौत्र था, प्रजातशत्रु का पौत्र भौर गौतम बुद्ध के भारतवर्ष में एक नाम वाले अनेक राजा हए हैं। सर निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् राजा बना था। वायु पुराण विलियम जोन्स ने २८ फरवरी, १९७३६० के अपने प्रभि- में उदायी द्वारा अपने शासनकाल के चतुर्थ वर्ष मे गंगा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, बर्ष २९, कि अनेकान्त के दक्षिण कल पर कुसुमपुर नामक श्रेष्ठपुर बनवाने का नया मम्बन चलाया था और उमको मत्यु बद्ध सं० २५ में उल्लेख है। 'पाटल' शब्द शाश्वत कोश के अनुसार 'कुसुम' रथो (लीजेन्डस ग्राफ दी बर्मीज बुद्ध, पृ० ११३) । का पर्याय है । अतएव कुसुमपुर कालान्तर में पाटलपुत्र या इन बौद्ध दन्तकवानों की प्रामाणिकता की पुष्टि कुणिक पाटलिपुत्र कहलाया। अश्वघोष के बुद्धचरित (सर्ग २२/३) की अभिलेखयक्त मति में होती है । यह मूति में प्रजातशज़ के मंत्री वर्षकार द्वारा पाटलि ग्राम में एक मथग के पाम परखम में मिली थी और आजकल किले के निर्माण करवाने का उल्लेख है। अजातशत्रु ने मथग संग्रहालय में है। भास ने 'प्रतिमा' नाटक में बद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् १५ वर्ष राज्य किया या। यह सकेत दिया है कि प्राचीन काल मे नमर के बाहर देवतत्पश्चात् दर्शक (प्रजात शत्रु के भ्राता ने २५ वर्ष प्रोर कुलो में राजा को मृत्यु हो जाने पर उनकी प्रतिमा बनवाउदायी ने २३ वर्ष राज्य किया। उदायी के बाद बौद्ध ग्रयो कर खड़ी कर दी जाती थी। इस प्रतिमा में नीचे की के अनुसार भनिरुद्ध तथा मुण्ड ने क्रमश. ६ वर्ष तथा ८ और यह अभिलेख है :-- वर्ष गज्य किया। पुराणो मे केवल मुख्य मुख्य राजागो निभादप्रमेनि अजातशत्र गजश्री इणिक सेवासि के नाम तथा शासन-काल दिए हुए है। काल-गणना सही नागो मागधानां राजा"प्रर्थात् मगध देश का राजा प्रजात-- रखने के लिए महत्त्व-हीन गजामा के शासन-काल बाद शत्र. श्री कणिक, जो निर्वाण को प्राप्त हो गया। वाले गजा के काल मे जोड़ दिए गए है (देखि डा। श्री काशी प्रमाद जायसवाल ने बिहार-उड़ीसा के रिसर्च मनकड कृत पौराणिक क्रोनोलाजी) । इस प्रकार बद्ध के जग्नल, खण्ड ५ १६१६) मे शिशुनागवशीय राजाओ ६. वर्ष बाद नन्दिवर्धन राजा बना । गिलगिट से प्राप्त की प्रतिभानो के सम्बन्ध में विस्तृत लेख लिखा है। उदायी विनयपिटक के हस्तलेख में लिखा है तथा नन्दिवर्धन की प्रतिमाए भी पटना मे मिल गयी है। "बोधिसत्त्वस्य जन्मकालसमये चतुर्महानगरेषु चत्वा- एक प्रतिमा गगा में से निकाली गयी थी, दूसरी प्रतिमा रो महाराजा अभवन् । तद्यथा राजगृहे महापद्मस्य पुत्र, अगमकुमां के पास मिली थो। ये प्रब पटना के संग्रहालय श्रावस्त्या ब्रहमदत्तस्य पुत्र' । उज्जपन्या राज्ञो अनन्तनेमे में है। डा. जायसवाल ने इन पर खदे मस्पष्ट लेखो का पुत्रः। कौशाम्ब्या राज्ञः शतानीकस्य पुत्र ।" पढकर यह निश्चय किया कि एक मति प्रज उदायी की है इमसे स्पष्ट है कि बुद्ध के जन्म काल के समय मगध में और दूसरी सिररहित मूनि व्रात्य नन्दिवर्धन की है (जे. महापद्म प्रथम (क्षत्रीजा, क्षेमजित्, हेमजित) और महारानी बी० प्रो० आर० एस०, खण्ड ५)। प्रजातशत्रु ने बिम्बा से उतान्न पुत्र बिम्बमार राजाथा । बिम्बसार बद्ध- अग, वज्जि, काशी और मल्ल महाजनपदो को जीतकर चरित (११/२) के अनुमार हयंक कुल का था। इसको मगध मे मिला लिया था। उदायी ने पालक तथा कुमार इतिहास में श्रेण्य या श्रेणिक कहा गया है। मज्झिम- (अवनिवर्धन) के मरने के बाद अवन्ति को मगध राज्य मे निकाय (१० १३१) मे इसको सेनिय' लिखा है . "रजा मिला लिया था। विविध तीर्थकल्प मे भी पालक का मागधेन से नियेन बिम्बिमारे नाति' । इसका पुत्र प्रजातशत्र राज्य ६० बर्ष माना गया है। उदायी के पुत्र नन्दिवर्धन था जिसको कुणिक, देवानाप्रिय, अशोकचन्द्र प्रादि नामो से ने पाटलिपुत्र के अतिरिक्त वैशाली को भी अपनी दूसरी मोपपस्तिक-सूत्र (प्रकरण १८,१६), कथाकोश, विविधतीर्थ राजधानी बना रखा था। सुत्त-निपात में इसका उल्लेख कल्प (० २२,६५) और मावश्यक-णि मे स्मरण किया मिलता है । नन्दिवर्धन मूलतः जैन था,अतएव ब्राह्मण ग्रन्थों गया है । महावंश के अनुसार, अजातशत्रु ने प्रथम वौद्ध में उसकी प्रशमा नही मिली । वस्तुत: नन्दिवर्धन (नन्दसंगीति का प्रबन्ध किया था (म०३/१५-१६), परन्तु राजा) धर्मसहिष्ण राजा था। उसने अपने पितामह की मजातशत्र बौद्ध नहीं था, वह जैन था । बिगौडेट महोदय तरह देवानाप्रिय तथा प्रशोकविरुद अपने नाम के साथ ने बर्मा में प्रचलित बौद्ध दन्त-कथामो के प्राधार पर लिखा जोड़ा था । सम्पूर्ण भारत मे पाए गए स्तम्भ-लेख, शिलाहै कि अजातशत्रु ने गौतम बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् एक लेख, पचमार्क मिक्के (नन्दी चिह्नयुक्त) इसी राजा के Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 DATin: २५. RAN म . . .. देवानाप्रिय प्रियदर्शी प्रशोकराज कौन था ? है। यह दुख का विषय है कि इतने प्रतापी, धर्मसहिष्ण, ' चक्रवर्ती राजा को भारतीयो ने पूर्णत: भुला दिया। लौग्यि नवन्दगढ़ की खुदाइयों मे ३ फुट से १२ फुट की गहराई पर मानव अस्थियों तथा कोयलो के साथ पृथिवी की एक सोने की पत्तर पर बनी प्रतिमा पायी गयी थी (ए. एम० प्रार० १६०६-७) । इम स्थल पर टोले मे गहा एक लकडी का स्तम्भ भी मिला था। ऊपरी भाग दीमक ने खा लिया था, परन्तु निचला भाग ठीक था। इस स्तम्भ की ऊचाई ४० फीट रही होगी। प्राचीन काल मे गजामो के मरने के पश्चात् उनकी अवशिष्ट अस्थियो पर स्तूप तथा स्तम्भ बनवाने की वैदिक प्रथा थी। ऋग्वेद (म० १०,१०/१०) 'मे उपत्ते स्तम्भाना पृथिवीत्वन् परिमा ' मत्र मिलता है। दूसरे मत्र (१३) में भी मतक के प्रति कहा गया है ."अपनी माता पृथ्वी के पाम जानो। यह म जो ऊन सदृश कोमल है, तुम्हारी विनाश से रक्षा करे।" श्री टी०लाख का मत है कि लोरिय परराज और लौरिय नवन्दगढ के स्तूप प्राक मौर्यकाल के है। नवन्दगढ शब्द म्वय नव (नवीन) नन्दो की स्मृति दिलाता है। नवन्दगर मूल नाम था और अब भ्रम से उमी को नन्दनगढ कहा जा रहा है जो मूल शब्द नवनन्दगढ का अपभ्रश रूपान्तर है। लौरिय अरगज तथा लौग्यि नवन्दगढ मे प्रियदर्शी ने प्रस्तर स्तम्भ क्यो खड़े करवाए ? इसका स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि ये स्थल नन्द राजाप्रो के श्मशान-स्थन थे और प्राचीन युग मे यहाँ पर यज्जि गणराज्य की गजधानी थी। लोग्यि नवन्दगढ के स्तम्भ का शीर्ष कमलाकार है जिस पर मिह उत्तर को मुख किए खडा हुआ है। इम . स्तम्भ पर भी टॉपरा स्तम्भ मदृश छः स्तम्भ लेख उत्कीर्ण AAR intent •RATHIANA Racins Tol. LTA ...' १६ खाग्वेल का हाथी-गुम्फा लेख प्रियदर्शी के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह प्राचीन अभिलेख भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ी की हाथी-मुंफा (चित्र पृ० ७ पर) NEPAL नामक गुफा में खुदा हुमा है। इस प्रशस्ति मे खारवेल के .. बंश, जीवन और शासन को घटनामो का सिलसिलेवार इलाहाबाद के किले में विद्यमान नन्दिवर्धन का स्तम्भ जिस वर्णन दिया हुआ है । खारवेल ने अपने शासन-काल के पर उसके प्रभिलेख खुदे हुए हैं। इस स्तम्भ पर गुप्त पांचवे वर्ष मे तनसुली से अपनी राजधानी तक, ३०० वर्ष सम्राट् समुद्रगुप्त को प्रशस्ति भी सस्कृत भाषा में खुदी पूर्व नन्द राजा द्वारा बनवायी गयी नहर का जीर्णोद्धार है (भारतीय पुरातत्व विभाग के सौजन्य से)। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त करवाया (पच्चमे च दानी वसे नन्दराज तिवसमत प्रोधा- और अष्टभागी कर दिया, अर्थात् उपज का माठवा भाग टितं तनसुलिय वाटापनादी नगरं पवेस यति)। खारवेल ने कर के रुप मे लिया जायेगा। क्या इससे यह स्पष्ट नही अपने शासन के पाठवें वर्ष में राजगह पर प्राक्रमण किया है कि प्रियदर्शी राजा अशोक मौर्य नही था, नही तो स्तूप पौर यवनराज दिमित को मथुरा भगा दिया । अगली बार बनवाने का उल्लेख अवश्य करता। अपने शासन के १२वें वर्ष मे खारवेल ने पुनः मगध पर . प्रियदर्शी के अभिलेखो मे कही भी कौटिल्य या उसके प्राक्रमण किया और राजा बहस्पति मित्र को अपने चरणो अर्थशास्त्र का कोई उल्लेख नही मिलता । अभिलेखों मे में गिरने को बाध्य किया । खारवेल मगध से काफी सामान रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त अधिकारियों का उल्लेख है। लट कर ले गया । इसमें भगवान् को वह मूर्ति भी थी जो तृतीय लेख मे स्पष्ट कहा गया है कि मेरे विजित राज्य में नन्द राजा कलिंग से छीनकर ले गया था। इस प्रशस्ति मे युत, रज्जुक, प्रादेशिक प्रति पाच वर्ष पर दौरे पर निकला मौर्य संवत १६५ का उल्लेख भी मिलता है : मुरिय काल करे । प्रियदर्शी ने इस प्रकार अपने शामको मे धर्मानशामन वोछिनं प्रगम निकंतरिय उपादायाति' । इस प्रशस्ति से स्पष्ट का कार्य भी लिया था। धर्भ महामात्रो की नियुक्ति प्रियहै कि कलिग देश पर किसी नन्द राजा ने अाक्रमण किया दर्शीने अपने गज्याभिषेक के तेरहवे वर्ष में की थी। इसके था, वह 'जिन भगवान की मूर्ति उठा ले गया और प्रजा के अतिरिक्त, योधर्म मात्र, और ब्रजभमिक भी धर्म-विजय सुख के लिए नहर भी ग्व दवायी थी। इतिहाग में कलिग पर के लिए नियुक्त किए गए थे । इनका उल्लेख अर्थशास्त्र में प्रियदर्शी के प्राक्रमण का ज्ञान तो उसके तेरहवें शिलालेख नहीं है। बी.गी जो वाल्यूम २ मे पीथ ने एक विस्तृत लेख से होता है । यह युद्ध प्रियदर्शी के अभिषक के पाठवे वर्ष में लिखकर अर्थशास्त्र पीर प्रियदर्शी के अभिलेखों की विमहुप्रा था। इस युद्ध में ही उसका चित्त अनुतप्त हो गया गतियाँ दर्शायी है । द्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख से स्पष्ट और उगने युद्ध-विजय के स्थान में धर्म-विजय प्रारम्भ की। है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक मौर्य के काल में यदि यह अशोक मौर्य वश का था, तो बोद्ध ग्रंथों में प्रान्तीय शासक का 'प्रादेशिकः' न कहकर 'राष्ट्रिय' कहा उसके इस प्राक्रमण का उल्लेख क्यों नही है। दिव्यावदान जाता था। पुप्यगुप्त तथा नुषाप्प चन्द्रगुप्त मौर्य तथा में अशोक के बुद्ध-जीवन से सम्बन्धित स्थलो की यात्रा का अशोक मौर्य के काल में सौराष्ट्र राष्ट्रिय थे । प्रियदर्शी वर्णन मिलता है। यह यात्रा उसने उपगुप्त स्थविर के को मोर का मास पसद था। सरक्षित पक्षियो की सूची में साथ की थी। ह्वेनसाग के अनुसार, कपिलवस्तु, सारनाथ मोर का नाम नही दिया हुआ है। परिशिष्ट पर्व (५।२२६) भादि स्थलो पर अशोक ने स्तूप बनवाए थे (बील पृ० तथा उत्तराध्ययन-सूत्र पर सुखवीधा टीका से स्पष्ट है कि २४) । फाहियान ने तथा बुद्ध-चरित में अश्वघोष ने मौर्य लोग मयर पोषक थे और मोशे के देश से पाए थे। चौरासी सहस्त्र स्तूप बनवाने का उल्लेख किया है। यदि प्रियदर्शी की पत्नी कारुवाकी और पुत्र नीवर का मम्पूर्ण सहस्त्र का अर्थ 'लगभग' भी हे तो कम से कम चौरासी बौद्ध साहित्य में उल्लेख नही है । मभिलेखो में महेन्द्र तथा स्तूप तो प्रशोक मौर्य ने बनवाए ही थे, फिर उनका अभि- सघमित्रा का कोई सकेत नही मिलता। इसी प्रकार, तिष्य लेखो मे कोई उल्लेख क्यो नही है। निगली सागर स्तम्भ की अध्यक्षता में हई तृतीय बौद्ध संगीति तथा विदेशो मे लेख से यह स्पष्ट है कि प्रियदर्शी ने राज्याभिषेक के १४ भेजे जाने वाले प्रचारको का ही कोई उल्लेख है । महावंश वर्ष बाद कनकमुनि स्तूप को दुगना करवाया था । २० और दीपवश मे इन प्रचारको की विस्तृत सूची मिलती वर्ष बाद उसने इस स्थान पर एक प्रस्तर स्तम्भ बनवाया है (महा. १२६१-८, दीप० ८।१-११) । जिस पर लेख खुदा हुमा है। प्राघुनिक रुम्मिन देई ही द्वितीय अभिलेख मे लिखा है कि अशोक ने अपने प्राचीन लुम्बिनी वन है जहा पर गौतम बुद्ध का जन्म हुमा विजित प्रदेश में ही नहीं, अपितु सीमावर्ती राज्यो मे भी था। प्रियदर्शी ने 'बलि' सज्ञक धर्मकर हटा दिया और मनुष्यों तथा पशुप्रो की चिकित्सा का प्रबन्ध करवाया था। लुम्बिनी ग्राम को उबलिक (जिससे बलि न ली जाए) पौषध, फल तथा फूलों के वृक्ष लगवाए थे। सीमान्त Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानांप्रिय प्रियवशी मशोकराज कौन था? राज्यों में चोळ, पांड्य सातियपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी, विद्वानों का ध्यान क्यों नही गया। जहां तक प्रियदर्शी मंतिमोक राज्य गिनाए हैं। अंतिमोक अफगानिस्तान के नन्दिवर्धन का सम्बन्ध है, उसके राज्य का वर्णन ऊपर पास यूनानियों की एक छोटी-सी बस्ती का राजा था। इस किया ही जा चुका है। मंसूर के उत्कीर्ण लेखों के अनुसार, अंतिम्रोक के सामन्त कतिपय अन्य छोटी-छोटी बस्तियो के कुन्तला प्रदेश दन्दों के शासन में था। ये लेख १२वी सदी राजा थे जिनके नाम तुरमय, अन्तकिनि, मक तथा अलिक के है परन्तु इनकी प्रामाणिकता विवादग्रस्त नहीं है (राइस. सुन्दर थे। यह मन कि ये नाम सीरिया, मिश्र, मैसी. कृत मसूर एण्ड कूर्ग इन्शक्रिशन्म, पृ० ३) । कवि मामूलहोनिया, साइरीनी और इपाइरस के शासको के थे ,नितान्त नार ने संगम साहित्य में नन्द राजा द्वारा दक्षिण-विजय भ्रामक है। क्या इन देशो के इतिहास मे भी यह उल्लेख का स्पष्ट उल्लेख किया है। मिला है कि भारत के किसी राजा ने उसके देश मे कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि राजा प्रशोक चिकित्सा, वृक्षारोपण आदि करवाया था? प्रियदर्शी के जैन था । इसने श्रीनगर बसाया था। अनेक बिहार पोर राज्य की जो सीमाएं अभिलेखो के आधार पर निश्चित स्तूप बनवाए थे । राजतरंगिणी एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। की गयी है वे उमको सम्पूर्ण भारत का एकछत्र राजा दर्शाती मद्राराक्षम मे राक्षस की ओर से युद्ध करने वाले है। मेगास्थनीज के वर्णन से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त राजा का नाम पुष्कराक्ष (मुद्रा० १/२०) था। गज ATK Ke . A मुवनेश्वर के पास उदयगिरि पर्वत पर हाथीगम्फा नामक गहा। इसमे कलिंग के महाराजाधिराज खारवेल को प्रशस्ति है जिसमे नन्द राजा का दो बार उल्लेख किया गया है। (भारतीय पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से) केवल मगध का राजा था और उसके काल में दक्षिण मे तरगिणी में यह नाम उत्पलाक्ष दिया हया है। संस्कृत में मान्ध्र अत्यन्त शक्तिशाली थे। अशोक ने केवल कन्निग पर्यायो के प्रयागको परिपाटी थी। पुष्कर तथा उत्पल दोनो देश जीता था। विन्दुसार ने राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया कमल के अर्थ में प्रयुक्त हगा है। उत्पलाक्ष न ३० वर्ष ३ था। इसका वर्णन बौद्ध, जैन ग्रन्थों या कथामारित्मागर मास काश्मीर में शासन किया था । कल्हण की काल गणना मादि मे कही नहीं मिलता। फिर इतने बड़े तथ्य की पोर पूर्णत. पुराण सदृश है। उसमे कल्हण ने केवल एक यह Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त भूल की है कि महाभारत युद्ध ६५३ कलि स० में हुआ था। मिथ्याचार मानती है । सच्चे धर्म के लिए प्रास्म-पर्यवेक्षण ___ डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपनी मृत्यु से कुछ आवश्यक है। प्रियदर्शी ने सब धर्मों के सार-तत्व की वृद्धि ममय पूर्व 'अशोक का लोक सुखयन धर्म' लेख लिखा था। पर और सब सम्प्रदायो के दृष्टिकोण को उदार बनाने पर इसमें उन्होंने अभिलेखों के विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन वल दिया है (लेख १२)। के प्राधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया था कि प्रियदर्शी इन शिलालेखों मे बुद्ध-धर्म का कही उल्लेख नही का धर्म हिन्दू धर्म था : 'ऐसा पोराण पक्ति'। यही है। श्रमण शब्द का अर्थ जैन साधु होता है जिसने अपनी सनातन धर्म है । लघु शिलालेख २ मे दिए हुए शब्दो की वासनामो का शमन कर लिया हो । जैन ग्रन्थो मे भी तुलना तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षावली के 'सत्यं वद । ब्राह्मण-श्रमण शब्दो का साथ-साथ प्रयोग मिलता है। धर्म चर । मातृदेवो भव । प्राचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो प्रियदर्शी के काल मे बौद्ध धर्म का बहुत अधिक प्रचार भव ।' से की जा सकती है। "धर्म अच्छा है, लेकिन धर्म नही था। जैन धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था और इसलिए है क्या ? पाप रहित होना, बहुत कल्याण करना, क्या, जनता भी इसी मत की अनुयायी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के दान, सत्य और पवित्रता , ये धर्म है।"मनु ने धर्म के दस अमात्य प्राचार्य कोटिल्य न शाक्य प्रबजितो को देवकार्यों लक्षण माने है : घृति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय एव पितृकार्यों में निमत्रित करने का निषेध किया था। निग्रह, ध्यान, विद्या, सत्य और अक्रोध । प्रियदर्शी की शाक्यप्रवजित' से तात्रयं 'बोद्ध भिक्षुओं' से है। जिनव्याख्या मनु सदृश है । चडता, निष्ठरता, क्रोध, मान और शासन शब्द का अर्थ 'जैन' था। 'जिन' शब्द महावीर ईया ये भासानिब या पाप के गर्त मे मनुष्य को गिराते है स्वामी के लिए प्रयुक्त किया गया है । श्रमण, श्रावक, (स्तम्भ-लेख ३) । मनु के ध्यान को प्रियदर्शी ने 'निझति' । उपासक, सघ शब्द जैन धर्म से सम्बन्धित है : 'सः सम्प्रति कहा है। लेख ७ में निझति के महत्व पर बल दिया गया नामा राजावन्तीपतिः श्रमणाना श्रावकः उपासकः पचाणहै। ध्यान द्वारा मानसिक परिवर्तन ही निझति है। यह व्रतधारी प्रभवदिति शेष.'--बहत्कल्प सूत्र टीका । विद्जैन धर्म का विशिष्ट शब्द है। वस्ततः प्रियदर्शी ने जीवन वानो ने शिलालेखा की शब्दावली का भली प्रकार प्रध्यका सत्य पा लिया था। प्रियदर्शी और व्यास की घर्म यन नही किया, नहीं तो प्रियदर्शी राजा जैन था इसमे कोई विषयक वाणी एक है-भेरी घोष को हटाकर मैंने धर्म घोष सन्दह का अवकाशन चलाया है (लेख ४)। लेख २ मे प्रियदर्शी ने शील और प्रियदशी की लाट पर नन्दी की मत्ति मिली है सदाचार-प्रधान धर्म को 'दीधाबुस' या दीर्घजीवी माना है। (देखिए रामपुरवा की नन्दी को मूत्ति )। यह नन्दी की शतपथ ब्राह्मण मे 'यशोव श्रेष्ठतम कम' लिखा है मत्ति नन्दिवधन का प्रतीक है। (१/७/१/५)। तैत्तिरीय ब्राह्मण म भी 'यज्ञो हि श्रेष्ठतम कर्म' कहा गया है (३/२/१/४) । परन्तु कालान्तर में इस युम में श्रमण-ब्राह्मणो का विरोष था, ऐसा महापरम्परा विकृत हो गयी और यज्ञो मे पशु हिसा होने भाष्यकार के 'एषा च विरोधः शाश्वतिकः' (२।४।१२) पर लगी। इसी का वर्णन प्रियदर्शी ने अपने चतुर्थ शिलालेख भाष्य से प्रकट होता है। उन्होने 'बहिनकुलम्' के साथमे किया है-'प्रतिकति अनर बहूनि वासस तानि वढि तो साथ 'श्रमण-ब्राह्मणम्' का उल्लख किया है। सम्भवतः एव प्रणारभा विहिसा न भूतान' अर्थात् पूर्वकाल मे बहुत प्रियदर्शी के काल में भी श्रमण-ब्राह्मणो म विरोध था, समय तक पशुमो की हिसा और समस्त प्राणियो के प्रति इमलिए प्रियदर्शी ने दोनो धर्मों के अनुयायियो का धर्मों हिसात्मक व्यवहार बढना रहा । इसलिए प्रियदर्शी ने का सार ग्रहण करने का आदेश दिया था। घोषणा का. 'एसहि ऐस्टे कम या धर्मानसारसन' प्रथांत उपयुक्त प्रमाणा स स्पष्ट है कि प्रियदशी राजा, अशोक वही श्रेष्ठ कर्म है जो धर्म का अनुशासन है। परन्तु धर्मा- मौर्य से कम से कम १६२ वष पूर्व हुमा था और जैन था, चरण के लिए शील प्रावश्यक है। शील-प्रधान जीवन में न कि बौद्ध । प्रशाक मौयं वौद्ध था। भ्रम से इतिहासभावशुद्धि के बिना सब प्राडम्बर बन जाता है। मन ने वेत्तानो ने दो भिन्न कालो के दो भिन्नधर्मी राजाप्रो को (२/६७ मे) 'न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धि गच्छति कहिंचित' मिला दिया है। मत्री, नेहरू शोध सस्थान, कहा है। गीता भी मन के सयम के बिना धार्मिक जीवन का ४६ माडल हाउस, लखनऊ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिमल्ल के विक्रान्तकौरव में प्रादि तीर्थंकर ऋषभदेव श्री बापूमाल प्रांजना, उदयपुर १३ वी शती मे जन कवियों ने संस्कृत नाट्य-साहित्य प्रस्तुत की गई है । जयकुमार एव सुलोचना का विस्तृत का पर्याप्त सवर्घन किया है। उनमे महाकवि हस्तिमल्ल जीवन चरित जिनसेन के महापुराण में उपलब्ध है। ये का नाम अग्रणी है। उनके लिखे चार रूपक विक्रान्त जयकुमार दिग्विजय के समय ऋषभदेव के पुत्र भरत चक. कौरव', मैथिलिकल्याण, प्रजनापवनञ्जय और सुभद्राना- वर्ती के सेनापति रहे है। इन्होने जीवन की प्रतिम टिका है। हस्तिमल्ल को पाण्ड्यमहीश्वर का समाश्रय अवस्था मे विरक्त होकर मुनि-दीक्षा धारण को थी, भोर प्राप्त था। ये पाण्ड्यमहीश्वर अपने भुजबल से कर्नाटक ये ऋषभदेव के ८४ गणधरो में हुए। प्रदेश पर शासन करते थे ।' डा० ए० एन० उपाध्ये ने यद्यपि हस्तिमल्ल ने 'विकान्तकौरव' नाटक मे जयअजनापवन जय की दो प्रतियो में 'श्रीमत्पाण्यमहीश्वरे' कुमार एव सुलोचना के स्वयंवर का कथानक निबद्ध किया इनोक मैं 'मततगमे' समे'-पाठ में से 'संततगमें' है, तथापि प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के प्रति पाठ को उचित बतलाया है। सभवत हस्तिमल्ल 'सततगम, प्रगाघ भक्तिभावना के दर्शन हमे इस नाटक में प्राप्त में ही कुटुम्नसहित निवास कर रहे थे, और यही पाण्ड- होते है। घमहीश्वर को राजधानी भी थी । कर्नाटकविरचित के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भरतक्षेत्र में कर्ता पार नरसिंहाचार्य ने हस्तिमल्ल का ममय १३४७ भोगभूमि की रचना थी । कल्पवृक्षो से ही लोगों का सारावि० सं० निश्चित किया है ।' डा. रामजी उपाध्याय का कार्य चलता था । उनके समय भोगभूमि नष्ट होकर कमभी यही मत है कि कवि ने अपनी कुछ रचनाएं ई०१३ भूमि का प्रारम्भ हुअा था। भगवान ऋषभदेव ने प्रसि, वीश के अन्तिम भाग में और कुछ १४वी श०के मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन ६ कर्मों का प्रारम्भ मे लिखी होंगी। उपदेश देकर सबको प्राजीविका की शिक्षा दी। उन्होने हस्तिमल्ल के उपलब्ध चार रूपको' मे से तीन का नगर प्रामादि का विभाग कराया, वर्णव्यवस्था को मौर कथानक जैन पुराणों पर प्राधारित है। विक्रान्तकौरव की राज्यवशो की स्थापना की। सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव कथावस्तु का प्राधार जिनसेन का महापुराण है। विका- ने भरतक्षेत्र के चार राजामों का अभिषेक किया था, न्तकौरव मे जयकुमार व सुलोचना के स्वयवर की कथा वागणसी के राजा प्रकम्पन और हस्तिनापुर के गजा १. विक्रान्तकौरव का अपर नाम सुलोचना है। ३. श्रीमत्पाण्डपमहीश्वरे निजभुत्रदण्डावलम्बी कृतम -- २ सभवत कवि ने उदयनराज, भरतराज, अर्जुनराज माणि कचन्द्र जं. ग्रं. मा० से प्रकाशित प्रजनापवन और मेघेश्वर मादि चार नाटक भी लिखे थे। मि० जय की भूमिका, पृ० ६६. प्राफेरव के केटेलागस् केटलानोरम्' (सन् १८६१ ४. प्रथपरीक्षा, तृतीय भाग, पृ०८ लिपजिग) में इन सब नाटकों का उल्लेख प्रापर्ट २ मध्यकालीन संस्कृत नाटक, पृ० २२८. साहब की लिस्ट प्राफ मंस्कृत मेनु० इन सदर्न इण्डिया' ६ ये चारों रूपक माणि कचन्द्र जैन प्रथमाला, बंबई से (जिल्द १.२, सन् १८८०.८५) के प्राधार से किया मूलरूप में प्रकाशित हुए है। गया है। सभवतः दक्षिण के भण्डारो में विद्यमान हो, ७. पन्नालाल जैन सं० 'विक्रान्तकौरव' की भूमिका, भरतराज सुभद्रा का ही प्रपर नाम जान पड़ा है। पृ० ११ व १२. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष २६, कि. १ अनेकान्त सोमप्रभ भी इनमे थे। (प्रस्तुत नाटक की नायिका सुलो- माली, मन्थरक एवं मन्दर प्रादि तीनों विद्याधरों ने भगवान चना राजा प्रकम्पन की पुत्री थी। नायक जयकुमार ऋषभदेव के प्रति अपनी भक्तिभावना प्रकट की है । वस्तुत. महाराज सोमप्रभ का पुत्र था। ) जब भगवान् ऋषभ- यहां महाराज प्रकम्पन, प्रतिहार, कञ्चुकी पौर रत्नमाली देव ससार से विरक्त होकर प्ररहन्त अवस्था को प्राप्त प्रादि की दृष्टि स्वयं नाटककार की ही है । इस प्रकार, हए थे और उनके बड़े पुत्र भरत चक्रवर्ती गज्य सिंहासना. नाटककार ने ऋषभदेव के विविध रूपों की स्तुति करते रूढ़ थे तब सुलोचना का स्वयंवर हुमा । महाकवि हए उनके प्रति अपनी उत्कृष्ट भक्तिभावना प्रकट की है । हस्तिमल्ल ने विक्रान्तकौरव के मगलाचरण में आदि तीर्थ उन प्रादि तीर्थंकर ऋषभदेव के चरणकमल समस्त कर भगवान् ऋषभदेव की वन्दना में इसी रूप में उनका देवो के द्वारा पूज्य है।' वे तीनों ज्ञान के घारक है। स्मरण करके जगत् के कल्याण की कामना की है : "जिन उन्होंने युग के प्रारम्भ मे अभिषेक कर, 'तुम राज्य करो' भगवान् ऋषभदेव ने पृथ्वी पर प्रसि, मसि प्रादि की वृत्ति इस प्रकार जिन्हे प्रबोधित किया था, इसीलिए जो प्रकट की (कर्मभूमि के प्रारम्भ में कल्पवृक्षो के नष्ट होने 'कुरुराज' नाम से प्रसिद्ध हुए थे तथा जिन्होने प्रजा पर विद्या, कृषि प्रादि छह कर्मों का उपदेश देकर ग्राजी मे कुशल-मगल की प्रवृत्ति की थी। भगवान् ऋषभदेव विका का माधन बतलाया ), जिनके पुत्र भरत लोक मे ने पहले प्रमि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य इन सर्वश्रेष्ठ सम्राट् हुए हैं और इन्द्रो के मुकुटो की मणियों छह वनियों को और अन्त में मोक्षपद के मार्ग को दिखा(कलगियो) से जिनके चरणकमलो की प्रारती उतारी गई कर जिस युग को अन्धकार-रहित किया, वह युग कृतयुग थी, वे प्रथम जिनेन्द्र हर्षपूर्वक मदा भारी कल्याण करे" ।' कहलाता है। प्रात्मशुद्धि के लिए लोग उनका स्मरण हरिवंश पुराण में भी ऋषभदेव के प्रति को गई स्तु करते है।' अभिषेक, स्थापन, पूजन, शानि एव विसर्जन इन तियों में कहा गया है कि वे मति, श्रुति एव अवधि इन तीनों ५ प्रकार के उपचारो मे निपुण भव्य जीव जगत् के कल्याण सर्वोत्तम ज्ञान रूपी नेत्रों से सुशोभित है। भरतक्षेत्र में के लिए उनकी पूजा करते है। उन परमेश्वर की पूजा उत्पन्न होकर उन्होने तीनो लोको को प्रकाशित कर सब प्रकार से कल्याण करने वाली है एवं शुभदानी है। दिया।' कैलास के शिखगे को पवित्र करने वाली एवं सावधान महाकवि हस्तिमल्ल उनके जगतपूज्य, जगत्कल्याण- गणधरो से युक्त भगवान ऋषभदेव की समवसरणाकर्ता, पापनाशक, दानादि के महात्म्य के प्रतिष्ठापक एव भूमि पापो का नाश करने वाली है।' युग के प्रारम्भ मोक्षदायी स्वरूप का पुन पुन म्मरण करते है । सपूर्ण मे जब लोग दानादि के माहात्म्य से अनभिज्ञ थे, तब नाटक मे काशीराज प्रक.म्पन, प्रतीहार चुकी और रत्न- ग्रादि तीर्थकर ने दानादि के माहात्म्य की प्रतिष्ठा की १. प्रसिमषिमुखा वृत्तियन क्षिती प्रकटीकृता, कुरूराज इति प्रतीतनामा कुशलादानमवतंयत् प्रजानाम् ।। भरतमहिवस्सम्राडु यस्यात्मजो भुवनोत्तर । वही,३७१। सुरपम्कुटीकोटी नीगजिताघ्रिमरोरुह, ५. असिमषिकृषिविद्याशिल्पवाणिज्यवृत्तीः । प्रथमजिनपः श्रयो भूयो ददातु मुदा सदा ॥ शिवपदपदवीमायन्नतो दर्शयित्वा । वही, ४.१७ । - विक्रान्त कौरव, १-१. ६. वही, ५.१५। ७. पचोपचारचनुराः परमेश्वरस्य २. हरिवशपुराण, पृ. १२२, ८, १६६ । कुर्वति सर्वजगदभ्युदयाय पूजाम् । वही ६६ । ३. समस्तदेवाचितपादपकज पितामहश्चास्य पुनः पिता ८. हेमागद - सर्व शुभोद भगवदभ्यहणपुरःसरतया । ___मह विक्रान्त कौरव, ३ ५५ । चौखम्बा से प्रकाशित, वही, पृ २५२ । ४. अभिषिच्य युगोद्यमे विधाम्ना कुरूगज्य त्वमिति- ६. समवसरणभूमि पूनकैलाशमौलि प्रणिहितगणनाथा. प्रबोधितो यः। पस्थिता भूतमर्तु ॥ वही, ४-१०६ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिमाल के विक्रान्तकौरव में मादि तीथंकर ऋषभदेव थी। दानादि के माहात्म्य से प्रनभिज्ञ मोर तपश्चर्या को अर्थात् जिन स्वयंभू ब्रह्मा की उत्पत्ति नाभि-नाभिगज प्रकट करने में पराधीनता से हतबुद्धि श्रेयान् ने घर पाए नामक कुलचर से हुई है तथा जो ममस्त पदार्थों से उत्पाद, हुए ऋषभदेव को दान दिया था। व्यय और धोव्य का साक्षात् करने वाले है, वे भगवान महाकवि हस्तिमल्ल का यह विवेचन पौगणिक वर्णनो ऋषभदेव तुम्हारे कल्याण के लिए हों। से प्रत्याधिक मेल ग्यता है । हरिवश-पुराण में कहा गया (प्रतीहार)पाकाशं मर्त्य भावाधकुलवहनावग्निरो क्षमातो. है---"मनष्य भव मे पाते ही प्रादि तीर्थकर ऋषभदेव ने नस्सम्याटायरापः प्राणा समस्त प्राणियों को कृतार्थ किया। इस भव में ऋषभदेव सोमः सौम्यत्वयोगादविरिति च विदुस्तेजसा सन्निधानातीनो ज्ञान के धारक उत्पन्न हए है, प्रत उनको 'स्वयम' दिवामातीतविsa Har Haat भता द्विश्वात्मातीतविश्व स भवतु भवतां भूतये भूतनायः ॥" कहा जाता है। भागवत में प्रादि तीर्थंकर के प्रगट होने अर्थात् जो मति के प्रभाव मे आकाश है, पाप-समूहो को के दो प्रयोजन बताए गए है--मनियों के लिए धर्म प्रकट जलाने से अग्नि है, क्षमा से पृथ्वी है, निष्परिग्रह होने से करना' और मोक्षमार्ग की शिक्षा देना।' तिलोयपण्ण त्ति वाय है, प्रत्यधिक शाति से युक्त होने से जल है, स्वकीय मे सभी तीर्थकर मोक्षमार्ग के नेता कहे गए है। महापुराण पात्मा में स्थिर होने से सुयज्वायाजक है, सौम्यता के के अनुमार, प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव नृत्य करती हुई एक मयोग से चन्द्रमा है, तेज के सन्निधान से सूर्य है, विश्वअप्सरा की मृत्यु द्वारा इन्द्र को जीवन की क्षणिकता से है तथा विश्व से परे है, वे भूतनाथ -प्राणि मात्र के परिचय करवाते है। तीर्थकरी के अवतार लेने के कई स्वामी भगवान जितेन्द्र पाप सब को भति (ऐश्वर्य) के प्रयोजन पौराणिक ग्रथो मे वणित है । जैन मुनियो के लिए हों।" यह वर्णन महाकवि कालिदास के द्वारा की हुई लिए प्राचार का प्रादर्श प्रस्तुत करना, प्राचार एव नियम अष्टमूर्ति शिव की वन्दना से एकदम ममता रखता है। पालन की शिक्षा देना और जैनधर्म का प्रचार करना उपनिषदो में भी ऋषियो ने परब्रह्म परमात्मा का ठीक प्रादि मुख्य प्रयोजन है । माथ ही तीर्थकरो में भव्य जीवो ऐसा ही वर्णन किया है। परमात्मप्रकाश के अनुसार, जा को ससार-समुद्र से तारने की सामर्थ्य भी है ।' महाकवि जिनेन्द्र देव है, वे परमात्मप्रकाश भी है।" केवल दर्शन, हस्तिमल्ल ने भी विक्रान्तकीरव में ये ही प्रयोजन प्रादि केवल ज्ञान, अनन्त सूख, प्रनन्न वीर्य प्रादि अनन्त चतुष्टय तीर्थकर ऋषभदेव के अवतरित होने के बताए है। से युक्त होने के कारण वही जिनदेव है । वही परम मुनि नाटकान्त मे महाकवि ने ऋषभदेव को भूतनाथ (अर्थात प्रत्यक्ष ज्ञानी) है।" जिस परमात्मा को मुनि विरुद से अलंकृत करते हुए इस प्रकार बन्दना की है- परमपद हरि, महादेव, ब्रह्म तथा परमप्रकाश नाम से (महाराज प्रकम्पन ) यस्य स्वयभुवो नाभेब्रह्मणो विरुद्भवम्। कहते है, वह रागादि से रहित जिनदेव ही है। विश्वोत्पादलयध्रौव्यसाक्षी चास्तु शिवाय वः ॥' (शेष पृ० १६ पर) १. वहीं, ३७२। ११. वही, ६.५२ । २. हरिवशपुगण, पृ १२३, ८, २०५-२०६ । १२. अभिज्ञानशाकुन्तल, १.१ । ३. वही, पृ. १२३, ८, २०७ । १३. परमात्मप्रकाश, पृ. ३३६, २, १९८ । ४. भागवत, ५-३-२० । ५. वही, ५-६-१२। १४. वही, पृ. ३३७, २, १६६ । ६. तिलोयपण्णत्ति ४, ६२८ । १५. वही, ३३७-३८, २, २०० । ७. महापुराण ६, ४। जो परमप्पउ परम पउ हरि हरू बभुवि बुद्ध परम ८. प्रवचनसार (८१ से १६५ ई० के बीच), पृ. ३, ४ । पयासु भणति मुणि सो जिण देउ विमुद्ध । द्र० डा० ह. विक्रान्तकौरव, ६.५१ । कपिलदेव पांडेय विरचित : मध्यकालीन माहित्य में १०. वही, ६.५२ । अवतारवाद; पृ. ८७ से ६३ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का धर्म-दर्शन : आज के सन्दर्भ में ॥ श्री वीरेन्द्र कुमार जैन, बम्बई यह केवल मंयोग नहीं, बल्कि एक बुनियादी तथ्य है कि चीजों के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण ही सम्यक् दर्शन कि महावीर का धर्म-दर्शन भाज के सन्दर्भ मे शत-प्रतिशत है। जैनी मानता है कि वस्तुप्रो या व्यक्तियो को देखकर, घटित होता है। इसका कारण यह है कि जैन द्रष्टायो ने या उनसे सम्बन्धित हो कर जो रागात्मक भाव हमारे मन सत्ता की जो परिभाषा प्रस्तुत की है, उममे वस्तुमो की मे उदय होता है, उसी में चीजो का मूल्य नही पाकना प्रतिक्षण की गतिविधि और प्रगति अत्यन्त प्रद्यतन चाहिए । वस्तुओं पर अपने भाव या राग को प्रारोतरीके मे ममाहित हो जाती है । उन्होने कहा है : पित करके उन्हे न देखो। वे यथार्थ में, अपने आप मे "उत्पाद-व्यय-धौव्य-युक्त मत्वं ।" मत्ता एकबारगी जैसी है, वैसी ही उन्हे वीतराग भाव मे देखो। चीजो पर ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मे युक्त है, अर्थात् उनमे अपने को लादो नही । तुम स्वय अपने में रहो, चीजो को प्रतिक्षण कुछ उत्पन्न हो रहा है, कुछ मिट रहा है, और स्वयं अपने में रहनो दी। स्वयं अपने स्वभाव में रहो, कुछ है जो मदा एकसा कायम रहता है। प्रतिक्षण जो उठ चीजों को अपने स्वभाव में रहने दो । इसी तरह उनसे और मिट रहा है, वह पर्याय है, यानी चीजो का रूप है, सरोकार करो, इसी तरह उनमे बर्ताव करो। हमारा और जो सदा एक-मा कायम यानी ध्रुव है, वह चीजों का दृष्टिकोण चीजो के प्रति वस्तु-लक्ष्यी या 'पाब्जेक्टिव' हो, सत्य है, अर्थात् साराश है। मतलब यह हुआ कि गति आत्म-लक्ष्यी या 'सब्जेक्टिव' न हो। इस प्रकार हमने यह और स्थिति के मयुक्त रूप को ही सत्ता कहते है। देखा कि पाज के युग की एक और मवमे बड़ी विशेषता इस तरह हम देखते है कि जैन-दर्शन ने वस्तु की प्रति वस्तु-लक्ष्यी या 'ग्राब्जेक्टिव' दृष्टिकोण है और वही जैन क्षण की नित नई गति-प्रगति को सत्य के रूप में स्वीकृति तत्वज्ञान का आधारभूत मिद्धान्त है। प्राधुनिक बुद्धिवाद दी है। उमे महज मिथ्या, माया या प्रपंच कह कर टाला और विज्ञान इसी दृष्टिकोण के ज्वलन्त परिणाम है। नही है । ठीक विज्ञान की तरह ही जन-दर्शन ने इस विश्व जैन तत्वज्ञान को सावधानीपूर्वक समझने पर पता की तदगत वास्तविकता यानी "ग्राब्जेक्टिव रियलिटी" चलता है कि उसमें जीवन-जगत् का इनकार नहीं, बल्कि को स्वीकार किया है। नतीजे में यह हाथ पाता है कि महज स्वीकार है। जीवन-जगत् जैनी के लिए एक ठोस जैनधर्म यथार्थवादी है, वास्तविकता-वादी है, वह कोरा वास्तविकता है, और उममे जीने वाले मनुष्य या प्राणी पादर्शवादी नही है। जीवन से कटे हुए कोरे ऊध्वंमुख की प्रात्मा भी एक ठोस वास्तविकता है। सो उनके बीच पादर्शवाद की प्रस्वीकृति और ठोम यथार्थवादी जीवन-जगत् का सम्बन्ध भी एक ठोम वास्तविकता है । इस वास्तकी स्वीकृति, प्राज के युग की एक लाक्षणिक विशेषता है विकता को सही-मही देख कर, सही-सही जाचना होगा, और यह विशेषता जैन-धर्म म, सत्ता की मूल परिभाषा यानी जैन शब्दो में कहे तो हमें जगत् का सम्यक् दर्शन में ही उपलब्ध हो जाती है। करते हुए उसका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना होगा । वस्तुओं दूसरी प्राधुनिक विशेषता, जो जैनधर्म मे मिलती है, और व्यक्तियो का सही दर्शन और सही ज्ञान होने पर ही. वह है वस्तु के साथ व्यक्ति का एक यथार्थवादी संबंध। उनके साथ का हमारा सम्बन्ध-व्यवहार, सलूक-सरोकार चीमें ठीक जैसी है, उन्हे ठीक वैमी ही देखने-जानने को सही हो सकता है । इस सही सम्बन्ध-व्यवहार को ही जैन जैन द्रप्टामो ने सम्यक् दर्शन कहा है। मतलब यह हुमा तत्वज्ञो ने सम्यक् चारित्र्य कहा है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का धर्म-दर्शन : माज के सन्दर्भ में जैन धर्म का प्रन्तिम लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति है। यह ऐमा स्पाट लगता है, कि जैनधर्म जीवन का विरोधी है, मृवित कैमे पायी जा मकती है ? तत्वार्थमूत्रकार प्राचार्य और उमका मोक्ष जगत से पलायन है। इस प्रतिवाद को उमास्वाति के शब्दों में, "सम्यकदर्शन-ज्ञानचारित्राणि नकाग नहीं जा सकता: मोक्षमार्ग ' । जीवन-जगत्, वस्तु-व्यक्ति को सही देखना, यह भी स्पष्ट है कि स्वय महावीर दीर्घ तपस्वी थे, सही जानना, और तदनुसार उनके साथ सही व्यवहार और उन्होने निदारुण तपस्या का जीवन बिताया था। पर करना- यही मोक्षमार्ग है, यानी विश्व के माथ व्यक्ति वे तो तीर्थकर यानी युगतीथं के प्रवर्तक और परित्राता प्रात्मा का सम्बन्ध जब अलिम रूप मे मम्यकदर्शन-ज्ञान- होकर जन्मे थे । इसी कारण चरम तपस्या के द्वारा चारित्र्यमय हो जाता है, तो अनायास ही आत्मा की मुक्ति त्रिलोक और त्रिकाल के कण-कण और जन-जन के साथ घटित हो जाती है। तादात्म्य स्थापित करना उनके लिए अनिवार्य था । वे चीजों और व्यक्तियो के माथ जब हमाग मम्बन्ध स्वय ऐगी मत्य जयी तपस्या करके, पोगे के लिए अपने वस्त लक्ष्यी और वीतरागी न होकर, प्रात्मलक्ष्यी और युगतीर्थ के प्राणियों के लिए, मुक्ति-मार्ग को सुगम बना मगगी होता है, तो वह गमात्मत्र. तीव्रता विश्व में मर्वत्र गये है और सबको अमरत्व प्राप्ति का सहज ज्ञान-मन्त्र दे व्याप्त सूक्ष्म भौतिक पुदगल-परमाणूमो को आकृष्ट करके, गये है। हमारी चेतना को उनके पाश मे बाध देती है। इमी को लेविन वस्तुत उत्तरकालीन जिन-शासन में जो कर्म-बन्धन कहते है, यानी गग और उसकी परिणति अति निवत्तिवाद का बोलबाला रहा, वह वैदिक धर्म के द्वप, इन दोनो के प्रात्मा में घटित होने पर वस्तुप्रो के प्रति प्रवृत्तिवाद और भ्रष्टाचारी कर्म-काण्डो की प्रतिसाथ प्रात्मा का स्वाभाविक मम्बन्ध भग हो जाता है, क्रिया के रूप में ही घोटत हया है। फलतः वैराग्य, तप और उनके बीच कर्मावरण की पोट पड़ी हो जाती है। और जीवन-विमुखता पर बेहद जोर दिया गया है। नतीजा जगत् के साथ जब मनुष्य का मरबन्ध विशुद्ध वस्तु-लक्ष्यी यह हा कि अल्पज्ञ साधारण जैन श्रावक और श्रमण इम यानी काजक्टिव" या वीतरागी हो जाता है, इसी को तप-मंयम क बाह्यानार को ही सब कुछ मान कर उमी जैन द्रष्टायो ने मोक्ष कहा है। में चिपट गये। इस प्रवृत्ति के कारण जैन हटामो की ____ ग्रात्मा के इस तरह मुक्त होने पर, उमके भीतर का अमली, मौलिक विश्व-दृष्टि लात हा गयी। जो मुलगत पूर्ण ज्ञान है, अर्थात् म का मर्यकाल में मपूर्ण यह दृष्टि हम भगवान् कन्दकुन्दाचार्य के दृष्टि-प्रधान जानने की जो क्षमता या शक्ति है, वह प्रकट हो जाती है। ग्रन्थ 'ममयसार' में यथार्थ रूप में उपलब्ध होती है। यह इमी को केवल ज्ञान कहते है, अर्थात् एकमेव शुद्ध, अम्बड कहना गायद अत्यक्ति न होगी कि. महावीर के बाद प्रत्यक्ष ज्ञान । केवलज्ञान होने पर लाक के साथ मनुष्य का भगवान् कन्दकन्ददेव ही जिन-शासन के मधन्य और एक अमर, अबोध, अविनाशी सम्बन्ध स्थापित हो जाता मौलिक प्रवक्ता हा है। उनकी वाणी में प्रात्मानभूति का है। इस प्रकार जैन दर्शन को गहराई से ममझने पर पता रूपान्तरकारी रसायन प्रकट हुपा है। उन्होने 'ममयसार' चलता है कि वह जगत्-जीवन से मनुष्य का तोडने या मे स्पष्ट मिखाया है कि वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म अलग करने वाला धर्म नहीं है बल्कि जगत् के साथ है। तुम अपने स्वभाव मे रहो, वस्तु को प्रपन स्वभाव में जीव का सच्चा और स्थायी नाता स्थापित करने की रहने दो। अपने स्वभाव को ठीक-ठीक जानो और उसी शिक्षा ही जैनधर्म देता है। मे सदा अवस्थित रहकर सम्यक्-दर्शन और सम्यक-ज्ञान पूर्वक इस जगत् जीवन का उपयोग करो, यानी मोग का महावीर के १००० वर्ष बाद जिनवाणी के ग्रन्थ-बद्ध इनकार उनके यहा कतई नही है। मगर सम्यक्दृष्टि पोर होने पर उसमे जो जैन धर्म का उपदेश मिलता है, उसमें सम्पज्ञानी होकर भोगो। तब तुम्हारा भोग बन्धन और प्रकटत: कठोर संयम, वैराग्य पोर तप की प्रधानता है। कष्ट का कारण न होगा, बल्कि मोक्षदायक और मानन्द Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष २६, कि० १ भनेकांत दायक होगा। भटकी हई विपथगामी मानवता को सही दिशा-दर्शन जो चीजो का मम्यकदी और सम्यकज्ञानी है, वही प्रदान करे। उनका सच्चा, मम्पूर्ण या निर्बाध भोक्ता हो सकता है। + + + ऐसा भोग क्षणिक और खडित नही होता । वह नित्य और महावीर ने कहा है कि वस्तु मात्र अनेकान्तिक है, प्रखण्ड भोग होता है। उसमे वियोग नही, पूर्ण योग है, यानी उममे अनन्त गुण, धर्म, पर्याय एक साथ विद्यमान पूर्ण मिलन है। उसमें कभी कुछ खोता नही, मच मदा को है। इसलिए वस्तु के अलग-अलग पहलुमो को अनेकान्तिक पा लिया जाता है, सबके माथ हम मदा योग और भोग दृष्टि में देखना चाहिए। वस्तु प्रतिक्षण गतिमान, प्रगतिमे एक साथ रहते है । जा चीजो का मिथ्यादर्शी और मान और परिणमनशील है। उसमें प्रतिपन नये रूप, मिथ्याज्ञानी है, वह उनका मच्चा और पूर्ण भोक्ता नही भाव और परिणाम पैदा हो रहे है । इसलिए कभी भी वस्तु हो सकता। ज्ञानी वस्तुओं का स्वामी होकर उन्हे भांगता के बारे में अन्तिम कथन नहीं करना चाहिए । अपेक्षा के है। अज्ञानी उनका दास हो कर उन्हे भोगता है। स्वामी माथ ही, वस्तु के एक गुण, धर्म, भाव-रूप विशेष का का भोग मुक्तिदायक और प्रानन्ददायक होता है, दाम का कथन करना चाहिए। वस्तु अनेकान्तिक है, तो उसका भोग बन्धनकारा और कष्टदायक होता है। सच्चा दर्शन-ज्ञान भी ऐकान्तिक नही, अनेकान्तिक ही हो इस प्रकार हम देखते है कि जैनधर्म जीवन-जगत के मकता है। दम तरह हम देखते है कि अनेकान्त दृष्टि ही भोग का विरोधी नहीं। वह केवल मच्चे और अखण्ट गैनधर्म की प्राधारभूत चट्टान है। भोग की कला सिखाता है। प्राज का मनुष्य से अग्रण्ट आज का मनुष्य भी किमी अन्तिम कथन या अन्तिम पौर नित्य भोग के लिए हीनो छटपटा रहा है। प्रति- धमदिश का कायल नही। वह हर तरह की धार्मिक मोहवादी पश्चिमी जगत् अब क्षणिक और खण्ड भोग में कट्टरवादिता से नफरत करता है। वह 'डायनमिक' यानी ऊब गया है, थक गया है, विरक्त तक हो गया है। वह गतिशील है, और जीवन जगत के गति-प्रगतिशील रष्टिभोग छोड़ने को तैयार नही, मगर उसे अचक और पूर्ण कोण को ही पमन्द करता है। जैनधर्म का अनेकान्त अाधु. तृप्तिदायक, नित-नव्य भोग की तलाश है। भगवान निक मानव-चेतना के उम 'डायनमिज्म' यानी गत्याकुन्दकुन्दाचार्य न 'ममयमार' में उसी मच्चे, सार्थक और त्मकता का सर्वोपरि दिग्दर्शक और समर्थक है। पूर्ण तृप्तिदायक भोग की शिक्षा दी है। आज के भोग में अनेकान्तिक वस्तु-स्वभाव का मही दर्शन-ज्ञान पाकर, ऊबे हुए, फिर भी परम भोग के अभिलापी मनुष्य के लिए वस्तुप्रो और व्यक्तियों के साथ सही सम्बन्ध में जीवन 'समयसार' एक चिन्तामणि जीवन-जी है। जीने की कला सिखाने के लिए ही जेन द्रष्टायो ने सत्य, परा पूर्वकाल में गजपि भरत चक्रवतीं और जनक हिमा, प्रचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के प्राचार धर्म ऐसे ही परम भोक्ता योगीश्वर हुए हे । वे जगत् के का विधान किया है : सत्य यानी यह कि हम चीजो को विषयानन्द ग भी बेहिचक उन्मुक्त तैरते हा पूर्ण प्रात्मा- सत्य देखे, जाने और सत्य ही कहे , अहिमा यानी यह नन्द मे मगन रहते थे । जैनधर्म में ही नहीं, प्रथमत: पोर कि हर चीज को अस्तित्व में निर्बाध और सुरक्षित रहने अन्ततः पूरे भारतीय प्राक्तन् धर्म ने यही शिक्षा दी है। का अधिकार है। हम परस्पर एक दूसरे को बाधा या बीच के ऐतिहासिक चक्रावर्तनो के कारण जो प्रतिवादी हानि न पहुँचायें । हम खुद जिम तरह सुख-शान्ति से जीना और प्रतिक्रियाग्रस्त वैराग्यवाद का प्रभूत्व हुअा है, उसमे चाहते है उसी तरह औरो को भी सुख-शान्ति से जीने भारतीय धर्म का मर्म ही लुप्त हो गया । आज के भारतीय दें, यानी सह-अस्तित्व जीवन की शर्त है। प्रचौर्य यानी जैन योगियों, चिन्तकों और मनीषियो का यह अनिवार्य यह कि सब वस्तुओं पर सबका समान अधिकार है और कर्तव्य है कि हमारे धर्म के मर्म की सच्ची पहचान वे वस्तु-मात्र अपने पाप में स्वतन्त्र है। परस्पर एक दूसरे के माज के जगत् के समक्ष प्रकट करे और इस युग की कल्याणार्थ हम वस्तुभो पर व्यक्तियो के साथ विनियोग Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर का धर्म-वर्मन : माज के सन्दर्भ में व्यवहार करें। वस्तु-सम्पदा पर अधिकार करना ही इस प्रकार प्राप देखेंगे कि जेनों का पंच प्रणवती या चोरी है। जीवन-जगत् की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, महाव्रती प्राचार-मार्ग जीवन से पलायन करने या उसका कि वस्तुमात्र सर्वकी सम्पत्ति रहे और आवश्यकतानुसार विरोध करने की शिक्षा नहीं देता। वह जीवन-जगत के सबको गब कुछ प्राप्त हो । सम्पतिवाद, पूजीवाद, पूर्ण भोक्ता और स्वाधीन स्वामी होने की पराविद्या हमे अधिनायकवाद प्रादि प्राज की सारी व्यवस्थाए चोरी पर सिखाता है। क्या प्राज का मनुष्य, ऐमी ही किसी परा. टिकी हुई है। प्रचौर्य की व्यवस्था लाने के लिए ही प्राज विद्या की खोज मे नही भटक रहा है ? ये पथ-भ्रष्ट दीखने की सारी प्रजाएं समाजवाद की पुकार उठा रही है। वाले, स्वैराचारी, स्वच्छन्दविहारी 'हिप्पी' वैभव और जैनधर्म के सत्य, अहिंसा, प्रचौर्य, अपरिग्रह और अनेकान्त सुरक्षा की गोद को ठुकरा कर उसी पराविद्या की खोज में आगामी मच्चे और स्थायी समाजवाद की कुजी मे निकल पड़े है। वे अधेरे में भटक रहे है बेशक, मगर छिपी है । सच पूछो तो वे अनजाने ही परम लक्ष्य से चालित है, अपरिग्रह का अर्थ है कि मोह-मी में पडकर, यानी वे मनुष्य की असली स्वतन्त्रता के अभिलाषी है। वस्तु यो और व्यक्तियो पर अधिकार न जमाया जाए। जैनधर्म के अनुमार, वे स्वभावत, अपनी मजिल पर पहुंमनुष्य, मनुष्य और वस्तुओं के स्वभावगत स्वतन्त्र परि- चेग ही, क्योकि मजिल पाखिर नो अपनी प्रात्मा ही है णमन को पहचाने और स्वय भी बता रहे तथा प्रोगे पोर अपनी प्रात्मा से बिछड कर प्रादमी कब तक भटकता की म्वतन्त्रता का अपहरण न करे। परिग्रह यानी प्रमाद- रह सकता है ? अाखिर पराकाष्ठा तक भटक कर, वह वश चीजो के अधीन होना और उन्हें अपने अधीन रखना। अपने घर लौटेगा ही। इसी कारण जिनेश्वरी ने पाप को यह बन्धक और काटदायक है । परिग्रही-वृत्ति से ही होना नही बनाया है। पाप के भय को उन्होने मल में ही मम्पतिवाद, पूजीवाद, मत्तावाद जन्मे है । परिग्रह को ही काट दिया है, यानी प्रात्मा पाप कर ही नहीं सकता, जिनेश्वरी ने बहुत बड़ा पाप कहा है। जिनेश्वग के धर्म- वह उसका स्वगाव नहीं। पाप है केवल प्रज्ञान । मही शामन में पूजीवाद और अधिनायकवाद को स्थान नही। ज्ञान हो जान पर प्रादमी अपने पाप ही सही प्राचरण म्वतन्त्र मानववाद और सर्वकल्याणकारी ममाजवाद ही करता है। तब वह अनायाम ही पाम से ऊपर उठकर, जिनेश्वगे के अनुमार सच्ची और मोक्षदायक जोवन- प्रान्मा का मज्ञान, निष्पाप जीवन जीता है। व्यवस्था हो सकती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी प्रात्मा में ही निरन्तर विज्ञान की तरह ही जनधर्म का ज्ञानमार्ग भी विश्लेरमण करने और भोग करने की स्वाधीन मत्ता प्राप्त कर षण-प्रधान है। इसी कारण यह कहा जा सकता है कि लेना । नर-नारी के यौन-भोग और काम-भोग तन, मन, समार के सभी जीवित धर्मों में जैनधर्म ही सबसे अधिक प्राण, इन्द्रियो के सर पर सर्वथा म्वाभाविक है और वैज्ञानिक है। उसका जीव-शास्त्र और कर्म-शास्त्र इसके उचित है पर प्रात्मा परम स्वतन्त्र है । बाहर के भोग- ज्वलन्त प्रमाण है। इतना अधिक वैज्ञानिक और ताकिक रमण में रहते हुए भी, वह अपनी नृग्नि के लि, टनकी है गैनधर्म, कि मनुष्य की भाव-चेतना को तृप्त करने में गुलाम नही। हर नर-नारी के भीतर नर और नारी दोनों गमर्थ नहीं हो पाता। अपनी प्रात्मा के अतिरिक्त अन्य है । अपने ही भीतर बैठे रमण या ग्मणी को पहचान कर किमी ईश्वरीय शक्ति को अम्वीकृत करके जैनधर्म ने पा लेने पर, बाहर रमण करते हुए भी, हम एक-दूसरे के भक्तिमात्र के ग्राधार को ही खत्म कर दिया है। पर गुलाम या बन्धन हो कर न रहे। अपने-अपने प्रात्म म ग्रानी इम अनिवजानिकता और बुद्धिवादिता के कारण म्वतन्त्र, निमोह, अबाध विचर। इस प्रकार ब्रह्मचर्य ही, वह माज के विज्ञानवेना मनुष्य के बहुत अनुकूल वीतगगी, प्रात्म रसलीन, पूर्ण भोक्ता होने की परम रम- है। वन्ती कला सिखाता है। विज्ञान की तरह ही जनधर्म मनुष्य को स्वतन्त्रता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष २०१ देता है कि वह किसी पूर्व मान्यता प्रौर अन्धश्रद्धा से विश्व-सत्य का निर्णय न करे अपने स्वतन्त्र तार्किक अन्वेषण और वस्तु के अणु-प्रति-अणु तार्किक विश्लेषण द्वारा ही विश्व-तत्व की जाच-पड़ताल करे और उसका स्वतन्त्र ज्ञानात्मक साक्षात्कार करें। यह ध्यातव्य है कि हजारों वर्षों पूर्व जैन इष्टायां ने जन-जीवन का जो प्रन्तर्वेज्ञानिक साक्षात्कार किया था, वह क्रमश. आज की वैज्ञानिक खोजी द्वारा पत्रक प्रमाणित होता जा रहा है। इस प्रकार जैनधमं प्राज के मनुष्य को वैज्ञानिक दृष्टि द्वारा ही पात्मिक थाम्था घोर अनुभूति तक ने जाना चाहता है । + -++ पश्चिम के दार्शनिक जगत् में श्राज अस्तित्ववाद का बोलबाला है, यानी अस्तित्व में जो दीखता है, वही सत्य है। एजिस्टेन्स' में हो कर 'ईस' में पहुंचना है। 'ईसेंस' को पूर्व मान्य करके 'एग्जिस्टेम' का फैसला नही करना है । जैनो के यहा बारह अनुप्रेक्षा श्री या भावनाओ द्वारा जो अस्तित्व श्रौर श्रात्मा का चिन्तन किया गया है, उसमे श्राज का अस्तित्ववाद सर्वांगीण अभिव्यक्ति पा जाता है । अनुप्रेक्षण बताता है कि मनुष्य की स्थिति यहा मनित्य, प्रशरण, एकाकी है। वह अकेला है । अन्तत हम सब एक-दूसरे के लिए अन्य यानी पराये हैं । शरीर अन्तत विनाणी और ग्लानिजनक तत्वों से भरा है । अनेकतंत सामने प्रकट हो जाता है । उस स्थिति में मनुष्य एक मुक्त पुरुष होकर लोक का पूर्ण ज्ञानपूर्वक नित्य भोग करता है । यही मोक्ष है । माराश मे यही जैनों का मस्तित्ववाद है और संभवतः आज के अस्तित्ववादी दर्शन मे जहा भी गत्यबरोध है, यहा जैन अष्टिना सही मार्ग मुक्त कर सकती है। यह ध्यातव्य है कि कार्ल येस्पर्स आदि का माज का प्रतिक्रान्तिवादी धस्तित्ववाद (ट्रान्सेंडेंटल एक्जिस्टेशियलिज्म) जैन दर्शन के बहुत निकट श्रा जाता है । प्रत. प्रात्मा की मुक्ति के लिए प्रावश्यक है कि अनिष्ट बाहरी पुद्गल परमाणु को हमारे अस्तित्व को कर्म - बन्धन मे बाधने से रोका जाए। अपने को समेट कर अपने सच्चे स्वरूप में ही रहा जाए। इस प्रकार श्रात्म-सवरण द्वारा अपने मे स्वाधीन हो रहने पर पुराने बधे जड़कर्म के बन्धन स्वयं टूट जाते है । तब हमारे पूर्ण ज्ञान में लोक अपने सच्चे स्वरूप में हमारे इस प्रकार, आप देखेंगे कि आज के युग में प्रस्तित्ववाद आत्म-स्वातन्त्र्य-वाद, सर्व-स्वातन्त्र्य-वाद, स्वच्छन्दवाद, पूर्ण मोगवाद, समाजवाद, गणतंत्रवाद, परोक्षवाद, कलावाद आदि की जो प्रमुख पुकार मानव आत्मा मे ज्वलन्त है, उन सबका मौलिक समाधान जिनेश्वरी के धर्म-दर्शन मे समीचीन रूप से उपलब्ध है । एकतन्त्रीय पूँजीवाद प्रोर अधिनायकवाद से दुनिया को उबार कर, एक सच्चे सर्वोदयी साम्यवाद मौर समाजवाद मे प्रतिष्ठित करने के लिए महावीर के धर्मदर्शन को नये सिरे से समझना और पहचानना जरूरी है । जैनो के अनुसार तो महावीर ही हमारे युग के तीर्थकर है, यानी हमारे वर्तमान युग-तीर्थ की मागलिक परिचालना का धर्म चक्र उन्हीं भगवान की उँगली पर घूम रहा है। एक बार एकाग्र होकर हम उस धर्म चक्र का दर्शन करे तो शायद हमारे युग की चाल ही बदल जाये । समग्र क्रान्ति और किसे कहते हैं ? -वीर-निर्वाण-विचार-सेवा, इन्दौर के सौजन्य से । गोविन्द निवास, सरोजनी रोड विले पारले (पश्चिम), बम्बई - ५६ (पृ० ११ का पाश) महाकवि हस्तिमस्ल की सुभद्रा नाटिका मे भी घादि तीर्थकर ऋषभदेव की बन्दना कई स्थानों पर की गई है। चार को की इस नाटिका में राजा नमि की भगिनी और कच्छराज के पुत्री सुभद्रा का तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत से विवाह की कथा है।" सी-८, युनिवसिटी क्वार्टर्स, दुर्गा नर्सरी रोड, उदयपुर (राज० ) १. प्रजनापवनञ्जय धोर सुभद्रा नाटिका का सपादन वासुदेव पटवर्धन ने किया है । माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बबई से प्रकाशित ७ प्रको के प्रजनापवनञ्जय नाटक मे महेन्द्रपुर की कुमारी प्रञ्जना स्वयंवर में विद्याधर पवन जय का वरण करती है । बाद मे प्रजना हनुमत् को जन्म देती है । कथा का प्राधार विमलसूरि का पउमचरिउ है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान की पावन ज्योति बुझ गई है - श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली ६ अक्तूबर १९७५ को वह मनहूस घड़ी थी जब ८ शोध के क्षेत्र में कुछ चञ्च-प्रवेश कर पाया है। बजकर, ८ मिनट पर प्राकाशवाणी से उद्घोषित किया गया सन् १९६० के अक्तूबर मास मे मोरिएटल कान्फ्रेस कि "डा. ए. एन. उपाध्ये का कोल्हापुर में निधन हो गया का अधिवेशन काश्मीर (श्रीनगर) मे हुमा था जिसमे है।" सुनते ही ऐसा अनुभव हा मानो किसी ने सिर पर डा उपाध्ये और डा. हीरालाल जी सम्मिलित हुए थे। मैं हथौड़ जड़ दिए हो। चित्त बडा ही व्यथित हमा। वे ज्ञान के भी घूमने के लिए काश्मीर गया था। पता चला कि डा भंडार थे। जितना गभीर और सक्षम अध्ययन उन्होने किया उपाध्ये यहाँ है तो उनसे मिलने चला गया। बातचीत के था, वैसा दूसरा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता है। उनकी दौरान उन्होने पूछा--- केटलाग का काम करोगे ? मै इस शोधों से भारतीय विद्वान ही नही, अपितु भारतीय विद्या दिशा में सर्वथा शुन्य था, फिर भी बिना कुछ जाने-समझे के विदेशी विद्वान भी बड़े प्रभावित थे । वे लोग उनकी स्वीकृति दे दी। केवल यह समझ कर कि डा. उपाध्ये जैसे लेखिनी का लोहा मानते थे । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल विद्वान के वरदहस्त की छत्रछाया तो मिलेगी। प्रस्तु डा. सा. ने इंगलैंड के प्रसिद्ध विद्वान काायल (Carlyle) को ने कहा कि फिर दिल्ली में मिलना, वही चर्चा करेंगे। दिल्ली उद्धृत करते हुए लिखा था : "Blessed is he who पाकर दिल्ली के जैन भण्डागे में स्थित पाडुलिपियो की has got his life's work, let him ask for no विवरणात्मक सची तैयार करने का सारा मसविदा तैयार other blessedness." Dr. Upadhye asks for no हो गया और मैने बा० पन्नालालजी अग्रवाल के सहयोग other blessedness" से यह पुनीत कार्य प्रारम्भ कर दिया। पर बीच में अनेकासन् १९०६ के फरवरी मास की छठी तिथि को नेक बाधाएँ पाई जिनसे बार-बार विचलित हो कार्य बेलगाम जिले के सदल्ग ग्राम में एक नक्षत्र उदित हुग्रा छोड़ना चाहता था, किन्तु बा० छोटेलाल जी के समचित था जो ६६ वर्ष ८ मास तक साहित्य और समाज को परामर्श एव डा. उपाध्ये की पत्रो द्वारा प्रेरणा पा-पाकर पालोकित करता हुअा ८ अक्तूबर, १६७५ को अस्त हो इस रूक्ष और प्रॉम्ब-फोडू परन्तु ज्ञानवर्द्धक कार्य में लगा गया। वे जैन शोध के क्षेत्र मे ऐसे प्रसर सूर्य थे कि उनकी रहा । प्राज जबकि उपर्यत गची की प्रेस कापी प्रकाशन के प्रचण्ड किरणें युग-युगो तक प्रनुस धित्सुग्रो का पथ पालो- लिए पड़ी-पड़ी सिसक रही है और डा. उपाध्ये नही रहे कित करती रहेगी पोर शोध के क्षेत्र मे मार्ग दर्शक बनी है, तो अखिो के प्रागे घनघोर अन्धकार छा जाता है। वे रहेगी! डा. उपाध्ये का सर्वप्रथम दर्शन सन् १९४६ मे ज्ञान को पावन ज्योति थ जो स्वय तिल-तिल जलकर स्याद्वाद विद्यालय वाराणसी के हाल में किया था, जब वे दूसरो को पालोकित किया करते थे । प्राज उनके प्रभाव अपने परम सखा डा० हीरालाल जी के साथ छात्र संघ के मे मुझ जैसे हजारो शिष्य किंकर्तव्यविमूढ़ता का अनुभव मामंत्रण पर विद्यालय में पधारे थे । उनको विद्वत्ता की करने लगे है । अब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा, शोध के घाक समाज मे तब तक व्याप्त हो गई थी। विदिशा क्षेत्र में हमारी गुत्थियों को कौन मुलझावेगा? उन जैसा मथुरा प्रादि स्थानो पर भी उनसे समय-समय पर भेट सूक्ष्म अन्वेषक और अनुसधित्सु प्राज कोई जैन समाज में होती रही, पर सन् १९६. से तो उनके निकटतम सपर्क है क्या ? मे पाने का सौभाग्य मिला और उन्ही को अनुकम्पा-वश दूसरो के छोटे-छोट गुणो को बढ़ावा देकर उन्हें शोध Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त के क्षेत्र में लगाए रखना कोई उनसे सीखे। सन् १९६४ जब वे नहीं रहे तो लेखनी से लिपिबद्ध कर पश्चात्ताप या ६५ मे वीर सेवा मन्दिर में उनके अभिनन्दन का कर रहा हूं। इस समय महाकवि भर्तृहरि की निम्न उक्ति प्रायोजन किया गया था, हाल में लोग एकत्रित हो रहे उन पर अक्षरशः घटती है किथे। डा उपाध्ये ऊपर के कमरो मे ठहरे थे। मै सची के परगुणपरमाणन पर्वतीकृत्य नित्यं सम्बन्ध मे चर्चा हेतु उनके पास बैठा था, सूची के पारि- निज हृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ? श्रमिक के भुगतान की बात थी। डा. सा. ने कहा "This डा० उपाध्ये ने पिछले चार दशकों में जैन साहित्य is just a clerical job; you should not expect और समाज को जो कुछ दिया है, उसके लिए गारा ही much more" | बात चलती रही पर (Clerical) शब्द । देश चिर ऋणी रहेगा। वे पत्र का उत्तर अवश्य ही और का प्रयोग उन्हें स्वय कुछ अच्छा न लगा। यद्यपि इसे तत्परता से दिया करते थे। उनके द्वारा हजारो पत्र विभिन्न मैंने कछ भी महसूस न किया था फिर भी बातचीत के सस्थानो और व्यक्तियों को लिखे गये है जो जैन-साहित्य दौरान अनजाने ही उस (clerical) शब्द की पुनरावृत्ति के विकास एवं शोध के सम्बन्ध मे बड़े ही उपयोगी सिद्ध दो तीन बार हो गई जिससे वे बड़े ही व्यथित प्ररि हो सकते है। मेग अनुरोध है कि भारतीय ज्ञानपीठ, व्याकल हो उठे और शायद अपनी भूल समझकर उन्होने वीर सेवा मन्दिर या कोई अन्य सस्था या व्यक्ति इस पुण्य स्वय ही तीन-चार चटि अपने ही गालों पर तडातड जह कार्य को अपने हाथ में ले और सारेही पत्र संकलित कर लिए। वहाँ हम दोनों के अतिरिक्त तीसरा कोई न था। ममपादित कगकर प्रकाशित कराए, मेरे पास लगभग में प्रवाक किंकर्तव्यविमूढ-सा जडवत् खड़ा रह गया। १०० पत्र होगे जिन्हे देने को महर्प तयार ह। डा. मकछ न सझा और उनके चरण पकड़कर वही बैठ उपाध्ये ने लगभग बीस बन गयो का . गया और विनख-विलख कर रोता रहा। में प्रात्मग्लानि से उनकी विशद शोधपूर्ण ऐतिहासिक भमिकाएँ लिखी है गल रहा था और लज्जित था कि यह सब क्या हो गया जिनका देश-वि | था कि यह सब क्या हो गया जिनका देश-विदेश में समादर हया है, और वे सब अंग्रेजी था; उसे मेटा नहीं जा सकता था, मै तब तक रोता रहा मे है। प्रत सामान्य भारतीय उनसे पूर्णतया अवगत नही है जब तक कि नीचे से बुलावा नही पा गया । बुलावा पाते इसलिए उनका हिन्दी में अनुवाद काया जाये। साथ ही नीचे समारोह में जान लग । साथ ही मेरा पाठ पर उनके लगभग १०० शोधपूर्ण फुटकर निबन्ध भी है जिनका वत्सलतापूर्वक हाथ फेरते हुए मुझे भी उठाकर साथ नीचे हिन्दी अनुवाद अपेक्षित है। उनका अन्तिम निबन्ध समारोह में ले गए। मै बहुत ही बोझिल था, अपराधी 'यापनीय मय" से संबधित था जिसे उन्होने १७ जुलाई, जैमी दशा में वहा बैठा रहा, पर वे स्थितप्रज्ञ की भांति १६७३ को पेरिस में होने वाली अन्तर्राष्ट्रीय पोरिएटल पणशात प्रौर प्रवदात मन से अभिनन्दन समारोह में काग्रेस में पढ़ा था। उसका अनुवाद 'अनेकान्त' में प्रकासम्मिलित हए सभी प्रौपचारिकतामो के बाद जब उनका शित हो गया है। प्रभी जलाई १६७५ मे जब दिल्ली में उनसे भाषण हुमा तो उसमे उन्होंने मेरी और मेरे काम (भडाणे भेंट हई थी तो उनकी उत्कट अभिलाषा थी कि उनका की सूची) की भूरि-भूरि प्रशमा की और लोगो से इस लेखन हिन्दी वाले भी पढ़ें। मेरा उपर्युक्त संस्थानो से कार्य मे पूरा-पूरा सहयोग देने का प्राग्रह एव अपील की। अनुरोध है कि वे उनके लेखन को हिन्दी मे प्रस्तुत कराने में यह सब सुनकर बड़ा विस्मित था कि अभी-अभी ऊपर का उत्तरदायित्व सभाले। मैं अपनी ओर से पूरा-पूरा कमरे में क्या हुअा था और अब यहा क्या हो रहा है ? मेरा सहयोग देने को वचनबद्ध है। मन धुल गया था और उनके प्रति मेरा हृदय श्रद्धा से डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने डा. उपाध्ये के विषय गदगद हो उठा था। इस रहस्य का मै अाज तक अपने मे ऋग्वेद की निम्न ऋचा का उल्लेख किया है --- मन में बहुमूल्य निधि की भांनि सजोए रहा कि कही सक्तुम इव तितौना पुनन्तो किसी को सुनाकर या कह कर हल्का न हो जाऊ । प्राज यत्रधीरामनसावाचम प्रक्रत। (शेष पृ० २३ पर) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति 1) श्री राजमल जैन, नई दिल्ली श्रमण संस्कृति के महान् उन्नायक भगवान महावीर (जो सांगारिक विषयो मे खिन्न या उदासीन का इस वर्ष २५००वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया अथवा तपस्या करता है)। इसमे भारत सरकार का भी योगदान रहा। यह एक अन्य प्राचार्य ने कहा हैउचित ही है कि जिस प्रकार महात्मा बुद्ध के २५००वें परित्यज्य नपो राज्य श्रमणो जायते महान् । जन्म-दिवम पर स्वतन्त्र भारत की सरकार ने अपनी तपसा प्राय सबध नपो हि श्रम उच्यते ।। श्रद्धाजलि अर्पित की थी, उमी भाति श्रमण सस्कृति के (राजा अपने राज्य को त्यागकर तथा तप से सबध अग्रदूत महावीर और उनकी इस देश को देन पर भी जोडकर महान थमण बन जाते है क्योकि तप ही थम कहलाता है।) विचार-विमर्श हुप्रा । महावीर अपना राज-पाट त्यागकर तप करने चल प्राचीन काल में अनेक श्रमण परम्पगए थी। किन्तु दिए थे, यह मर्वविदित है । बद्ध भी चल दिए थे । इमी. उनकी धारा इननी क्षीण रही कि धीरे-धीरे श्रमण शब्द लिए इनको मानने वाले तपम्वी श्रमण कहलाए । केवल महावीर और बुद्ध के अनुयायियो तक ही मीमित लेकिन श्रमण का प्रथं प्राचोन काल में दिगम्बर मुनि हो गया। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि । होता था। इसका प्रमाण बाल्मीकि रामायण की गोबिन्द"प्राचीन काल मे गोबतिक, श्वावनिक, दिशाबतिक पादि राजीय टीका में मिलता है, जहाँ स्पष्ट लिखा है . सैकड़ो प्रकार के श्रमणमार्गी प्राचार्य थे। उन्हीं में से एक "श्रमणा दिगम्बारा . श्रमणा वातवसना इति निघंटु." निग्रन्थ महावीर हुप और दूमरे बुद्ध। प्रौरी की परम्परा के अनुसार श्रमण का अर्थ दिगम्वर (मुनि) और वायु ही लगभग नामशेष हो गई या ऐतिहासिक काल में विशेष- जिसके वस्त्र है ऐसा होता है। रूप से परिवर्तित हो गई।" प्राचीनता भारतीय दर्शन के इतिहास से परिचित जन भली भाति वातरशना शब्द श्रमण संस्कृति को कम-से-कम ऋग्वेद जानते हैं कि महावीर की परम्परा बुद्ध से कही अधिक काल तक तो पुरातन सिद्ध करता ही है। ऋग्वेद को एक प्राचीन है। ऋचा मे लिखा है । मुनयो धातरशनः (वायु ही जिनकी श्रमण शब्द मेखला है ऐसे मुनि प्रर्थात् दिगम्बर साधु)। महावीर की श्रमण परंपरा और उसकी प्राचीनता एव प्रसिद्ध विद्वान् डा. हीरालाल जैन ने भागवत पुराण का भारतीय संस्कृति में उसके योगदान को समुचित रूप से उद्धरण इस प्रकार दिया है: "बहिणि तस्मिन्नेव विष्णुदत्व भगवान् परमपिभि प्रसादितो नाम प्रिय चिकीर्षया समझने के लिए श्रमण शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ को तदवरोधायने मेरु देव्या धर्मान् दर्शथितुकामो बातरशनाना जान लेना उचित होगा। यह शब्द श्रम्धातु से बना है श्रमणानाम् ऋषीणाम् ऊर्ध्वमग्थिना शुक्लया तन्वावतार जिसके दो अर्थ होते है---श्रांत होना या थकना और तप (भा० पु० ५-३-२०), अर्थात् यज्ञ में परम ऋषियो द्वारा करना (श्रम तपसि खेदे च)। अभिधान राजेंद्र नामक प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णदत्त, पारीक्षित, स्वय श्री शब्दकोश मे श्रमण शब्द का अर्थ इस प्रकार समझाया भगवान् (विष्ण) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए गया है: "श्राम्यति संसार विषयेषु विन्नो भवतीनि वा इनके रनिवास में महारानी मा देवी के गर्भ में पाए । तपस्यतीति वाश्रमण:"। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।" है, किमी से कुछ लेना-देना नहीं रखते, शांतचित्त होते है उक्त उद्धरण से भी प्रथम जैम तीर्थंकर ऋषभनाथ का और हाथ में भोजन करते है)। प्राज भी दिगम्बर साध मबध श्रमण परंपरा से जुड़ जाता है। इनका भी उल्लेख किसी पात्र मे भोजन ग्रहण न कर हस्तसपुट मे ही भोजन ऋग्वेद में पाता है। इस प्रकार महावीर जिस श्रमण लेते है और दिगम्बर होते है। परपरा के उन्नायक थे, वह अत्यंत प्राचीन है। प्रमुख विशेषतायें एवं उपलब्धियां श्रमण, वातरशन के अतिरिक्त इम सस्कृति के साधको श्रमण संस्कृति की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धिया इस को ब्रात्य (बतो का पालन करने वाले-अब भी दिगबर प्रकार है। मनिको पाच महाब्रतो का पालन करना होता है) अहिंसा -- न केवा महावीर और उनके पूर्वक्षपणक, मादि से सम्बोधित किया जाता था। ब्रात्य वर्ती तीर्थकरों ने अपितु महात्मा बुद्ध ने भी हिंसा का शब्द का उल्लेख तो वेदो मे भी पाया है। महावीर उपदेश दिया था। महावीर द्वारा पोषित श्रमण संस्कृति भी श्रमण मुनि कहलाते है। उन्होऋषि के रूप में कदाचित् मे जितना सूक्ष्म विश्लेषण और पालन अहिसा का हुआ ही संबोधित किया जाता है। हम अपनी भाषा में भी है उतना शायद अन्य किमी सस्कृति में नही हुप्रा । उसने ऋषि-मुनि इन युगल शब्दों का प्रयोग करते है। इसका पहिमा को परमधर्म घोषित किया। जियो और जीने दो कारण यह है कि मुनि का अर्थ ही है जो मनन या चितन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसने यह जरूर कहा कि करे अथवा जाने । तप की साधना के द्वारा ही वह ऐसा मन, वचन थोर कार्य इन तीनो में से किसी प्रकार से भी कर सकता है। जो पूरी तरह जान लेता है वह सपूर्ण हिसा नहीं करनी चाहिए । किमी का बुग सोच लेने मात्र ज्ञानी अथवा केवलज्ञानी हो जाता है। तब उस श्रमण से ही व्यक्ति हिसा का भागी हो जाता है। को तीर्थकर कहा जाता है। महावीर इसी प्रकार के एक प्रश्न प्राय. किया जाता है कि क्या महावीर श्रमण थे। द्वारा उपदिष्ट पहिसा का पूरी तरह पालन सभव है। मेगस्थनीज ने अपने यात्रा विवरण में दो सप्रदायों का महावीर ने इसका अत्यंत व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत उल्लेख किया है। वे है---सरमनाई (थमण) तथा किया है कि राजा, किसान नथा साधारण गृहस्थ हिंसा से बाचमनाई (ब्राह्मण)। ह्वेनसांग ने भी थमणेरम् का जिक्र पूरी तरह बच नहीं सकते। युद्ध होगा तो राजा को किया है। अन्यायी का मुकाबला करना ही होगा। किसान हन कबीर ने श्रमण साधनों का उल्लेख शेवड़ा (श्वेतवस्त्र चलायेगा तो कुछ जीव मरेंगे ही। गृहस्थ भी जब चलेगा घारी साधु के के रूप मे) किया है। जायसी ने स्पष्ट ही तो कुछ प्राणि उसके पैरों तले कुचले जायेगे। ऐसे लोगो दिगम्बर ब्शद अपने सिंहलद्वीप वर्णन में प्रयुक्त किया है। के लिए उन्होने अणुव्रतो का विधान किया है। ऐसे लोग यह प्रतिज्ञा ले कि वे स्वयं किसी प्रकार की हिंसा जानबूझउक्त उद्धरणो और विवेचन का सार यह है कि कर (जैसे अपने माहार के लिए किसी प्राणी का वध दिगम्बर श्रमण परपरा ऋग्वेद से लेकर माज तक सतत करना, आदि) नही करेंगे। यज्ञो के लिए भी उन्होंने प्रवहमान रही है। इसके विपरीत वौद्ध परपरा अन्य अनेक हिसा का विरोध किया था। फलतः यज्ञो मे हिसा लगभग प्राचीन परपरामो की भाति लुप्तप्राय हो गई। शायद इसका बंद ही हो गई। श्रमण सस्कृति के साधु के लिए उन्होंने कारण यह रहा हो कि महावीर की परपग के श्रमणो ने सब प्रकार को हिंसा वजित की है। इस उन्होने महाव्रत तपस्या कर प्रात्मकल्याण के लक्ष्य को नहीं भुलाया। वे की सज्ञा दी। श्रमण साधु हिंसा का उत्तर हिसा से कभी अपने धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के ही अन्दर या नही देगा। यह साधूपद भी कठिन अभ्याम के बाद किसी बाहर घूमते नही फिरे । भत हरि ने अपने वैराग्यशतक मे को प्राप्त हो सकता है। उनका बड़ा सुदर वर्णन किया है "एकाकी निस्पृह. शान्तः अहिंसा का एक दार्शनिक प्राधार भी है जो कि कर्म पाणिपात्रो दिगम्बर."(मर्थात् ये लोग एकाकी जीवन बिताते सिद्धांत से स्पष्ट हो जाता है Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति २१ कर्मवाद--श्रमण सस्कृति की यह मान्यता है कि पूर्ण उपलब्धि अनेकातवाद है। उसके अनुसार वस्तु मे अनेक यह मान्यता यह ससार अनादि है। इसका कोई प्रत या गुण होते है। किसी एक ही प्रत पर जोर देने से कर्ता नहीं है। इसमे जो अनंत प्राणी है, वे अपने अच्छे- मारे बखेड़े होते है। साधक को एकागी दृष्टिकोण से बरे कमों के अनुमार विभिन्न योनियों में भ्रमण कर रहे बचना चाहिए। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति एक ही समय है। इस प्रकार जीव का है। वह अच्छा-बुरा जो भी में पिता, मामा, नाना, पति मादि हो सकता है, उसी करता है उसका फल भोगता है। यदि वह अपनी मुक्ति प्रकार एक ही वस्तु में विभिन्न दृष्टिकोणो से विभिन्न के उपयुक्त कर्म नही करता तो अच्छी-बुरी योनियो में प्रकार की विशेषताए एक ही समय में सभव हो सकती घूमता रहता है। जब वह अच्छे कर्म कर केवल प्रात्म- है। प्राधुनिक भाषा मे यही साक्षेपवाद है। इस प्रकार, कल्याण म अपना ध्यान लगाता है तो उसकी मुक्ति हो इम सिद्धात द्वारा किसी भी पदार्थ के अनेको धर्मों या जाती है। कहा भी है - गुणों का सामजस्य ऊपरी तौर पर विरोधी दिखाई देने स्वय कर्म करोत्यात्मा स्वय तत्फलमश्नुते । पर भी किया जा सकता है। मुनि विद्यानद जी ने इस स्वय भ्रमति ममारे स्वय तम्माद् विमच्यते ।। सिद्धात का बही सरल भाषा म इस प्रकार समझाया है मुक्त हो जाने पर वह दूसगे के लिए केवल प्रादर्श "जब हम कहते है कि प्रात्मा नित्य है तब हमाग दृष्टिकोण रूप होता है। वह दूसरो को न कोई वरदान देता है और भौतिक यात्मा--द्रव्य पर होता है, क्योकि भात्मा भौतिक न कोई दण्ड। द्रव्य है, प्रत वह न तो अस्त्र-शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो उक्त सिद्धात का मार यह हमा कि श्रमण सस्कृति सकता है, न अग्नि से जल मकता है, न जल स गल की यह मान्यता है कि ससार के समस्त प्राणियो को जीन सकता है पोर न वायु से सूम सकता है। वह प्रनादि पौर अपना विकास करने का पूग अधिकार है उन्हें चंकि । काल में अना काल ना बना रहता है। परन्तु जब हम अपने प्रयत्लो से प्रात्मा से परमात्मा बनना है, अत मामारिक आवागमन का मुख्य करके प्रात्मा को पर्याय उनका कर्तव्य है कि वे न केवल एक दूसरे की रक्षा करें (भव-दमा) का विचार करते है. ना पारमा प्रनित्य सिद्ध मोर इस प्रकार एक-दूसरे को अपनी आध्यात्मिक उन्नति होती है क्योकि आत्मा कभी मनुष्य-भव में होती है, का अवसर दें, बल्कि एक-दूसरे से महयोग करें। कभी मर कर पशु-पक्षी आदि हो जाती है। इस तरह एक सामाजिक क्षेत्र में उक्त सिद्धात का यह निष्कर्ष ही पात्मा मे नित्यता भी है और अनित्यता भी। पृ० ८३, निकलता है कि कोई भी जन्म से ऊँच-नीच नहीं होता। तीर्थकर वधमान) अपने कर्मों के कारण मनुष्य ऊची-नीची स्थिति को प्राप्त तकशास्त्र के क्षेत्र में अनेकातवाद का रूपातर होता है। इसीलिए श्रमण मस्कृति अस्पृश्यता को नही स्याववाद है। यह श्रमण सस्कृति का प्रमुख सिखात है। मानती। इसके अनुसार, किसी पदार्थ का कथन सात प्रकार से विश्व मंत्री-समस्त प्राणियो की अहिंसा के कारण किया जा सकता है। विस्तार में न जाकर इम तक के कुछ श्रमण संस्कृति विश्वमैत्री की प्रबल ममर्थक है क्योकि मोपान है : वस्तु है, वस्तु नही हे, वस्तु का कथन सभव इसी मे सबका हित है। नही है, इत्यादि । उदाहरण के लिए, हिमालय उतर में पुनर्जन्म मे विश्वास ---जीव जब तक. कुकर्म करता है, हिमालय उत्तर में नही है (जब हम चीन के भूगोल रहेगा तब तक उसे अपने कर्मों के अनुमार जन्म लेते को ध्यान मे रखे तब)। इसी प्रकार, यह कहा जा सकता है रहना पड़ेगा। इस प्रकार जब नक कर्मों की शृखला से कि हिमालय का ठीक-ठीक वर्णन सभव नही है (प्रवक्तव्य)। वह छुट नही जाता तब तक उसका जन्म होता रहेगा-- यह बात भूतत्व की दृष्टि से विचार करने पर कही जा यह श्रमण संस्कृति का एक मूल सिद्धात है। मकती है। स्यावाद में जो 'स्यात्' लगा है उसका अर्थ अनेकांतवाद-दर्शन के क्षेत्र मे श्रमण सस्कृति की महत्व कुछ लोग शायद करते है और उसे सशयवाद बताते है Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त किन्तु उसका सही अर्थ डा. हीरालाल जैन के शब्दो में बीच बाजार पाने की लड़ाई) प्रादि के लिए उत्तरदायी इस प्रकार है : "व्याकरणात्मक व्यत्पत्ति के अनुमार म्यात् है। जो तपस्वी श्रमण होते है उनके पास तो कुछ भी प्रस धातु का विधिलिग अन्यपुरुप एक बचन का रूप है नहीं होता । एक लगोटी भी नही होती। कठिन-से-कठिन जिसका अर्थ होता है ऐसा हो, एक सभावना यह भी है।" शीत में भी वे पुपाल पर तनिक मो लते है। शेष समय वास्तव में, स्याद्वाद मशयबाद नहीं अपितु समन्वयवाद है। प्रात्मध्यान में लगाते है। हा उमके पाम दो वस्तुएं होती उक्त दोनो वादो का एक सूपरिणाम श्रमण संस्कृति है.---कमण्डल और मोर के पखो में बनी पिच्छि जिसके की सहिष्णुता और उदारता के रूप में हमा है। श्रमण । लिए मोर को मताना नही पडना । उसके पंख यू ही पड़े मत के अनुयायी गजानो ने अन्य मतावलम्बियो के साथ मिल जाते है। इस प्रकार श्रमण अपरिग्रहवाद का सिद्धात मन्याय नही किया। श्रमण गृहस्थो ने सांप्रदायिक उत्पात एक स्वैच्छिक समाजवाद का मिद्धात सिद्ध होता है । नहीं किए । वे सदा समदृष्टि बने रहे। वास्तविक श्रमण यह तो मर्वविदित है कि श्रमण सस्कृति का सर्वाधिक या मुनि तो सहिष्णता के अन्यतम उदाहरण होते रहे है। स्पष्ट लक्षण तप है । यह नप कितना कठिन होता है यह उनके अचेलकत्व (दिगबरत्व) प्रादि के कारण उन पर किमी से छिपाना है। अचेलकत्व या दिगम्बरव एक पत्थरों प्रादि की वर्षा भी यदि की गई, तो उन्होंने शाति प्रत्यत ही कठिन माधना है। विरले ही उसे माघ या पूर्वक उसे झेला । कुछ ने तो अपने प्राण भी दे दिए किंतु निभा सकने की मामध्यं रखते है। वास्तव में वह योग हिंसा का उत्तर हिमा में नहीं दिया। य.: श्रम की माधन है । हर देश, काल और ऋतु मे उस पर दृढ रहना पराकाष्ठा है। एक महामाधना ही ना हे। उम तक पहुचने के लिए श्रमण __ सहिष्णुता के एक ज्वलत उदाहरण के रूप मे कवि सम्कृति म प्रतिमाओ (मीढियो) का विधान है। एकाएक प्रानंदधन (श्वेतांबर जैन संप्रदाय के एक महात्मा) की कोई भी अचेलक नही हो जाता। ऐसे महायागो हिसक श्रमण के गमक्ष परगर वैरी भो अपना वर-भाव भन एक रचना दृष्टव्य है - राम कहो रहमान कहो कोऊ कान्द हो महादेव री। जाते हैं। महावीर की उपदेश मभा के बारे में यह कहा पारमनाथ कहो, कोई, ब्रह्मा मफन ब्रह्म स्वयमेव ।। जाता है कि उसमें शर और गाय जैसे पशु भी निश्शक निज पद रमे राम मो कहिए रहम करे रहिमान गे। उपस्थित रहते थे । पतजलि के यागदर्शन में कहा गया हैकर्षे, करम कान्ह मो कहिए महादेव निर्वाण ।। "हिमा प्रतिष्ठाया तत्मन्निधौ बैरत्याग.।" (जो अहिंसक परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे मो ब्रह्म री। है, उसके समीप किसी की बर-भावना नही रहती : मुनि वह विधि साधो पाप प्रानन्दधन, चेतनमय निष्कर्म री॥ विद्यानरजी द्वारा उक्त पुस्तक में उद्धृत)। सजेप में कहा प्राधिक क्षेत्र मे, श्रमण सस्कृति की देन अपरिग्रहवाद जाए तो श्रमण सस्कृति निवृत्तिमार्गी है। का सिद्धात है। इसका मरल अर्थ यह है कि व्यक्ति को तप का आवश्यक प्रग चरित्र है । श्रमण सस्कृति में लोभ नहीं करना चाहिए और उसके पास इतना म्वय हो उसकी ही प्रधानता है। उसमे बाह्य क्रिया-कर्म या कर्महो जितना प्रत्यत पावश्यक हो । राजा और गृहस्था प्रादि कांड के लिए स्थान नहीं है । उसमे आत्मसाधना पर ही की स्थिति के अनुसार इसका परिणाम भिन्न होगा ही। इन अधिक बल है । चरित्र का पालन बिना सम्यक ज्ञान के लोगो के लिए दान की मख्य व्यवस्था श्रमण सस्कृति में सभव नही । इस कारण श्रमण परपरा सम्यक ज्ञान, सम्यक है। कम्युनिज्म भी ऐसी स्थिति की कल्पना करता है जब दर्शन और सम्यक् चारित्र्य की त्रिवेणी का महत्व देती मनुष्य केवल अपनी प्रावश्यकता मात्र को ही अपना लक्ष्य है। उसे मोक्ष का मार्ग कहा गया है । (मम्यग्दर्शनज्ञानबनाएगा और ऐसे समाज में राज्य की भी आवश्यकता चारित्राणिमोक्षमार्गः) । नही रहेगी। प्राखिर प्रावश्यकता से अधिक संग्रह की सृष्टि के विषय मे श्रमण सस्कृति की मान्यता है कि वह प्रवृत्ति हो तो चोरी, हिंसा, असहिष्णुता, युद्ध (देशों के अनादि है। उसका कोई कर्त्ता नही है । यदि कोई कर्ता हो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति तो उसके प्रयोजन मोर कुछ प्राणियों को सुख और कुछ विश्वविद्यालयों मे शोध-प्रबन्धों का विषय बन रही है। को दुःख, प्रादि नाना शंकाएं उत्पन्न होती है और यह व्याकरण मौर कोश कला के क्षेत्र में भी श्रमण पीछे तथ्य उभरता है कि जीव सृष्टिकर्ता की अनुकपा पर ही नही रहे। जैनेन्द्रव्याकरण, शब्दानुशासन (शाकटायन), सदा पाश्रित रहेगा । किन्तु श्रमण संस्कृति हर प्रात्मा को हेमचन्द्राचार्यकृत सिद्धहेमशब्दानुशासन, प्रादि प्राकृत परमात्मा बनने का अधिकार देती है। ऋग्वेद में भी कहा कोश 'पाइयलच्छीनाममाला' और हेमचन्द्र की 'देशी नामगया है __ माला' प्राज भी सैकडो हिंदी शब्दो की व्युत्पत्ति सिख को प्रद्या वेद क इह प्रवाचेत् । करने में सहायक है। कुत अजाता कुत इयं विमृष्टि : (१०-१२६-६) वास्तुकला के क्षेत्र में श्रमण सस्कृति के प्राज भी (अर्थात् कौन ठीक से जानता है और कौन कह विद्यमान कुछ प्रमुख कीर्तिस्तभ इस प्रकार है- खजराहो के जैन मदिर प्राबू के जैन मदिर, श्रवणबेलगोला (ममर सकता है कि यह मृष्टि कहा से उत्पन्न हुई, डा. हीरालाल के निकट), की गोम्मटेश्वर की ५७ फीट ऊंची एक हजार जैन द्वारा उद्धत)। वर्ष प्राचीन एक ही शिला को काटकर बनाई गई प्रतिमा, भाषा के क्षेत्र मे श्रमण सस्कृति को यह श्रेय प्राप्त खडवा के पाम स्थित बड़वानी नामक स्थान के पास है कि उसने बोल-चाल की भाषाओं अथवा लोक भाषाम्रो वावनगजाजी के नाम से प्रगिद्ध ऋपभदेव की ८४ फीट को ही सदा अपनाया। महावीर ने अपने उपदेश अर्ध ऊची प्रतिमा जो कि पहाड मे ही उत्कीर्ण की गई है, मागधी मे दिए। प्रर्धमागधी प्राकृत, शौरसेनी प्राकृत चित्तोड का कीर्तिस्तभ, बादामी (दक्षिणी भारत),खडगिरि, और महाराष्ट्री प्राकृत में विपुल थमण साहित्य की रचना उदयगिरि (उड़ीसा) और ग्वालियर की गुफाए । हुई, जो कि अब धीरे-धीरे प्रकाश में पा रही है और बी० १/३२४, जनकपुरी, नई दिल्ली-५८ (पृ० २० का शेपाश) अत्र सखायः सख्यानि जानते । म्बान्त सुखाय application, or what is more भद्रषां लक्ष्मीरनिहिताधिवाचि। ancient terminology, was des gnated as the और माथ ही लिखा है कि : Dr. Upadhye is निष्कारण धर्म prescribed for an entellectual. a past master in the art of criticai editing. डा० उपाध्ये के विषय मे देशी व विदेशी विद्वानों ने He combines in himself the learning oft the जो कुछ लिखा है वह उनके सुसपादित ग्रन्थों में पठनीय है। oriental pandit and the agues eyed critical अव से लगभग १३ वर्ष पूर्व 'सन्मति सदेश' में डा. faculty of the new scholar, with which he उपाध्य का जीवन परिचय मैन ही लिखा था । पाज उन्हें approaches his task. By a system of checks अन्तिम श्रद्धाजलि प्रस्तुत करते हा हदय बड़ा गद्गद् पौर and counter-checks evolved for himself he Is दुख में अभिभूत है। मैं अपने अतरग की पीड़ा को शब्दों able to present a thoroughly relable text of म प्रकट नहीं कर पा रहा ह पर ज्ञान की जो पावन the old classics for which the Mss. material ज्योति बझ गई है, उसे अन्तिम प्रणामक ग्ता हुपा हार्दिक is sometimes scanty श्रद्धा व्यक्त करता है। हे महात्मन् । जहाँ भी रह, सुखDr Upadhye has trained himself in the शान्ति मे ज्ञान के पथ को ग्रान्नांकित करते रहे। discipline of making tbe best use of his "शुभास्ते सन्तु पन्थान." summer and winter vacations. He loads them श्रुत कुटीर, with strenuous labour ande xtracts from them ६८ कुन्ती मार्ग, a beautiful harvest He seems to suckjoy from विश्वासनगर, शाहदरा, this hobby, which is but another name for दिल्ली Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के शाजापुर जिले की अप्रकाशित जैन प्रतिमाएँ 0 डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जैन मालव प्रदेश जैन धर्म के विकास एवं प्रसार का जिले के जैन अवशेषो के सर्वेक्षण की विस्तृत योजना प्रमुख स्थल रहा है। यहाँ मौर्यवशीय शासक सप्रति ने बनाई और हमने इस दिशा में सर्वेक्षण किया। इनमे जैन धर्म व सघ के चतुर्विध विकास में अत्यधिक श्रम जैन तीर्थ मक्मी, जामनेर, पचोर, मुन्दग्मी, पाष्टा, सखेडी, किया और अनेक श्रमणों को गज्याश्रय देकर जैन धर्म मारंगपुर, शाजापुर, शुजालपुर आदि स्थानो पर जाकर जैन के उत्थान मे अपूर्व योगदान दिया। ७वी शताब्दी मे अवशेषो को खोजा। अनेक जैन अवशेष सर्वप्रथम प्रकाश लेकर पद्रहवी शताब्दी तक मालवा में अनेक जैन मदिरो मे पाये। जैन मूर्तिकला का इनमें चरमोत्कर्ष तो है ही, और तीर्थकर-प्रतिमानो का निर्माण हुा । सपूर्ण मालव परन्तु परमार-काल के मूर्तिशिल्प मे इनकी निर्मिति विशेष प्रदेश की तीर्थकर-प्रतिमानो का एक अपूर्व मूर्ति-सग्रहालय आकर्षक एवं शोधात्मक है । यहा पर इन्ही अप्रकाशित मालव-प्रान्तीय जैन-सभा ने उज्जैन के जर्यामहपुरे गे जैन अवशेषो पर विचार किया जा रहा है। स्थापित किया और विगत ४० वर्षों में एकत्रित ५१० मक्सी या श्री मक्सी जी जैन तीर्थ उज्जैन से २० किलोमूर्तियों का जैन संग्रहालय बनाया। यह मालवा की जैन- मीटर उतर-पूर्व दिशा में स्थित है। यहाँ पर विशाल जैन प्रतिमानो के शोध का केन्द्र है और प्रतिवर्ष हजागे । मदिर है। ग्राग का स्थापत्य मुगलकालीन है और बुजिया पर्यटको द्वारा देखा जाता है। यहाँ गुना, बदनावर, धार, बनी हुई है। द्वार की मेहगबें मुस्लिम कला का नमूना ईसागत, गोदलमऊ, मक्मी, ग्राष्टा, मोनकच्छ, देवाम, पेश करती है । किवदती है कि मूर्तियो और मदिरो को जवाम, इदार, इदौख, झार्दा की जैन प्रतिमाएं एकत्रित ध्वस्त करता हुआ, महमूद खिलजी का मेनापति, जब है। इनका केटलाग क्रमाकाकरण, प्राकार, मूति-शिल्पगत इधर से गजरने वाला था. तब यह जैन तीर्थ व मदिर बच विशेषताएँ, लक्षण, वाहन, नीर्थकर-पहचान, निर्माणकाल जाय, इस विचार में रातो रात मस्जिद के प्रवेश द्वार और पादपीठ पर अभिलेन्व आदि का कार्य मैने उज्जैन के __ की भाति स्थापत्य को निमित की गई और प्राकान्ता को ही उत्माही पं० सन्यधर कुमार मेठी के माथ मिलकर दूर से ही दिखा दिया गया कि यह मस्जिद है। प्राज मी पिछले ७ वर्षों में पूर्ण किया है। संपूर्ण भारत के जैन यह प्रवेश द्वार, बुजिया एव गुम्बद स्थित है और अवशेषो के प्राकलन में इस सग्रहालय का अपना विशिष्ट शिष्ट बाहर से देखने पर मग्जिद का ही भ्रम पैदा करता है। स्थान है। श्री मक्सी जी जैन तीर्थ के रूप मे विख्यात है। १२वीमालवा का शाजापुर जिला अपनी जैन पुरातात्विक १३वी शताब्दी से ही यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध संपदा मे अत्यन्त वैभव-संपन्न है। भगवान महावीर के हो चुका था। यहाँ प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। २५००वे वर्ष के प्रबमर पर प० मन्यधर कुमार सेठी और उज्जैन के सिधिया प्राच्य शोध-संस्थान (यहा २० हजार मसी जैनतीर्थ के मत्री हुकुमचंद जी झाझरी ने शाजापुर हम्नलिखित ग्रंथ सुरक्षित है) से एक जैन हस्तलिखित Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा के शाजापुर जिले की अप्रकाशित जन प्रतिमाएँ शीलरस रास" देखने मे पाया है। इसके ग्रथकार मोर मानस्तम यहाँ सुरक्षित है जो परमार कालीन मूर्ति ना काल ने स. १६६१ मे मक्सी तीर्थ में इमे शिल्प से मडिन है। केवल सुन्दर सी को ही जन प्रतिमायो किया। इसकी एक प्रति को 'गुजरात ना जैन कवि', पर अलग शोध-लेख अपेक्षित है । यहा पर धातु-प्रतिमाएं २.प.८८३ मे प्रकाशित किया गया है। उज्जैन की १५१० और १४२५ विक्रम संवत की मिली है। सुमतिनाथ प्रति मे 'मगसी जी को स्तवन' अलग भाग है और इसमे की एक पद्मासन मे और महावीर की एक खड्गासन रूप मकमी माहात्म्य' भी दिया गया है और इस स्थान को की प्रतिमा भव्य है। वे भी १३वी शताब्दी के उत्तराद्ध प्रतिशय क्षेत्र कहा गया है । निश्चय ही २०० वर्ष की में निर्मित हुई थी। मुन्दरसी की प्रतिमाएँ विशाल है तथा परम्परा को इस हस्तलिखित ग्रन्थ में लिपिबद्ध किया गया काले पत्थर में निर्मित है। १३ फीट ऊँची पदमासन है। अत: १३-१४वी शताब्दी मे मक्सी एक जैन तीर्थ के में पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्वत ही अपनी उत्कृष्टता एवं रूप में विख्यात था । यहाँ लगभग ५८ जैन मतिया देखने भव्यता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार सखेडी, में पाई (जिनमे से २७ पर प्रमिलेख है। जो १२वी से जामनेर और प्राटा में भी लगभग १०३ जैन अवशेषों १६वी शताब्दी के मध्य निर्मित हुई थी । जैन गच्छ, को देखा गया एव उनकी सूची बनाई गई। मदारक, सघ एव गुरु शिष्यावली और उनके नाम यहाँ से पचार में एक ऐमी गढी देखने में पाई जो जैन भग्नानिमित जन हस्तलिखित ग्रथो मे मिलता है । महावीर, वशेषो से भरी पड़ी है। लगमग ७८ जन अवशेष तो हमने पार्श्वनाथ, प्रादिनाथ, श्रेयासनाथ और सुमतिनाथ की सूचीबद्ध किये । अन्य मूर्तियां भी समीप के घरो मे जड सलक्षण प्रतिमाए है । वाहन, लाछन एवं यक्ष-यक्षिणी भी ली गई है, उन्हें नही लिख सके। यहा की एक ३ फुट x जन प्रतिमा-विज्ञान के आधार पर है। २४ तीर्थकरो के २ फुट जैन प्रतिमा को हम लोग उठा कर भी लाये एक पद-चिह्न-प्रस्तर-फलक पर परमा-कालीन लिपि में और अब उसे जन संग्रहालय, जर्यासहपुरा, उज्जैन में सभी तीर्थकरो के नाम है और अन्त में इस शिल्प की नामपट्ट, प्राप्ति स्थान एव प्राकार के माथ प्रदशित भी निमिति का समय विक्रम संवत १३५० दिया गया है। कर दिया है। शाजापुर और मारंगपुर में भी लगभग जन पद्मावती, धातुयंत्र एवं मानस्तंम यहा की अन्य जन २२ जन प्रतिमाएं देखी जो अभी तक अप्रकाशित थी। पुरातात्विक उपलब्धियों है । मदिर मे श्वेताम्बर एव इनमे मे पर चौदहवी-पन्द्रहवी शताब्दी के अभिलेख दिगम्बर दोनो ही समान रूप से प्राते है। यहाँ है। इसी प्रकार एक प्रतिमा (१२१० विक्रम संवत की) संवत १५४८ में श्री जीवराज पापड़ीवाल द्वारा निमिन शजालपुर के एक ग्राम में देखने को मिली। संगमरमर प्रतिमा अभिलेख-युक्त है। उपयुक्त विवरण मे यह सपाट है, कि परमार युग में शाजापुर जिले की डाकोदिया मदी के सुन्दरमी ग्राम शाजापुर जिला जैन धर्म का एक केन्द्र था और मालवा से लगभग ५२ जन प्रतिमाएँ प्रकाश में पाई । यहा उन्हे ___ का प्रमुख जैन तीर्थ था। यहा को जैन मूर्तियों को धीरे-धीरे एक स्थान पर एकत्रित कर दिया गया है। वैसे पूग ग्राम प्रकाशित एव सग्रहीत किया जाना चाहिये । एक टीले के पास बसा है जिसमे मे प्रतिवर्ष तीर्थकर प्रतिमाएँ, जैन मंदिर के मग्न माग में बरसात के बाद दिखाई ४ धन्वन्तरि मार्ग, पड़ जाती हैं। यहा किसी समय विशाल जैन मन्दिर गनी नं. ४, माधवनगर, अवश्य ही रहा होगा । पार्श्वनाथ, महावीर, जैन पद्मावती उज्जैन (म प्र) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन अप्रकाशित रचनाएं श्री कुन्दनलाल जैन प्रिंसिपल, दिल्ली इस वर्ष (जून ७५) ग्रीष्मावकाश में मध्यप्रदेश के (१) बालमणी वित्त-दशलक्षणी के बारह कवित्त विभिन्न गांवों एवं नगरों में जाने का सुपवसर प्राप्त हुना। बडे ही सरस और आध्यात्मिकता से प्रोतप्रोत हैं। लगभग दो-ढाई हजार किलो मीटर की यात्रा की होगी। प्रत्येक धर्म पर एक एक कवित्त हृदय को छ जाने वाला अपनी प्रादत के अनुमार, जहा भी जाता हूं, पाडुलिपियो है। इनके कर्ता का स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नही होता है, पर की तलाण किया ही करता है और जहा जो कुछ उप- हर कवित्त में माया परदौनु शब्द का प्रयोग मिलता है लब्ध होता है उसे ग्रहण करने का भरपूर प्रयत्न करता ह। जिससे प्राभास होता है कि इनके कर्ता कोई मायासिंह, प्रबकी बार सेठ मिश्री नाल जी करेरा के सौजन्य से स० माया प्रमाद या माया राम नाम के कवि होंगे और १७०१ का लिपिबद्ध 'बनारसी विलाम सुन्दर, सुवाच्य परदौनु इनका अपना उपनाम, उपाधि या विशेषण जैसा लिपिवाला कलात्मक हग से लिखा हुमा प्राप्त हुमा। कुछ प्रतीत होता है । जो भी हो, पर कवित्तों को देखकर साह मोतीलाल जी दुर्जन लाल जी से स. १८०० के ऐसा लगता है कि माया परदीनु जी को अपने समय का लगभग की लिखी नेमिचन्द्रिका और सेठ राजाराम जी कोई बड़ा ही प्रतिभाशाली सशक्त कवि होना चाहिए और वांमगत बालों से एक बहुत मोटा गुटका प्राप्त हुना इनकी कई मर भी कृतियां उपलब्ध होने की कल्पना जिसमें सैकड़ों पूजायें, स्तोत्र, कवित्त, विनतिया आदि सग- की जाती है। यह सब शोध और खोज का विषय है। ग्रन्थागारो को कुछ बारीकी से पथोलने पर कवि के विषय इस गुटके की लम्बाई-चौडाई "X६" है। प्रत्येक मे कुछ और जानकारी प्राप्त हो सकेगी। फिर भी, सहृदय पन्ने में १२-१२ पंक्तियां है और प्रत्येक पक्ति में ३०-३० पाठक इन कवित्तो की अर्थगरिमा और रचनाशैली से मार हैं । इस गुटके का पूर्णतया निरीक्षण करने पर भी प्रभावित हुए बिना न रह सकेंगे। ऐसे सुन्दर और सरस इसका लिपिकाल कही नही मिला । सभव है कि प्रादि प्रत एवं रोचक कवित्त प्रायः सुलभ नही होते है, कृपालु पाठकों के फटे हए पन्नों में कही लुप्त हो गया हो, पर चूकि इसमें को कवि माया परदौनु के विषय मे कुछ जानकारी उपप. बनारसीदास जी की रचनाए मगृहीत है. अतः इसके लब्ध हो तो मुझे अवश्य ही सूचित करें। मैं उनका प्रत्यलिपिकान की प्राचीनता स. १७०० के लगभग तो धिक ग्राभार मानूगा। निश्चित रूप मे पहुच हो जाती है। गुटका बहुत ही जीणं स्थिति में है। इसके बहुत से पन्ने काट कर निकाले गये (२) वाणवसी-दाणदसी चौदह छंदों की छोटीहै। बहुत-से पन्ने अत्यधिक जीर्णशीर्ण दशा में है और कुछ मी रचना है जिसमे चार दोहे और दस चौपाया बतही प्रस्त व्यस्त दशा में है। पत्र सम्पा भी कई जगह है। इन छन्दो में कवि ने गो, स्वर्ण, दासी, भवन, गाज, बदलती है। इसमे कुल पत्रो को मरूपा लगभग एक हजार तुरग, कलत्र, तिल, भूमि प्रौर रथ इन दश बानो का होगी और छोटी-मोटी रचनाए लगभग दो सौ से अधिक जो वर्णन शास्त्रो मे मिलता है, उसका माध्यात्मिक दृष्टि हैं। इनमे से सलान तोन रचनाए - (१) दशलक्षणी मे बडा ही सुन्दर विश्लेषण किया है। जैन तत्वज्ञान की कवित्त, (२) दाणसी पोर (३) वद्वमानस्लोत्र सर्वया दष्टि से उपयुक्त दानो का जो विवेचन इन छदों में किया प्रप्रकाशित और उच्च कोटि की रचना पतीत हुई। अन गया है वह निश्चय ही बडा श्रेयस्कर और अध्यात्म उन्हें यहा अविकल रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। प्रमियो को प्रापित करने वाला है। इस रचना के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन अप्रकाशित रचनायें २७ रचयिता का कुछ भी अता-पता नहीं मिलता है जो की भांनि ही यह स्तोत्र संस्कृत बहल छंदों में विद्यमान निश्चय ही बड़ी चिन्ता का विषय है। है। इसके कर्ता का भी कोई नामोल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु यह सर्वथा अप्रकाशित है, प्रत महत्त्वपूर्ण भी है। (३) श्री वईमानस्त्रोत्र-यह रचना भाठ संस्कृत ये तीनो रचनाएं सर्वथा अप्रकाशित है और छदों में रची गई है। रचना सरल पौर प्रभु के गुणगान साहित्यिक एवं धार्मिक दृष्टि से बहुत ही उपादेय एव से भरपूर है । भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महो- श्रेयस्कर है। कृपालु पाठक इनका रसास्वादन करें पोर स्सव पर जहा भगवान् महावीर से सम्बन्धित सभी छोटी- इनके विषय मे तथा इनके कर्ताप्रो के विषय मे कुछ मोटी रचनामों का सकलन हुपा है उसमे इसे भी सगहीत जानकारी हो तो प्रकाश मे अवश्य ही लाए तथा मुझे भी किया जा सकता है । ५० द्यानतराय जी विरचित "नरेन्द्र सूचित कर । में अत्यधिक मनुगहीत होऊंगा। फणीन्द्र सुरेन्द्र प्रधीश " इत्यादि पार्श्वनाथ स्तुति दशलाक्षणी कवित्त कुण्डलिया-जिनवर मुख अरविन्द वानी विविध विसाल । दशलक्षण को धर्म जिहि वरण्यौ विविध रसाल ।। वरण्यौ विविध रसाल हाल भवजल को हरता । बदत देव प्रदेव भूरि शिव पद करता ।। चिन्तामणि को पाई जाइ डारह जिन तिणवर । कह माया परदौनु करहु भाष्यी जो जिनवर ॥१॥ उत्तम क्षमा-तीरथ दान करो पय पान धरौ उर ध्यान लागत नीको। जो तप कोटि करौ वन में वसितो सब पौर अकारथ फीको ।। धम घरी घर धरि जटा सिर भूमि परी तनु के तपसी को। के व्रत और कहै परदौनु क्षमा बिन पावक जातु न जी को ।।२।। मार्दव-जीति के मान कषाय निरतर अतरभूत दया सुधरेंगे। भाइ तौ के समता सब सौ पुनि चाइ सौ ते भव लोकु तरेंगे। साधि सबै परमारथ को परदौन कहै मब काज सरेगे ।।३।। पार्जव-प्रारज सद्ध प्रनाम करौ तजिकै सब ही हिय की कटिलाई। जो सिव को सुख चाहतु हो सुर लोक यहै सब लोक बड़ाई।। भूलि कहं भ्रमते भ्रमते भटके भव श्रावक को कलि पाई। सो व्रत दान बिना परदौनु तिना करि सब त विसराई॥४॥ सत्य-सांचहि ते पद पाइ सुरप्पति साहि ते गुण ग्यान गहैगो। सांचहि ते सुर बंदत प्राइ क साह ने यस पूरि रहेगो।। साचहि ते उपज कल कीरति साह ते सब माधु कहेगो। बोलहु साच कहै परदौनु स सांहि त मरलोक लहेगो ॥५।। शौच-सोच रहै अभि अतर बाहर उज्जल नीर सरीर पखारत । पूजत प्रात जिणेश्वर को चदन सौ घांस केसर गारत ।। प्रक्षत फल णये पकवान लै दीपक धप महाफल भारत । ये परदौनु कहै व्रत भाव सों पापु नरै अरु पोरनि तारत ॥६॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष २९, कि. १ अनेकान्त संजम-संजमु है व्रत को महि मंडनु संयम है यति मारग को धनु । संजमु है सब जोगु को साधनु संयम है पुनि जोतनु को मनु ।। संजमु है परदीन सुमारगु सयमु है सुचि राखण को तनु । सजमु थे सुर के सुख पावत संजमु सौ निबहै शिव सौपनु ॥७॥ सप-जा तप थ पद होइ सुरप्पति या तप थे निरवान चढ़ेगी। जा तप थे क्रम इद्रिनि जीति के जा तप थे अति ध्याण बढ़ेगो॥ जा तप थे परदौन कहै उर अंतर केवल ज्ञान रहैगी। ता तप को मन साधि रे साधि वृथा कत और उपाधि बढ़ेगी ।।८ प्याग-त्यागत सग परिग्रह को पुनि आदर सौ मुनि दान दये है। प्रोषध ज्ञान प्रहार अभ सब दै गति चारि के पार भये है ।। पाइ (य) पखारत साधुनि के चरनोदक पावन शीस भये है। कीरति के जग कीरति गाइ सुरप्पति के सुख जाइ लए है ॥६॥ किचन-पाकिचन कचने ज्यौ कसि क लखि के रुचि सो उर अतर पानत । उज्जल ज्ञान में मातम ध्यान में देह सों भिन्न सदा करि जानत ।। जे विधि सौ व्रत को प्रतिपालत ले रत्नत्रय को मन मानत । जे जग में जनमें परदौन तिन्हे शिवरूप सदा हम जाणत ॥१०॥ ब्रह्मचर्य-सील के सागर ज्ञान के उजागर नागर चारित्त चित्त धरेगे ! पातुर कै मन के वच के तन के करि लं भवलोक तरेंगे । माया कहै तिन्हि के गुण ले तिन्हि के पद बदन देव करेंगे। बभ बल तिन्हि के ग्रह सदर ते सिव सुदार जाइ बरंगे ॥११॥ कलसा-जे नर धर्म करै दश लक्षण तत्क्षण ते भव लोक तरेगे। के समता सब जीवनि सौ परदौन कहै ममिता न गहैगे। ताप तप न कहूं भव तापनि पाप प्रवाहनि में न बहैंग । मौन रहे निरवासन ह पद्मासन हूं धरि ध्यान रहेगे ॥१२॥ ॥ इति दशलक्षणीक कवित्त संपूर्ण । दाणादसी गो सुवर्ण दासी भवन गज तुरग परधाण । कल कलत्र तिल भूमि रथ ए पुनीत दस दान ||१|| अब इनको विवरन कहौ भावित रूप बखानि । अलख रीति अनुभव व था जो समझ सो दानि ।।२।। चौपाई ---- गो कहिए इन्द्री अभिधान वछरा उमग भोग पय पान । जो इनके रस मांहि न राचा, सो सवच्छ गोदानी साचा ॥३॥ कनक सुरग अछर वानी तीनों सबद सूवर्ण कहानी । जो त्यागै तीनिहु की साता सो कहिए सुवर्ण को दाता ।।४।। पराधीन पररूप गरासी यो दुर्बद्धि कहावं दासी। ताकी रीति तजै जब ज्ञाता तव दासी दातार विख्याता ॥५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन अप्रकाशित रचनाएं तन मंदिर चेतन घर वासी ज्ञान दृष्टि घट अंतर भासी। समुझे यह पर यह गुण मेरा मदिर दाण होइ तिहि वेरा ।।६।। अष्ट महामद पुर के साथी एक कर्म कूदिसी के हाथी। इन्ह को त्याग कर जो कोई गज दातार कहावै सोई ।।७।। मन तुरंग चढ़ि ज्ञानी दौरे लखे तुरंग और में प्रौरे । निज दुग को निज रूप गहावै वहै तुरगम दान कहावै ।।८।। अविनासी कुल के गुण गावै कुल कलत्र सद्बुद्धि कहावें। बुद्धि प्रतीता धार ना फली वहै कलत्र दान की सैली ।।६।। ब्रह्म विलास तेल खलि माया मिश्र पिड तिल नाम कहाया। मिश्र पिड रूप गहि दुविधा मानी दुविधा त सोइ तिल दानी ॥१०॥ जो विवहार अवस्था होइ अंतर भूमि कहावै सोई। तजि व्योहार जो निहचे माने भूमिदान की विधि सो जाने ।।११।। सकल ध्यान रथ चढ़ सयाना मूकति पथ को कर पयाना । रहै अजोग योग सौ यागी वहै महारथ रथ का त्यागी ।।१२।। दोहा-ए दश दान ज मै कहै । शिव मासन मूल । ज्ञानवंत सूछिम गहै मूढ़ विचारे शूल ।।१३।। एई हित वित जाण को एई अहित अजान । राग रहित विधि सहित हित अहित प्रान को पान ।।१४।। ।। इति दाणदसी समाप्ता ।। अथ वर्तमान स्तोत्र सजल जलधिसेतुर्दुखविध्वंसहेतुनिहतमकरकेतुर्वारितानष्टहेतुः । क्वणित समरहेतुर्नष्टनिःशेषधातुर्जयति जगति चन्द्रो श्रीवर्द्धमानो जिनेन्द्रो ॥१॥ समयसदनकर्ता सार ससार हा सकल भुवन भर्ता भूरि कल्याण धर्ता । परम सुख समर्ता सर्व मदेह हा जयति जगति चन्द्रो श्री वर्द्धमानो जिनेन्द्रो ।।२।। कुगतिपथभनेता मोक्षमार्गस्य नेता प्रकृति गहणहता तत्त्वसंघात नेता। गगन गमनगता मुक्तिरामाभिकता ।। जयति ।।३।। सजल जलद नादो निजिताशेषवादा यति चरनुतपादो वस्तु तत्वं जगादो । जयति भविकपादोऽनेककोपाग्निकदो ।। जयति ॥४॥ प्रबलबलविसालो मुक्तिकाता रसालो विमल गुणमरालो नित्यकल्लोलमालो। विगत सरणशीलो धारिता नित्यसालो ।। जयति ।।५।। मदन मद विदारी चारु चारित्रधारी नरक गति निवारी स्वर्ग मोक्षावतारी। विदित त्रैलोक्यसारी केवलज्ञानधारी ।। जयति० ।।६।। विषय विष विभासो भूरिभाषानिवासो गत भवभयपासो कीर्तिवल्ली निवासो। करण सुख निवासो वर्ण सपूर्ण तासो।। जयति० ॥७॥ वचनरचनधीर: पापलिसमीर: कनकनिकषगौरः करकर्मारिसरः । कलुषदहननीर: पातितानगवीर ।। जयति ॥८॥ ।। इति वर्द्धमान स्तोत्रम् समाप्तम् ।। भुति कुटीर, १८, कुम्सी माग, विश्वास नगर, साहारा, दिल्ली-१२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार : स्वाध्याय की परम्परा में डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमण प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा मे एक ऐसे महान् भी पाप सर्व विषयो के पारगामी थे और इसीलिए हर उज्ज्वल नक्षत्र की भाति अध्यात्म-गगन में पालोकित हैं, विषय पर आपने ग्रन्थ रचे हैं । माज के कुछ विद्वान इनके जिन्होंने वस्तुगामी मूल दृष्टि को स्वानुभव से प्रकाशित सम्बन्ध मे कल्पना करते हैं कि इन्हे करणानुयोग व गणित कर भावी धार्मिक पीढियों को यथार्थता का प्रवबोधन आदि विषयों का ज्ञान न था, पर ऐसा मानना उनका दिया | सत्यकी वास्तविक मशाल उनकी रचनामो में माज भ्रम है क्योंकि करणानुयोग के मूलभूत व सर्वप्रथम भी अपने वास्तविक रूप में प्रज्वलित है, जिसमे प्रकाश ग्रन्थ "पटखण्डामम" पर आप ने एक परिकर्म नाम की ग्रहण कर हम प्रात्म-कल्याण कर सकते है । यथार्थ मे टीका लिखी थी, यह बात सिद्ध हो चुकी है । यह टीका उनकी भूमिका अपूर्व है। प्राज भी उन की वाणी का प्राज उपलब्ध नहीं है। प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वय उत्तम चरित्रवान, निग्रंथ अवगाहन कर बड़े-से-बड़े विद्वान एव साघु-मन्त नतमस्तक मुनि थे। उनकी भात्मदष्टि और व्यवहारदष्टि दोनो हो जाते है। इसलिये नही कि उनमें विद्वत्ता के शिविर निर्मल थी। अतएव उन्होंने “समयसार" में मुनि और प्रकाशमान है, वरन् इमलिये कि उनमे प्राध्यात्मिक श्रावक के भेद से दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग का उल्लेख गहराई तथा विशदता के स्पष्ट पगतल पानोकमान है। किया है।' "रयणसार" में भी प्राचार्य की यही दृष्टि परम्परा के साक्षात्कार के साथ ही प्रात्मानुभव का साक्षा लक्षित होती है। माचायं कुन्दकुन्द के प्राध्यात्मिक ग्रन्थो कार भी उनमे लक्षित होता है। स्पष्ट प्रमाण स्वरूप का सार "प्रात्मानुभूति" है जो स्वसवेदन में अनुभव करने मात्मानभव के निकप पर अमूल्य रत्नत्रयो (सम्यग्दर्शन, योग्य है । सिवाय प्रात्मानुभूति के शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) को परख कर उन द्रव्य के अन्य उपाय नही है । उनके ग्रन्थो में तथा सभी जनधर्म प्रयों को मूल रूप में विवेचित किया है। उनके सभी के प्राध्यात्मिक ग्रन्थों में यह बताया गया है कि शुद्ध निश्. अन्थो मे प्राचार्यत्व का यह स्पन्दन तथा जिनवाणी का चय नय की दृष्टि से पास्माके अनुभव के विना सम्यग्दर्शन निर्घोष हमे बिना किसी व्यतिकर के सहज शब्दायमान नहीं होता। मास्मतत्त्व मे रुचि, प्रतीति एव स्वसंवेदनगम्य श्रुतिगत होता है। कुछ विद्वान माज भी यह समझते है प्रनभति होना ही सक्षेप मे सम्यग्दर्शन का लक्षण है। कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विशुद्ध प्राध्यात्मिक थे, यद्यपि इस इन्द्रियों के सुख के लिए किया जाने वाला तत्वश्रद्धान मे सन्देह की प्रावश्यकता नहीं है कि वे विशुस रूप से मिथ्यात्व है।' "रयणसार" का सस्वर उद्घोष स्पष्ट प्राध्यात्मिक थे, किन्तु व्यवहारी भी शुद्ध रूप से थे। श्री है कि मारमान भति के बिना निश्चय से सम्यक्त्व नहीं भ० जिनेन्द्र वर्णी के शब्दो मे, अध्यात्मप्रधानी होने पर होता और सम्यग्दर्शन के बिना मुक्ति नहीं हो सकती।' १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० १२६ त पिय मोक्खणिमित्त कुव्वतो भणइ सहिट्ठी ।। २. ववहारिमो पुन णमो दोष्णिवि लिंगाणि भणदि -नयचक्र, ३३३. मोक्खपहे। तथा-समयसार, २७५ : 'धम्म भोगणिमित्त ण दूसो कम्मक्खयणिमित्त ।' णिच्छयणमो दु णिच्छदि मोक्खपहे सवलिंगाणि ।। ४. णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तवलद्धि णस्थि णियमेण । -समयसार, ४१४. सम्मत्तवल डि विणा णिव्वाण गस्थि णि यमेण ।। १. इंबियसोक्खणिमित्त सद्धाणादीणि कुणा सो मिच्छो । - रयणसार १७६. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार: स्वाध्यायकी परम्परा में सम्मान की हिमा का वर्णन "रयणसार" ग्रन्थ की शोभा (के) समान है। शोभा भी है और सुखदायक में अनेक प्रकार से किया गया है। किन्तु रत्नत्रय का भी है तथा लोभी पुरुषो को दान देना होता है सो शव विशद एवं विस्तृत वर्णन न होने से यह ग्रन्थ विशेष रूप अर्थात् मुर्दे की ठठरी की शोभा (के) समान जानना । से पठन-पाठन तथा प्रचार मे नही पाया हो ऐसा प्रतीत शोभा तो होती है, परन्तु मालिक को परम सुखदायक होता है। परन्तु-अन्तः साक्ष्य तथा अन्य विवरणो के प्राधार होती है। इसलिये लोभी पुरुषो को दान देने मे धर्म पर यह निश्चित हो जाता है कि यह ग्रन्थ सुदीर्घ काल नही है। तक पद्यावधि स्वाध्याय को परम्परा में प्रचलित रहा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, छठा अधिकार, पृ० १५८) "रयणसार" नाम की एक अन्य कृति का उल्लेख स्वाध्याय की यह परम्परा दिगम्बर माम्नाय मे दक्षिण भारत के भण्डारो की प्रन्थ-मूची मे हस्तलिखित बराबर बनी रही है । इसलिये कुछ विद्वानो का यह अन्धो में किया गया है। श्री दिगम्बर जैन मठ, चित्तामूर समझना कि "रयणसार" प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना (जिंजनी), साउप प्रारकाड, मद्रास प्रान्त मे स्थित शास्त्र नहीं है, क्योकि न तो इसकी कोई सस्कृत टीका मिलती भण्डार मे क्रम-सख्या ३६ मे प्राकृत भाषा के "रयणसार" है और न यह पठन-पाठन मे रहा है, भ्रमपूर्ण है। अन्य का नामोल्लेख है और रचयिता का नाम वीरनन्दी पण्डितप्रवर टोडरमल जी के अनन्तर पण्डित दौलतहै, जो सस्कृत टीकाकार प्रतीत होते है। इस टीका की राम जी ने "क्रियाकोष" मे पाठवें पृष्ठ पर "रयणसार" खोज करनी चाहिए । इम टीका के मिल जाने पर विद्वानो की निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है जो इस प्रकार हैका यह भ्रम पूर्ण रूप से दूर हो जाएगा कि प्राचार्य गण-वय-सम-पडिमा दाणं जलगालण च प्रणयमियं । कुन्दकुन्द की इस रचना पर कोई सस्कृत टीका नहीं। दसणणाण-चरितं किरिया तंवण्ण सावया मणिया ॥७॥ मिलती । हिन्दी पद्यानुवाद की खोज मबसे पहले मैने ही इसका पद्यानुवाद है : की थी। यद्यपि पद्य-कर्ता का नाम अभी तक जानकारी गण कहिये प्रष्टमल जु गुणा, वय कहिये व्रत द्वादश गुणा । मे नही पाया है। किन्तु इमसे यह तो स्पष्ट है कि तव कहिये तप बारह भेद, सम कहिये समष्टि प्रभेव ॥७० लगभग मत्ररहवी शताब्दी मे ग्यणमार के स्वाध्याय की पडिमा नाम प्रतिज्ञा सही, ते एकादश भेव जलही।.. परम्परा अवश्य थी। उक्त मूल गाथामे "तव" शब्द नहीं है, किन्तु पद्यानुवाद अठारहवी शताब्दी मे पण्डितप्रवर टोडरमल जी ने, मे उसका उल्लेख है। मशोधित तथा मेरे द्वारा मम्पादित जिनका समय १७३६ई. कहा जाता है, अपने सुप्रसिद्ध "रयणसार" मे शुद्ध गाथा इस प्रकार है प्राध्यात्मिक ग्रन्थ 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक" में दान के प्रसग गुण-बय-तव-सम-पडिमा-दाण-जल गासणं प्रणथमियं में "रयणसार" का प्रमाण देकर अपने विषय का वर्णन बसण-णाण-चरित किरिया तेवग्ण सावण मणिया ॥१३७।। किया है। उनके ही शब्दो म प्रष्ट मूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, ममता भाव, "तथा लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नहीं है, क्यों कि । ग्यारह प्रतिमाए, चार दान, पानी छानकर पीना, रात्रि गोभी नाना प्रमत्य उक्तिया करके उगते किचित भला में भोजन नही करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यक. नही करते । भला तो तब होता है जब इसके दान को चारित्र ये श्रावक को अपन क्रियाए कही गई है। महायता से वह धर्म माधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पाप यह उल्लेखनीय है कि "जन क्रियाकोष" का रचनारूप प्रवर्तता है । पाप के सहायक का भला कैसे होगा? काल १७३० ई० है । उन्नीसवी शताब्दी में प० सदासुखयहो "रयणसार" शास्त्र में कहा है दास जी ने इस परम्परा को अक्षुण्ण बनाया और इसका सप्पुरिसाण वाण कप्पतरूण फलाणं सोह वा। सक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करते हुए उल्लेख किया है . लोहोण बाण माविमाणसोहा सवस्स जाणेह ॥ २६ ॥ "श्री कुन्दकुन्दादि अनेक मनि निग्रन्थ वीतरागी अग अर्थ :--सत्पुरुषो को दान देना कल्पवृक्षो के फलो को के वस्तुनि का ज्ञानी होते भए तथा उमास्वामी भए ऐसे पाप Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वर्ष २०१ तं भयभीत ज्ञानविज्ञान सम्पन्न परम संजम गुण मण्डित गुरुनि की परिपाटी तं श्रुत का प्रत्युच्छिन्न अर्थ के धारक वीतरागीनि की परम्परा चली भाई तिनमें श्री कुन्दकुन्द स्वामी समयमार, प्रवचनसार, पचास्तिकाय, रयणसार, भ्रष्टपाहुडकू श्रादि लेय अनेक ग्रन्थ रचे ते प्रवार प्रत्यक्ष वांचने, पढने में आये है। इन ग्रन्थति का जो विनयपूर्वक प्राराधन करे सो प्रवचन भक्ति है ।" ( रत्नकरण्ड श्रावका चार, पंचम अधिकार, पृ० २३६ ) यही स्वाध्याय की परम्परा पं० भूधरदास जी के वर्षा समाधान" मे भी लक्षित होती है। निर्मास्य के प्रसंग में प० भूधरदास ने "रसार" का उल्लेख किया है । वर्षा समाधान के पृ० ७६ पर गाथा स० ३२,३३,३५ और ३६ इन चारो के उद्धरण के साथ लिखा हुआ मिलता "जे देवधन के ग्रहण का फल कुन्दकुन्दाचार्य कृत रयणसार विष का है । तथाहि, गाथा मनेकान्त इसी प्रकार, पण्डित चम्पालाल कृत "चर्चा सागर " ग्रन्थ विक्रम संवत् १८१० का रचा हुआ मिलता है । इस ग्रन्थ से भी स्पष्ट है कि "रयणसार" की स्वाध्याय-परम्परा सतत प्रचलित रही है। दान के प्रसंग की चर्चा है "इसलिये सत्पुरुषो के लिये दिया हुआ दान तो कल्पवृक्षादिक के सुखो को उत्पन्न करता है और लोभी के लिये दिया हुआ दान ऊपर लिखे अनुसार फल देता है। सो हो रयणसार मे लिखा है-सस्साणं वाण कप्पतरूण फलाण सोहं वा । लोहाणं वा ज विमाणसोहा स जाणेह ||२६|| संशोधित व सम्पादित वर्तमान सस्करण मे यह गाथा इस प्रकार है सप्पुरिसा ण दाण कप्पतरूण फलाण सोहं वा । लोहोन जण ज विमानसोहा-सर्व जाणे ।। २५ ।। इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर 'रयणासार' का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- इसी प्रकार ध्यान धारण करना और सिद्धान्त के रहस्यो का अध्ययन करना मुनियो का मुख्य धर्म है। पूजा और दान के बिना गृहस्थो का धम नहीं है और ध्यान-अध्ययन के बिना मुनियों का धर्म नही है । यहो इसका तात्पर्य है मो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखा है : दाणेधा मुलं सावयन्मं धागो तेण विना । भाणम्भयणं मुक्तं दमं तं विना तहा सोबि ॥ यह 'रवणासार' की गाथा है। संवाोपित व सम्पादित प्रति में यह गाथा इस प्रकार है वाणं पूया मुक्ख सावयवम्मेण सावया तेण विना । horthaण मुक्खं जड़-धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥ १० वर्तमान कालमे भी स्वर्गीय मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज ने 'समयसार' की प्रस्तावना मे 'रयणसार' का प्रमाण देते हुए लिखा है तथापि "रवणसार" की निम्न (१३१, १३२) गावाम्रो द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि परमात्मा (महन्त और सिद्ध) तो स्वसमय है और क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव 'परसमय' है । इससे स्पष्ट है कि संयतमम्यदृष्टि स्वसमय' नहीं है, परसमय है । इस प्रकार 'रयणसार' के स्वाध्याय की परम्परा १७वी शताब्दी से लेकर आज दिन तक बराबर चालू है । हाल ही क्षु० जिनेन्द्र वर्णों ने अपने 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में पृ० ८४ ( भाग १ ) पर 'ग्रात्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नही होता' शीर्षक के अन्तर्गत 'रयणसार' की निम्नलिखित गाथा का उल्लेख किया है। नितम्बवलद्धि विना सम्मतवलद्धि णत्थि नियमेण । सम्मत्वलद्धि विणा निव्वाणं णत्थि जिद्दिट्ठ ॥ ६० ॥ अर्थात् निज तत्वोपलब्धि के विना सम्वत्व की उपलब्धि नहीं होती योर सम्ववस्व की उपलब्धि के बिना निर्माण नहीं होता। उक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि 'रयणसार' प्राचार्य कुन्दकुन्द की ही रचना है और प्राचार्य के अन्य ग्रन्थो की भाँति लगभग चार सौ वर्षों से बराबर 'रयणसार' के पठन-पाठन के उल्लेख तथा प्रमाण मिलते है । प्राध्यात्मिक ग्रन्थो की भाति रयणमार का भी अपना महत्व है पोर कई बातों में इसे प्रमाण रूप मे उद्धृत किया जाता रहा है । अतएव इस बावकर्मप्रधान 'रणसार' को मान्यता बराबर बनी रही है, यह सिद्ध हो जाता है। शकर घायल मिल के सामने, नीमच (म. प्र. ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास के श्रमणक - डा. राजपुरोहित श्रमण वस्तुतः पाश्रमवासी थे जो स्वय श्रम करते थे, के अनुयायियो ने भी इसमे परिवद्धि की है। तपस्या करते थे । ममाज में श्रमण-सस्था का उदय बौद्ध सम्राट अशोक ने (बौद्ध) सघ ब्राह्मण, ग्राजीविक तथा जनधर्म से पूर्व वैदिकयुग मे ही हो चुका था ।' निर्गन्थ इत्यादि का एक साथ पथक-पृथक् उल्लेख करने के बहदारण्यकानिषद् (४/३/२२) मे श्रमणो का सर्वप्रथम साथ ही बौद्धो से इतर ब्राह्मण-श्रमणो का एक-साथ उल्लेख ज्ञात होता है परन्तु परवर्तीकाल मे, बौद्ध और जलेर कियाFORE ही ये बाता तोही जैन-सम्प्रदायो ने इस शब्द को विशेषतः स्वीकार किया है। ब्राह्मणेतर भी थे। सम्भवत ये 'समण' आजीविक थे जिन्हे बुद्ध को प्राय. समण गोतम कहा गया । वहाँ यह साधारण अशोक ने गया के निकट बराबर की गृहाएँ दान में दी भिक्षाटन करने वाले का अर्थ देने लगा । सुत्त तथा विनयपिटक में ऐसे भिक्ष समणो की संस्था ही बन गयी थी। ईमवी पूर्व दूसरी शती में श्रमण अथवा श्रमणदास तीसरी शती में श्रमण प्रथवा परन्त समय से पूर्व अपने उत्तरदायित्व से पलायन करने नाम भी जात नीतीकिसान की नियनी के के कारण इनके प्रति ब्राह्माणो की सद्भावना नही थी। पार स उपलब्ध, ईसवी की तीसरी-चौथो शती की ग्वरोष्ठी वस्तुतः ब्राह्मण ग्रन्यो के श्रमण सच्ची त्यागवृत्ति मे में उत्कीर्ण अभिलेखो मे श्रमण तथा धामणेर का उल्लेख महान् थे। वैदिक-साहित्य के आलोक में उपलब्ध श्रमण प्राप्त होता है। 'सामणेर' (श्रामणेर) का तात्पर्य नोपरम्परा को अवैदिक सिद्ध करना' वस्तुत. उस शब्द तथा सिखिया भिक्खु किया गया है। श्रमणगोष्ठ के उल्लेख परम्परा-विषयक तथ्यदृष्टि के साथ अनाचार एव अन्या भी प्राप्त होते है । नुकरण है। यह सर्वविदित है कि भास कालिदास के अादरणीय 'पाइय-सद्द-महणवो' (पृष्ठ-८६५) के अनुसार और उनसे पूर्ववर्ती दक्ष एवं प्रथिन रूपवकार हुए है। र पाँच प्रकार के धमण होते है -निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, चौदह रत्नो के ममान उनके चौदह उपलब्ध नाटक संपूर्ण गरुक तथा आजीवक। परवर्ती नाट्य-परम्पग के वस्तु, प्रयोग तथा कल्पना की निग्गथ-सरक-तावम-गेरुय आजीव-पचहा समणा' दष्टि से उपजीव्य बन गए है। सम्पूर्ण मस्कृत नाट्यस्पष्ट ही जैन, बौद्ध, ब्राह्मण इत्यादि के साथ ही गोवतिक परम्परा में आज भी भास के समान मंच प्रयोग-मुलभ श्वावतिक, दिशावतिक, प्राजीवक इत्यादि अनेक श्रमणमार्गी रूपक दुर्लभ ही है। उनके रूपकों में मचीय नाट्य-तत्व साधुओं की परम्परा थी। यह परम्परा बुद्ध तथा महावीर अनायाम उतर पड़े हैं। भास की इमी नाट्य महत्ता के के पूर्व से ही चली आ रही थी और इन दोनो महापुरुपो समक्ष कालिदास भी एक बार अपने रूप की सफलता मे १. डा. राधाकुमुद मुकर्जी : हिन्दू सभ्यता (हिन्दी ५ डी. सी० सरकार, सलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स, द्वितीय ____ अनुवाद), चतुर्थ सस्करण, पृष्ठ २६८ । सस्करण, पृ०६६। प्रशोक का सातवा स्तम्भलेख । २. वही। ३. डा. हरीन्द्रभूषण जैन, भारतीय संस्कृति और श्रमण ६ वही, पृ. ७७ । परम्परा, पृष्ठ १३-१४ । ७. वही, पृ० २२७ । ४. वही, पृष्ठ १३ पर उद्धृत डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ८. वही, पृ० २४८-४६, ५१-५४ तथा हिन्दू मभ्यता, का मभिमत । पृ० २६८। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त सशक हो कह उठते है...... जब विदूषक का परिचय देता है तब नलिनिका कहती है "प्रथितयशसा भाससौमिल्लकविपुत्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य - "इस ब्राह्मण को, शहर को दुकान के बरामदे मे, पहले वर्तमानकवेः कालिगसस्य क्रियायां कय बहमान: ?" देखा है।" परन्तु परवर्ती होने पर भी कालिदास-साहित्य मे 'पा, दिपुरुवो ण परापणालिदे अयं ब्राह्मणो। ब्राह्मणेतर सन्दर्भ दुर्लभ ही है जबकि भाम-माहित्य मे वे तब विदूषक कहता है कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की पहचान है असुलभ नहीं है। बुद्ध और महावीर के उपदेशो के पश्चात् और चीवर रक्तपट को। यदि वस्त्र त्याग दू तो श्रमणक हो जाऊँ। श्रमण शब्द प्रायः इन्ही के द्वारा प्रवृत्त सम्प्रदायो से सबद्ध हो गया। किसी भी स्थिति मे, भास बुद्ध और महावीर "ग्राम भोदि ! जण्णोपवीदेण बह्मणो, चीवरेण रत्तपडो। के पश्चात् ही हुए और इसलिए भास के रूपको मे इन जदि वत्यं जाद वत्य अवणाम, अवर्णमि, समणपो होमि।" दोनों के सन्दर्भ मे ही श्रमणक शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ भासने अपने युगमे प्रचलित भारतीय तीनों प्रधान प्रतिज्ञायोगन्धरायण, प्रविमारक तथा चारुदन नामक धर्मों के अनुयायियों के मामान्य पहचान-चिह्न दे दिए है। भास के रूपकों मे थमणक अथवा श्रमणिका के उल्लेख चीवरधारी प्रायः बौद्ध होते थे। अत. रक्तपट से तात्पर्य उपलब्ध होते है। बौद्ध ही लेना चाहिए। वैसे रक्तपट किमी अज्ञात अथवा मर्वप्रथम हमे यह देखना है कि साधारणतया श्रमणक लुप्त पापड का नाम भी हो सकता है। श्रमणक वस्त्रहीन से भास का क्या तात्पर्य है ? 'प्रविमारक' के द्वितीय होते थे । स्पष्ट ही यहा दिगम्बर जैनों की ओर ही संकेत अक मे विदूषक से विनोद करती हुई चेटी उसे कहती है प्रतीत होता है। इसी प्राधार पर डा० ए० डी० पुसालकर कि वह भोजन के लिए निमन्त्रित करने किसी ब्राह्मण का यह निर्णय लेते है कि चकि श्रमण क से भास, दिगम्बर अन्वेषण कर रही है। तब विदूषक कहता है- 'प्ररी! सम्प्रदाय का ही अर्थ लेते है इससे स्पष्ट है कि श्वेतामैं कौन हूं? क्या श्रमणक हू ?" चेटी कहती है -"तू तो म्बरों के उदय से पूर्व अर्थात् ई० पू० ३०० से पूर्व ही अवैदिक है।" विदूषक कहता है-"मैं अवैदिक कैसे हुआ? भास का समय होना चाहिए, क्योकि उन्हें श्वेताम्बरों का ज्ञान नहीं था। सुन तो ! रामायण नामक नाट्यशास्त्र है न, एक वर्ष अविमारक रूपक के ही चौथे अक" मे नायक, विदूषक परा होने से पहले ही मैने उसके पांच इलोक पढ नायिका (करगी) विषयक प्रश्न पूछता है.लिए है।" किन्न स्मरति मां कुरङ्गी? (क्या कुरंगी मेरा विदूषक-भोटि ग्रह को, समणग्रो। स्मरण नही करती) चेटी-तुव किल प्रवेदियो । विदूषक कहता है --किष्णु सु जीवदि जगन्धस्सविदूषक --किस्स ग्रहं प्रवेदिनो सुणाहि दाव। मणिग्रा। अस्थि रामानणं णाम णसत्यं । तस्सि श्री सी० पार० देवपर इसकी सस्कृत छाया इस प्रकार पचसुलोपा असम्पुण्णे संवच्छरे पुमए करते है.-"किन्न खलु जीवति नग्नान्धधमणिका।" स्पष्ट पठिदा। ही यहां विरहिणी नायिका के लिए 'श्रमणिका' शब्द का इस विवरण से स्पष्ट है कि भाम की दृष्टि मे श्रम- प्रयोग हया है जिसका तात्पर्य तपस्विनी अथवा बेचारी णक प्रवैदिक होते है। श्रमण क ब्राह्मणेतर ही हो सकते हो सकता है। अर्थ होगा-'बेचारी जीवित भी है ?" है, फिर चाहे वे बौद्ध हो, चाहे जैन अथवा अन्य कोई। तपस्विनी के अर्थ में यहा श्रमणिक शब्द का प्रयोग "प्रविमारक" के पाँचवे अक में नायक नलिनिका को किया गया है । जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय की, १. मालविकाग्निमित्र. प्रस्तावना । ४. डा० ए० डी० पुमालकर, भास (भारतीय विद्याभवन २. भासनाटकचक्रम् (श्री मी० आर० देवधर द्वारा बम्बई, प्रथम सस्करण १६४३), पृष्ठ २०८ । सम्पादित का १९६२ ई० का सस्करण), पृष्ठ ११६। ५. भामनाटकचक्रम्, पृष्ठ १६१ । ३. वही, प्रविमारक, पृष्ठ १६६ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास के श्रमणक । घोर चाहे भने सकेत किया हो, परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की साध्वी भी नंगी कभी नही रहती है। कम से कम वह एक वस्त्र तो पारण करती हो है पुन उपर्युक्त सन्दर्भ मे 'अन्ध' शब्द का क्या अर्थ होगा ? प्रत 'rrive मणिश्रा' की 'नग्नान्धश्रमणिका' छाया न करते हुए 'निर्यन्यधमणिका' छाया करना अधिक उचित है, जिसका तात्पर्य होगा कि नायक के विरह मे सन्तप्त होती बेचारी राजकुमारी दिगम्बर सम्प्रदाय की मणिका ही बन गयी है, अर्थात नियमका बनने पर भी क्या वह जीवित है ? यहां विशेष ध्यातव्य यह है कि अविमारक रूपक के उपर्युक्त तीनों स्थलो पर श्रमणिका अथवा श्रमणक का विदूषक ही स्मरण करता है। प्रतीत होता है कवि इनके प्रति अधिक गम्भीर नही है । भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण रूपक के तृतीयाक मे श्रमणक नामक पात्र रंगमच पर प्रवेश करता है और वह विदूषक तथा उन्मत्तक के वेश में उपस्थिन यौगन्धरायण के कृत्रिम टंटे को शान्त करने का प्रयास करता है । वस्तुतः यह श्रमणक भी वास्तविक नही है । उदयन का अन्य मन्त्री रुमण्वान् ही श्रमणक के वेश में उपस्थित होता है । ग्रविमारक में कहे पूर्वोक्त विवरणानुगार श्रमणक नग्नक होगा और नाट्यशास्त्र, दशरूपक इत्यादि के द्वारा सकेत न करने पर भी यह ग्रसम्भव प्रतीत होता है कि उस काल मे प्रेक्षको के समक्ष कोई पात्र रगमच पर निवस्त्र उतरे । स्पष्ट ही प्रतिज्ञायौगन्धरायण का श्रमणक दिगम्बर श्रमणक नही हो सकता और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भासोक्त वैदिक भ्रमणको मे एक तो विमारक के दिगम्बर जैन है तथा दूसरे अवैदिक श्रमणक बौद्ध है । प्रतिज्ञायोगन्यरागण का धमक बौद्ध प्रतीत होता है, क्योकि वह विदूषक को 'बह्मणाउस' (ब्राह्मणोपासक ) ३५ कहना है । यह सर्वविदित है कि बौद्ध साधु बात-बात मे 'उपासक' सम्बोधन देते थे। यही नहीं, विदूषक उनके मतानुयायियो को 'सधधारिणो' (संघचारिणः) भी कहता ' है। सचारी के रूप में बौद्ध ही प्रसिद्ध है, इसमें सन्देह नही । इससे स्पष्ट है कि प्रतिज्ञायोन्धरायण का श्रमणक बौद्ध भिक्षु था। अविमारक में भी पहले चीवरधारी रक्तपट का उल्लेख हुआ है। सम्भवत वहाँ भी बौद्ध की ओर ही सकेत है । वैसे स्वय भास ने अपने चारुदत्त रूपक मे शाक्य श्रमणक का उल्लेख किया है," जहाँ विदूषक कहता है कि "मजदूरनी के इशारा करने पर शाक्यश्रमणक के ममान मुझे भी नीद नहीं था रही है।" १. वही, पृ ६६८८ २. दूरध्वान वर्ष युद्ध गम्यदेशादिविश्वनम् । सरोप भोजन स्वान सुतवानम् ॥ प्रवरग्रहणादीनि प्रत्यक्षाणि न निति । नाधिकारिवध क्वापि त्याज्यमावश्यक न च ॥ दशरूपक, ३, ३४-३६ । खुदा कसमकरोदिवि सक्किमणो नि ण लभामि । यहा सन्देह का स्थान नहीं है। चतुर्भाणी के गमान शाक्य भिक्षुओं की कामलोलुपता पर भी फक्ती कसी गई है । चारुदत्त रूपक को आत्मसात् करने पर भी यह वाक्य मृच्छकटिक में प्राप्त नही होता। चारुदत्त के ही द्वितीयांक संवाहक के निर्वेद से प्रव्रजित होने का संकेत प्राप्त होता है जिसकी मदमस्त मंगल हस्ती से वसन्तसेना का सेवक रक्षा करता है। इस प्रसंग का पल्लवित रूप मृच्छकटिक मे भी प्राप्त होता है । परन्तु वहाँ हाथी का नाम 'खुण्टमोटक दिया गया है जो प्रवन्तिप्रदेश की मालवी तथा हिन्दी मे भी 'वूटामोड़' के रूप में आज पहचाना जा सकता है, अर्थात् वह मदमस्त हाथी जो अपने ग्रालान रूप खूटो को भी मोडकर उखाड़ दे ग्रथवा तोड़ दे । मालवा के धार जिले मे खटपला ( खुटपल्लि अथवा गुटपन) जैसे अब भी ग्राम के नाम उपलब्ध होते है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि(१) भाग की दृष्टि में श्रमणक अवैदिक है । (२) भाम- साहित्य मे दिगम्बर ३ भासनाटकच क्रम्, पृ. ८६ । ४. वही पृष्ठ १२॥ ५. वही, पृष्ठ २२८ । ६. वही, पृष्ठ २२०-२१ । सम्प्रदाय के श्रमणक (शेष पृ० ३७ पर) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदों में जैन संस्कृति के गूंजते स्वर कुछ समय पूर्व कुछ ग्रालोचको ने जैन धर्म की प्राचीनता के बारे मे अनेक भ्रान्तिया फैला रखी थी । कोई इसे हिन्दू धर्म की शाखा मानता था तो कोई बुद्ध धर्म की। कोई इसे भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित मानता था तो कोई भगवान पार्श्वनाथ द्वारा, परन्तु जैसे- जैसे सांस्कृतिक शोधकार्य श्रागे बढ़ता गया और तथ्य प्रकाश मे आते गए, यह सिद्ध हो गया कि जैन धर्म वेदों से भी प्राचीन धर्म है । इस अवसर्पिणी काल मे भगवान ऋषभदेव इसके प्रवर्तक थे। मैने अन्यत्र सनातन धर्मी पुराणो से जैन धर्म पर प्रकाश डालने वाले कुछ तथ्य प्रस्तुत किये थे। यहां वेदों, उपनिषदों यादि से कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूं जो जैन धर्म की प्राचीनता के स्वतः सिद्ध प्रमाण है । महंता मे सुदानवो नरो असो मिसा स प्रयज्ञं यज्ञिभ्यो दिवो प्रर्चा मरुद्द्भ्यः । - ऋग्वेद, श्र० ४ श्र० ३ वर्ग ८ | इस मन्त्र में अरिहन्तों का स्पष्ट उल्लेख विद्यमान है दीर्घत्वायुर्बलायुर्वा शुभ जातायुः, । ॐ रक्ष रक्ष श्ररिष्टनेमिः स्वाहा । इस मन्त्र मे बाईसवें तीर्थङ्कर भगवान श्ररिष्टनेमि जी से रक्षा की प्रार्थना की गयी है । ज्ञातारमिन्द्र ऋषभं वदन्ति, प्रतिचारमिन्द्रं तमपरिष्टनेमि भवे भत्रे । सुभवं सुपाश्र्वमिन्द्रं Tag शक्रं प्रजितं तद् वर्द्धमानं पुरुहूतमिन्द्र स्वाहा ।। प्रस्तुत मन्त्र मे भगवान् ऋषभदेव जी, द्वितीय तीर्थङ्कर श्रजित नाथ जी, तेईसवें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ जी और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् वर्धमान जी का स्पष्ट उल्लेख है । नमं सुवीरं दिग्वाससं ब्रह्म गर्भं सनातनम् ॥ श्री जी. सी. जैन ॐ त्रैलोक्पप्रतिष्ठितान् चतुविशति तीर्थङ्करान् ऋषभाद्यावर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्ये ॥ - बृहदारण्यके काम क्रोवादि शत्रुत्रों को जीतने वाले वीर, दिशाएं ही जिनके वस्त्र है, जो ज्ञान के अक्षय भण्डार ( केवल ज्ञान ) को हृदय में धारण करने वाले और सनातन पुरुष है, ऐसे अरिहन्तों को नमस्कार करता हूँ । तीनों लोकों में प्रतिष्ठाप्राप्त भगवान् ऋषभ देव से लेकर भगवान् वर्धमान तक २४ तीर्थङ्कररूप मिद्धो की शरण ग्रहण करता हूं | ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा भगवता ब्रह्मणा स्वयमेवाचीर्णानि ब्रह्माणि तपसा च प्राप्त परं पदम् । -- श्रारण्य के भगवान् एव द्वारा मोक्ष प्रस्तुत मन्त्र मे भी ऋषभदेव जी को ब्रह्मा बताया गया है और उन्हें स्वयं ही तप प्राप्त करने वाले कहा गया है। प्रातिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नग्नहु । रूपामुपास दामेत तिथो रात्री सुरा सुताः ॥ — यजुर्वेदे यजुर्वेद के प्रस्तुत मन्त्र मे भगवान महावीर का नामोल्लेख स्पष्ट है । मन्मना प्रप्पा ददि मेयवामन रोदसी इमा च विश्वा भुवनानि यूथेन निष्ठा वृषभो विराजास । - सामवेदे, ३ अ १ खंड० सामवेद के इस मन्त्र मे भी भगवान् ऋषभदेव को समस्त विश्व का ज्ञाता बताया गया है। नाहं रामो न मे वाछा, भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्थातुमिच्छामं स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ - योगवशिष्ठ मैं राम नही हूं, मुझे कोई कामना नही, पदार्थों में Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदों में जन-संस्कृति के गंजते स्वर मैरा मन नही, जिस तरह से जिन अपनी आत्मा मे शान्त- मरुत्वं न वृषभं वावधानमकवारि दिव्य शासनमिन्द्र भाव से रहे है, उसी तरह से शान्तभाव से मै रहना विश्वा साहम वसे नूतनायोग्रासदो दा मिहताह्वयमः । चाहता है। यहा शान्तिमति निनदेवों को उपमान के रूप - ऋग्वेद, ३६, ७-३-११ । में प्रस्तुत किया गया है। समिद्धस्य प्ररमहसोऽवन्दे तवश्रिय वृषभो गम्भवान सिम कुलादि बीजं सर्वेषामाद्यो विगलवाहनः । मध्वोविध्यस । चक्षष्मांश्च यशस्वी चाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित् ।। - ऋग्वेदे, ४ अ० ४ व० ६-४-१.२२ । मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः । प्राविषि सायकानि धन्वाह निष्क यजतं, विश्वअष्टमो मरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुकमः ।। रूपम् अहं न्निदं दयसे विश्व भवभुवं न वा प्रागीयो दर्शयन वर्त्म वीराणां, सुरासुर-नमस्कृतः रुद्रत्वादस्ति। नीतित्रयाणां कर्ता यो, युगादौ प्रथमो जिन ॥ - ऋग्वेदे अ० २०५२७ । ---मनुस्मृती स्वम्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा । सब मे प्रथम कुल के ग्रादिवीज विमलवाहन हा ।। स्वस्ति नस्ताों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। उनके पश्चात् चक्षुष्मान् पशम्पी अमितचन्द्र और प्रमेनजित ___--- यजुर्वेद अ० २५, मन्त्र १६ । कुलकर हुए। तरणिरित्सपासति बोज पुर ध्याः यजा प्राव इन्द्राभरतक्षेत्र में छठवे कुलकर ममदेव और सातवें नाभि- पुरुहूतं नमो नर्मोगरा नेमिस्तष्टव शुद्ध । राजा हुए । साथ ही सातवे कुलकर श्री नाभिराजा की ऋग्वेदे २० प्र०, ५ अ०.३ च० २७ । पत्नी मरुदेवी से पाठवे कुनकर विशालाकृति पभ हुए। उपर्युक्त मन्त्रो मे तीर्थडुर-वाचक शब्द जंन सस्कृति वीरों के मार्गभूति, सुगसुरो के द्वारा वन्दनीय और तीन के आदि तीर्थडुर श्री ऋपभदेव जी की महिमा का गान प्रकार की नीति के कर्ता-धर्ता तथा मार्गदर्शक इस युग के करते हुए जैन सस्कृति को वेदो से भी प्राचीन प्रमाणित प्रारम्भ में ही प्रथम जिन (ऋपभ) हुए। कर रहे है। [पृ० ३५ का शेषांश तथा निर्ग्रन्थ श्रमणिका का उल्लेख हुअा है। अतः साथ ही चारुदत्त एव प्रतिज्ञायौगन्धरायण मे भी प्रतीत होता है कि भास इसके अतिरिक्त जैन- प्राप्त होते है। सम्प्रदायों से अपरिचित थे अथवा अन्य सम्प्रदाय (६) जैन श्रमणकों की बान केवल विदूषक कहता है। स्थिति मे ही नही पाए थे। जबकि बौद्ध श्रमणक का उल्लेख अविमारक एव (३) चीवरधारी रक्तपटो का जो उल्लेख प्राप्त होता है चारुदत्त में विदूषक, चेटक तथा सवाहक करता है वे सम्भवत बौद्ध ही थे। तो प्रतिज्ञायौगन्धरायण मे रुमण्वान् प्रच्छन्न रूप में (४) बात-बात मे 'उपासक' सम्बोधन देने वाले सघचारी श्रमणक के वेश मे ग्राता है। शाक्यश्रमणक का भी उल्लेख किया गया है तथा तात्पर्य यह है कि भास-साहित्य में श्रमणकों को वाहे उनके चारित्रिक पतन की ओर भी सकेत किया प्रतिष्ठित स्थान तो प्राप्त नही हग्रा हो और अधिकाश में गया है जो मजदूरनियो से अपनी कामपिपासा उन्हे विद्वेष भावना से परिहाम का भाजन बनाया गया हो शान्त करते है। परन्तु साथ ही निर्वेद से प्रवजित तथापि तद्युगीन ब्राह्मण समाज मे श्रमणको की स्थिति पर होनेवाले भिक्षु का भी सकेत प्राप्त होता है। विशेष प्रकाश पड़ता है जो म्पहणीय और प्रत्याज्य है । (५) जैन श्रमणको के सन्दर्भ केवल 'प्रविमारक' में ही प्राप्त वस्तुतः इन संकेतात्मक विवरणो से उस युग की धार्मिक होते है। परन्तु बौद्ध श्रमणको के उल्लेख इसके स्थिति की वास्तविकता भी प्रकट होती है। 00 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत नाटकों की कथावस्तु : एक विवेचन श्री बापूलाल प्रांजना, उदयपुर संस्कृत वाङ्मय की अन्य विधामो के समान नाट्य का समुच्छय प्रतीत होता है। विधा को भी जैन नाटककारो ने अपनी कृतियों से भरा- इसमे नाटककार एक विशिष्ट उद्देश्य लेकर चला है पूरा किया है। नाटयाचार्य रामचन्द्र, देवचन्द्र, रामभद्र. और वह है सामाजिक अंधविश्वासो व उनके प्रवर्तकों के गुनि, मेघप्रभाचार्य. बालचन्द्र मूरि, जयसिंह मूरि, नयचन्द्र, प्रति प्रश्रद्धा उत्पन्न करना । कापालिक लम्बोदर, घोरहस्तिगल्ल, ब्रह्म सूरि, नेमिनाथ, यश पाल और यश चन्द्र घोण और उसकी पत्नी लम्बस्तनी की घृणित चरितावली प्रादि जैन कवियों ने दो दर्जन से भी ऊपर नाटको की का विस्तार इसी दष्टि से किया गया है। वेश्या की भररचना की है। यहा जैन नाटककारो के नाटको के कथा- पूर निन्दा तोसरे अक में की गई है। नक की विशेषतामो पर सक्षिप्त प्रकाश डाला जा निर्भयभीम',-रामचन्द्र का यह व्यायोग-कोटि का रहा है। रूपक है। इसकी कथा महाभारत से ली गई है। एक कई जैन मुनियों ने जैन होते हुए भी महाभारत, पुरुष से भीम यह सूचना पाकर की ऊँचे पर्वत पर बक रामायण, नलकथा, सत्य हरिश्चन्द्र कथा या अन्य पौरा. राक्षम रहता है, जिसके लिए नगर के लोग एक-एक मनुणिक कथाओं को अपने नाटक की कथावस्तु बनाकर इस । ष्य भेजते है जिसे वह वध्यशिला पर मारकर खाता है। देश की सनातन सास्कृतिक मर्यादापो को अभिमिचित । भीम अन्य राक्षसों सहित वक का संहार करता है। भवकिया है। उन्हें अमर बनाया है। रामचन्द्र के नलविलास. भीत ब्राह्मण परिवार अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है । सत्य हरिश्चन्द्र, निर्भयभीम व्यायोग, रघुविलास, धनमाला इस नाटक पर भास के मध्यमव्यायोग व नागानद और हस्तिमल्ल का मैथिलिकल्याण प्रादिरूपक इसी प्रकार का स्पष्ट प्रभाव है । इस नाटक में कवि ने विदेशी प्राक्रके हैं। मणकारियो से जर्जरित देश की रक्षा के लिए भीम के महाभारत, रामायण एवं पौराणिक कथानकों पर चरित्र में भारतीय वीरो को प्रेरणा दी है। भीम के प्राधारित नाटक: परोपकार प्रादि गुणों को समाज के सामने रखना भी कवि का उद्देश्य रहा है। नलविलास'- नाट्याचार्य रामचन्द्र (१२वी शनी सत्यहरिश्चन्द्र-छ: अको के इस नाटक में कवि ने का द्वितीय और तृतीय चरण) का यह नाटक ७ अकों का हरिश्चन्द्र के चरित के लौकिक आदर्श को प्रस्तुत किया है। इसमें नल-दमयन्ती के प्रेम व विवाह की कथा । है। हरिश्चन्द्र की कथा कई दृष्टियों से प्रभावोत्पादक व निबद्ध की गई है। महाभारतीय नलकथा में लेखक कथा में लेखक नाटकीय तत्त्वो से युक्त है। कथा के नायक में देवता व ने पर्याप्त परिवर्तन कर दिया है। अनावश्यक विवरणो ऋषियों का इस स्तर पर रुचि लेना संस्कृत साहित्य मे से नाटक का कलेवर बहुत बढ़ गया है। उपदेश देने की अन्यत्र कम ही पाया जाता है। मानव, देव, विद्याधर, कवि की प्रवृत्ति इतनी अधिक है कि भनेक स्थलो पर पिशाच व पशु-पक्षी कोटि के पात्र हैं। यह नाटक भर्तहरिशतक व पचतत्र की भाति लोकव्यवहार इसका कथानक पौराणिक युग से ही चरित्र-निर्माण १. गायकवाड़ मोरियण्टल सीरीज, बड़ौदा से प्रकाशित । ३. यशोविजय ग्रथमाला १६ मे बनारस से प्रकाशित । २. रामजी उपाध्याय विरचित मध्यकालीन संस्कृत ४. निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । नाटक, पृ. १५७ . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत नाटकों की कथावस्तु : एक विवेचन ३६ तथा लोकानुरञ्जन के लिए सदैव घर-घर मे प्रतिष्ठित मत्री वस्तुपाल और तेजपाल थे। एक बार तेजपाल उस रहा है। मन्दिर में दर्शनार्थ गये । मुनिवर जयसिंह की इच्छानुसार रघुविलास-पाठ अंको के इस नाटक मे राम वन- बड़ा दान उस मदिर के लिए दिया। मुनिवर ने प्रसन्न गमन से रावणवध तक की रामकथा को प्रस्तुत किया होकर उन मत्रीद्वय को प्रशस्ति लिखी। हम्मीरमदमर्दन गया है। इसके कथानक मे कवि कई स्थलो पर नई-नई नाटक उनके स्वामी राजा वीरधवल के माथ मत्रीद्वय योजनामो को लेकर चला है। इसके कथानक मे एक की उदार कीति को काब्धात्मक प्रतिष्ठा देने के लिए विशिष्ट तत्त्व सर्वाधिक समुन्नत दिखाई देता है, जो लिखा गया। परवर्ती युग मे विशेष रूप से छायानाटको मे अपनाया इम कृति का ऐतिहासिक महत्त्व तो है ही, साथ ही गया । छायापात्रों की इतने बड़े पैमाने पर कल्पना अन्यत्र तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक जीवन का यथार्थ चित्रण विरल ही है। विशुद्ध नकली पात्र को ही दूसरे पात्र भी इसमे प्राप्त होता है। समग्र रचना मुद्राराक्षस से की छायारूप मे प्रस्तुत करना जितना सौष्ठवपूर्ण इम प्रभावित है। मुद्राराक्षस की भाति इसमे झठे सवाद, नाटक मे है, उतना अन्यत्र कम ही दृष्टिगोचर होता है। कपटवेशधारण, गुप्तचरो का जाल, मत्री व मत्रणा का वनमाला-रामचन्द्र की यह अप्राप्य नाटिका है, सातिशय माहात्म्य, राजापो का सघ बनाना आदि कई जिसके उद्धरण नाट्यदर्पण में प्राप्त होते है। राजा नल समान तत्त्व प्राप्त होते हैं। इसमे कवि ने युवको को नायक है और दमयन्ती उसकी विवाहिता पत्नी, जो अब राष्ट्र रक्षा का सदेश दिया हैमहादेवी पद पर अधिष्ठित है। नल का प्रेम किमी अन्य त्रस्तेषु तेषु सुभटेषु विभौच भग्ने, कन्या से चल रहा है। भग्नासु कोतिषु निरीक्ष्य जनं भयार्तम् । मैथिलीकल्याण-हस्तिमल्ल (१३वी शताब्दी का यो मित्रबान्धववधुजनवारितोऽपि, उत्तरार्द्ध व १४वी का प्रारम्भ) के ५ अकों के इस नाटक वलगत्यरीन प्रति रसेन स एव वीरः ।। ३.१५ ।। में सीता व राम के विवाह की कथा है । मुद्रित कुमुदचन्द्र-धनदेव के पौत्र तथा पद्मचन्द्र के समसामयिक कथानक कुछ नाटककारों ने अपनी कृतियो में समसामयिक . पुत्र यशःचन्द्र की रचना मुद्रितकुमुदचन्द्र एक प्रकरण कथानक को अपनाया है। इस तरह की कृतियों में जय है। यह विख्यात धार्मिक शास्त्रार्थ का अवलबन करके सिंह सूरि का हम्मीरमदमदन, यशःचन्द्र का मुद्रित कुमुद लिखा गया है जो ११२४ ई० मे श्वेताम्बर मुनि देवसूरि चन्द्र पौर यशःपाल का मोहराजपराजय (प्रतीक नाटक) व दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्र के बीच हुआ था। इसमें बाद पादि ऐसे ही नाटक है । ये कृतिया तत्कालीन ऐतिहासिक, मे कुमुदचन्द्र का मुखमुद्रण हो गया। इस प्रकार इसका सामाजिक व धार्मिक जीवन का विशद चित्रण उपस्थित नाम सार्थक है। करती है। यह नाटक ममसामयिक जैनधर्म की स्थिति पर हम्मीरमवमर्वन-जयसिंहसरि त हम्मीरमदमदन प्रकाश डालता है। ५ अकों का वीररसात्मक नाटक है। जयसिंह भड़ौच के मोहराजपराजय'-जन कवियों ने भी कृष्ण मिश्र मुनिसुव्रत मन्दिर के प्राचार्य थे। उस समय गुजरात मे के प्रबोधचन्द्रीय का अनुसरण करके प्रतीक नाटकों को घोल्का (घवलपुर) के राजा वीरधवल थे और उसके धर्मप्रचार के लिए उपयोगी समझा। यशःपालदेव की १. हम्मीरमदमर्दन का प्रकाशन गायकवाड़ ओरियण्टल २. काशी से प्रकाशित, वीर स० २४३२ द्र० बलदेव सीरीज से हुआ है। द्र० मध्यकालीन संस्कृत नाटक, उपाध्याय कृत संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ०६०६। पृ. २८०.२८५ और कीयकृत संस्कृत नाटक (उदय ३. गायकवाह प्रोरियण्टल मीरीज (ग्रथाक ८), बड़ौदा भानुसिंह कृत हिन्दी अनुवाद), पृ० २६२ से २६४ । से प्रकाशित, १९३०। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त मोहराज पराजय ऐसी ही रचना है। इसकी रचना रचयिता देवचन्द्र, हेमचन्द्र के शिष्य थे। इसका प्रथम ११७४ से ११७११ ई. के बीच हुई, जब गुजरात के कवि अभिनय अजितनाथ के वमनोत्सव पर हुप्रा था। इसके का प्राश्रयदाता अजयदेव चक्रवर्ती शासक था। इसका अन्त मे कुमारपाल के अर्णोराज की विजय का उल्लेख प्रथम अभिनय कुमारविहार में महावीर-यात्रा के महोत्सव है। इसकी रचना ११५० ई० के लगभग हुई थी। पर हुमा था। इसकी कथावस्तु का मार कवि ने इस जैन कधानक विषयक नाटक प्रकार दिया है कुछ नाटककारो ने जैन कथासाहित्य की पद्यापद्म कुमारपालनपतिर्जज स चन्द्रान्वयी. इतिवृत्तात्मक सरणि पर या जैन पुराणों के कथाजैन धर्ममवाप्य पापशमनं श्रीहेमचन्द्राद्गरोः। नको को प्राधार बनाकर अपने नाटकों की रचना निर्वीराधनमुज्झता विदधता जूतादिनिवास, की है। ये कृतियां है रामचन्द्र का कौमुदीमित्रानंद, येन केन भटेन मोहनपतिजिग्ये जगत्कंटकः ॥१.४॥ रामभद्र मुनि का प्रबुद्ध रोहिणेय, मेघाप्रभाचार्य का (अर्थात) राजा कमारपाल ने जैनधर्म के श्रीहेमचन्द्र धर्मादय, बालचन्द्र सूरि का करुणावज्रायुद्ध, हस्तिसे पापगमन करने वाले जन-धर्म की दीक्षा ली। उन्होने मल्ल का अञ्जना वनाय व मुभद्रानाटिका, ब्रह्म सूरि अपने राज्य से युनादि का निर्वासन कर दिया था और का ज्योतिप्रभाकल्याण और नेमिनार का शामामृत । इन जगत्कटक मोह नामक राजा पर विजय प्राप्त की थी। रूपको मे कही मख्य रूप मेनो कही गौण रूप से जैन धर्म पांच अको के इस नाटक में कमारपाल, हेमचन्द्र तथा के प्रचार का काम अपनाया गया है। विदूषक प्रादि तो मनुष्य पात्र है; शेष पुण्यकेतु, विवेक, कौमुदीमित्रानंद'-... रामचन्द्र ने दस अकों के अपने व्यवमायसागर, ज्ञानदर्पण, सदाचार, माहराज, सदागम, इस प्रकरण में मित्रानद को नायक व कौमुदी को नायिका बनाया है। नायक मित्रानद जिनसेन नामक बनिये का रज, काम, जनमनोवृत्ति, धर्मचिन्ता, शांति, नीतिमंजरी, पुत्र है और नायिका का पिता कुलपति है। कृपामजरी आदि कितने ही पात्र सत्व असत् गुणो के । इस प्रकरण के विषय में कीथ को सम्मति हैप्रतीक हैं। "यह कृति सर्वथा नीरस है। हा, इसकी एक मात्र रोचकता इस नाटक का कई दृष्टियों से बहुत महत्त्व है । यह विस्मयकारी घटनाओं की योजना में हैं, जो सामाजिकों ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक उपादेय है। कुमारपाल को अदभुत रग का उद्रेक करती है।" इसमे जादू, मन्त्रके समय में जैनधर्म के प्रचार के लिए जो व्यवस्था की तत्र, औषधिप्रयोग, नर-बलि व शव में प्राणसचार प्रादि गई थी, उसका उत्कृष्ट वर्णन इसमें प्राप्त होता है । इस अतिप्राकृत तत्त्व प्राप्त होते है। कापालिक को दूषितरचना का प्रधान उद्देश्य चरित्रनिर्माण है। इस कृति मे वृत्तियो का निदर्शन, न्यायालय के धोखा व मिथ्या व्यवलोकदृष्टि से आध्यात्मिक मजुलता का समावेश किया हार का प्रदर्शन, चोरो-डाको के कामो का वर्णन प्रादि गया है। इसमे यशःपालदेव को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई तत्कालीन सामाजिक दशा पर प्रकाश डालते है । पशुबलि है। विण्टरनित्स ने भी इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशसा प्रादि बा विरोध किया गया हैको है कि इसमे तत्कालीन समाज, राजनीति व धर्म पर पुण्यप्रसूतजन्मानश्चण्डालव्यालसङ्गताम् । अच्छा प्रकाश डाला गया है। मांसरक्तमयों देवाः कि बलि स्पहयालवः ।। चन्द्रप्रभाविजयप्रकरण' -पाठ अको के इस नाटक के कहीं-कही सदुपदेश भी दिये गये है१. गुजरात के इतिहास के विषय में प्राप्त अभिलेखों रेचर, पृ. ६४४ । प्रति जैसलमेर के भडारमे उपलब्ध । तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर यह नाटक ३. जैन प्रात्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित । महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। ४ मध्यकालीन संस्कृत नाटक, पृ. १८३ से १८५ तक । -~- कीथ कृत सस्कृत ड्रामा (अनूदित), पृ. २७०. ५ सस्कृत ड्रामा (उदयभानुसिंह कृत अनुवाद),प. २७४ । २. कृष्णमाचार्य कृत हिस्ट्री प्राफ क्लासिकल संस्कृत लिट- ६. कौमुदीमित्रानद ६.१३ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत नाटकों को कथावस्तु : एक विवेचन अपत्यजीवितस्यार्थे प्राणानपि जहाति या। के उपलक्ष मे हया था। इसका नायक दान, रण व तप में त्यजन्ति तामपि फरां मातरं झरहेतवे ।' अग्रणी दशार्णभद गजा था। प्रस्तुत कृति में नायक के लेखक मृच्छकटिक व दशकुमार से प्रभावित जान दीक्षा लेने का वर्णन है। इन्द्र जिनेन्द्र की वन्दना करते पडता है। हा उनके धर्माम्युदय की प्रशंसा करता है --- प्रबुद्ध रोहिणेय' - जयप्रभमूरि के शिष्य रामभद्रमुनि धर्माभ्युदयस्स ते जयति ।' गचित प्रबद्धरौहिणेय छ अंको का प्रकरण है । विन्टर. इस के बाद उसने दशार्णभद्र को नमस्कार करते हुए नित्म कवि का प्राविर्भाव ११८५ ई० भानन है। प्रस्तुन कहा--- नाटक में डाक रोहिणेय के कान में महावीर की वाणी महो मति रहो मूतिरहो स्फूतिः शमश्रियः । पड़ जाने में उसका अज्ञान दूर हो जाता है और वह वीतरागप्रभोमन्ये शिष्योऽभूदेव तावृशः ॥' महावीर के चरणो की मेवा करने का निश्चय करता है। इसमें धर्म प्रचार का कार्य मौष्ठवपूर्वक व्यजना से उसे अपने किए पर प्रायश्चित्त होता है। अन्त में राजा किया गया है यथा, द्वारा उमका अभिनंदन किया जाता है। जिनराज किवदन्ती वन्दितुमत्कण्ठिता नातिरूपास्ति । इममे डाक को प्रकरण का नायक बनाया गया है। सद्धर्मवचःश्रवण पुण्यगुरुतरंभवति ॥ इसके ५ दृश्यो मे इन्द्र, शची, बहम्पनि, नन्दन, चन्दन इसका कथानक गम्पूर्ण सस्कृत नाटक साहित्य में अन्ठा रति, प्रीति, गजा व मन्त्री ग्रादि दिव्य व प्रदिव्य पात्रो को ही है । लेखक जैन है, फिर भी पूर नाटक म कही भी जैनधर्म के प्रचार का बोझिल कार्यक्रम नहीं अपनाया प्रस्तुन किया है। यह श्रीगदिल कोटि ना उपरूपक है। करुणावज्रायुद्ध'-- इस रूपक के रचयिता बालचन्द्रगया है। गौण रूप में जैनवम क प्रचार का खजान मूरि (१२४० ई० के पूर्व) गुजरात के सुप्रसिद्ध महामत्री से नाटक की कलात्मकता अक्षुण्ण रह सकी है। जानक्षेत्र व साहित्यकार वस्तुपाल के समकालीन थ। इस कृनि म म सद्वृत्तपरायण गतो के पान जान गे डाकुनो की मना वज्रायद्धनामक राजा की जनधर्म के प्रति अनुपम निष्ठा वृत्ति में परिवर्तन हो गकता है। प्रबुद्धगैहिणय उसका का वर्णन हुमा है। वह एक श्येन से कबतर की रक्षा के पूर्वरूप उपस्थित करता है। लिए कबूतर के बराबर अपने शरीर का गास देता है, ___ इस युग के कई नाटको में कूट घटना और कुट पर पूरा न होते देख अपने शरीर को हो तराजू के पलट पुरुषों का प्राचुर्य मिलता है। इममे गेट ने डाक को पकड़न में रख देता है। देवगण प्रकट होकर राजा की अतिशय के लिए ऐसे कापटिक कम व कूट घटनामा की योजना प्रगमा करते है। इस कृति म जनधर्म का हो एक मात्र को है-- सद्धर्म बताया गया है जिससे अपवर्ग स्वर्ग और समृद्धि तस्तवुर्घटकटकोटिघटनस्तं घट्टयिष्ये तथा ।" सब प्राप्य है। और भी-- धर्माभ्युदयः" :-- मेघप्रभाचार्य के धर्माभ्युदय एकांकी एक जैन विना धर्म मन्ये धर्मा कुधीमताम् । का प्रथम अभिनय पाश्वनाथ जिनेन्द्र मन्दिर में यात्रात्मव संवता एवं शोभन्ते पटच्चरपटा इव ।।" १. कौमुदी मित्रानद, ७७ । ५. प्रबुद्धरौहिणय ३.२२ वद्र. ५-३ । २. भावनगर से प्रकाशित । ६. भावनगर से प्रकाशित । ३. प्रबुद्धगैहिणेय ६ ३४ । ७. घर्राभ्युदय ३५ । ४. त्व धन्यः सुकृती त्वगदभुतगुणस्त्व विश्वविश्वोत्तम- ८. वही, ३६ । स्त्वं शाघ्योऽखिलकल्मप च भवता प्रक्षालित चौयं जम। ६. वही, १८ । पुण्यः सर्वजनोनतापरिगतो या भूभवम्वाचित १०. अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में उपलका, भावनगर यस्तो वोजिनश्वरस्य चरणी लीन शरण्यो भवान से प्रकाशित। -~-वही ६४०। ११. करुणावनायुद्ध, ४० । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ वर्ष २९, कि० १ स्वशरीर के मासदान के लिए तत्पर राजा की गनी के द्वारा विरत किए जाने पर उसने कहा अनेकान्त यायावरेण किमनेन शरीरकेण स्वेच्छान्नपानपरिपोषपीवरेण । सर्वाशुचिप्रणयिन कृतनाशनेन कार्य परोपकृतये न हि कल्प्यते यत् ॥ करुणावयुद्ध मे धर्मप्रचार प्रधान उद्देश्य है, और वह भी वैदिक धर्म की निन्दापूर्वक | कबूतर श्येन आदि पक्षियों को पात्र बनाना यह भी इस कृति की अपनी ही विशेषता है'। ग्रञ्जनापवनञ्जय - हस्तिमल्ल के ७ अंको के इस नाटक की कथावस्तु विमलसूरि के पउमचरिउ से ली गई है। इसमे दिव्यपात्रो का क्रियाकलाप है । अञ्जना स्वयंवर मे पवनञ्जय का वरण करती है। कुछ समय बाद अञ्जना ने हनुमत को जन्म दिया। पवनञ्जय का मादित्यपुर मे अभिषेक किया गया। सुभद्रा नाटिका हस्तिमल्ल की चार प्रको की इस नाटिका में विद्याधर राजा नमि की भगिनी मोर कच्छराज की कन्या सुभद्रा का तीर्थकर नृपम के पुत्र भरत से विवाह का कथानक निवद्ध किया गया है । हस्तिमल्ल के इस रूपक मे व कुछ अन्य रूपको मे स्वयंवर विवाह की चर्चा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कविवर विवाह का पक्ष पानी था । विक्रान्त कौरव हस्तिमल्ल के इस रूपक में काशीनरेश कम्पन की कन्या सुलोचना स्वयंवर मे कुरुराज कुमार का वरण करतो है। प्रकीति व जयकुमार के युद्ध मे जयकुमार कीति को परास्त करता है । तब सुलोचना व जयकुमार का विवाह धूमधाम से होता है। भरत चक्रवर्ती व तीथकर ऋषभदेव भी प्रकाशन्तर १९ मध्यकालीन संस्कृत नाटक, पृ० २७७ से २७६ T ३ विभारतको १.१ १.५५ ४.१७ ५.१५: ६ ५२ व ६.५४ । ४. ६० नाथूराम प्रेमी कुछ जैन साहित्य और इतिहास से वर्णित है । इसमे कई स्थलों पर आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की वन्दना की गयी है' । ज्योतिः प्रभाकल्याण - ब्रह्मसूरि ने ( १४वी व १५वी शताब्दी के अधिकाल मे ) ज्योति: प्रभाकल्याण नाटक की रचना की थी । ब्रह्मसूरि नाट्याचार्य हस्तिमल्ल के वंशज है । इसका प्रथम अभिनय शांतिनाथ के जन्मोत्सव पर हुआ था। इसमें शातिनाथ का पूर्वभव सम्बन्धी प्रमिततेज विद्याधर और ज्योति प्रभा का कथानक है गुणभद्र का उत्तरपुराण इसकी कथावस्तु का आधार है । नाटक मे यत्र-तत्र जैन जीवनदर्शन की झलक प्रस्तुत की गई हैकायक्लान्तिः काम केलौ कलास्वम्यसनाश्रमः । सांसारिक सुख सर्व विधमेवावभासते ।। इस युग मे जैन विचारवारा में कुछ परिवर्तन आया। पहले तक जैन मे गृहस्थाश्रम के प्रति उदासीनता घोर उपेक्षा का भाव था, इस युग मे मनुस्मृति मे विश्लेपित श्राश्रमव्यवस्था मानो स्वीकार कर ली गई । कवि की उक्ति है धर्मोऽयं कामो मोक्ष इति पुरुषार्थचतुष्टय क्रमवेदी किमपि न त्यजति । प्राधारो गृहाश्रमी सर्वाश्रमिणामाहारादिदानविधानात् न चेदनगाराणां कथं कार्यस्थितः । । शामामृत' नेमिनाथ के शामामृत मे ( १२वी नदी) में नेमिनाथ को विरक्ति की कथा है। नेमिनाथ का विवाह उग्रसेन की कन्या राजमती से होने वाला था। उनके विवाहोत्सव मे भोज बनने के लिए मारे जाने वाले असख्य पशु से रहे है। पशुमो के रोदन को सुनकर नेमिनाथ ने मार से कहापशूनां रुधिरैः सिक्तो यो धत्ते दुर्गतिफलम् । विवाहविषवृक्षेण कार्य मे नाना ।। - इतर नाटक - कुछ जैन नाटककारों ने संस्कृत नाटक परंपरा से प्रभावित होकर अपने नाटको की रचना की पृ. ४६६ । बगलोर से प्रकाशित काव्याम्बुधि, मासिक पत्रिका प्रथम प्रक में इसके प्रथम द्वितीय व तृतीय बक के तीन पृष्ठ प्रकाशित हुए है। ५. ज्योति प्रभाकस्याण १.२४ । ६. मुनिधर्म विजय द्वारा संपादित, भावनगर से प्रकाशित । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृत नाटकों को कथावस्तु : एक विवेचन ४३ है। उनकी उन कृतियों का प्रादर्श उनसे पूर्ववर्ती सम्कृत एक बहत बड़ी विशेषता तो यह है कि इनमे दिव्य कोटि नाटककार रहे है। अतः कथावस्तु भी पूर्णतया उनसे के पात्रो से लेकर पशु-पक्षियों को भी पात्र रूप म प्रभावित जान पडता है; यथा रामचन्द्र के मल्लिका- उपस्थित किया गया है। मत्य निन्द्र, करुणावमापन मकरद पर भवभूति के मालतीमाधव का प्रभाव स्पष्ट व शामामृत नाटक म मा किया गया है। है।नयचन्द्र (१३वीं १४वी शताब्दी का सधिकाल) का रंभामंजरी सट्रक कर्परमंजरी के प्रादर्श पर रचा गया इन नाटको में सत्य, हिमा, प्रायं. शा. पोपकार, शाति, दान, संसार की नश्वरता, दंग-भक्ति प्रादि सद. इस प्रकार जैन नाटककारों द्वारा लिये गये सस्कृत गुणो का मानवजीवन में समावेश शिवाया गया है। रूपकों को कथानक के आधार पर चार वर्गों में रखा जा मोहगजपराजय नाटक में प्रसा व मन् नियों को पात्र सकता है। कुछ रूपको म गौणरूप से जिनमे गौण रूप रूप में उपस्थित करके असत वृत्तियो पर गत वृत्तियो की में जैन धर्म के प्रचार को लिया है. वे नाटककार नाटक विजय दिखाई गई है। चारिनिर्माण हो मी चनायो की कलात्मकता को अक्षुण्ण रख पाए है। जिन नाटक का उद्देश्य रहा है। इस प्रकार की कृतियां ग नाटककाग कारों ने समसामयिक कथानक को आधार बनाकर अपने द्वाग लोकदृष्टि में प्राध्यात्मिक मनलता का समावेश रूपकों की रचना की है, वे तत्कालीन इतिहाम, समाज किया गया है। व धर्म की दशा पर यथार्थ प्रकाश डाल पाए है। समाज बापूलाल साजना की चलो पा रही कुरीतियो व अंधविश्वागो को दूर करने सी-८, यूनिवष्टिी क्वार्टर्म, तथा समाज सुधार को लक्ष्य बनाकर भी कुछ नाटककागे दुर्गा नर्सरी राड, ने अपने नाटको की रचना की है। जैन नाटककारो की उदयपुर (राज.) श्रमण मुनियों की परम्परा उत्तरकालीन वैदिक परम्परा में वातरशनामुनि पूर्ववत सम्मान पाते हुए ऊर्ध्वरेता (ब्रह्मचारी) और श्रमण नामों से भी अभिहित होने लगे थे। वातरशना हवा ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमंथिनो वभवः -तैत्तिरीय प्रारण्यक ११, २६, ७. पद्मपुराण (६, २१२) के अनुसार तप का नाम ही श्रम है । अत जो राजा राज्य का परित्याग कर तपस्या से अपना सम्बध जोड़ लेता है वह श्रमण कालाने लगता है । मुनियो की श्रमण सज्ञा इतनी लोक-प्रचलित हुई कि आगे के समस्त वैदिक, जैन और बौद्ध साहित्य में प्रायः इन मुनिया का श्रमण और उनकी तपस्या व अन्य साधनामों का श्रामण्य नामो से ही उल्लेख पाया जाता है। ७. मध्यकालीन मस्कृत नाटक, पृ. १८६ । ८. डा० पीटसन और रामचन्द्र दीनानाथ सपादित, निर्णयसागर से १८८६ ई० में प्रकाशित । द्र० प्राकृत साहित्य का इतिहास, ले. जगदीशचन्द्र जैन, पृ ६३३-३५ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद के ज्ञाता जैनाचार्य L] डा. हरिश्चन्द्र जैन, जामनगर पायर्वेद भारतवर्ष में चिकित्मा-शास्त्र से सम्बन्धित प्रायुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी थे अवश्य किन्तु उनका विषय है। इसका प्रारभ जैन परम्परा के अनुसार भगवान कोई व्यवस्थित विवरण नही मिलता है। भगवान महावीर ऋषभदेव के समय से होता है क्योकि भगवान ऋषभदेव के १७० वर्ष उपरान्त अनेक जन प्राचार्य हये जिनमे अनेक ने इस देश के लोगों के लिए जिन जीवन-यापन के साधनों की आयुर्वेद साहित्य के मनीषी थे। जैन ग्रन्थो मे और सकेत किया था. उनमे गो से जीवन की रक्षा करना प्रायुर्वेद का महत्व प्रतिपादित किया गया है किन्तु इसकी भी सम्मिलित था। अतः आयुर्वेद का प्रारभ उन्ही के समय गणना पापश्रुती में की है यह एक प्राश्चर्य है । स्थानाग से प्रारभ हुअा है ऐसा मानना होगा। मूत्र में प्रायुर्वेद के पाठ अंगो का नामोल्लेख याज प्राप्त उस समय का कोई लिग्वित साहित्य उपलब्ध नही होता है । प्राचारग सूत्र मे १६ रोगो का नामोल्लेख है । किन्तु भगवान ऋषभदेव से महावीर तक इस प्रकार उपलब्ध है इनकी समानता वैदिक पायर्वेद ग्रन्थो से है। का ज्ञान ( oral evangelism ) मौखिक उपदेशो के द्वारा स्थानाग सत्र में रोगोत्पत्ति के कारणो पर प्रकाश हमको प्राप्त हुप्रा है। डाला गया है और रोगोत्पत्ति के ह कारण बताये गये है। मोक्षमार्ग के लिये स्वास्थ्य ठीक रखना आवश्यक है। जैन मनीषी धर्ममाधन के लिये शरीर रक्षा को बहुत अत. रोगो से बचने का उपाय प्रायुर्वेद कहलाया। इस महत्त्व देते थे । बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में कहा है :विषय पर उस समय तक स्वतत्र ग्रंथ नही लिखे गये, किन्तु शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षणीय प्रयत्नतः। जब ज्ञान को लिपिवद्ध करने की परम्परा चली तो शरीराच्छ्वते धर्मः पर्वतात् सलिल यथा ॥ आयुर्वेद पर स्वतत्र तथा अन्य ग्रन्थो मे प्रमंगवश प्रायुर्वद अर्थात् जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है वैसे ही का वर्णन अाज प्राप्त है। शरीर से धर्म प्रवाहित होता है । अतएव धर्मयुक्त शरीर भागम के अनुसार १४ पूर्षों में प्राणवाद नामक पूर्व की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये । में आयुर्वेद पाठ प्रकार का है ऐसा सकेत मिलता है, अतः शरीर रक्षा में सावधान जैन साधु कदाचित जिससे मष्टांग प्रायुर्वेद का तात्पर्य है । गोमटसार, जिसकी रोगग्रस्त हो तो वे व्याधियो के उपचार की कला विधिवत् रचना १ हजार वर्ष पूर्व हुई है ऐमा सकेत है । इस प्रकार जानते थे । श्वेताम्बर भागमा यथा अग, उपाग, भूल, छेद ग्रादि मे निशीथ चर्षी मे वैद्यक शास्त्र के पडितो को दृष्टिपाठी यत्र तत्र प्रायुर्वेद के अश उपलब्ध होते है। कहा है। जैन ग्रन्थों में अनेक वैद्यो का वर्णन मिलता है भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५६६ वर्ष पूर्व जो काय-चिकित्सा तथा शल्यचिकित्मा में प्रति निपूण होते हमा था। उनके शिष्य गणधर कहलाते थे जिन्हे अन्य थे। युद्ध में भी वे जाकर शल्य चिकित्सा करते थे ऐसा शास्त्रों के साथ मायुर्वेद का ज्ञान था । दिगम्बर परम्परा के वर्णन प्राप्त होता है। आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी अनुसार प्राचार्य पुष्पदत एव भूतबलि ने पटव डागम नामक साधु एव गृहस्थ दोनो वाँ कध। ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ ज्येष्ठ सुदी पचमी को हरिणेगमेपी द्वारा महावीर के गर्भ का अपहरण एक पूर्ण हुमा था। प्रत यह निश्चित है कि इससे पूर्व का जैन अपूर्व तथा चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से विचारणीय माहित्य उपलब्ध नहीं है। भगवान महावीर के पूर्व घटना है। प्राचार्य पदमनदी ने अपनी पविशतिका मे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायुर्वेव के माता जैनाचार्य श्रावक को मुनियों के लिये औषध दान देने की चर्चा की १२ गोमम्टदेवमुनि मेरूम्तम्भ है। इस संदर्भ में यह स्पष्ट है कि श्रावक जैन धर्म की १३ सिजनागार्जन - नागार्जनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट समस्त दृष्टियो से अनुकूल प्रौषध व्यवस्था करत थे । इम १४ कीतिवर्म गौ वैद्य प्रकार के जैन आयर्वेद साहित्य के मनीषी विद्वान ही उनमे १५ मगराज खगेन्द्रमणी दर्पण परामर्श दाता होते थे। १६ अभिनवचन्द्र हदयशास्त्र आयर्वेद माहित्य के जैन मनीषी विद्वानो की परम्परा १७ देवेन्द्रमनि बालग्रह चिकित्मा निम्न प्रकार ऐतिहामिक दृष्टि मे विवेचन करने योग्य है। १८ अमृतनदी वैद्यक निघट प्रादिनाथ (श्रीऋषभदेव स्वामी) १६ जगदेवमहापचवाः श्रीवरदेव वंद्यामृत भरतचक्रवर्ती पुन. भगवान महावीर स्वामी २० सानव रसरत्नाकर वैद्य सागत्य गणधर एव शिष्यप्रशिष्य, मुनि एव साधु अादि । २१ हपंकीति मूरी योग चिन्तामणि उक्त ऐतिहासिक परम्परा का वैदिक प्रायुर्वेद २२ जैन सिद्धान्त भवन पारा के माहित्य से कोई मनभेद नही है। भगवान आदिनाथ से वैद्य मारसग्रह, ग्रारोग्य चिन्ता मणि भगवान महावीर स्वाभी तक के प्रायुर्वेद माहित्य के जैन २३ पूज्यपाद- अकलक सहिता, औषध इन्द्र नदीमहिता प्रयोग मनीषियो का कोई लिखिन साहित्य नहीं है, किन्तु भगवान २४ पाशाधर महावीर के निर्वाण के उपरान्त जब मे शास्त्र लिखने की वैद्य अष्टाग हृदयटीका १३ वी. श. परम्परा प्रारभ हुई, उसके बाद जो प्राचार्य हए उन्होंने जा २५ मोमनाथ कल्याणकारक मायुर्वेद साहित्य लिखा है उसका विवरण अवश्य पान (काल) भी प्राप्त है और अधिकाश का नामोल्लेख सास्त्रा में २६ नित्यनाथ विकीर्ण मिलता है। रसरत्नाकर १४वी. श. गायन मुझे यब तक प्रायवेद साहित्य के जिन जैन मनोपियो २७ दामोदर भट्ट प्रारोग्य चिन्ताका नाम, उनके द्वारा लिग्विन कृति तथा काल का ज्ञान मणि (कन्नड) हुपा है उसे मैं नीचे एक सूची के द्वार। व्यक्त कर रहा हू. २८ धन्वन्तरी धन्वन्तरी निघटु जिससे मम्पूर्ण जैन प्राचार्यो का एक साथ ज्ञान हो सके। काश प्राचार्य नाम ग्रन्थ काल विषय २६ नागराज योगशतक १ श्रुतकीर्ति ३० कवि पाश्र्व रोगरत्नावली २ कुमारसेन ३१ कविमानजी कविप्रमोद १७४६ रम३ वीरसेन --- विष एव ग्रह वि. स. शास्त्र ४ पूज्यपाद पात्रस्वामी वंद्यामृत १२ वी.श. शालाक्यतत्र ३२ रामचन्द्र वद्य विनोद १८१० ५ सिद्धसेन दशरथ गुरू बालराग वि. स. सग्रह ६ मेघद्वाद बालरोग ३३ दीप चन्द्र बानतत्र भाषा १६३६ कौमार७ सिंहनाद वाजीकरण एव रसायन वर्धानका _ विस. मृत्य ८ समन्तभद्र (१) पुष्पायुर्वद लधन पथ्य (२) सिद्धान्त रसायन कल्प-१० वी. श.-रसायन वल्लभ निर्णय कालज्ञान १८ श. ६ जटाचार्य ३५ दरवेश हकीम प्राणसुख १८०६ वि.स. १० उग्रादित्य कल्याणकारक हवी. श चिकित्सा ३६ मनि यशकीति जगसुन्दरी ११ वसवराज प्रयोगशाला Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६, वर्ष २६, कि०१ भनेकान्त ३७ देवचन्द्र मष्टिज्ञान ज्योतिष यह एक सम्पूर्ण दृष्टि है जो प्रायुर्वेद के जैनाचार्यों के एव लिये फैलाई जा सकती है। वैसे पूर्वमध्य युग अर्थात् वैद्यक ७००-१२०० ईसवी से पूर्व का कोई जैनाचार्य प्रायुर्वेद ३८ नयन सुख वैद्यक मनोत्सव, के क्षेत्र मे दृष्टिगोचार नही होता है । प्रायुर्वेद के जैन मन्तान विधि मनीपी सर्व प्रथम प्राचार्य पूज्यपाद या देवनदी को माना मन्निपात कलिका, जा सकता है। सालोन्तर रास (१) पूज्यपाद ' - इनका दूसरा नाम देवनदी है। ३६ कृष्ण दाम गधक कल्प ये ई. ५ श मे हुये है। इनका क्षेत्र कर्नाटक रहा है। ४० जनार्दन बाल विवेक १८ वी. ये दर्शन, योग, व्याकरण तथा आयुर्वेद के अद्वितीय विद्वान गोस्वामी वैद्यरत्न वि. सं. थे। पूज्यपाद अनेक विशिष्ट शक्तियो के धनी विद्वान थे। ४१ जोगीदास सुजानसिंह रासो १७६२ वि. स. वे दैवी शक्तियक्त थे । उन्होने गगनगामिनी विद्या में ४२ लक्ष्मीचन्द्र कौशल प्राप्त किया था। यह पारद (Mercury) के ४३ समरथ मूरी समजरी १७६८ वि. स विभिन्न प्रयोगों का करते थे । विभिन्न धातुग्री में स्वर्ण बनाने की क्रिया जानते थे। उन्होन शालाक्य तत्र पर ग्रन्थ ऊपरलिखित तालिका म मैन गेग आयुर्वेद के जैन लिखा है। इनके वैद्यक ग्रन्थ प्रायः अनुपलब्ध है किन्तु मनीषियो का मामालीख किया है जिन्होन आयर्वेद साहित्य इनका नाम अनेक प्रायवेद के माचार्यों ने अपने ग्रन्धो में का प्रणयन प्रधान रुप में किया है। साथ ही वे चिकित्सा लिखा है और इनके प्रायुर्वेद साहित्य तथा चिकित्सा कार्य में निपुण थ । किन्तु प्राचीन जैन साहित्य के इतिहास वैदुष्य की चर्चा भी की है। प्राचार्य श्री शुभचन्द्र ने अपने का परिजनन करने पर ज्ञात होता है कि बहत से विद्वान "ज्ञानार्णव" के एक एक श्लोक द्वारा वैद्यक ज्ञान का प्राचार्य ।क में अधिक विषय के ज्ञाता होते थे । प्रायुर्वेद परिचय दिया है : के मनीषी इस नियम से मुक्त नहीं थे । वे भी साहित्य के अपाकुर्वन्ति यवाचः कायवाक चित्तसम्भवम् । साथ दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, मत्र, रसतन्त्र आदि कलकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ के साथ प्रायुर्वेद का ज्ञान रखते थे । प्रायुर्वेद के महान यह श्लोक ठीक उसी प्रकार का है जैसा पतञ्जलि के शल्यविद प्राचार्य सुथुत ने कहा है : बारे में लिखा है :एक शास्त्रमधीयानो न विद्या शास्त्रनिश्चयम् योगेन चित्तस्यपदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । तस्माद् बहुश्रुतः स्यात् विजानीयात चिकित्सकः ।। योऽपाकरोत त वरदं मनीनां पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि ॥ कोई भी व्यक्ति एक शास्त्र का अध्ययन कर शास्त्र ऐसा लगता है कि पूज्यपाद पतजलि के समान ही का पर्ण विद्वान नही हो सकता है, अतः चिकित्सक बनने प्रतिभाशाली वैद्यक के जैनाचार्य थे। के लिये बहधत होना यावश्यक है। कन्नड़ कवि मगराज जो वि. स. १४१६ मे हुए है __ मैं कुछ ऐसे आयुर्वेद के जैन मनीषियों की गणना जिन्होने "खगेन्द्रमणि दर्पण" अायुर्वेद का ग्रन्थ लिखा है, कराउगा जिनके साहित्य में आयुर्वेद विकीर्ण रूप से प्राप्त उन्होने लिखा कि मैने अपने इस ग्रन्थ का भाग पूज्यपाद के है :--- पूज्यपाद या देवनदी, महाकवि धनंजय, प्राचार्य वैद्यक ग्रन्थ से संगृहीत किया है। इसम स्थावर विषों की गुणभद्र, सोमदेव, हरिश्चन्द्र, वाग्भट्ट, शुभचन्द्र, हेमचन्द्रा- प्रक्रिया और चिकित्सा का वर्णन है । बौद्ध नागार्जन से चार्य, प. प्राशाधर, 4 जाजाक, नागार्जुन शोढ़ल, वीरसिंह। भिन्न एक नागार्जुन जो पूज्यपाद के बहनोई थे उन्हें इन्होने स्वतत्र साहित्य रचना की है तथा इनके साहित्य पूज्यपाद ने अपनी वैद्यक विद्या सिखाई थी । रसगुटिका मे मायुर्वेद के अश विद्यमान है। जो खेचरी गुटिका थी, का निर्माण सिखाया था। पूज्यपाद Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायुर्वेद के माता जनाचार्य रमायनशास्त्र के विद्वान थे। वे अपने पैरो में गगनगामी "गुण सग्रह" ग्रन्थ लिम्वे है। वे उपलक्ष्य है और प्रायोगिता लेप लगा कर विदेह क्षेत्र की यात्रा करते थे, ऐसा व्यवहार के लिये उत्तम ग्रन्थ है । कथानक माहित्य मे मिलता है। (8) उपावित्य- हवी ईसवी के कर्नाटक के दिगम्बर जैन साहित्य के अनुसार पूज्यपाद प्रायुर्वेद जैन वैद्य थे, धर्मशास्त्र एव नायुर्वेद के विद्वान थे । जीवन माहित्य के प्रथम नैन मनीपी थे । वं चरक, पतति को का अधिक ममय चिकित्यक मातीत किया था। कोटि के विद्वान थे। जिन्हे अनेक रसशास्त्र, योगशास्त्र ये राष्ट्रकट ना राजा तग प्रमोघवर्षक गजबंध थे । और चिकित्मा की विधियों का ज्ञान था। साथ ही शल्य इन्होने कल्याण-कारक नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा है एवं शालाक्य विषय के विद्वान प्राचार्य थे। जो अाज उपलब्ध है। इसमे २६ अध्याय है। इनमे रोग(२) महाकवि धनंजय-- इनका समय वि. स. ६६० लक्षण, चिकित्सा, शरीर, कल्प, अगदतत्र एव ग्मायन का है। इन्होने "धनजय निघटु" लिखा है जो वद्यक के साथ वर्णन है । यह मोलापुर से प्रकाशित है। रोगो का दाषाकोश का ग्रन्थ है । ये पूज्यपाद के मित्र थे और रामकालीन नुसार वर्गीकरण प्राचार्य की विशेषता है। इन्होने जैन थे जैसा यह श्लोक प्रकट करता है - माचार-विचार की दृष्टि से चिकित्मा की व्यवस्था मे मद्य, प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । मास और मधु का प्रयोग नहीं बताया है । इन्होने अमोघ धनजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपपश्चिमम् ।। वर्ष के दरबार मे मासाहार की निरर्थकता वैज्ञानिक इन्होने विषापहार स्तोत्र लिखा है जो प्रार्थना द्वारा प्रमाणो के द्वारा प्रस्तुत की थी और अन्त में वे विजयी रहे। रोग दूर करने के हेतु लिखा है। मासाहार गंग दूर करने की अपेक्षा अनेक नये रोगों (३) गृणभद्र-ये शक संवत ७३७ से हए है। को जन्म देता है, यह इन्होने लिखा है । यह बात प्राज के इन्होन 'मात्मानुशासन' लिखा है जिसमे आद्योपान्त प्रायवेद युग में उतनी ही सत्य है जितनी उस समय थी। के शास्त्रीय शब्दो का प्रयोग किया गया है और फिर (१०) वीर सिंह-वे १३वी श. ईमवी में ये है। शरीर के माध्यम से प्राध्यात्मिक विषय को ममझाया है। इन्होंने चिकित्मा की दृष्टि से ज्योनिप का महत्त्व लिग्ना इनका वैद्यक ज्ञान वेध में कम नहीं था। है । वीरमिहावलोक इनका ग्रन्थ है। (४) सोमदेव-६ ची श. के प्राचार्य हे यशस्तिलक (११) नागार्जन-इम नाम के कई प्राचार्य हये थे चम्पू मे स्त्रस्य वृन का अच्छा वर्णन किया है। इन्हे जिनमे ३ प्रमुख है। जा नागार्जन मिद्ध नागार्जन थे ६०० वनस्पतिशास्त्र का ज्ञान था क्योकि उन्होंने शिखण्डी ईसवी में हुए है। वे पूज्यपाद के शिष्य थे। उन्हे रमताइव वन की औषधियों का वर्णन किया है । ये रमशारत्र शास्त्र का बहुन ज्ञान था। उन्होन नेपाल, तिब्बत प्रादि के ज्ञाता थे। स्थानों की यात्रा की और वहा रमशास्त्र को फैलाया था। (५) हरिश्चन्द्र-ये धमंशर्माभ्युदय के रचयिता है इन्होंने पूज्यपाद में मोक्ष-प्राप्ति हेतु गविद्या गोनी थी। किन्तु कुछ वैद्यक ग्रन्यो में इनका नाम पाना है । कुछ इन्होने (१) रमकाचपुटम् प्रौर (२) कनपुट तथा सिद्ध विद्वान इन्हें खग्नाद सहिता के रचयिता मानत है। चामुण्डा ग्रन्य लिने थे। भन्न नागाजन पोर भिक्षना(६) शुभचन्द्र -११ वी श के विद्वान थे। इन्होंने गार्जुन बौद्ध मतावलम्बी थे। ध्यान एव यांग के सबन्ध में ज्ञानाणव लिबा है । यह भा (१२) पडित प्राशाधर --- ये न्याय, व्याकरण, धर्म मायुर्वेद के ज्ञाता थे। प्रादि के माथ प्रायुर्वेद माहित्य के जैन मनीपी थे । इन्होंने (७) हेमचन्द्राचार्य-- योगशास्त्र के विद्वान थे। प्रष्टाग हृदय नामक (वाग्भट्ट, जो प्रायुर्वेद के ऋषि थे, (८) शोदल-ये १२वी श. ईमवी मे हुए है। इनका उनके ग्रन्थ की) उद्योतिनी टीका की है, जो अप्राप्य है । क्षेत्र गुजरात था। इन्होने प्रायुर्वेद के "गद निग्रह" और इनका काल वि. सं. १२५२ है। ये मालव नरेश अर्जुन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८, वर्ष २६, कि० १ अनेकास वर्मा के समय धारा नगरी में थे। इनके वैद्यक ज्ञान का इस प्रकार आयुर्वेद साहित्य के अनेक जैनमनीषी प्राचार्य प्रभाव इनके "सागारधर्मामृत" ग्रन्थ में मिलता है। अत. ये हुए है। वर्तमान काल मे भी कई जैन माधु तथा श्रावक विद्वान वैद्य थे । इनके लिए मूरि, नयविश्ववक्षु, कलिकालि- चिकित्सा शास्त्र के अच्छे जानकार है किन्तु उन्होंने कोई दास, प्रज्ञापुज प्रादि विशेषणो का प्रयोग किया गया है। प्रत ग्रन्थ नही लिखे है । मैंने कई जैन साधुनों को शल्य चिकित्सा इनके वैद्य होने में सदेह नहीं है। पडितजी ने समाज को पूर्ण का कार्य मफलता पूर्वक निष्पन्न करते हुए देखा है। प्रहिमक जीवन बिताते हुए मोक्षगार्ग का उपदेश दिया है। जैन प्राचार्यों ने प्रायुर्वेद साहित्य का लेखन तथा शरीर, मन, और प्रात्मा का कल्याणकारी उपदेश इनके व्यवहार समाज हित के लिए किया है। भारतवर्ष में जैन सागरधर्मामृत में है। उनके अनुमार यदि धावा याचरण धर्म की अपनी दष्टि है और उममे जीवन को सम्यक् प्रकार करे तो रुग्ण होने का अवसर नहीं पा सकता है। से जीते हुए मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त करना दृष्टव्य है। (१३) भिषक शिरोमणि हर्षकोति सूरि .. इनका इसलिए आहार-विहार आदि के लिए उन्होंने अहिंसात्मक ठीक काल ज्ञात नहीं हो सका है। ये नागपुरीप तपा समाज निर्माण विचार का वर्णन किया है। चिकित्सा मे गच्छीय चन्द्रकीति के शिष्य थे और मानकोति इनके गुरु मद्य, मास और मधु के पयोग का धार्मिक दृष्टि से समाथे। इन्होने योगचिन्तामणि और व्याधिनिग्रह ग्रन्थ लिसे वेश नही किया है। वदिक परम्परा के प्राचार्यों ने जो है। दोनो उपलब्ध है पीर प्रकाशित है। दोना चिकित्मा प्रायवेद माहित्य लिखा है उससे तो जैन परम्परा के द्वारा के लिए उपयोगी है। इनके साहित्य में चग्य, गुश्रुत एव निखित ग्रागर्वेद माहित्यमे उक्त दोनो पगपरायो की अच्छी वाग्भट्ट का सार है । कुछ नवीन योगो का मिश्रण है जो बातो के साथ माथ निजी विशेषतायें है। वे हिसात्मक इनके स्वय के चिकित्मा ज्ञान की गहिमा है। ग्रन्प जैन विचार के है जिनका सबध शरीर, मन और प्रात्मा से है। प्राचार्यो की रक्षा हेतु लिखा गया है। इसका फल समाज में अच्छा हुप्रा है। श्राज जैन प्राचार्यो (१४) डा० प्राणजीवन माणिकचन्द्र मेहता- इनका ने जो प्रायुर्वेद माहित्य लिखा है उसके सैद्धान्तिक एव जन्म १८८६ में हमा। ये एम. डी निग्रीधारी जैन है। व्यवहार पक्ष का पूग परीक्षण होना शेष है। जैन समाज इन्होने चरकसंहिता के अग्रजी अनुवाद में योगदान दिया तथा शामन को इस भारतीय ज्ञान के विकास हेतु आवहै। ये जामनगर की प्रायद सस्था में सचालक रहे है। श्यक प्रयत्न करना चाहिए। शिव और जिन की पूजा विधि में एकरूपता जैन और शैव की पूजा सामग्री में एकरूपता है। जल, सुगध, अक्षत, दीपधूप, नैवेध और फल यहो अष्ट द्रव्य दोनों की पूजा-विधियों की साधन सामग्री होती है पत्र: पुष्पः फलपि जलैर्वा विमलः सदा। करवीरः पूज्यमानः शकरो वरदो भवेत् ॥ ----स्कन्दपुराण १, ५, ८६ । अग्नि पुराण ७४, ६३ प्रादि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर महावीर श्री प्रेमचन्द जैन, एम० ए०, दर्शनाचार्य, जयपुर प्राज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के भारतीय इतिहास महावीर का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम त्रिशला पर दष्टिपात करते है तो हृदय मन्न रह जाता है। यह (प्रियकारिणी), पिता का नाम सिद्धार्थ', बड़े भाई का विश्वास ही नही हो पाता कि क्या भारतीय संस्कृति नाम नन्दीवर्द्धन*, बहन का नाम सुदर्शना" तथा नाना का इतनी विकृत, इतनी गन्दली, इतनी तिरस्कृत बन सकती नाम चेटक' था। है ? सत्ता, महत्ता, प्रभुता व अन्धविश्वाम के नाम पर तेज:पंज भगवान के गर्भ मे पाते ही गिद्धार्थ राजा इतने अत्यधिक अत्याचार, अनाचार और भ्रष्टाचार पनप तथा अन्य कुटम्बीजनों की, धन धान्य की विशेष समृद्धि सकते है ? संक्षेप म कहा जा सकता है कि उस युग मे हुई. उनका यश, तेज, पराक्रम और वैभव बढ़ा, माता मानव मानव न रहकर दानव बन चुका था; धर्म के नाम की प्रतिभा चमक उठी, वह सहज ही अनेक गढ प्रश्नो का पर, मस्कृति के नाम पर, गभ्यता के नाम पर वह मूक उत्तर देने लगी और प्रजाजन भी उत्तरोनर गय-शान्ति पशुप्रो के प्राणो के साथ खिलवाट कर रहा था। जाति- का अधिक अनभव करने लगे। टमसे जन्म काल म अापका बाद, पथवाद और गुण्डमवाद का म्वर इतना तेजस्वी सार्थक नाम 'बर्द्धमान' रखा गया, ऐमा प्रसिद्ध पाश्चात्य बन चका था कि मानवता री आवाज सुनाई नहीं दे रही विचारक डाक्टर हर्मन जेकोबी और डाक्टर ए० एफ० थी। स्त्री-जाति की दशा भी दयनीय थी। वह गृहलक्ष्मी प्रार० हार्नल आदि का मन्तव्य है। के पद से हटकर गहवामी बन गई थी। मानवीय पादर्शी ज्ञातृकल में उत्पन्न होने में दूसरा नाम 'नायपुर' के लिए वस्तुतः वह एक प्रलय की बड़ी थी। ( ज्ञातपुत्र या ज्ञातपुत्त ) रखा गया। प्राचाराग', ऐसी विकट घड़ी में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य सूत्रकृतांग', भगवती", उत्तराध्ययन", दशवकालिका२ रात्रि मे विदेह (बिहार) देशस्थ कुण्डपुर' मे भगवान आदि में एस्तुन नाम का स्पष्ट उल्लेख प्रनेक स्थलों पर १. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कुछ ग्रन्थो में 'क्षत्रियकण्ड' ६ पानागा। ऐसा नामोलनेग्य भी मिलता है जो मम्भवत कुण्डपुर ७. देगो, गुणभद्राचार्य कृत महापुराण का ७४वा पर्व । का एक मोहल्ला जान पड़ता है; अन्यथा, उसी ८. पाच गंग द्वि० श्रु० अ० १५, सू० १००३ । सम्प्रदाय के दूसरे ग्रन्थों मे कुण्डग्रामादि रूप से कुण्ड (म) प्रा० चा० श्रु० १, अ०८ उ०८, ४४८ । पर का साफ उल्लेख पाया जाता है। यथा-- "हत्युत्तराहि जामो कुडग्गामे महावीरो।" ६. (क) मूत्र 3० १, गा० २२ । प्रा०नि० भा० (ख) मूत्र थु. १, अ० ६, ना० २ । यह कुण्डपुर ही आजकल कुण्डलपुर कहा जाता (ग) मूत्र थ० १, प्र० गाथा २४ । है, जो कि वास्तव मे वैशाली का उपनगर था । (घ) सूत्र श्रु०२, प्र०६, गाथा १६ । २. देखिये जैन हरिवश पुराण, सर्ग २।१८ । १०. भगवती श०१५, ७६ । ३. , , , सर्ग २।१४ । ११. उत्तरा० अ०६, गाथा १७ । ४. कल्प सूत्र १०५, पृ० ३६।। १२. दश० अ० ५, उ०२, गाथा ४६ । ५. प्राचाराांग दि० श्रु० भाग (ख) कल्पसूत्र सूत्र १०७, (ख) दश० अ० ६, गाथा २१ । पृ० ३६ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०, वर्ष २६, कि.. अनेकान्त हमा है। विनयपिटक", मज्झिमनिकाय", दीधनिकाय खास तौर पर दो घटनायें उल्लेग्व योग्य है--संजय मौर सुत्तनिपात्त" में भी यह नाम मिलता है । महावीर 'जात' विजय नाम के दो चारण मुनियों को तत्त्वार्थ-विषयक वंश के क्षत्रिय थे । 'जात' यह प्राकृत भाषा का शब्द है कोई भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था। जन्म के कुछ दिन और 'नात' ऐमा दन्त्य नकार से भी लिखा जाता है। बाद ही जब उन्होंने पापको देखा तो आपके दर्शन मात्र संस्कृत में इसका पर्याय रूप होता है 'ज्ञात'। इसी से से उनका वह सब सन्देह तत्काल दूर हो गया और इस चारित्रभक्ति मे भी पूज्यापादाचार्य ने श्री प्रज्ञातकुलेन्दुना प्रकार उन्होंने बडी भक्ति से आपका नाम सन्मति रखा। पद के द्वारा महावीर भगवान को ज्ञात वंश का चन्द्रमा दूसरी घटना- एक दिन आप बहुत से राजकुमारों के लिखा है और इसी मे महावीर जातपूत अथवा ज्ञातपुत्र माथ वन मे वृक्ष क्रीडा कर रहे थे, इतने में वहा महा भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रन्थों में भी उल्लेख पाया भयकर और विशालकाय सर्प प्रा निकला और उस वृक्ष जाता है।" को ही मूल से लेकर स्कन्ध पर्यन्त बैठकर स्थित हो गया श्री जिनदास महत्ता और अगस्त्य सिंह स्थविर के जिस पर पाप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूप को देख कथनानुसार 'ज्ञान' क्षत्रियो का एक कुल या जाति है । वे कर दूसरे राजकुमार भयविह्वल हो गये और उसी दशा जात शब्द से ज्ञातकुल समुत्पन्न सिद्धार्थ का अर्थ ग्रहण करते में वक्षों पर से गिरकर अथवा कद कर अपने-अपने घर है और ज्ञातपत्र से महावीर का"। प्राचार्य हरिभद्र ने ज्ञात को भाग गये, परन्तु प्रापके हृदय मे जरा भी भय का का अर्थ उदार क्षत्रिय सिद्धार्थ किया है। प्रो० बसन्तकुमार संचार नहीं हुआ। आप बिल्कुल निर्भयचित्त होकर उस चटोपाध्याय के अनुमार, लिच्छवियों की एक शाखा या काले नाग से ही क्रीडा करने लगे और मापने उस पर वंश का नाम 'नाय' (नात) था। 'नाय' शब्द का अर्थ सवार होकर अपने बल तथा पराक्रम से उसे खूब ही मम्भवतः ज्ञाति है।" 'नायधम्म कहा' कहा गया है। घमाया-फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्त से 'धनंजय-नाममाला' मे भी महावीर का वश 'नाथ' माना पाप लोक मे महावीर नाम से प्रसिद्ध हए"। गया है और उन्हें नाथान्वय कहा गया है।" सम्भवतः 'नाय' तीस वर्ष के कुसुमित यौवन मे भगवान् महावीर शब्द का ही 'नाथ' और नात अपभ्रश हो गया है। संसार-देहभोगो से पूर्णतया विरक्त हो गये। उन्हें अपने भगवान महावीर की वचपन की घटनाम्रो मे से प्रात्मोत्कर्ष को साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करने १३. महावग्ग पृ० २४२। १८. (क) दशवकालिक जिनदास चूणि, पृ० २२१, १४. (क) आलि सुत्तन्त-पृ० २२२ । (ख) अगस्त्य चणि । (ख) चल दुकाव करबन्ध सुत्तन्त पृ० ५६ । १६. जैन भारती, वर्ष २, अ० १४-१५, पृ० २५६ । (ग) चूल सारोपम सुत्तन्त पृ० १२४ । २०, जयघवला-भाग १, पृ० १२५ । (घ) महासच्चक सुत्तन्त पृ० १४७ । २१. धनंजय नाममाला, ११५ । (ङ) अभय राज कुमार सुत्तन्त पृ० २३४ । २२. सजयस्यार्थसदेहे संजाते विजयस्य च । (च) देवरह सुत्तन्त पृ० ४२८ । जन्मान्तरमेव न मन्येत्यालोकमात्रतः ।। (छ) सामागाय मुत्तन्त पृ०४४१ । तत्सन्देहगते ताम्यां चारणाभ्या स्वभक्तितः । १५. (क) सामांजफल सूत पृ० १८-२१ । प्रस्तेवषसन्मतिर्देवो भावीति समुदाहतः । (ख) सगीति परियाय सूत्त २८२। - महापुराण, पर्व ७४वां। (ग) महापरिनिर्वाण सूत्त पृ० १४५ । २३. इसमे से पहली घटना का उल्लेख प्राय: दिगम्बर (१) पासादिक सूत्त २५२ । ग्रंथों में और दूसरी का दिगम्बर तथा श्वेताम्बर १६. सुभिय सुत्त, पृ० १०८ । दोनों ही सम्प्रदाय के ग्रथों में बहुलता से पाया जाता १७. है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर महावीर की ही नहीं, किन्तु संसार के जीवों को सन्मार्ग पर लगाने के समान गम्भीर तथा एक योजन तक फैलने वाली दिम्य अथवा उनकी सच्ची सेवा करने की एक विशेष लगन ध्वनि के द्वारा शासन की परम्पग चलने के लिए उपदेश लगी। दीन दुखियों की पुकार उनके हृदय में घर कर दिया, प्रथम ही भगवान् महावीर ने प्राचागग का उपदेश गई और इसलिए उन्होंने, प्रब और अधिक समय तक दिया, पश्चात् मूत्रकृताग, स्थानाग, समवायांग, व्याख्यागहवास को उचित न समझ कर, जबकि चन्द्रमा उत्तरा प्रज्ञप्ति प्रग, ज्ञातृधर्म कथाग, श्रावकाध्ययनाग, अन्तकृद्द. फाल्गुणी नक्षत्र पर ही विद्यमान था, तब मगसिर बदी शाग, अनुत्तरोपपादिक दशाग, प्रश्न व्याकरणाग और दशमी के दिन जगल का रास्ता लिया। विपाक सूत्राग इन ग्यारह अगों का उपदेश दिया। तदनन्तर मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार विहार करते हुए पाप जिस-जिस स्थान पर पहचते ज्ञानरूपी महानेत्रों को धारण करने वाले भगवान ने थे और वहाँ मापके उपदेश के लिए जो महती सभा जड़ती बारह वर्ष तक अनशन प्रादिक बारह प्रकार का लप थी पौर जिसे जैन साहित्य में 'समवमरण' नाम से उल्लेकिया। तत्पश्चात् गुणसमूहरूपी परिग्रह को धारण खित किया गया है, उसकी एक खास विशेषता यह होती करने वाले श्री वर्द्धमान स्वामी विहार करते हुए ऋजुकूला थी कि उमका द्वार सबके लिए खुला रहता था । पशुपक्षी नदी के तट पर स्थित जम्भिक गाव के समीप पहुंचे। तक भी प्राकृष्ट होकर वहा पहुच जाते थे, जाति-पाति, वहा बैशाख सुदी दशमी के दिन दो दिन के उपवास का छु पाछुत और ऊंचनीच का उस में कोई भेद नही था, सब नियम कर वे शाल वृक्ष के समीप स्थित शिलातल पर मनुष्य एक ही मनुष्य जाति में परिगणित होते थे और प्रातापन योग में प्रारूढ़ हुए। उसी समय जब कि चन्द्रमा उक्त प्रकार के भेदभाव को भूलकर आपस मे प्रेम के साथ उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र में स्थित था, तब शुक्ल ध्यान को रल-मिलकर बैठते और धर्म श्रवण करते थे-मानो सब धारण करने वाले वर्धमान जिनेन्द्र घातिया कमों के समूह एक ही पिता की सन्तान हो। इस प्रादर्श से समवसरण को नष्टकर केवलज्ञान का प्राप्त हुए। में भगवान महावीर की समता और उदारता मूर्तिमान नजर पाती थी और वे लोग तो उसमे प्रवेश पाकर बेहद सर्वज्ञ होने के पश्चात् भगवान् महावीर छियासठ दिन गन्तुष्ट होते थे जो समाज के अत्याचारो से पीड़ित थे, तक मौन से बिहार करते हुए जगप्रसिद्ध राजगृह नगर जिन्हे कभी धर्मश्रवण का, शास्त्रो के अध्ययन का, अपने पाये" । वहा भगवान् के प्रान का वृत्तान्त जान कर चागे विकाम का और उच्च संस्कृति को प्राप्त करने का प्रवपोर से आने वाले सुरों और असुरो से जगत इस प्रकार भर गया जिस प्रकार मानो जिनेन्द्रदेव के गुणो से ही सर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नही समझे जाते थे। इसके सिवाय समवसरण की भूमि भर गया हो। इस प्रकार, जब बारह कोठो में बारह गण में प्रवेश करते ही भगवान महावीर के सामीप्य से जीवा जिनेन्द्र भगवान के चारो ओर प्रदक्षिणा रूप से परिक्रमा, का बैर-भाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्नु भी सौम्य भाव स्तुति भोर नमस्कार कर विद्यमान थे, तब समस्त पदार्थो बन जाते थे और उनका जाति विरोध तक मिट जाता को प्रत्यक्ष देखन वाल एव राग, द्वेष और मोह इन तीनो था। इमी में सर्प को नकूल या मयूर के पास बैठने में दोषो का क्षय करने वाल पापनाशक श्री जिनेन्द्र देवस कोई भय नहीं होता था, चहा बिना किसी सकोच के गौतम गणधर न तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए प्रश्न बिल्ली का प्रालिगन करता था, गौ और सिह मिलकर किया“ । तदनन्तर भगवान् महावार प्रभु ने श्रावण मास एक ही माद में जल पीते थे और मृग शावक खुशी स के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के प्रात. काल के समय अभिजित मिह शावक के साथ खलता था। यह सब महावार के नक्षत्र में समस्त सशयो को छदने वाले, दुन्दुभि के शब्द योगबल का माहात्म्य था। उनके प्रात्मा म हिसा को २४. हरिवश पुराण, २०५१ । २७. हरिवश पुराण, २०६० । २५. जैन हरिवंश पुराण, २०५६ । २८. हरिवंश पुराण, २१८७-८६ । २६. जैन हरिवश पुराण, २१५७-५६ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिए उनके सन्निट अथवा श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध तीर्थ की उनकी उपस्थिति में किसी का बैर स्थिर नही है । 1 स्थापना कर वे तीर्थकर बने। भगवान के संघ में चौदह था। हजार श्रमण और लनीम हजार श्रमणिया सम्मिलित महावीर की धर्मदेशना और विजय के बन्ध में हई।५९ नन्दीमूत्र के अनुसार चौदह हजार साधु प्रकीर्णकवि सम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जो दो शब्द वह हैं वे इस प्रकार है : कार थे।" इन जात होता है। मम्पूण साधुओं की "Mahavira pro-claimed in India the मख्या इससे अधिक । फापमुत्र के अनुमार, एक लाख message of the salvation that religion is a उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार relating and not a mere socia! cunvention ; श्राविकाएं थी।" यह संख्या भी व्रती श्रावकों की दृष्टि that salvation comes from taking refuge in से ही राम्भव है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालो की सख्या इसरो भी अधिक होनी चाहिए। that true religion, and not from observing the महावीर के प्रभावोत्पादक प्रवचनों से प्रभावित होकर external ceremonies of the community ; that भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा के सन भी उनकी भोर religion can not regard any barrier between आकर्षित हए। उत्तराध्ययन में पाश्र्वापरय केशी और man and man as an external varieiy. गौतम का मधुर मवाद है। मंशय नष्ट होने पर उन्होंने Wondrous to relate ; this teaching rapidly overtopped the barriers of the races abiding भगवान के पाच महाव्रत वाले धर्म को ग्रहण किया ।१२ instinct and conquered the whole country. वाणिज्य ग्राम म भगवान पाश्वनाथ के अनुयायी गागेय For a long period now the influence of अलगार और भगवान महाका के वीच महत्त्वपूर्ण प्रश्नोKshatriya teachers completely suppressed the नर हए । अन्त में मवंश समझतार महावार के सघ में Brahmin power." मिल गौतम न निग्रंन्ध जनक पेठाल पुत्र को समझाअर्थात-महावीर ने डंके की चोट से भारत म मुक्ति का कर सघ में सम्मिलित किया और स्थविरो को समझासा सन्देश घोषित किया कि धर्म कोई महज सामाजिक कर कालस्यवपि अन गार को भी।५ भगवती सूत्र से यह रूढि नही बल्कि वास्तविक सत्य है, वस्तु स्वभाव है, भी ज्ञात हाता है कि भगवान की परिषद् में अन्यतीथिक और मुक्ति उस धर्म मे आश्रय लेने से ही मिल सकता है, संन्यामी भी उपस्थित होते थे। प्रार्य स्कन्धक, अम्बउ", न कि समाज के बाह्य प्राचारो का विधि-विधानो अथवा पुद्गल और शिव" प्रादि परिव्राजको ने भगवान से क्रियाकाण्डो का पालन करने से, और धर्म को प्रश्न किया और प्रसो के समाधान म सन्तुष्ट होकर मन्त दृष्टि मे मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता। कहते आश्चर्य होता है कि इस शिक्षण ने बद्ध- भगवान के त्यागमय उपदेश को सुनकर : (१) मूल हुई जाति की हदबन्दियो को शीघ्र ही ताड़ डाला वीरागक, (२) वीर यश, (३) सजय, (४) एजेयक, पौर सम्पूर्ण देश पर विजय प्राप्त की । इस वक्त (५) मेय, (६) शिव (७) उदयक, (८) शंख-काशीक्षत्रिय गुरुप्रो के प्रभाव ने बहुत समय के लिए ब्राह्मणो वर्धन ने श्रमण धर्म अगीकार किया था।" मगधाधीश की सत्ता को पूरी तौर से दबा दिया था। (शेष पृ० ५५ पर) २६. औंपपातिक वीर वर्णन, ११ । ३५. भगवती श० १,०६, सूत्र ७४ । ३०. नन्दी सूत्र । ३६. भगवती श०१, उ०१ । ३७. प्रौपपातिक टी० सूत्र ४, पृ७८१२,१६५ । ३१. कल्पसूत्र, सू० १३५, पृ० ४३, सु० १३६, पृ० ४४ । (ख) भगवती श०१४, उ०८। ३२ उत्तराध्ययन, अ०२३, गाथा ७७ । ३८. भगवती श०२, उ०५। ३३. भगवती श० ६, उ० ३२, सूत्र ३७८ । ३६. भगवती श० उ०१० । ३४. सूत्रकृतांग थु० २, ०७, सूत्र ८१२ । ४०. ज्ञातधर्म कथा, प्र०१ । - -- - - ---- --- - - -- Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर का शिल्प वैभव [] श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, प्राजमगढ़ मध्यप्रदेश के सतना जिले के छतरपुर नामक स्थान मान्यता है कि इस अवसर्पिणी युग मे अवतरित होने वाले पर स्थित खजुराहो मध्ययुगीन भारतीय स्थापत्य एव सभी २४ तीर्थकरों की माताओं ने उनके जन्म के पूर्व मूर्तिकला का एक विशिष्ट केन्द्र रहा है। अपने वास्तु शुभ स्वप्नों का दर्शन किया था। श्वेताम्बर परम्परा में एवं शिल्पगत वैशिष्ट्य और साथ ही कामक्रिया से शुभ स्वप्नों की संख्या १४ बताई गई है, जबकि दिगम्बर सम्बन्धित चित्रणो के कारण खजुराहो के मन्दिर आज परम्परा १६ स्वप्नो के दर्शन का उल्लेख करती है । भी विश्व प्रसिद्ध है। मध्ययुग मे खजुराहो चन्देल शासको जैन समूह के मन्दिरों मे पाश्वनाथ मन्दिर प्राचीनतम की राजधानी रही है। चन्देल शासकों के काल म हिन्दू है। पार्श्वनाथ मन्दिर अपनी स्थापत्यगत योजना एवं मर्त मन्दिरो के साथ ही खजुराहा में जैन मन्दिरों का भी अलकरणो की दृष्टि से खजुराहो के जैन मन्दिरों मे निर्माण किया गया था । खजुराहो म सम्प्रति तीन प्राचीन सर्वोत्कृष्ट एव विशालतम है। खजुराहो की कई विश्व और ३२ नवीन जैन मन्दिर अवस्थित है। वर्तमान में प्रसित मरा मतियां (दर्पण देवती, काजल लगाती, खजुराहो ग्राम के समान अवस्थित जैन भन्दिरो का समूह प्रेमी बो पत्र लिखती प्रौर पर मे चुभे काटे को बाहर खजुराहो का पूर्वी देव-मन्दिर-समूह कहलाता है। जैन निकालती) भी इसी मन्दिर पर उत्कीर्ण है। शिल्प, मन्दिरों में सम्प्रति पार्श्वनाथ और आदिनाथ मन्दिर ही वास्तु एवं अभिलेरा के आधार पर पाश्वनाथ मन्दिर का पूर्णतः सुराक्षित है। तीमर। मन्दिर घण्टई मन्दिर है, निर्माणकाल चन्देल शासक घग के शासन काल के प्रारजिमका केवल अर्धमण्डप एव महामण्डप ही अवशिष्ट है। म्भिक दिनो (९५०-६७० ई० ) मे स्वीकार किया गया उपर्युक्त प्राचीन मन्दिरों के अतिरिक्त खजगहो मे १५ है। मन्दिर मे सवत् १०११ (९५४ ई० ) का एक अन्य जैन मन्दिर भी रहे है। इसकी पुष्टि उपर्युक्त न मन्दिर भी रहेगा उसकी जिम अभिलेख भी उत्कीर्ण है। अ सुरक्षित मन्दिरो के पाच उत्तरागो के अतिरिक्त १५ अन्य पूर्वमुखी पार्श्वनाथ मन्दिर प्रदक्षिणापथ से युक्त गर्भउत्तरांगो की प्राप्ति से होती है। जैन परम्परा मे मान्यता गृह, अन्तराल, महामण्डप और अर्घमण्डप से युक्त है। है कि ६५० ई० से १०५० ई. के मध्य खजुराहो म ८४ म मन्दिर के पश्चिमी भाग में एक अतिरिक्त देवकूलिका भी मा जैन मन्दिरों का निर्माण किया गया था (विविध तीर्थ सयुक्त है, जिसमें ऋषभनाथ (प्रथम तीर्थकर) की ग्याकल्प)। खजुराहो की जैन मूर्तियो का ममूचा समूह रहवी शती ई० को प्रतिमा प्रतिष्ठित है। ज्ञातव्य है कि दसवी से बारहवी शती ई० (६५०-११५० ई० ) के ___वर्तमान पार्श्वनाथ मन्दिर मूलतः प्रथम तीर्थकर ऋषभमध्य तिथ्यकित किया गया है। नाथ को मर्पित था। पर १८६० मे गर्भगृह में स्थापित ___ खजुराहो को समस्त जैन शिल्प सामग्री एव स्था काले पत्थर की पार्श्वनाथ (२३वें तीर्थंकर) की मूर्ति के कारण ही उसे पार्श्वनाथ मन्दिर के नाम से जाना जाने पत्यगत अवशेष दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। इसका लगा। मडप के ललाटबिंब पर ऋषभनाथ की यक्षी चक्रेशप्राधार जैन तीर्थकरो ( या जिनो ) की निर्वस्त्र मूर्तियो वरो आमूर्तित है । साथ ही, गर्भगृह की मूल प्रतिमा के और प्रवेशद्वार पर १६ मालिक स्वप्नो के चित्रण है। सिंहासन पर ऋषभ का वृषभ लाछन और छोरो पर ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा को मूर्तियो म तीर्थकरो। ऋषभ स ही सम्बन्धिन यक्ष-यक्षी युगल, गौमुख-चक्रेश्वरी का सर्वदा वस्त्र-युक्त दिखाया गया है। जैन परम्परा में निरूपित है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त मन्दिर की बाह्य भित्ति पर तीन पंक्तियों में देव करते दर्शाया गया है। कुछ रथिकामों में चतुर्भज मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मूर्ति विज्ञान की दृष्टि से केवल लक्ष्मी (३ मूर्तियाँ) एवं विमुख ब्रह्माणी की भी मूर्तियाँ निचली दो पंक्तियों की मूर्तिया ही महत्वपूर्ण है, क्योकि निरूपित हैं। सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि जैन यक्षी ऊपरी पक्ति मे केवल विद्याधर युगल, गन्धर्व एवं किन्नर अम्बिका (२ मूर्तियाँ) एव तीर्थकर मूर्तियो के अतिरिक्त की उडडीयमान प्राकृतियां चित्रित है। मध्य की पक्ति में भित्ति एवं अन्य भागों की गभी मूर्तिया हिन्दू देवकूल के विभिन्न देव यगलों, लक्ष्मी एव तीर्थंकरों की लॉछन (या देवतानों से सम्बन्धित एवं प्रभावित रही है । शिखर के लक्षण) रहित स्थानक एव ध्यानस्थ मूर्तियां उत्कीणित समीप उत्तरी एवं दक्षिणी भागो पर कामक्रिया में रत दो है। उल्लेखनीय है कि जैन परम्परा मे २४ तीर्थकरो की युगलो का अकन प्राप्त होता है जो पूरी तरह जैन अलग२ पहचान के लिए स्वतन्त्र लाछनो की कल्पना की परम्परा को अवमानना है । ऐसे परम्परा विरुद्ध चित्रणो गई थी। सभी तीर्थको के लक्षणो के निर्धारण का कार्य का कारण सम्भवतः उसी स्थल के हिन्दू मन्दिरों पर सातवीं-पाठवीं शती ई० मे पूरा हो गया था। मतियो मे प्राप्त कामक्रिया मे मम्बन्धित (लक्ष्मण मन्दिर) चित्रणों तोथंकरों को या तो कायोत्सर्ग मे दोनो भजाए नीचे लट- का प्रभाव और जैन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू शिल्पियो काए सीधे खडा प्रदर्शित किया जाता है, या फिर ध्यान का कार्यरत रहा होना होगा। उल्लेखनीय है कि जैन मुद्रा मे पालथी मारकर पर्यकासन मे विराजमान । निचली परम्परा मे किमो भी देवता को कभी अपनी शक्ति के पक्ति मे प्रष्ट दिक्पालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, साथ नही निरूपित किया गया है, फिर शक्ति के साथ वायु, कुबेर, ईशान्,) वेवयुगलों (शक्ति के साथ प्रालिगन और वह भी मालिगन की मुद्रा में चित्रण का प्रश्न ही मुद्रा मे) यक्षी अम्बिका (२२ वे तीर्थकर नेमिनाथ की नहीं उठता। यक्षी), तीर्थकरो एवं चतुर्भुज शिव, विष्ण, ब्रह्मा और गर्भगृह की भित्ति पर प्रष्ट दिक्पालों, तीर्थकरो, बाहुविश्वप्रसिद्ध अप्सरामो की मूर्तिया चित्रित है । बली एवं चतुर्भुज शिव (- मूर्तियाँ) उत्कीर्ण है। वृषभ दोनो पक्तियों की त्रिभंग में खड़ी स्वतत्र एवं देवयुगल बाहन से युक्त चतुर्भुज शिव की भुजायो में सामान्यतः प्राकृतियो मे देवता जहा चतुर्भुज है, वही उनकी शक्ति नाग, त्रिशूल, कमडल एव फल प्रदर्शित है। बाह्य भित्ति सदैव द्विभुजा है। देवताओं की शक्तियो की एक भुजा की तीर्थकर मूर्तियो के विपरीत गर्भगृह की भित्ति की आलिंगन की मुद्रा में प्रदर्शित है और दूसरी मे दर्पण या तीर्थकर मूर्तियों लाछन, प्रष्टप्रातिहार्य एव यक्ष-यक्षी युगल पर स्थित है। स्पष्ट है कि विभिन्न देवताओं के साथ से युक्त है । गर्म गृह की भित्ति पर कुल ६ तीर्थङ्कर मूतियाँ पारंपरिक शक्तियो, (यथा, विष्णु के साथ लक्ष्मी, ब्रह्मा के चित्रित है, जिनमें से केवल ४ मे ही लॉछन स्पष्ट है। साथ ब्रह्माणी), के स्थान पर सामान्य एव व्यक्तिगत अष्टप्रातिहार्य एव यक्ष-यक्षी युगल सभी उदाहरणो मे विशिष्टतानो से रहित देवियो को प्रामूर्तित किया गया प्रदर्शित है। उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त तीर्थङ्कर मूर्तिया है । भित्ति के अतिरिक्त देवयुगलो की कुछ मूर्तियाँ प्रतिमालाक्षणिक दृष्टि से पूर्ण विकसित तीर्थङ्कर मूर्तियाँ अर्धमंडप की छत के समीप एव मन्दिर के कुछ अन्य है। तीर्थ कर मूर्तियो के परिकर मे प्राकलित अष्टप्रातिभागो पर भी उत्कीणं है। देवयुगलो मे शिव ( हार्य निम्न है . .-सिंहासन, दिव्यतरु, त्रिछत्र, प्रभामडल, मूर्तियों), अग्नि (१ मूति) एव कुबेर के अतिरिक्त राम- देवदुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि एव चामरयुग्म । सीता (कपिमुख हनुमान के साथ) और बलराम-रेवती लगभभग आठवी-नवी शती में ही प्रत्येक तीर्थकर के के चित्रण भी प्राप्त होते है। रामकथा से सम्बन्धित शासन देवता होते है । उक्त मूर्तियो में लांछनों के प्राधार एक विशिष्ट दृश्य मन्दिर के दक्षिणी शिखर के ममीप पर केवल अभिनन्दन (चौथे तीर्थकर), सुमतिनाथ (५वें उत्कीर्ण है । दृश्य मे क्लॉतमुख सीता को अशोकवाटिका तीर्थंकर) या मुनिसुव्रत (२०वें तीर्थकर), चन्द्रप्रभ (८वे में बैठे और हनुमान से राम की मुद्रिका एवं सन्देश प्राप्त तीर्थकर) एवं महावीर (२४वें तीर्थकर) की ही पहचान Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो के पार्थनाय मेन मन्दिर का शिल्पवैभव सम्भव है। यक्ष-यक्षी युगल सभी उदाहरणों में द्विभुज, सादे एवं समरूप है। ऐसा प्रतीत होता है कि मजुराहो मे अभी तक (६४५ ई०) स्वतन्त्र यक्ष-यक्षी युगलो के लाक्षणिक स्वरूपों का निर्धारण नहीं हो पाया था । तीर्थकर मूर्तियों से कही अधिक महत्वपूर्ण गर्भगृह की दक्षिण भित्ति पर बाहुबली मूर्ति है। उत्तर भारत मे बाहुवली मूर्ति का यह सभ्भवतः दूसरा प्राचीनतम उदाहरण है । बाहुबली निर्वस्त्र है और कायोत्सर्ग मुद्रा मे सिहासन पर खड़े है बाहुबली के साथ तीर्थकर मूर्तियों के समान ही सिंहासन, चामरघरों एवं उड्डीय मान गन्धवों जैसे प्रातिहा को भी प्रदर्शित किया गया हैली के सम्पूर्ण शरीर से गाधवी, वृश्चिक, छिपकली एवं सर्प लिपटे है। दोनों पावों में दो विद्या परिया ग्रामूर्तित है जिनकी भुजाओं में बाहुबली के शरीर से लिपटी लावल्लरियों के छोर स्थित है वो बाहुबली प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ के पुत्र है । इन्होंने राज्य का त्याग कर जगलो मे कठिन तपस्या की थी। तपस्या के परिणामस्वरूप ही इन्हें केवल ज्ञान और निर्वाणपद प्राप्त हुआ था । बाहुबली के शरीर पर माधवी, वृश्चिक, एव सर्प आदि का लिपटा होना बाहुबली के कठोर तपश्चर्या का ही सूचक है । 000 ( पृ० ५२ का शेषांश) सम्राट् श्रेणिक के पुत्रो ने भी भगवान के पास संयम ग्रहण किया था और श्रेणिक का सूकाली, महाकाली, कृष्णा आदि दश" महारानियो ने भी दीक्षा ली थी। धन्ना" और शीलभद्र" जैसे धन-कुवेरो ने भी सयम स्वीकार किया। प्राद्रकुमार" जैसे धार्यतर जाति के युवको ने धौर हरिकेशी" जैसे चाण्डाल जातीय मुमुक्षुषो ने और प्रर्जुन मालाकार " जैसे क्रूर नर-हत्यारों ने भी दीक्षा स्वीकार की थी । गणराज्य के प्रमुख चेटक" महावीर के प्रमुख भावक थे। उनके छ: जामाता" उदयन, दधिवाहन, शतानीक, चण्डप्रोत, नदीवर्धन, बेणिक और नौमल्लवी व नो ४१. प्रन्तकृत्त दशांग | ४२. त्रिष्टलका पर्व १० सर्ग १० पलो. २३६-२४८. ४३. त्रिषष्टिशलाका, पर्व १०, सर्ग १०, श्लो० ८४५ से ५५ पावनाथ मन्दिर पर केवल दो ही जैन पक्षियों ( अम्बिका एव चक्रेश्वरी) को प्रमूर्तित किया गया है । अम्बिका (नेमिनाथ की यक्षी) की दो मूर्तियां प्राप्त होती है, जो क्रमश बाह्य भित्ति और शिखर के समीप उत्कीर्ण है । सिंहवाहिनी अम्बिका के करों मे परम्परा के अनुरूप ही प्राम्रलुम्बि और बालक प्रदर्शित है । चक्रेश्वरी ( ऋषभनाथ की यक्षी) की केवल एक ही मूर्ति प्राप्त होती है, जो मन्दिर के प्रवेशद्वार के ललाटबिम्ब पर उत्कीर्ण है । दशभुजा चक्रेश्वरी का वाहन गरुड़ है और उसकी अधिकतर भुजाओ मे वैष्णवी देवी ( हिन्दू देवी) के प्रायु चक्र, शव एवं गया प्रदर्शित है। वाग्देवी सरस्वती की मूर्तियाँ प्राप्त होती है। सरस्वती की भुजाओं में सामान्यतः वीणा, पुस्तक एवं पद्म प्रदर्शित है । मण्डप, गर्भगृह एवं पश्चिम के संयुक्त जिनालय के उत्त रागो पर द्विभुज की स्थानाकृतियाँ चित्रित है। नवग्रहो द्वार शाखाओ पर हिन्दू मन्दिरो के सदृश ही मकरवाहिनी गगा और कूर्मवाहिनी यमुना की द्विभुज श्राकृतियाँ उत्कीर्णित है । १३३-१ । ४४. सूत्रकृतांग टी० ०२, ०६, १० १३६-१ । ४५. उत्तराध्ययन, प्र०१२ । ४६. प्रन्तकृत दशा । ४७. मावश्यक चणि उत्तरार्द्ध प० १६४ । प्रवक्ता, प्राचीन इतिहास, श्री गांधी डिग्री कालेज, मालटारी आजमगढ (उ०प्र०) लिच्छवी ये मठारह गण-नरेश भी भगवान के परम भक्त थ । इस प्रकार केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् तीस वर्ष तक काशी, कौशल, पांचाल, कलिंग, कम्बोज, कुरु, जागलं, बाहुलीक, गांधार, सिन्धु, सौवीर आदि प्रान्तों परिभ्रमण करते हुए भूले-भटके जीवन के राहियों को मार्ग दर्शन देते हुए उन्होंने प्रपना अन्तिम वर्षावास 'मध्यमपावा' मे सम्राट् हस्तिपाल की रज्जुकसभा मे किया ।" कार्तिक कृष्णा अमावस्या की रात्रि मे स्वाति नक्षत्र के समय बहत्तर वर्ष की आयु भोगकर सिद्ध-बुद्ध धौर मुक्त हुए। ४९ ४८. त्रिषष्टि पर्व २०, सर्ग ६, श्लो० २८८, ५०७७-२ । ४६. प्रावश्यक चूणि, भाग २, १०२६४ । (ख) त्रिषष्टि, पर्व १०, सर्ग ६, श्लो. १८७ प. ६६-२. कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, सूत्र १२८ । पावाए मज्जिमाए, हत्थि वालस्य रष्णी, रंजनसभाए प्रपच्छियं धतरावासं वासावासं उवागये । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्राचार्यों द्वारा संस्कृत में स्वतन्त्र ग्रंथों का प्रणयन 7 श्री मुनि सुशीलकुमार जैन प्राचार्यों में संस्कृत में स्वतंत्र प्रथों की रचना अपनी श्रेणी का विशिष्ट ग्रन्थ है। का श्रेय प्राचार्य उमास्वाती को है। ये सम्भवत. संस्कृत काव्य-निर्माण की दृष्टि से पहले जैन कवि (वि. १.२ शती) पहले विद्वान थे जिन्होने विविध पागम प्राचार्य समन्तभद्र (वि०२-३री शती) है जिन्होने 'स्वयंग्रंथों में बिखरे हए जैन तत्वज्ञान को योग, वैशेषिक आदि म्भस्तोत्र' जैसे स्तुति-काव्य का सृजन कर जैनों के मध्य दर्शन-ग्रंथों के समान सूत्रबद्ध किया और उसे तत्त्वार्था- संस्कृत काव्य-परम्परा का श्रीगणेश किया। "यह एक घिगम या महत्प्रवचन के रूप में मामने रखा। इन्होंने सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृत भाषा मे काव्य का प्रादुर्भाव प्रथम यह अनुभव किया कि विद्वत्समाज की भाषा संस्कृत स्तुति या भक्ति-साहित्य से हमा है गो जैन मंस्कृत काव्यों बनी रही है, इसलिए जैन-दर्शन संस्कृत में लिखे जाने पर की मूल आधार-शिला द्वादशांगवाणी है। 'जैनन्याय' का ही विद्वानों का ग्राह्य विषय बन सकेगा। चूकि ये ब्राह्मण वास्तविक प्रारम्भ भी आ० समन्तभद्र के ग्रन्थों (प्राप्तकुल में उत्पन्न हुए थे, इसलिये संस्कृत का अभ्यास होने मीमांसा आदि) से होता है। प्राचार्य ममन्तभद्र ने इष्टदेव के कारण इस भाषा में ग्रन्थ निर्माण करना उनके लिये की स्तुति के ब्याज से एक ओर हेतुवाद के आधार पर सहज था। वाचक उमास्वाती प्रागमिक विद्वान थे, सर्वज्ञ की सिद्धि की, दूमरी ओर विविध एकांतवादों की मत: उनकी सभी रचनाएँ भागम-परिपाटी को लिये हये समीक्षा करके अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की उन्होंने हैं। उमास्वाती का तत्त्वार्थसूत्र जहाँ जैन तत्त्वज्ञान का जैन परम्परा मे सर्वप्रथम न्याय शब्द का प्रयोग करके एक मादिम संस्कृत ग्रन्थ है, वहाँ जैन धर्म व प्राचार का और न्याय शब्द दिया तो दूसरी ओर न्यायशास्त्र मे निरूपण करने वाला उनका 'प्रशमरतिप्रकरण' ग्रन्थ भी स्याद्वाद को गुम्फित किया। निम्नलिखित विषयों में निम्नलिखित जैन विद्वानों ने सर्वप्रथम संस्कृत रचना प्रस्तुत की :विषय सर्वप्रथम रचना समय रचयिता जैन दर्शन तत्त्वार्थसूत्र (वि० १-२ शती) प्राचार्य उमास्वाती २. जैन न्याय प्राप्तमीमांसा (वि० २-३ शती मा० समन्तभद्र स्वयम्भस्तोत्र मादि .. (क) भक्ति काव्य (ख) पौराणिक (ग) चरित काव्य (घ) सन्देश काव्य स्वयम्भूस्तोत्र पाचरित वरांगचरित नेमिदूत रविषण जटासिंह नन्दी विक्रम (६० ६७६) (८वीं शती) (ई. १३वीं शती का अन्तिम चरण) ८वीं शती ९वीं शती ८वीं शती (3) सन्धान काव्य (च) सूक्ति काव्य (छ) खण्ड काव्य द्विसन्धान पारमानुशासन पार्वाभ्युदय धनंजय गुणभद्र जिनसेन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कथा-साहित्य ५. व्याकरण ६. कोश ७. अलंकार (छन्द) ८. नाटक ६. गणित व ज्योतिष जैन प्राचार्यो द्वारा संस्कृत में स्वतन्त्र प्रन्थों का प्रणयन उपमितिभवप्रपंच कथा ई० ६०५ जैनेन्द्रव्याकरण ई० ४१३-४५५ ई० ७८०-८१६ १२वी स० १६४८ ८५० ई. नाममाला, धनेकार्य नाममाला छन्दोनुशासन ज्ञानसूर्योदय गणितसारसंग्रह ज्योतिषपटल जैन श्राचार्यों के समाज में संस्कृत का समादर उपर्युक्त प्राचार्यों ने संस्कृत में ग्रथ प्रणयन कर स्थायी परम्परा का सूत्रपात्र किया। परवर्ती आचार्यों ने विपुल साहित्य रच कर जैन संस्कृत साहित्य के भण्डार को पूर्ण किया। जब बौद्ध दर्शन मे नागार्जुन, बसुबन्धु, असगत तथा बौद्ध न्याय के पिता दिङ्नाग का उदय हुम्रा और दार्शनिक जगत मे इन बौद्ध दार्शनिको के प्रबल तर्क प्रहारो से खलबली मच रह थी ता जैन दार्शनिकों के सामने प्रतिवादियों के आक्षेपो का खण्डन कर स्वदर्शन की प्रभावना करने का महान् उत्तरदायित्व आपड़ा। इस स्थिति मे भाषा की संकीर्णता को स्थान देना अनुचित था | अन्य दार्शनिको का खण्डन उन्हीं की भाषा मे करना उचित समझा गया और इस प्रकार संस्कृत को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कराने में ग्रागे का मार्ग प्रशस्त हाता गया । गुप्तकाल तक संस्कृत को पूरे भारत में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ। जैन माधु-साध्वी नमाज संस्कृत भाषा में भी परिनिष्ठित होने लगा। कहते है कि सिद्धर्मन दिवाकर की मृत्यु के बाद विनी मे एक वैतानिक ( चारण भाट) ने सिद्धसेन की वह्निके समक्ष, जो जैन साध्वी भी मनुष्टुप् छन्द के दो चरण कहे स्फुरन्ति वादिखद्योता: साम्प्रतं दक्षिणापथे । उक्त जैन साध्वी ने तुरन्त भागे के दो चरण कहकर उक्त छद को पूरा किया : १. वैतालिक का कहना था कि श्राजकल दक्षिणापथ में वादी रूप जुगनू इधर-उधर मण्डरा रहे है। जैन साध्वी ने कहा कि इससे यह निश्चित होता है कि सिद्धमेन दिवाकर इस संसार में नही रहे (अन्यथा किसी वादी को स्वपाण्डित्य प्रदर्शित करने का साहस नही होता) । ५७ सिद्धर्षि पूज्यपाद देवनन्दी धनजय वाग्भट बादिन्द्रसूरी महाबीरावाद नमस्तंगतो नादी सिद्धगेनी दिवाकर जैन भागम की टीकामो मे भी इसके उदाहरण मिलते है जिनसे संस्कृत के व्यवहार-भाषा होने का प्रमाण पुष्ट होता है। मिपि (प्रथम संस्कृत कथाकार) के समय (२० १०५) तक सस्कृत नेता प्राप्त कर को भी कि प्राकृत भाषा को भूलकर लोग संस्कृत वनायों में अपेक्षाकृत अधिक ग्रानन्द अनुभव करते थे । कथाकहानियांजा अबतक प्राकृत जनभाषाओं में रची जा रही थी, संस्कृत में भी स्थान प्राप्त कर सकी। सिद्धपि स्पष्ट पिता है संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमर्हनः । तापि सस्कृत तावद् दुम्पिदि स्थिता ॥ बालानामपि मद्बोधकारिणी कर्णपेजला | तथापि प्राकृता भाषा न तपाविपते ॥ उपाये सति कर्तव्यविम् । स्तनरोधेन संस्कृतेऽय करिव्यते ॥ - उपमितिभवप्रपचकथा १ / ५१५२ किन्तु निम्न कोटि के लोग तथा स्त्रिया उरामय संस्कृतभाषा न बोलकर प्राकृत भाषा का ही व्यवहार करते जैसा कि आचार्य ने स्वयं पाव्यानुमगनकारिका' की टीका में कहा है. - बालस्त्री मलमूर्खामा नृणा चारित्रकाक्षिणाम् । पदार्थ प्राकृत 4. ।। २ हरिभद्रसूरि की आवश्यक टीका से एक कथा है, जिसके अनुसार एक दानों के द के पास (एडिया में समान रखने के बढ़ने एक संस्कृत पद्य ि काले प्रसुप्तस्य जनार्दनम् मेदारी | मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे ने प्रत्यय ने प्रमादारेषु । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, वर्ष २६, कि० अनेकान्त संस्कृत रचना की होड़ ने १३वी शती तक कटिन से प्रकृतेरागतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् । कठिन बन्धनों को भी तोड़ डाला। जैन मुनियो के लिए -निक (दशरूपकवृत्ति) नाटक मादि विनोदों में भाग लेना वजित समझा गया है । प्राकृतशब्दानुशासन के रचयिता महावैयाकरण प्राचार्य फिर नाटक प्रादि की रचना का प्रश्न कैसे उठ सकता था? हेमचन्द्र ने भी 'अथ प्राकृतम्' (८।१११) सूत्र की व्याख्या किन्तु एक समय भाया कि जैन प्राचार्यों ने सस्कृत में करते हुए लिखा है-"प्रकृति: मस्कृतम् । तत्र भव ततः नाटक लिखने प्रारम्भ कर दिये। मागतं वा प्राकृतम्" संस्कृत के प्रति प्रेम की भावना ने सस्कृत रचना की दण्डी ने भी 'काव्यादर्श' में इसी प्रकार के भाव परम्परा को निरन्तर कायम रखा। कहा जाता है कि व्यक्त किये है संस्कृतं नाम देवी वागन्वाख्याता महषिभिः । एक बार सम्राट अकबर की विद्वत्सभा मे जैनो के समस्तसुत्तस्स प्रणन्तो प्रत्यो' (=समस्त प्रागममूत्रो के अनन्त तद्भवस्तत्समो देशोत्यनेकः प्राकृतः क्रमः ॥(१३६) पर्थ है) वाक्य का किसी ने उपहास किया। यह बात वाग्भट ने वाग्भटालंकार (२।२) मे लिखा हैमहामहोपाध्याय समयसुन्दर जी को बुरी लगी और संस्कृतं स्वागणां भाषा शब्द शास्त्रेषु निश्चिता । उन्होंने राजा को 'राजानो ददते मौख्यम्' इस ८ अक्षरी प्राकृतं तज्जातत्तल्यदेश्याविकमनेकधा । वाक्य के १० लाख २२ हजार चार सौ सात प्रथं कर इसी तरह, पड भाषाचन्द्रिका मे भी विचार प्रकट किया गया है : - दिखाये । समयसुन्दर की यह कृति 'पष्टलक्षी' नाम से सस्कृत साहित्य की शोभावृद्धि कर रही है और अभी वह प्रकृतेः सस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृता मता। अप्रकाशित है। तद्भवा संस्कृतभवा सिद्धा साध्येति सा विधा। जब चण्ड अपना प्राकृतसर्वस्व और हेमचन्द्र अपना संस्कृत प्राकृत की स्वामिनी बनी !! प्राकृतशब्दानुशासन लिख रहे थे, मस्कृत उम ममय एक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो छान्दस भाषा समृद्ध भापा थी। पठन-पाठन की भाषा भी यही थी। पठन-पाठन की भाषा के अतरिक्त शिष्ट समाज के पौर उसकी बोली (यदि कोई थी) के विकसित रूप का व्यवहार की भाषा के रूप में संस्कृत देश में छा गई थी। ही परिणाम 'प्राकृत' है। किन्तु संस्कृत के देशव्यापी प्राकृत वैयाकरण संस्कृत के गहन अध्ययन के पश्चात ही प्रभाव की चकाचौध मे प्राकृत व्याकरण के रचयितामो पौर तत्कालीन विद्वानो ने यह कहना प्रारम्भ कर देशी भापात्रों की ओर उन्मुख हुए होंगे और पस्कृत के मिद्ध शब्दों के साथ ही देशी भाषा में प्राप्त शब्दो की दिया कि 'प्राकृत की जननी संस्कृत है'। संगति बैठाने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते होंगे। प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं प्राकृतमच्यते प्राकृत व्याकरण की शैली भी सस्कृत व्याकरणो के अनु-मार्कण्डेय रूप है। संस्कृत व्याकरण की तरह से लोप, पागम, प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतम् योनिः। प्रादेश प्रादि का विधान प्राकृत व्याकरण में किया गया - बासुदेव (कपूरमञ्जरी टीका) है। यही कारण है कि प्राकृत व्याकरण के निर्माताओं मे प्रातः सस्कृतम् । तत्र भवत्वात् प्राकृत स्मृतम्। संस्कृत को मूल भाषा मान कर प्राकृत को उससे पैदा होने -प्राकृतचन्द्रिका वाली कह देने की प्रवृत्ति का सूत्रपात प्रा। इभ्यपुत्र का सन्देश था- 'कामेमि ते' (अर्थात् तुझे नेह लोके सुखं किंचिच्छादितस्यांहसा भृशम् । मैं चाहता हूँ)। मितं च जीवितं नृणा तेन धर्मे मतिं कुरु ।। रानी ने भी उत्तर में एक पद्य लिखा, जो निम्न रानो के सन्देश का रूप था-"नेच्छामि ते" प्रकार है : (अर्थात् मैं तुझे नहीं चाहती)। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन प्राचार्यों द्वारा संस्कृत में स्वतन्त्र प्रन्यों का प्रणयन ५९ जैन प्राचार्यों की उल्लेखनीय संस्कृत रचनाएँ शान्सिसरि (११वीं शती) कृत (सिद्धसेन के न्यायावतार की प्रथम कारिका पर) सटीक पद्यबन्धवार्तिक ; संस्कृत रचनामों की सुदीर्घ परम्परा जिनेश्वर सरि (१०५२ ई० लगभग) कृत (सिद्धसेन के जैन दर्शन, जैन न्याय व सामान्य दर्शन विषय में न्यायावतार की पहली कारिका पर) पद्यबस्य प्रभालक्षण, प्राचार्य उमास्वाति (वि. २री शती) कृत तत्त्वार्थसूत्र, प्रद्युम्न सूरि के शिष्य अभयदेवसूरि (१०६३ ई. लगभग) प्राचार्य समन्तभद्र (वि० २-३री शती) कृत प्राप्तमीमासा, कृत (सन्मतितर्क पर) बृहत्काय टीका; मुनि चन्द्रमूरि युकत्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र; मल्लवादी (ई० ३५०. के शिष्य बाविवेवसरि (१२वी शती) कृत प्रमाणनयतत्त्वा४३०) कृत (द्वादशार) नयचक्र ; पूज्यपाद देवनन्दी लोकालंकार और इसी ग्रन्थ पर स्याद्वादरत्नाकर नामक (वि० ५.६ शती)कृत सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थमूत्र पर टीका), विस्तृत व्याख्या ; प्राचार्य हेमचन्द्र (ई. १०८६-११७२) सिद्धसेन (वि० ६.६ शती) कृत सन्मतितर्क, न्यायावतार कृत प्रमाणमीमासा, अन्ययोगव्यवच्छेदिका, वीरचन्द्रसरि और कुछ बत्तीसियों, प्राचार्य हरिभवसूरि (७०५ के शिष्य देवभद्रसूरि (११४० ई० लगभग) कृत (सिद्ध७७५ ई.) कृत पड्दर्शनसमुच्चय तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय सेन के न्यायावतार पर) टिप्पण, वाविराजसरि (वि. तथा सिद्धसेन कृत न्यायावतार पर वृत्ति ; प्रकलक १२वी शती का उत्तरार्द्ध) कृत प्रमाणनिर्णय, (प्रकलक (७२०-७८० ई.) द्वारा रचित न्यायविनिश्चय लपी के न्यायविनिश्चय पर) विवरण, रत्नप्रभसरि (११८१ यस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाण मग्रह, (तत्त्वार्थमूत्र पर) ई० लगभग) कृत स्याद्वादरत्नाकरावतारिका; वायड. तत्त्वार्थ गजवार्तिक, (समन्तभद्र को प्राप्तमोमासा पर) गच्छीय जीवदेवसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि (वि० १२६५) अष्टशती ; प्राचार्य विद्यानन्द (ई० ७७५-८४०) कृत कृत विवेकविलास ; प्राचार्य मल्लिषेण (१२८२ ई. प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, प्राप्तपरीक्षा (सर्वार्थ लगभग) कृत (हेमचन्द्र को प्रन्ययोगव्यवच्छेदिका, पर) सिद्धि के प्रथम श्लोक के भाष्य के रूप मे), (तत्त्वार्थ स्याद्वादमञ्जरी, मेरुतुग (१३६२ ई० लगभग) कृत सूत्र पर) तत्वार्थश्लोकवातिक, समन्तभद्र के युक्त्यनु- पडदर्शननिर्णय (अप्रकाशित); जयसिंह सूरि (१५ वीं शासन पर टीका, प्राप्तपरीक्षा पर स्वोपज्ञ टीका, सिद्धसेन शती) कृत न्यायसारदीपिका, प्राचार्य गुणरत्न । ई० गणि (८वी शती) कृत तत्वार्थमूत्र पर टीका, सिद्धषि १३४३-१४१८) कृत (षड्दर्शनसमुच्चय पर) टीका; गणि (ई. ६०५ लगभग) कृत (सिद्धसेन के न्यायावतार सोमतिलकसरि (वि. १३५५.१४२४) कृत (षडदर्शन पर) टीका, माणिक्यनन्दी (१०.११ शती ई०) वृत ममच्चय पर) विवृति ; शुभविजय (१७वी शती) परीक्षामुख, प्रभाचन्द्र (६८०-१८६५ई.) कृत (माणिक्य- कृ1 स्याद्वादमाला ; विनयविजय (१६५२ ई.) कृत नन्दी के परीक्षामुख पर) प्रमयकमल मार्तण्ड, (अकलक नयकणिका; यशोविजय (१८वी शती) कृत जैन तक के लघीयस्त्रय पर) न्यायकुमचन्द्र , अनन्तवीर्य' भाषा, अनेकान्तव्यवस्था, नयप्रदीप, ज्ञान विन्दु, न्याय खण्ड(वि० ११वी शती) कृत (माणिक्यनन्दी के परीक्षामन खाद्य, न्यायालोक प्रादि मौलिक व व्याख्यात्मक ग्रन्थ पर) प्रमेयरत्नमाला, (अकलक के सिद्धिविनिश्चय पर) सस्कृत साहित्य की उल्लेखनीय रचनाएँ है। विशाल टीका, अकलक के ही प्रमाणसंग्रह पर भाष्य, जैन धर्म प्राचार व नैतिक उपदेशपर्ण साहित्य की १. पं० जुगलकिशोर जी मस्तार के मन मे वि० ६ठी में उनका मत ६ या ७वी के सम्बन्ध में दल हमा शती के मध्य ३ सिद्धसेन हुए है। प्रथम सिद्धसेन (वि० ६-७ शती) ने सन्मतितकं, दूगरे (वि० २. प्रो. उदयचन्द्र जन के मत में २ अनन्तवीर्य हुए। ७-८ शती) ने न्यायावतार और अन्तिम गिद्ध मेन ने प्रथम ने मिद्धिविनिश्चय लिखा, दूसरे (लघु अनन्तकुछ बत्तीसियों लिखी। प० सुखलाल के मन में वीर्य) ने प्रमेय रत्न माला की रचना की। सिद्धसेन दिवाकर का समय वि० ५वी शती है। बाद - --..--- Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त परम्परा मे प्राचार्य उमास्वाति का प्रशमरतिप्रकरण योगसम्बन्धी निरूपण है। संस्कृत का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें जैन तत्त्वज्ञान, कर्म मिद्धान्त प्राकृत ग्रन्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर भट्टारक शुभचन्द्र ने पौर साधुओं व गृहस्थो के प्राचार का सरल व सुन्दर संस्कृत टीया (ई. १५५६) की रचना की है। शैली में वर्णन है। हरिभद्रसरि ने इस पर टीका लिखी जैन प्राचार्यों व विद्वानो द्वारा भक्तिकाव्य की परम्परा है। अमृतचन्द्रसूरि (ई० ६६८ के आसपास ) कृत पुरुषार्थ- मे अनेक रचनाएँ रची गई, जिनमे प्राचार्य ममन्तभद्र का सिद्धयुपाय, वीरनन्दी (ई० १११५ के लगभग) कृत स्वयम्भूम्तोत्र, प्राचार्य सिद्धमेन कृत बत्तोसियां, विद्यानन्दी पाचारसार, सोमप्रभसूरि (१२-१३ शती) कृत सिन्दूर- पात्रकेशरी (ई० ५-६) कृत बहत्वाचनमस्कार स्तोत्र, प्रकर, शृंगारवैराग्यतरगिणी का विशिष्ट स्थान है। मानतुंगाचार्य (वि० ७वी) कन भक्तामरस्तोत्र, भट्ट इसी तरह रत्नकरण्डथावकाचार (समन्तभद्र या अकलंक कृत प्रकलकस्तोत्र; बप्पिट्टि (ई० ७४३.८३८) योगीन्द्र कृत), अमितगति (ई. १००० के लगभग) कत चतुर्विशति जिनस्तोत्र, धनंजय (वि०८-६वीशती) कृत कृत श्रावकाचार, प्राशाधर कृत सागारधर्मामृत एवं विषापहारस्तोत्र; गुणभद्र (वी शती) कृत प्रात्मानुप्रध्यात्मरहस्य (ई० १२३६); गुण भूषण (१४-१५ शासन; हेमचन्द्र (१२वी शती) कन वीतरागस्तोत्र; शती) कृत श्रावकाचार, १७वी शती मे अकबर के राज्य- शुभचन्द्र प्रथम (१२वी शती) कृत ज्ञानार्णव; अमितगति काल में राजमल्ल द्वारा रचित लाटीसंहिता का स्थान (वि० १०५०) कृत सुभाषितरत्नमन्दोह; अहंदास भी कम महत्वपूर्ण नहीं कहा ज सकता । (१३वी शती) कत भव्यजनकण्ठाभरण; सोमप्रभ रचित टेमचन्द (१२वी शती) कृत योगशास्त्र में भी मनि मक्तिमावलि. GETREE AMETHER farazfs व श्रावक के धर्मों का तथा योग सम्बन्धी विषयों का रचित होलानाला मोर शिवा रचित प्रश्नोत्तररत्नमाला और दिवाकर मुनि (१५वी शती) नि निरूपण है। रचित शृगार वैराग्यतरगिणी विशिष्ट स्थान रखते है। संरकृत में प्राचार सम्बन्धी और प्रसगवश योग का पौराणिक काव्यों में रविषेण (ई० ६७६) कृत पद्यभी वर्णन करने वाला ग्रन्थ ज्ञानार्णव भी एक विशिष्ट पुराण, जिनसेन ( ई०७८३) कृत हरिवंशपुराण, सकलकोति ग्रन्थ है जिसके रचयिता थी शुभचन्द्र (१२वी शती) (वि० १४५०-१५१०) का हरिवणपुराण, शुभचन्द्र (१५५१ ई.) कृत पाण्डवाराण, मलवारी देवप्रभ ध्यान व योग सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों की रचना भी सूरिकृत पाण्डव चरित्र, जिनसेन तथा उनके जैन प्राचार्या ने की। पूज्यपाद कृत योगविषयक दो शिष्य गणभद्र (८-६वी शती) कृत महापराण (पादि संस्कृत रचनाएँ है - इष्टोपदेश, समाधिशतक । प्राचार्य पुराण उत्तर पूगण), हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टिशलाकापष हरिभद्र ने योगबिन्दुसमुच्चय मे जैन योग का विस्तार से चरित्र, पडित प्राशावर (१३४६-१४१४ ई०) कृत वर्णन किया है। हरिभद्र ने जैन परम्परा के योगसम्बन्धी महाप राणचरित विशेष उल्लेखनीय है। विचारो को कुछ नये रूप में प्रस्तुत तो किया ही है, साथ चरितकाव्यो को परम्परा में जटासिंह नन्दो (७-८ ही वैदिक व बौद्ध परम्परासम्मत योगधाराओ से उसका ई.) ने वराङ्गचरित, वीरनन्दी (ई० १०वी शती) मेल बैठाया है। योगदृष्टिसमुच्चय पर स्वय हरिभद्र कृत ने चन्द्रप्रभचरितम्, प्रसग (१०वी शती) ने शान्तिनाथतथा यशोविजयगणि कृत टीका प्राप्त है। यशोविजय जी चरित, वादिराज (१०वी शती) ने पार्श्वनाथचरित, ने योगसम्बन्धी चार द्वात्रिशिकार भी लिखी है। गुणभद्र महासेन (११वी शती) ने प्रदयुम्नचरित, हेमचन्द्र कृत प्रात्मानुशासन (हवीशती), अमितगति कृत सुभाषित- (१२वी शती) ने कुमारपालचरित, गुणभद्र द्वितीय रत्नसदोह (१०.११वी शती) तथा इन्ही की दूसरी रचना (१२वीं शती) ने धन्य कुमारचरित, धर्म कुमार(१३वी शती) योगसार है जिनमे नैतिक व प्राध्यात्मिक उपदेश भी है। ने गालिभद्र चरित, जिनपाल उपाध्याय ने सन्तकुमारचरित, प्रा. हेमचन्द्र (१२वी शती) कृत योगशास्त्र मे भी (अप्रकाशित), मलधारी देवप्रभ ने पाण्डवपरित व मृगा. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्राचार्यों द्वारा संस्कृत में स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन वती चरित, माणिक्यनन्दी सूरि ने पार्श्वनाथचरित् एक करके इस काव्य के प्रत्येक पद्य मे समाविष्ट कर सर्वानन्द प्रथम ने चन्द्रप्रभचरित व पार्श्वनाथचरित, विनय लिया गया है। मेघदत के अन्तिम चरणों को लेकर चन्द्र ने मल्लिनाथचरित, पार्श्वनाथचरित व मुनिसुव्रत- समस्यापूर्ति की जाने के तो उदाहरण प्राप्त होते है किन्तु चरित, मलघारी हेमचन्द्र ने नेमिनाथ चरित, चन्द्र तिलक सारे मेघदूत को वेष्टित करने वाला यह एक प्रथम व (वि० १३१२) ने अभय कुमारचरित, भावदेव सूरि ने अद्वितीय काव्य है। पाश्र्वनाथ चरित, जिनप्रभसूरि (वि० १३५६) ने श्रेणिक- कथासाहित्य के अन्तर्गत सिद्धपि कुन उपमितिभवचरित जैसे उत्तम ग्रन्थो की रचना कर सस्कृत-माहित्य प्रपचकथा, धनपाल कत तिलकम जरी, हेमचन्द्र कत की श्रीवृद्धि की। त्रिषष्टि शलाकापुरुप चरित, हरिषेण कृत वृहत्कथाकोष को इसके अतरिक्त, हरिचन्द्र का धर्म शर्माभ्युदय, वाग्भट विशिष्ट स्थान प्राप्त है। (१२वीं शती) का नेमि निर्वाण महाकाव्य तथा जन प्राचार्यों द्वारा लिखे गये मरकत नाटकों की प्रहंददास (१३वी शती) के मुनिसुव्रतमहाकाव्य का परम्परा मे १३वी शती के रामचन्द्र सूरि कृत निर्भय प्रणयन इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। भीमव्या योग, नलविलाम, कौमुदीमित्रानन्द, हस्तिमल्ल सन्देश काव्यों में विक्रम (ई०१३वी शती का अन्तिम कत विक्रान्तकौरव, सुभद्रा, मैथिलीकल्याण, अजनापवनचरण) का नेमिदत, मेरुतुंग (१४-१५वी शती ई०) का जय, गमभद्र कृत प्रबद्धरोहिणेय, यश पाल कुन मोहराजजैन-मेघदत, चरित्र सुन्दर गणि (१५वी शती) का । पराजय, जर्यासह सूरि कृत हम्मीरमर्दन, यशश्चन्द्र कृत शीलदूत, वादिचन्द्र मूरि (१७वी शती) का पवनदून, मुद्रितकुमुदचन्द्र, रत्नशेखरमरि कृत प्रबोधचन्द्रोदय, विनयविजय गणि (१८वी शती) का इन्द्रदूत, मेघविजय मेघप्रभाचार्य कृत धर्मारपुदय, नागदेव (१६वी शती) (१८वी शती) का मेघदूतसमस्यालेख, विमलकीति गणि कन मदनपराजय, वादिचन्द्र सूरि (१७वी शती) कत का चन्द्रदत उल्लेखनीय रचनाएं है। इन सन्देश काव्यो ज्ञान सूर्योदय कृतियों का नाम उल्लेखनीय है। में शान्तरस को अमृतधारा प्रवाहित होती है और पाठको सस्कृत अलकार व छन्द.शास्त्रसम्बन्धी कृतियों में को शाश्वत प्रानन्द प्रदान करने की क्षमना निहित है। वाग्भट (१२वी शती) कत वाग्भटालंकार, हेमचन्द्र जैन काव्य जगत् मे अनेकार्थक (सन्धान) काव्यो का (११वी शती) कृत काव्यानुशासन, परिसिंह (१३वी प्रवेश ई० ५.६ठी शती से हुआ । वसुदेव हिण्डो की चत्तारि शती) कृत काव्यकल्पलता, नरेन्द्र प्रभसूरि (वि० १२८२) अगाथा के १४ अर्थ तक किये गये है। ८वी शती मे महा- कृत अलंकारमहोदधि, हेमचन्द्र के शिष्यद्वय रामचन्द्र व कवि धनंजय का द्विसन्धान-महाकाव्य सर्वप्रथम सन्धान गुणचन्द्र कृत नाट्यदर्पण, अजितसेन (१४वीं शती) कन महाकाव्य है । ११वी शती के शान्तिराज कवि द्वारा पच- अलकार-चिन्तामणि, तथा अभिनव वाग्भट (१४वी शती) सन्धान महाकाव्य रचा गया, जो अभी अमुद्रित है। कृत काव्यानुशासन का स्थान सर्वोपरि है। प्रा० भावदेव मेघविजय उपाध्याय (१८वीं शती) का सप्तसन्वान सूरि (वि० १५वी शती) का काव्यालकाग्मार नामक ग्रन्थ महाकाव्य तथा हरिवत्तमरि (१८वी शती) का राघवन- भी अत्यन्त सरल व सरस है। पघीय भी उत्कृष्ट ग्रन्थ हैं। कई अनेकार्थक स्तोत्र भी काव्यप्रकाश पर माणिक्यचन्द्र की संकेता नामक टीका रचे गये । कवि जगन्नाथ (वि० १६६६) कत चतुर्विशति. और काव्यालकार पर नेमि साधु कृत टीका तथा काव्यसन्धान काव्य भी उल्लेखनीय है। कल्पलता पर श्री अमर मुनि की टीका भी विशिष्ट कृतियों पाश्र्वाभ्युदय नामक खण्ड काग भी सस्कृत साहित्य मे मानी जाती है। में अद्वितीय है। इसकी रचना जिनसेन स्वामी ने की थी। महाकवि धनंजय (ई० ८१३ से पूर्व) कृत नामइसकी विशेषता यह है कि महाकवि कालिदाम के माला, अनेकार्थनाममाला व अनकार्थ निघण्टु, हेमचन्द्र कृत मेघदत के जितने भी पद्य ह उन समी के चरणों को एक- अभिधानचिन्तामणि व अनेकार्थसंग्रह नामकोश व निघण्टु Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त कोश श्रीधरसेन (१३-१४ ई.) कृत विश्वलोचनकोश ज्योतिषपटल, श्रीधर' (दसवी शती का प्रन्तिम भाग) (मुक्तावलिकोश), जिनदतसूरि के शिष्य प्रमरचन्द्र कृत कृत गणितसार ब ज्योतिनिविधि, प्रज्ञातकर्तृक चन्द्रोएकाक्षरनाममाला नामक ग्रन्थ कोश-साहित्य की रचना मीलन, जिनसेनसूरि के पुत्र मल्लिषेण (ई० १०४३) कृत परम्परा मे विशिष्ट स्थान रखते है। पायसद्भाव, उदयप्रभदेव (ई० १२२०) कृत पारम्भव्याकरण साहित्य की रचना करने वाल जैन प्राचार्यों सिद्धि (या व्यवहारचर्या), पद्मप्रभसूरि (वि० १२९४) व विद्वानी में जनेन्द्र व्याकरण के रचयिता प्रा. देवनन्दी कृत भुवनदीपक, महेन्द्रसूरि (शक स० १२६२) कृत पूज्यपाव (ई० ४१३-४५५), जैनेन्द्र व्याकरण के परि- यन्त्रराज, हेमप्रभ (१४वी शती का प्रथम चरण) कृत बधित सस्करण के रूप मे रचित शब्दार्णव के रचयिता त्रैलोक्य प्रकाश नामक ग्रन्थ अनुपम महत्व के है गुणनन्दी (१०वी शती), शब्दार्णवचन्द्रिका के रचयिता भद्रबाहु के वचनों के आधार पर निर्मित भद्रबाहसोमदेव (शक स० ११२७) जनेन्द्रव्याकरण को महावृत्ति संहिता (६-६ शती के मध्य) भी जन ज्योतिषमाहित्य की के रचयिता अभयनन्दी (ई० ७५०), शाकटायनव्याकरण विशिष्ट कृति है। तथा अमोघवृत्ति के रचयिता प्राचार्य पल्यकोति (शक देश व विदेशों के विभिन्न ग्रन्थागारो और विशिष्ट सं ७३६-७८६), क्रियारत्नसमुच्चय के कर्ता श्रीगणरत्न व्यक्तियो के स्वामित्व मे विद्यमान समस्त ग्रन्थो और (ई. १३४३-१४१८), हेमशब्दानुशासन के रचयिता प्राचीन हस्तलिखित पण्डुलिपियो की गणना की जाय तो श्री हेमचन्द्र (१२वी शनी), तथा कातरूपमाला के जैन प्राचार्यो व विद्वानो द्वारा रचित सस्कृत कृतियो की रचयिता श्री भावचन्द्र पैवेद्य (१४वीं शती) के नाम संख्या एक लाख के पास-पास पहुच जाती है। भारत उल्लेखनीय है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे अप्रकाशित ग्रन्थों के गणित व ज्योतिष शास्त्र पर अनेक जैन प्राचार्यों व प्रकाशन में सहयोग दे और साथ ही उन समस्त ग्रन्थों विद्वानो ने अपनो लेखनी उठाई और संस्कृत साहित्य को की सूचिया (Catalogues) प्रकाशित करावे ताकि सभी अनुपम देन दी। ___तक प्रकाश मे न पाई कृतियो का परिचय विश्व के महावीराचार्य (ई० ८५०) कृत गणितसार मग्रह व अनुसधित्सुमो एवं विद्वानो को प्राप्त हो गके। 000 वेदों में अरिष्टनेमि भारत के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में भी भगवान अरिष्टनेमि की चर्चा मिलती है। वे भी वैदिक युग के महापुरुष थे। यजर्वद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि-इन तीनो तीर्थङ्करों के नाम मिलते हैं। यथा स्वास्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति न पूषा विश्वेवा। स्वस्ति न स्ताक्षयों अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बहस्पतिर्दधातु ॥ -ऋग्वेद १/६/८६/६, सामवेद ६/३ ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर अरिष्टनेमि को धर्मधरीण कहा है तं वां रथ वयमद्या हवेम स्तौ मैर शिवना सुविताय नव्यम् । अरिष्टनेमि परधामियानं विद्यामेषं वजनं जीरदानुम् ॥ - ऋग्वेद, द्वि अष्टक, २/४/१८१४१० १. डा० दत्त तथा सिंह के मत से श्रीधर का समय विद्वान ऐसे भी है जो महावीराचार्य के बाद श्रीधर ७५० ई. के लगभग है। दीक्षित का कहना है कि का होना मानते है। (द्रष्टव्य भारतीय ज्योतिष का श्रीधर महावीराचार्य के पहने हुए है । महावीराचार्य इतिहास-डा. गोरखप्रसाद, पृ० १८२-१९३) का समय दीक्षित जी ६५० ई. मानते है। कुछ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति की समृद्ध परम्परा ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व का समय अनेक वैचारिक कान्तियों से भरा था। सामाजिक एवं धार्मिक समस्याये प्रबुद्ध वर्ग को अनेक प्रकार से विचार करने के लिए प्रवृत कर रही थीं। यूरोप में इसके सूत्रधार थे पा गोरस, एशिया में कन्फ्यूशिस एव लाग्रोस जैसे महापुरुष । तब भारत में इसका नेतृत्व किया भगवान् महावीर स्वामी ने । अनेक विचारधाराएं I भारत मे उस समय तीन प्रबल विचार धाराये कार्य कर रही थी । देवतावाद, भौतिक समृद्धिवाद एव प्राध्यात्मिक वीतरागतावाद । पहली धारा वैदिक ऋषियो की उस आश्चर्य भरी दृष्टि की उपज थी जो उन्ह बादल, वर्षा, बिजली आदि में दिव्य शक्ति का अनुभव करा रही थी दूसरी धारा व्यावहारिक लोगो की थी जो चक्रवर्तित्व के सुखस्वप्न सजोती थी एवं तीसरी ग्रात्मज्ञानियों की थी जो समारको दुःखपूर्ण समझ कर मोक्ष के लिए इच्छुक थी । काल दोष के कारण इन तीनो ही धाराओं मे पथ भ्रष्टता आ गई थी । मास, मदिरा, मैथुन श्रादि फलनेफूलने लगे थे। स्त्री तथा निम्न वर्ग धम्याय के विशेष शिकार थे। पहली केवल भोग की वस्तु थी, दूसरा पशु से नीचा समझा जाकर स्पर्श के योग्य भी नही रहा था । जबकि एक वर्ग पृथ्वी का देवता माना जाने लगा था । रूदिवादी धोर सुधारक दोनों ही अपनी-अपनी जीत के लिए संघर्षरत थे । साधारण मनुष्य की चिंता कम लोगों को ही थी। उस समय एक तरफ वैदिक धर्म की रक्षा के लिए भास्कराचार्य शौनक एवं पाश्वलायन जैसे विद्वान थे तो दूसरी ओर नास्तिकतावाद या 'जड़वाद' के प्रबल समर्थक बृहस्पति एवं प्रजितकेश कम्बली प्रादि श्राचार्य सामने भा रहे थे । न्याय दर्शन के जन्मदाता गौतम ऋषि तथा सांख्य दर्शन के प्रवर्तक मशकरी आदि भी जीवन व जगत् गुत्थियों को सुलझाने के लिए प्रयत्नशील थे। तभी भगवान् महावीर धाये जिन्होने प्रचलित सभी विचारों का मंचन करके समन्वय एवं संशोधन का मार्ग " [ श्री जयन्ती प्रसाद जन, मुजफ्फर नगर पकड़ा, परन्तु प्रात्म-सुधार के साथ। यह विचारधारा तब भी ग्राहत, जिन, यति, वातरशना, व्रात्य तथा श्रमण संस्कृति के नाम से जानी जा रही थी। मगध तथा विदेह की जनता ने इस समन्वयी विचार धारा को आर्य धर्म या जैन धर्म के रूप मे स्वीकर किया तथा इसका प्रसार किया । स्वदेश में जैन धर्म का विस्तार : भगवान् महावीर के समय मे वैशाली के राजा चेटक, प्रदू (उडीमा ) के कुणिक, कलिंग (दक्षिण उड़ीसा) के जितशत्रु वत्म (बुन्देलखण्ड) के शताधीक सिंधु सौवीर के उदयन, मगध (बिहार) के बिसार तथा मागद (मंगूर ) के नाम राजा जीवन्धर के उल्लेखनीय है । प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पुरातत्वज्ञ स्वर्गीय गौरी शकर होन्द्र सोभा के अनुसार ऐतिहासिक युग मे सबसे पहले भगवान् महावीर की स्मृति में सम्वत् प्रचलित हुआ [प्राचीन लिपिमाला, पृष्ठ २-३ ] | विदेह के निच्छवि और मन के नाग, नन्द र मौर्य राजवंश, मध्य भारत के काशी, कौशल वत्स, श्रवन्ती तथा मथुरा के शासक, कलिग के सारखी राम्राट्, राजपूताने के राजपूत, उत्तर मे गान्धार, तक्षशिला आदि, दक्षिण में पाय, चेर, चोल, पल्लव, होयसल श्रादि तमिल लोग जैन धर्म के परम भक्त थे। भारत के सिधु पंजाब मालवा के निवासी इण्डोशोथियन (शक) प्रादि जैन धर्म से काफी प्रभावित थे |रा०बी०सी० वा हिस्टो रिकल ग्लीनिम, पृष्ठ ७८) भारत के प्रसिद्ध राजा मनेन्द्र ( Menendra) अपने अन्तिम जीवन मे जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे [ 'वीर' वर्ष २, पृष्ठ ४-६ ) । मथुरा के पुरातत्व से विदित होता है कि कनिष्क, दुविष्क और वासुदेव नामक शक राजाओं के राज्यकाल के जैन धर्म की मान्यता बहुत फैली हुई थी। मध्यकाल के राजपूताने के राठौर, परमार, चौहान, गुजरात एवं दक्षिण के गग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य, कलचुरि और होयसल राज वंशों का यह राजधर्म रहा । गुप्त, प्रांध्र घोर विजयनगर साम्राज्य काल मे भी इस पर शासकों की कृपा-दृष्टि रही । यही कारण है कि जैन धर्म मध्यकाल में श्रवणबेलगोल (मंसूर) और कारकल Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वर्ष २६, कि० १ की विशालकाय गोम्मटेश्वर की मूर्तियो, बाबू के मन्दिरों चीन के कीर्तिस्तम्भ तथा प्राचार्य समन्तभद्र सिद्ध सेन, पूज्यवाद, कलंक देव, विद्यानन्द, योग, जिनसे सोमदेव, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, हरिभद्र सूरि एवं प्राचार्य नेमिचन्द्र रचित साहित्य एवं दर्शन के अमूल्य ग्रन्थ रत्नों को जन्म दे सका । विदेशों में जैन धर्म का प्रसार 'महावंश' नामक बौद्ध ग्रन्थ [प्रो० व्हूलर, इण्डियन सेक्ट ग्राफ दी जंन्स, पृष्ठ २७] से प्रकट है कि ४३७ ई० पूर्व में सिंहलद्वीप के राजा ने अपनी राजधानी अनिरुद्धपुर में जैन मन्दिर और जैन मठ बनवाये थे । वे चार सौ वर्ष के लगभग रहे । भगवान् महावीर के समय से ईसा की पहली सदी तक मध्य एशिया अफगानिस्तान, ईरान, इराक, फिलिस्तीन, सीरिया आदि के साथ साथमध्य गागर के निकटवर्ती यूनान मिश्र, इथोपिया और एबीगीनिया आदि देशो मे जैन साधु देव सम्पर्क करते रहे। यूनानी लेखकों के कथनानुसार पागोरस पैरहो. डायजिनेस जैसे यूनानी तस्यवेत्ता न भारत झाकर जैन साधुमों से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी। मौर्य सम्राट् अशोक के पोते सम्राट् सम्प्रति ने अनेक जैन साधुयों को अनार्य देशों में जैन धर्म के प्रचारार्थ भेजा था। जैसे सिकन्दर के साथ कल्याण साधु गये थे । देखिये (i) हिस्टोरिकल ब्लोग्स डा० मिताचरण था। (ii) 'विश्व वाणी', अप्रैल सन् १९४२, पृष्ठ ४६४ / (iii) 'एहियाटिक रिसचेंज' वाल्यूम ३-६, सर विलियम जोन्स | (iv) 'एन्सीयन्ट इण्डिया' मेवेस्थनीज । (v) 'दिगम्वरत्व और दिगम्बर मुनि', स्व० डा० कामताप्रसाद जैन । जैन धर्म और ईसाई धर्म ईसाई धर्म श्रमण संस्कृति का ही यहूदी सस्करण माना जाता है। इतिहास बेताबों के अनुसार, महात्मा ईसा कुमार काल मे भारत प्राये थे। बहुत दिनो तक वहाँ रहकर जंग श्रमण और बौद्ध भिक्षुओं की संगति का लाभ लेकर नेपाल व हिमालय केमार्ग से ईरान चले गये थे यहां । से स्वदेश पहुंच कर उन्होंने "धारमा परमात्मा की एकता" और "मर दिव्य जीवन" का उपदेश दिया। यह उपदेश यहूदी संस्कृति से सम्बंधित न होकर भारत की धमण संस्कृति से सति है। [देखिए पण्डित सुन्दरलाल जो लिखित "हजरत ईसा और ईसा धर्म ] । बनेका जैन धर्म और बौद्ध धर्म : जैन ग्रन्थों के अनुसार, भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा मे एक साधु पिहिता ने जैन दीक्षा छोड़कर बौद्ध धर्म चलाया था। बौद्ध एवं अन्य साहित्य से स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध ने साधु जीवन के प्रथम वर्षो में अन्य सम्प्रदायोक्त धाचरण किया था। बौद्ध साहित्य के अनेक शब्द जैनसाहित्य से लिए गये है। उपदेश भी जैन उपदेश के समान ही हैं। (देखिये 'जैनबोद्ध तत्वज्ञान' ब्रह्म० शीतल प्रसाद ) । जैन धर्म और हिन्दू धर्म वैदिक धर्म का परिवर्तित रूप ही प्राजकल हिन्दू धर्म कहलाता है। यह बतानों मे जैन धर्म का ऋणी है । लोकमान्य तिलक के सन् १९०४ में बड़ौदा मे दिये गये एक भाषण के अनुसार वेदोक्त यज्ञादि की हिसा जैन धर्म के कारण बन्द हुई है। पुरातत्वज्ञ श्री श्रीभाजी की 'मध्य कालीन भारतीय सस्कृत, पृष्ठ ३५ के अनुसार भगवान महावीर उत्तरकाल में हिन्दू स्मृतिकारी तथा पुराणकारी ने जितना पाचार सम्बन्धी साहित्य लिया उसमे नरमेध, प्रश्वमेध' पशुबलि तथा मास माहार को लोक विरुद्ध होने से त्याज्य बताया है । देखिए - याज्ञवल्क्य स्मृति, १ - १५६, 'वृहन्नारदीय पुराण', २२, १२, १६ । 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति' के अनुसार, २४ तीर्थकरों के समान २४ अवतारों की कल्पना हुई। क्रियाकाण्डी माहित्य के स्थान पर प्राध्यात्मिक एवं भक्तिपरक ग्रन्थो, गीता, रामायण योगवाशिष्ठ, ब्रह्मसूत्र आदि को प्राधान्य मिला इन्द्र व धग्निप्रादि वैदिक देवताओ के स्थान पर राम एवं कृष्ण जैसे ऐतिहासिक कर्मठ राजनेताओं को महिमा प्राप्त हुई। जैन समाज पर भी हिन्दू समाज के अनेक रीति रिवाजों का प्रभाव है । भाषा, कला और साहित्य : जैन धर्म जब जब जिस-जिस देश में प्रचलित रहा, वह उन्ही की बोलियों में उपदेश देता रहा। भगवान् महावीर ने अपना उपदेश लोकभाषा में दिया, सस्कृत में नहीं जैन । धर्म के अनुसार ईश्वर की कोई एक भाषा नहीं है हिन्दी की उत्पत्ति तथा विकास का शान जैन अपभ्रंश साहित्य के ज्ञान अध्ययन से भली-भांति प्राप्त किया जा सकता है । जैन साहित्य मे धार्मिक, नैतिक एवं दार्शनिक प्रत्यों के प्रतिरिक्त मन्त्र तन्त्र, प्रायुर्वेद, वनस्पति, वास्तु, मूर्ति, चित्र, शिल्प एवं संगीत कला के ग्रंथों से जैन साहित्य भरपूर है। 00 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य समीक्षा भगवान महावीर स्मति-प्रन्थ-प्रधान संपादक-डा. ज्योति प्रसाद जैन, अन्य संपादक-पं० लाशचन्द्र शास्त्री, जवाहर लोढ़ा, शरद कुमार, डा. मोहनलाल मेहता । प्रकाशक : श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश, लखनऊ । भाकार क्राउन १/८, सजिल्द पृष्ठ लगभग ४५०, मूल्य पचास रुपये, १६७५ ।। प्रस्तुत ग्रन्थ मात खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड मे "भगवान महावीर की सूक्तियो' का सानुवाद संकलन है। द्वितीय खण्ड में 'भगवान महावीर की स्तुति, उनसे सम्बन्धित स्तोत्र-स्तवन' इत्यादि कालक्रमानुसार दिए गए हैं। ततीय खण्ड के अन्तर्गत 'भगवान महावीर का युग, जीवन और देन' है। इस खण्ड मे उदभट मनीषियों के शोधपूर्ण लेख है, जिनमें से उपाध्याय मुनि श्री विद्यानद जी, प्राचार्य श्री तुलसी, सन्त विनोबा भावे, प्राचार्य श्री रजनीश, श्री पगरचन्द नाहटा, श्री दलसुख मालवणिया प्रादि के लेख विशेष उल्लेखनीय है। चतुर्थ खण्ड मे 'जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति' विषयक विवेचन है जिसमें सर्वश्री पं० कैलाश चन्द शास्त्री, डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, डॉ० दरबारी लाल कोठिया, मुनि श्री नथमल, डॉ. प्रभाकर माचवे मादि १६ विद्वानो के लेख है। पचम खण्ड 'शाकाहार' के विषय में है। छठे खण्ड मे 'उत्तर प्रदेश मे जैन धर्म' सम्बन्धी सामग्री विद्यमान है, जिसमें वहाँ के तीर्थो, मन्दिरों, प्राचीन शिलालेखों, चित्रकलाकृतियो, साहित्य एवं वर्तमान सस्थानों का वर्णन किया गया है। सातवें खण्ड (अन्तिम खण्ड) मे 'महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश के गठन, कार्यकलाप एवं उपलब्धियों विषयक विवरण है। इसी क्रम में मूर्तियों, मायागपटों, शिलालेखों आदि के अनेकानेक चित्र मुद्रित है। मूर्तियों, पायागपटो तथा शिलालेखों के काल प्रादि अनिर्दिष्ट है, इन्हे दिया जाना चाहिए था। इस बहुबिध सामग्री से ग्रन्य की महत्ता तो बढ़ी ही है वह अधिक उपादेय, सकलनीय और प्रवलोकनीय भी बन गया है। कुल मिलाकर यह स्मृति प्रथ सर्वथा सुरुचिपूर्ण एव सुसंगत सामग्री में सम्पन्न है।। सम्पादक एव प्रकाशक इस सर्वांगपूर्ण प्रकाशन के लिए बधाई के पात्र है। -गोकुल प्रसाद जैन (सम्पादक) वीर निर्वाण संवत् तथा कलियुग संवत, महाभारत संवत या यधिष्ठिर संवत वीर निर्वाण संवत् से अधिक प्राचीन केवल एक और सवत् का उल्लेख मिलता है जो महाभारत काल अथवा युधिष्ठिर कान अथवा कलियुग मवन के नाम से ज्ञात हग्रा है। इसका उल्लेख बीजापुर जिले में म्धिन ऐहोने नामक ग्राम के एक प्राचीन जैन मन्दिर के शिलालेख में पाया जाता है (डा०रा०ब पाडेय : हिस्टॉ० एण्ड लिट. इस्क्रिप्सन न० ५.) । उक्त शिलालेख के अनुसार, उस जैन मन्दिर का निर्माण रवितीति ने उस समय कराया जब महाभारत युद्ध से लेकर कलिकाल के ३.५ वर्ष तथा शक राजामो के काल, अर्थात शक सवत के ५५६ वर्ष व्यतीन हो गये थे; अर्थात् महाभारत युद्ध ईसा पूर्व ३१०१ मे हुमा था। बृहत्संहिता (१३, ३) और राजतरगिणी में युधिष्ठिर का राज्यकाल २३४६ ईसा पूर्व माना गया है। माधुनिक विद्वानो के लिए महाभारत काल की उपर्युत दोनो अवधिया विचारणीय हैं। पीटर पुराणों मे उल्लिखित राजवशावलियो से गणना कर इस काल को ई०पू० ६५० वर्ष सिद्ध करते है। डा० पुमलकर ने इसे ई० पू० १४०० स्थिर किया है। किन्तु राजवंशावलियो के साथ गणना करते हुए विद्वानों ने अनुमानों का पर्याप्त महारा लिया है। पौराणिक अशावलियों का साक्ष्य-विष्णु पुराण मे तीन वशानियां ऐसी है जिनमे महाभारत काल से वर्धमान तीर्थकर तक प्रविच्छिन्न रूप से नरेशों के पिता-पुत्र क्रम से नाम मिलन है। ये वश है कुरू, इक्ष्वाकु और मागध । इन वशावलियों का विशद विवेचन करने पर महाभारत का काल १००० वर्ष ई० पूर्व मानना उचित प्रतीत होता है । तब ऐहोले जैन मन्दिर के शिलालेख के काल मे २१०१ वष की अतिशयोक्ति प्रश्न चिह्न उपस्थित करती है। यह शिलालेख अपुष्ट तो है, किन्तु प्राचीन काल की महत्वपूर्ण युगस्थापक घटना का संकेतचिह्न भी है। -निज्म एजेन: गहीरालाल जैन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 10591 62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन नवाक्य-सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्यों को पचानुक्रमणी, जिसके साय ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पच-चाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व को ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) भोर डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५... प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की मवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की मनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगल. किशोर मुस्तार की महत्त्व को प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। १.५० पक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, ममन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हमा था। मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । १-२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... " ३-६० नग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । अध्यात्मरहस्य : पं प्राशाघर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनप्रन्ध-प्रशस्ति संग्रह भा० २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचम पौर परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १२.०० पाय-वीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० बम साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द । कसायपासुत: मूल ग्रन्थ की रचना पाज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में पनवाद बडे पाकार के ३००१. परकी जिल्द नधि -रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ५.०० ध्यान शतक ज्यामस्तव सहित : संपादक पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०० भावक धर्म सहिता : श्री बरयाबसिंह सोषिया न लक्षणावली (तीन भागों में) : (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५.००; द्वितीय भाग २५-०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Under print) प्रकाशक-दीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमारिक शोध पत्रिका अनेकान्त । वर्ष २६ : किरण २ अप्रेल-जून १९५६ . परामर्श-मण्डल श्री यशपाल जैन डा०प्रेमसागर जैन ach PICAS H amar र F NEMA SAMRAT. RSSIP S : AAR सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए, एल-एल.बी., साहित्यरत्न स M Dail. M and प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- विषय सूची विषय १. श्री पुरुदेव स्तुति २. जैन धर्म मे शक्ति पूजा-डा० सोहनकृष्ण पुरोहित, जोधपुर ३. गोम्मटेश्वर बाहुबली पं० परमानद शास्त्री, दिल्ली १६ ४. भगवान महावीर की सर्वज्ञता डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, सोमय ५. प्राचीन जैन तीर्थं श्री राता महावीर जी - श्री भूरचन्द जैन, बाड़मेर ६. अनेकान्त डto शोभनाथ पाठक, मेघनगर ७. मानवीय समुन्नति का प्रशस्त मार्ग विनय पं० विमलकुमार जैन सौरया, महावरा ८. मालवा की नवीन अप्रकाशित जैन प्रतिमानों के अभिलेख - डा० सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जैन ८६ ६. पूजा : मूर्ति की नही, मूर्तिमान की - उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द १०. कविवर जगतराम व्यक्तित्व और कृतित्व-श्री गोकुलप्रसाद जैन, नई दिल्ली ६४ 'मनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज दिल्ली- ६ -- - पृ० ६५ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६ ) रुपया एक किरण का मूल्य १ का २५ पैसा प्रकाशक ७७ प्रकाशन भवधि - त्रैमासिक मुद्रक-प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर के मिमित श्री सोमप्रकाश जैन - वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणा प्र — ८३ ८५ ८७ राष्ट्रिकता - भारतीय पता- २३, दरियागंज, दिल्ली-६ सम्पादक - श्री गोकुल प्रसाद जैन राष्ट्रिकता - भारतीय ३, रामनगर, नई दिल्ली- ५५ स्वामित्व वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियाद दिल्ली-६ मैं ओमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है । श्रोमप्रकाश जैन प्रकाशक स्थापित १६२६. वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागज, दिल्ली वीर सेवा मन्दिर उत्तर भारत का प्रग्रणी जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व एव दर्शन शोध संस्थान है जो १६२६ से अनवरत प्रपतं पुनीत उद्देश्यों की सम्पूर्ति में सलग्न रहा है। इसके पावन उद्देश्य इस प्रकार है :-- जैन-जनेतर पुरातत्व सामग्री का सह, सकलन और प्रकाशन । प्राचीन जन-जनेतर ग्रन्थों का उद्धार । लोकहितार्थ नव साहित्य का सृजन प्रकटीकरण धोर प्रचार | 'अनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के आचार-विचार की ऊँचा उठाने का प्रयत्न 000 जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञानविषयक ध सवानादि कार्यो का प्रसाधन और उनके प्रोत्तेजनार्थं वृत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि का प्रायोजन । विविध उपयोगी सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं अंग्रेजी प्रकाशनों; जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान दिपक शोध अनुसंधान सुविधान एवं निरन्तर प्रवर्धमान पन्थागार; जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरा तत्व के समर्थ अग्रदूत 'श्रनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन एवं अभ्य अनेकानेक विविध साहित्यिक और सांस्कृतिक गति विधियों द्वारा वीर सेवा मन्दिर गत ४६ वर्ष से निरन्तर सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है । यह संस्था अपने विविध क्रिया-कलापों में हर प्रकार प्रापका महत्वपूर्ण सहयोग एवं पूर्ण प्रोत्साहन पाने की अधिकारिणी है। धतः मापसे सानुरोध निवेदन है कि :१. वीर सेवा मन्दिर के सदस्य बनकर धर्म प्रभावनात्मक कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान करें। २. बीर सेवा सन्दिर के प्रकाशनों को स्वयं अपने उपयोग के लिए तथा विविध मागलिक अवसरों पर अपने प्रियजनों को भेंट मे देने के लिए खरीदें। ३. त्रैमासिक शोध पत्रिका 'अनेकान्त' के ग्राहक बनकर जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरातत्व के शोपानुसन्धान में योग दें । ४. विविध धार्मिक, सांस्कृतिक पक्ष एवं दानादि के व सरों पर महत् उद्देश्यों की पूर्ति में वीर सेवा मन्दिर की प्रार्थिक सहायता करें | - गोकुलप्रसाद जैन (सचिव) अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। - सम्पादक - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २६ किरण २ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण सवत २५०२, वि० म० २०३२ अप्रैल-जन १९७६ श्री पुरुदेव स्तुति अभक्त्वा यं नैव व्रजति कृतपुण्योऽपि कुशम्, कठोरः पाशोऽय भवति बलवान् कर्मजनितः । इतिवार्ध वर्ष क्षधित इव बभ्राम भवन, श्रिये जायेतासौ प्रथमजिनदेवः पुरुप.तः ॥५॥ भावार्थ-कर्मपाश बहुत दृढ़ होता है । पुण्यवान् भी तत्कर्म फल निबेरे विना कुशल को प्राप्त नहीं कर पाता; मानो, यही सूचित करते हुए जो प्राधे वर्ष प्रमाण समयावधि क्षधित रहकर भुवन में विहार करते रहे, वह प्रथम जिनेश्वर श्री पुरुदेव श्री वृद्धिक र हों। प्रभो! स्वामिन ! नाथ! त्रिभवनपते! मुक्तिकमलापरिष्वंगश्लाघ्य ! स्वसयम । निजात्मैंकरसिक ।। सहस्त्राच्छच्छन्दः स्तुतिशिखरिणी यस्य विमला श्रियं जायेतासो प्रथमजिनदेवः पुरुपतिः ॥८॥ भावार्थ-हे प्रभो ! हे स्वामिन ! हे नाथ ! हे त्रिभवनपते ! हे मुक्तिलक्ष्मी समालिगन से श्लाघनीय ! स्वसमय ! हे अपने प्रात्मा में एकमात्र ध्यानस्थ ! इत्यादि सहस्त्रों प्रच्छे छन्दोवाक्यों से जिनकी स्तुतिशिखरिणी का विमलज्ञान किया जाता है वह प्रथम जिनेन्द्र भगवान् श्री पुश्वेव श्री वृद्धिकारक हों। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में शक्ति पूजा 1 डा. सोहनकृष्ण पुरोहित, जोधपुर भारत में शक्ति पूजा सिन्धु घाटी की सभ्यता (लग प्रणाली को ज्यो का त्यों स्वीकार कर लिया है। प्राचार्य भग २५००-१७०० ई० पू०) के समय ही प्रारम्भ हेमचन्द्र सूरी ने ध्यान के चार स्वहा बतलाये है पिण्डस्थ हो चुकी थी । लेकिन उसका पूर्ण विकास पौराणिक युग गिदस्थ, रूपस्य और रूप वर्जित । जिस ध्यान का पालम्बन में हुमा। वैदिक साहित्य में भी सविता प्रादि देवियों का दण्ड मे हो, उसे पिण्डस्य ध्यान, जिसमें शब्द ब्रह्म के उल्लेख पाया है। जैन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि वर्णपद वाक्य के ऊपर रचित भावना करनी हो उसे पदाय भारत मे जैन धर्म का उदय सैन्धव युग मे ही प्रारम्भ हो ध्यान, जिसमे ग्राकार की भावना करनी हो उसे रूपस्थ ध्यान चुका था, लेकिन उसे जनता मे फैलाने का कार्य भगवान और निराकार पाहम चिन्तन को रूप वजित ध्यान कहते महावीर ने छठी शती ई० पू० मे किया ।' प्रारम्भ मे है। पिण्डस्य ध्यान मे स्वय को कल्याणगुण युक्त मानने जैन और शाक्त धर्म में कर्मकाण्ड का प्रभाव था और वाले मन्त्र मण्डल को निम्न शक्तिया; शाकिनी और ये दोनों धर्म अत्यन्त सरल थे लेकिन परवर्ती काल मे योगिनिया प्रभावित नहीं कर सकती। पदस्थ ध्यान विधि शाक्तधर्म मे तन्त्रवाद का उदय हा जिसने लगभग सभी में हिन्दुप्रों की मन्त्र शास्त्र पद्वति को स्वीकार कर लिया भारतीय धर्मों को प्रभावित किया। जैनधर्म भी तन्त्र- प्रतीत होता है। जिसका वर्णन इस प्रकार है;-नाभि वाद के प्रभाव से अधुरा नही रह सका । जिस प्रकार स्थान में सोलह दली में षोडस स्वर मात्राएँ, हृदय स्थान शाक्त-धर्म का तंत्र सम्बन्धी विस्तृत साहित्य मिलता है में चौबीस दलों में मध्य कणिका के साथ में पच्चीस अक्षर उसी प्रकार जैन धर्म मे भी तन्त्रो और मन्त्रों की कमी और मूल पंकज मैं अ, क, च, ट, त,ह, य, श, आदि नहीं हैं। वर्णाष्टक बनाकर मातृका का ध्यान किया जाय । जो पिछले वर्षों में मुझे कुछ जैन मन्दिरों के दर्शन का व्यक्ति मातृका ध्यान को सिद्ध कर लेता है उसे नष्ट लाभ मिला। अपनी यात्रा के दौरान जब में रणकपुर पदार्थों का स्वतः भान हो जाता है। इसके पश्चात् नाभिजन मन्दिर देखने पहुंचा तो गर्भ गृह के द्वार के निकट स्कन्द के नीचे अष्ट दल पद्म की भावना करके उसमें एक देवी प्रतिमा देखने को मिली जिसे सरस्वती की वर्णाष्टक बनाकर प्रत्येक दल की सन्धि में माया प्रणव प्रतिमा मानकर पूजा की जाती है। उस समय मेरे मन के साथ 'अर्हत्' पद बनाकर हुस्व, दीर्घ, प्लुत उच्चार से मे यह विचार उठा कि जैन मन्दिर में सरस्वती प्रतिमा नाभि, हृदय, कंठ प्रादि स्थानो को सुषुम्ना मार्ग से अपने कैसे ? इसलिये मैंने इसी प्राशय से जैनग्रन्थों एवं पत्र जीव को उर्ध्वगामी करना चाहिये जिससे अन्तरात्मा का पत्रिकामों का अध्ययन प्रारम्भ किया। इनमें कुछ सामग्री में नारी शोधन होता है ऐसा विचार करें। तत्पश्चात् षोडशदल मिली और ऐसा लगा कि जैन धर्म भी शाक्त विचारधारा ब्रह्म में सुधाप्लावित अपनी अन्तरात्मा को सोलह विद्या से प्रभावित है। क्योकि यदि जैन शासन मे तीर्थडुर देवियो के साथ सोलह दलों में बिठाकर स्वयं को अमृतविषयक ध्यान-योग का अध्ययन किया जाय तो ज्ञात भाव मिल रहा है ऐसा सोचे । अन्त मे ध्यान के प्रावेश होता है कि जैन प्राचार्यों ने हिन्दुओं को मंत्र-शास्त्र में 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' शब्द से अपने को प्रर्हत् रूप में १. मजूमदार तथा पुसाल्कर, वैदिक एज, पृ० १८६-७ २. वही। ३. मार्डन रिव्यू, जुन १९३२. ४. हेमचन्द्र, योगशास्त्र, सप्तम प्रकाश, २ लोक २७-२८ तथा मष्टम प्रकाश में श्लोक ५। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में शक्ति पूजा बनुभव करने के लिये मूर्धा में प्रयत्न करें। इसके पश्चात् होकर मूर्धा में प्राकर निवास करती हैं उस समय विद्या अपनी प्रात्मा को, उस परमात्मा को जो रागद्वेष से मुक्त रहित मनुष्यों की जिह्वा रूपी नाली पर कवित्व का अमृत हैं. जो सर्वदर्शी है, जिसे देवता भी नमस्कार करते है ऐसे बहने लगता है।' धर्म देश को करने वाले महत् देव के साथ एक भाव से जैन धर्म में सरस्वती का महत्वपूर्ण स्थान है । इसका देखे । जो इस कार्य को सफलता पूर्वक कर लेते है वे प्रमाण कुषाण कालीन जैन शिल्प की सरस्वती प्रतिमा पिण्ड स्वभाव को सिद्ध हुए समझे जा सकते है। यह है। प्रभिधान चिन्तामणि नामक ग्रन्थ मे सरस्वती के विवरण हिन्दुनो की षट्चक्रवेध पद्धति पर आधारित है । भनेक रूपों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वाग, हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र नामक ग्रन्थ मे ध्यान योग ब्राह्मी, भारती, गौ, गीगणी, भाषा, सरस्वती श्रुत देवी, की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "ध्यान से योगी वीत- वचन, व्यवहार, भाषित भौर वच्स् इन सभी को एक राग हो जाता है ।" उन्होंने अनेक मन्त्रों में तो हिदुओं दूसरे से प्रभिन्न समझना चाहिये।' इसी प्रकार हरिवंश के बीजाक्षरो को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है। पुराण मे भी सरस्वती का उल्लेख मिलता है। इस प्रथ शाक्त सम्प्रदाय मे सरस्वती के रूप में दुर्गा की उपा- में सरस्वती को लक्ष्मी के समान मांगलिक देवी माना सना की जाती है । दुर्गा सप्तशती मे कहा गया है कि गया है । "तिलोय पण्णत्ती' मे सरस्वती को श्रृतदेवी स्वहस्त कमल में घंटा, त्रिशूल, शख, मूसल, चक्र, धनुष, कहकर पुकारा गया है। और बाण को धारण करने वाली, गौरी देह से उत्पन्न, जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों त्रिनेत्रा, मेधास्थित चन्द्रमा के समान कान्ति वाली संसार में 'सरस्वती देवी को श्रद्धा की दृष्टि से देखा गया है । की प्राधार भूता, शुम्भादि दैत्य मदिनी, महासरस्वता यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूर्ति शिल्प में ही इसका को हम नमस्कार करते है । सरस्वती को 'सरस' को उल्लेख मिलता है। दिगम्बर सम्प्रदाय मे तो हमे तीर्थअधिष्ठात्री देवी माना गया है । वह गति प्रदान करने कूरो, सर्वतो भद्रिका प्रतिमानों, सहस्रकूट जिनालयों, वाली, मस्तिष्क के अन्धकार को दूर करके ज्ञान से प्रका- नन्दीश्वर जिनालयो, ममवसरण जिनालयो, मादि को शित करने वाली देवी है । समस्त देवों और मनुष्यो को परम्परा के अलावा विद्या देवियो, प्रष्ट मातकायो, बुद्धि प्रदान करने वाली सरस्वती को ही माना गया है। क्षेत्रपाल, सरस्वती पोर नव गृह की भी मान्यता है । जैन धर्मावलम्बियो ने सरस्वती की उपासना को प्रत्यक्ष जैन धर्म मे १६ विद्या देवियो के समूह की भी कल्पना रूप से अपने धर्म का अंग मान लिया है। बाल चन्द्र को गई है, जिनके नाम है . रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृखला सूरी के वसन्त विलास महाकाव्य मे कहा गया है कि वज्रांकुशा, जाम्बूनदा, पुरूषदत्ता, काली, महाकाली, चित्त रूपी चचलता त्यागकर तथा प्राणादि पंच वायु के (या वैरोट्या,) गोरी गान्धारी, ज्वाला, मालिनी, व्यापार को स्तम्भित करके मूर्या प्रदेश मे जो स्थिर मानवी, वैरोटी' अच्युता" मानसी, पोर महामानमी । शोभावाली सरस्वती का तेजो मण्डल देखते हैं उस ज्योति- कही कहीं इन विद्या देवियों के कुछ भिन्न नाम भी मण्डल की हम उपासना करते है। सुषुम्ना नाडी रूपी मिलते है, जैसे रोहिणी, प्रज्ञप्ति, बज्रशृखला, कूलिशाबादली सरस्वती के तेजोमय जब बिजली के दण्ड से भेदित कुशा, चक्रेश्वरी, नरदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, १. हेमचन्द्र, पूर्वो० प्रष्टम प्रकाश । ६. अभियान चिन्तामणि, (देवकाण्ड द्वितीय)-वकेश्वरी २. वही । ७. वही, महापग; प्राचार दिनकर (उदय ३३) मे भी ३. बसन्त विलास, १, ७०-७३ । यही नाम मिलता है। ४. वाग ब्राह्मी भारती गौगीर्वाणी भाषा सरस्वती, श्रुत ८. निर्वाण कलिका-ज्वाला देवी वचनं तु व्याहारो भाषितं वचः ।। ६. निर्वाण कलिका-रोट्या ५. हरिवंश पुराण, ५६, २७ । १०. निर्वाण कलिका-प्रच्छ प्ता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त गान्धारी, सर्वस्त्रा, महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या मछुप्ता अनन्तागति, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपरा ज्वालामालिनी, महाकाली, मानवी, गौरी, गान्धारिका, जिता, बहुरूपा, आम्बिका, पद्मावती, सिद्धदायिका । विराटा, तारिका, (अच्यता,) मानसी और महामानसी। 'प्राचार्य दिनकर,' 'प्रतिष्ठा सारोद्वार,' पौर प्रतिष्ठा यदि उपर्युक्त तालिकाओं का ध्यान पूर्वक अध्ययन किया तिलक' प्रादि ग्रन्यों में इनके नाम कुछ परिवर्तन सहित जाय तो ज्ञात होता है कि जैन धर्मावलम्बियों ने विद्या दिये गये है । यद्यपि जैन ग्रन्थों में यक्षियों को शासन देव देखियो के नाम से शाक्त सम्प्रदाय की देवियों को अपने समूह के अन्तर्गत रखते हुए उन्हें भिन्न भिन्न नामों से धर्म ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। पुकारा गया है। लेकिन हमारी धारणा है कि उपयुक्त जैनधर्म के प्रतिष्ठा शास्त्रों में यक्ष और यक्षियों ग्रन्थों में उद्धृत लगभग सभी नाम शाक्त सम्प्रदाय की को शासन रक्षक देवता अथवा शासन देवता स्वीकार देवियों के है और बचे हुए नाम काल्पनिक है। जैन ग्रन्थों किया गया है। प्रारम्भिक जैन शास्त्रों में शासन देव. मे 'शासनदेवो' के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को स्वीकार नही नामो को तीथंडूरों का सेवक - मानकर उनके प्रति श्रद्धा किया गया है लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि प्रकट की गई है। प्राचार्य सोमदेव, प्राचार्य नेमीचन्द्र गुप्तकाल के पश्चात् जैन धर्मावलम्बियो की साधना विधि और पपाशापर ' ने यक्ष-यक्षियों की शासन देवता स्वी- मोर पूजा पद्धति पर शाक्त सम्प्रदाय का चाहे वह अत्यल्प कार किया है : यद्यपि उपयुक्त विद्वान इस मत से सहमत ही क्यो न हो कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा। इसलिये जैन नही थे कि लौकिक कामना की पूर्ति हेतु शामन देवता प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थों में सरस्वती तथा देवियो के नामो की उपासना की जाय । फिर भी दिगम्बर सम्प्रदाय के और व्यक्तित्व को महत्व प्रदान किया है। कुछ भट्टारकों और श्वेताम्बर परम्पग के कुछ प्राचार्यो की रुचि मन्त्र और तन्त्र में विशेष रूप से थी। लेकिन इस सबन्ध मे एक अन्य प्रमाण की भी चर्चा की जा इतना सब कुछ होने पर भी शासन देवतामों को तीर्थडुर सकती है। साधारणतया जैन मन्दिरी के द्वार के निकट की श्रेणी कभी भी प्राप्त नहीं हुई । 'भैरव' की प्रतिमा स्थापित करने की परम्परा है। कई जैन ग्रन्थो मे शासनदेव के रूप में बहुत सी यक्षणियो बार भैरव की प्रतिमा के स्थान पर उनकी पूजा का स्थान का उल्लेख मिलता है । यद्यपि जैन ग्रथ उनके नामो के भी निर्धारित होना पाया जाता है। हम जानते है कि सबन्ध में एक मत नही हैं । "तिलोय पण्णन्ती' के अनुसार शाक्त सम्प्रदाय में भैरव का दुर्गा से निकट का सम्बन्ध शासन की रक्षा करने वाली यक्षियो के नाम इस प्रकार माना जाता है। अब यदि भैरव को किसी तरह जैन धर्म है-चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वच” खला, वज्र कुशा से सम्बन्धित कर भी दिया गया है तो भी उनका मूल प्रप्रति, चक्रेश्वरी, पुरूषदसा, मनोवेगा,काली, ज्वाला व्यक्तित्व बदलना कठिन है। इस प्रकार संक्षेप में कहा मालिनी, महाकाली, गौरी, गान्धारी, रोटी, अनन्तमती, जा सकता है कि जैन धर्म शाक्त मत से कुछ प्रशो में मानसो, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बह- प्रभावित प्रवश्व हुअा है। रुपिणी, कुष्माण्डी, पना और सिद्धदायिनी। अपराजित खाडा कलसा, छोटे गणेश जी पृच्छा' के अनुसार उनके नाम है,-चक्रेश्वरी, रोहिणी, के मन्दिर के पास जोधपुर प्रज्ञा, वज्र” खला, नरदत्ता, मनोवेगा, कालिका, कारिका, (राजस्थान) ८. सागारधर्मामृत, ३, ७ ६. उप सकाध्ययन, ३६, ६६८ ७ प्रतिष्ठा तिलक। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली D५० परमानन्द शास्त्री, दिल्ली . बाहुबली ऋषभदेव के पुत्र थे। उनकी माता का नाम नहीं रुका, वह मेरे घर के द्वार पर प्राकर क्यों रुक सुनन्दा था। यह चौबीस कामदेवों में से प्रथम कामदेव गया ? क्या मेरे साम्राज्य में अभी शत्रु मौजूद हैं जो मेरे थे। इनकी शरीर की ऊंचाई सवा पांच से धनुष थी। वश में ही नहीं हुमा। ऐसा कोई व्यक्ति है जो मेरे शरीर बलिष्ठ और भुनाए लम्बी थी। इससे इनका उत्कर्ष को नही सह रहा है। चक्ररत्न विना किसी कारण दूसरा नाम भुजवली और दौर्बली भी था। इनके ज्येष्ठ के नहीं रुक सकता। तब पुरोहित ने कहा, नगर के द्वार भ्राता भरत का शरीर भी वलिष्ठ और सुन्दर था, उनके पर चकरल रुकने से जान पड़ता है कि कुछ का विजय शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष थी। विद्या, कला, कान्नि करना शेष है। यद्यपि प्रापने बाहर के सभी शत्रुपों को और दीप्ति मे बाहुवली भरत के ही समान थे। जीत लिया है किन्तु प्रापके भाइयो ने प्राकर प्रापको कामदेव होने के कारण स्त्रियां उन्हे मन्मय, मदन, प्रगज, नमस्कार नहीं किया है। वे प्रारके विरुद्ध है। उन्होने मनोज और मनोभव नामो से पुकारती थी। उनका वक्ष- निश्चय किया है कि हम मगवान् ऋषमदेव के सिवाय स्थल विशाल और स्कंध उन्नन थे। मस्तक विशाल और अन्य किसी को नमस्कार नहीं करेगे। आपके सभी भाई तेज से सम्पन्न था। शिर के केश काले पोर घुघ- बलवान है किन्तु उन सब मे बाहुवली सबसे अधिक राले थे। इसमे सन्देह नहीं कि भरत वीर पोर राज- बलिष्ठ है। आपको इसका प्रतीकार करना चाहिए। नीतिज्ञ थे, किन्तु बाहुबली विवेकी, पराक्रमी पौर राज- पुरोहित के वचनो से भरत प्रत्यन्त क्षुभित हुए, और नीतिज्ञ होते हुए भी अत्यन्त चतुर थे और स्वभावत उम्र लाल लाल पाखें निकालकर बोले ---किसी शत्रु के प्रणाम प्रकृति के धारक थे। न करने पर मुझे वैमा खेद नही होता जसा घर के भीतर भगवान ऋषभदेव नतं की नीलाजना का असमय मे रहने वाले मिथ्याभिमानी भाइयो के नमस्कार न करने शरीर पात देख कर देह भोगो से विरक्त हो गये, तब से हो रहा है। ये भाई प्रलात् चक्र की तरह मुझसे जल वे भरत और बाहुबली प्रादि को राज्य देकर निरा- रहे है। अन्य भाई मेरे विरुद्ध प्राचरण करने वाले भले कुल हो गये और प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। सभी भाई ही रहे, किन्तु तरुण बुद्धिमान परिपाटी को जानने वाला टी टे। अपना-अपना राज्य सचालन करते हए जीवन यापन चनुर और सज्जन बाहुबलो मेरे से कैसे विरुद्ध हो गया ? करने लगे । बाहुबलो का राज्य शासन बड़ा ही सुन्दर पोर मालूम होता है वह भुजायों के बल से उद्धत हो गया। जन प्रिय था। वे न्याय नीति से प्रजा का पालन करते वे यह सोच रहे है कि एक ही कुल मे उत्पन्न होने से हम थे। उनकी राजधानी पोदनपुर थी। सौ भाई प्रवध्य है-हमे कोई नही मार सकता। पूज्य . भरत ने छह खड पृथ्वी को विजित किया और चक्र-ताद्वारा TET अमि का ते जाभोग करना नाते वर्ती सम्राट बने जा वे दिग्विजय से लोट कर व भव हैं. पर ऐसा हो नहीं सकता । पब या तो उन्हे के साथ प्रयोध्या पाये। तब चकरल नगर के द्वार पर यह घोषणा करनी पडेगी कि इस पृथ्वी का स्वामी भरत ही स्थित हो गया, वह नगर के भीतर प्रविष्ट नही हुमा। है और हम सब उसके प्रचीन है। अन्यथा मृत्यु का भरत ने तत्काल पुरोहित और मत्रियो को बुलवाया और मालिगन करना होगा। मुझे सबसे अधिक खेद बाहुबली पूछा कि जो चक्ररत्न समस्त दिशामों को जीतने मे कहीं पर है मैं उसे भ्रातृ प्रेमी समझा था, किन्तु अब मैं उसे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०, वर्ष २९, कि०२ अनेकान्त लगे। नहीं छोड़ सकता। बाहुबली को छोड़कर अन्य भाइयों ने कहलाया है कि प्राकर मुझे नमस्कार करो. किन्तु हम इस नमस्कार भी किया तो उससे क्या? पोदनपुर के बिना यह जन्म में तो क्या परजन्म मे भी आपके सिवाय अन्य किसी समस्त साम्राज्य मुझे विष के समान है। देव या मनुष्य को प्रणाम करने में सर्वथा असमर्थ हैं। चक्रवर्ती को कोषान्ध देखकर परोहित ने उपदेला वर्ण हम अापके समीप जिन दीक्षा धारण करने माये हैं. जिनमें वचनों से शान्त करते हुए कहा देव ! शो मापने भाई आपके भाई तो दूसरा का प्रणाम करन स दूसरों को प्रणाम करने से मानभग का भय नही रहता। बालक हैं अतः वे बाल स्वभाव के कारण कूमार्ग में इच्छा- जो मार्ग सुखद और हितकर हो, वह पाप हम लोगों को नुसार क्रीड़ा कर रमते है किन्तु काम, क्रोध, मोह, लोभ, बतलाइये। इतना कह कर वे सब कुमार चुप हो गए। और सब जिज्ञासापूर्वक भगवान के मुख की पोर देखने मद, मात्सर्य इन छ: अन्तरंग शत्रुप्रों को जीतने वाले मापको क्रोध करना उचित नही है। क्रोध रूप गाढ पन्धकार में डूब जाने से प्रात्मा का उपकार नहीं हो सकता। भगवान ने कहा, हे पुत्रो ! तुम मनस्वी पौर गुणी जो राग अपने अन्तरंग से उत्पन्न होने वाले शत्रपों को होकर दूसरों के भार वहन करने वाले कैसे हो सकते जीतने में समर्थ नहीं है वह अपने प्रात्मा को नही जानने हो! यह राज्य और जीवन चंचल है-विनाशी है। वाला कार्य और प्रकार्य को कैसे जान सकता है ? क्रोध यौवन का उन्माद एक नशा है, सैन्य शक्ति बलात्रों से से कार्य की सिद्धि मे सन्देह बना रहता है। प्रत. आप पराजित हो जाती है । धन-सम्पत्ति को चोर य से जाते प्रपकार करने वाले इस क्रोध को दूर कीजिए। जितेन्द्रिय है। वह तृष्णारूपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ईंधन मनुष्य केवल क्षमा से ही पृथ्वी को जीतते है। परलोक के समान है। इन्द्रिय-विषयों का धास्वारन अनेक बार को जीतने वाले पुरुषों के लिए सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा कर चुके हो। चिरकाल तक भोग भोगकर भी उनसे ही है। चतुर दूतो को भेजकर अपने भाइयो को वश मे तृप्ति नहीं होती, उल्टा खेद ही होता है। अतएव ये विषय करना उचित है। इससे प्रापको यश होगा। यदि वे विष मिश्रित भोजन के समान है। फिर ऐसे कौन से शान्ति से वश न हो तब ग्रागे का विचार करना चाहिए। विषय है जिन्हें तुमने भोया नही। राज्य भी विनश्वर है, पुरोहित के हितकारी वचनो से चक्रवर्ती का क्रोध शान्त जिस राज्य में पुत्र-मित्र और भाई-बन्धु शत्रु हो जाते है हो गया और उन्होंने बाहुबली के मिवाय शेप भाइयों के उस राज्य के लिए धिक्कार है। यह विनश्वर गज्य भरत पाम दूत भेजना उचित समझा। दूतो ने जाकर उन्हे के द्वारा जब कभी भी छोड़ा जायगा उस अस्थिर राज्य चक्रवर्ती का सन्देश सुनाया। सन्देश सुनकर सब भाइयो के लिए तुम व्यर्थ क्यो लड रहे हो। जब तक पुण्य का ने परस्पर मे विचार कर दूत से कहा, भरत का कहना उदय है, पृथ्वी का उपभोग कर लो, किन्तु अन्त मे उसे उचित है क्योकि पिता के प्रभाव में बड़ा भाई पूज्य होता छोड़ना ही पड़ेगा। ऐसे अस्थायी राज्य के लिए परस्पर है परन्तु समस्त ससार के जानने-देखने वाले हमारे पिता मे झगड़ना बुद्धिमता नहीं। अत ईर्ष्या करना व्यर्थ है। विद्यमान है वही हमे प्रमाण है, यह राज्य भी उन्ही का तुम लोग धर्मरूपी महावृक्ष के उस दयारूप फल को धारण दिया हुअा है। प्रतः हम उन्ही की मात्रा के अधीन है। करो, जो कभी म्लान नहीं होता और जिस पर मक्तिरूपी भरत से न हमें कुछ लेना है और न देना है। इतना कह महाफल लगता है, वह दूसरों की दीनता से रहित है. कर उन भाइयो ने दूतो को विदा किया और वे सब भाई। दूसरे भी जिसका आचरण करते है। वह तपश्चरण ही कैलाश पर्वत पर विराजमान ऋषभदेव की सेवा में उप- महाप्रभिमान के धारक तुम लोगों के मान की रक्षा कर स्थित हुए और निवेदन किया सकता है। प्रात्मा के शत्रु उन कर्मों से लड़ना चाहिए, देव! हमे पापने जन्म दिया है और आपने ही यह जिन्होंने चिरकाल से तुम्हे अपना दास बना रक्खा है। विभूति प्रदान की है। प्रतः हम मापके सिवाय अन्य भगवान के उपदेश को सुनकर सभी राजकुमार गद्किसी की सेवा नहीं करना चाहते । फिर भी भरत ने गद् हो गए और उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली भरत के छोटे भाइयों ने राज्य का परित्याग कर दिया बाहुबली पर दृष्टि पडते ही कुछ घबरा-सा गया। विनम्र किन्तु फिर भी भरत का मन निराकुल न रह सका, क्योकि मस्तक से दूत ने बाहुबली को नमस्कार किया मोर बाहुबलवान बाहुबली प्रभी राज्यासीन था, और उसे अनुकल बली ने सत्कारपूर्वक उसे अपने पास बिठाया। जब दूत करना सरल नहीं था। अपना स्थान ग्रहण कर चुका, तब बाहुबली ने मुस्कराते भरत-बादलो युट हए कहा-भद्र ! समस्त पृथ्वी के स्वामी आपके चक्रभरत जानते थे कि बाहुदली बलशाली है, मामान्य वर्ती कुशल से तो है। भाज बहुत दिनो बाद उन्होंने हम सदेशों से वह वश में नहीं हो सकता । अन्य क्षत्रिय राज. लोगों को स्मरण किता है। सुना है उन्होने सब राजानों कुमारों पोर बाहुबली में उतना ही अन्तर था, जितना का जति लिया है, और सब दिशामों को अपने अधीन हिरणों और सिंह मे अन्तर होता है। बाहबली वीर और कर लिया है। उनका यह कार्य समाप्त हो चुका है या पराक्रमी होने के साथ-साथ बडा नीतिज्ञ और उग्र प्रकति कुछ शेष है। का है। इमलिए युद्ध मे उसे वर से नही किया जा दूत विनयपूर्वक बोला----देवहम लोग दूत है, गुण सकता। भाईपने के कपट से जिसके अन्तरंग में विकार और दोपों का विचार करने में असमर्थ है। प्रतः अपने छिपा हमा है और जिसका कोई प्रतीकार नही। ऐसा स्वामी की प्राज्ञानुसार चलना हमारा धर्म है। चक्रवर्ती यह बाहुबली घर के भीतर उठी हुई अग्नि के समान कूल ने जो उचित प्राज्ञा दी है उसे स्वीकार करने में ही को भस्म कर देगा। जिस तरह वृक्षों की शाखाओं के पापका गौरव है। भरत प्रथम चक्रवर्ती है और मापके प्रय भाग की रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वत का विधात बड़े भाई है। उन्होने पृथ्वी को वश मे कर लिया है, कर देती है, उसी तरह भाई आदि अन्तरग प्रकृति से देवता उण्हे नमस्कार करते है। उनके एक ही वाण ने उत्पन्न हुप्रा प्रकोप राज्य का विघातक होता है। अतः महासमुद्र के अधिपति व्यन्तरदेव को उसका शिकार बना शान्ति से समस्या का हल होना सम्भव नही है, इसलिा दिया। विजयाधं के पर्वत की दो श्रेणियों के विद्याधरों चक्रवर्ती का चितित होना स्वाभाविक ही है। वे उमका ने भी उसका जयघोष किया है। उत्तर भारत ने वषभाशीघ्र ही प्रतिकार करना चाहते थे । अतः उन्होने बहुत चल पर उन्होने अपनी प्रशस्ति अकित की। म्लेच्छ सोच विचार के बाद एक चतुर दून बाहवली के पास राजाना पर भी विजय प्राप्त की है। देव उनके सेवक है भेजा। अपने स्वामी की कार्य सिद्धि के लिए अनेक उपाय और लक्ष्मी दासी है। उन्ही भरत ने अपने पाशीर्वाद से सोचता हुआ राजदूत पोदनपुर पहुंचा। मापका सन्मान कर प्राज्ञा दी है कि समुद्र पर्यन्त फैला नगर के बाहर घान के पके हुए खेत लहलहा रहे थे, हुमा यह राज्य भाई बाहुबली के बिना शोभा नहीं देता। और किसान कटाई में लगे हुए थे। ईख के खेतों मे गायें प्रतः पाप भरत के समीप जाार उन्हे प्रणाम करें। चर रही थी, उनके थनो से दूघ झरा पड़ता था। भरत की प्राज्ञा कभी व्यर्थ नही जाती। जो उनकी प्रज्ञा किसानों की स्त्रियां खेतों में बैठकर पक्षियों को भगा रही का उल्लंघन करते है उन पर चक्र रत्न प्रव्यर्थ प्रहार थीं। यह सब मनोरम दृश्य देखते हुए दूत ने नगर मे करता है ।' प्रत. आप शीघ्र ही चलकर उनका मनोरथ प्रवेश किया। और राजभवन के मांगन मे पह वकर द्वार- पूर्ण करें। आप दोनों भाइयो के मिलाप से यह संसार पाल द्वारा अपने पागमन का समाचार कहलाया। भी परस्पर मे मिलकर रहना सीखेगा। जब दूत राजदरबार में उपस्थित हुमा, तब तेजपुज दूत के वचन सुनकर मन्द-मन्द हसते हुए धीर-बीर १. ज्ञाति व्याजनिगढान्तविक्रियो निष्प्राप्तिक्रियः । तरु शाखाग्रसंघहजन्मा बन्हियंपागिरेः ।। सोऽन्तर्ग्रहोस्थितोवन्हिरिवाशेषं दहेत् कुलम् ।। -प्रादिपुराण ३५,१७-१८ अन्तः प्रकृतिगः कोपोविधाताय प्रभोर्मतः । २. प्रवन्ध्य शासनस्यास्य शासनं ये विमन्वते । शासनं द्विषतां तेषां चक्रमप्रतिशासनम् ।। ३५-८६. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२, वर्ष २६, कि.२ अनेकान्त बाहुबली कहने लगे-दूत ! जिन्हें शान्ति से वश में नहीं शत्रुओं को अपनी इच्छानुसार जीतने की इच्छा करते हैं, किया जा सकता उनके साथ महकार का प्रयोग करना वे अपने कुल की स्त्रियों और भुजामों से कमाई हुई पृथ्वी मुर्खता है। भरतेश्वर उम्र में बड़े हैं किन्तु बूढा हाथी को छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते है। धीर वीर पुरुष सिंह के बच्चे की बराबरी नहीं कर सकता।' यह ठीक है प्राण देकर भी मान की रक्षा करते हैं क्योंकि मानपूर्वक कि बड़ा भाई पूज्य होता है किन्तु जिसने सिर पर तलवार कमाया हुपा यश ही संसार की शोभा है। प्रतः अपने रख छोड़ी है उसे प्रणाम करना कहा की रीति है ? भग- चक्रवर्ती से जाकर कह देना कि या तो पृथ्वी का उपभोग बान ने हम दोनों को राज्य पद दिया था। यदि भरत भरत करेगा या मैं ही उपभोग करूगा"। हम दोनों का लोभ में पड़कर राजा बनना चाहता है तो भले ही बनें, जो कुछ होगा वह युद्ध भूमि में ही होगा। इतना कहकर परन्तु हम तो अपने सुराज्य में रहकर राजा ही बना स्वाभिमानी वाहुबली ने दूत को विदा कर दिया और रहना पसन्द करते हैं। वह हमे बच्चो के समान फुसला- युद्ध की तैयारी करने का आदेश दिया। उधर जब दूत कर और हम से प्रणाम करवाकर भूमि का टुकड़ा देना के मुख से बाहुबली का निर्णय ज्ञात हमा तो भरत ने भी चाहता है किन्तु भरत का दिया हुआ वह भूमि खण्ड अपनी सेना के साथ पोदनपुर के लिए प्रस्थान किया। हमारे लिए खली के टुकड़े के समान है ।' मनस्वी पुरुष दोनों पोर की सेनाएं रणभूमि मे प्रा डटी। और दोनों अपनी भुजाम्रो के परिश्रम से प्राप्त अल्प फल मे ही ही पक्ष के योद्धा अपनी अपनी सेना की व्यूह रचना करने सन्तुष्ट रहते है। जो पुरुष राजा होकर भी अपमान से में जट गये । मलिन विभूति को स्वीकार करता है, वह नर पशु है और इधर मंत्रीगण विचार विमर्श में लगे हुए थे । उनका उनकी विभति एक भार है। मानभग कराकर प्राप्त हुई कहना था कि क्रूर ग्रहो के समान दोनों का युद्ध शान्ति के भोग सम्पदा में अनुरक्त मनुष्य, मनुष्य नही किन्तु पशु लिए नहीं है । दोनों ही चरम शरीरी है। प्रत: युद्ध से है। मुनि भी जब स्वाभिमान का परित्याग नही करते इन दोनो को कोई क्षति नहीं हो सकती। किन्तु दोनों तब राजपुरुष कैसे अपना अभिमान छोड़ सकता है। ही पक्ष के योद्धा व्यथं में मारे जायेंग। भीषण नर सहार बन में जाकर रहना अच्छा है और प्राणो का परित्याग होगा, ऐसा विचार कर दोनों ही पक्ष के मत्रियों ने अपने करना भी अच्छा है किन्तु स्वाभिमानी पुरुष के लिए स्वामी की अनुमति लेकर उनके सामने यह विचार रक्खा किसी का दास होना अच्छा नही है। पिता जी के द्वारा कि निष्कारण नर सहार करने से बडा अधर्म होगा और दी हुई हमारे कुल की यह पृथ्वी भरत के लिए भाई की लोक मे अपयश फैलेगा। बलाबल की परीक्षा तो अन्य स्त्री के समान है। जब वह उसे लेना ही चाहता है तो प्रकार से भी हो सकती है। अतः पाप दोनों भाई तीन क्या उसे लज्जा नही पाती। जो मनुष्य स्वतंत्र है और प्रकार का युद्ध करें। और जिसकी पराजय हो वह भकुटि ३. ज्येष्ठ: प्रणम्य इत्येतत्कामयस्त्वन्यदा सदा। ८. दूत तातवितीर्णा नो महीमेना कुलोचिताम् । मूर्धन्यारोपितखड्गस्य प्रणाम इति क: क्रमः ॥३५-१०७ भ्रातृजायामिवाऽऽदित्सो: नास्यलज्जा भवत्पतेः ।। ४. बालानिवच्छलादस्मान् पाहूय प्रणम्य च । प्रा. पु. ३५-३४ पिण्डीखण्ड युवा भाति महीखण्डस्तदर्पितः ।। ३५-१११ ६. देयमन्यत् स्वतन्त्रेण यथाकामं जिगीषुणा। ५. स्वेदाईमफल इलाध्यं यत्किञ्चन मनस्विनाम् । मुक्त्वा कुलकलत्रं च क्ष्मातलं च भुजाजितम् ।। न चातुरन्तमय्यश्यं परभ्रूलतिकाफलम् ।। ३५-११२ प्रा. पु. ३५-३५ ६. प्रादिपुराण ५-११७. ७.वर बनाधिवासोऽपि वरं प्राण विसर्जनम् । १०. भूयस्तदलमालप्य स वा भुक्ता महीतलम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराशा विषेयता ॥ चिरमेकातपत्राङ्कम् प्रहं वा मुजविक्रमी ।। मा. बु. ३५-१८ भा. पु. ३५-३६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली ७३ टेढी किये बिना सहन करे। भाई भाई का यही धर्म है। होकर नीति अनीति का विचार न कर बाहुबली पर चक्र सब राजामों और मत्रियों के प्राग्रह से दोनो भाइयो ने चला दिया। किन्तु देवोपुनीत अस्त्र वश घात नही करते। इस विचार को स्वीकार किया। तुरन्त ही सेना में यह प्रत चक ने बाहुबली के पास जाकर उसकी प्रदक्षिणा घोषणा कर दी गई कि दृष्टि युद्ध, जल युद्ध और बाहु की और तेजहीन होकर वहीं ठहर गया। उस समय यद (मल्लयुद्ध) मे दोनो मे से जो विजयी होगा वही दोनों पक्ष के प्रमय प्रमख राजामो ने बाहबलि की जयलक्ष्मी का स्वामी माना जावेगा। प्रशसा करते हुए उनका खूब आदर सत्कार किया। मापने इस घोषणा के बाद दोनों ओर के प्रमुख-प्रमुख पुरुप . खूब पराक्रम दिखलाया ऐसा उच्चस्वर से कहते हुए बाहु. अपने अपने स्वामी के साथ दोनो ओर बैठ गये। सबसे बली ने भरत को कन्धे से धीरे से उतारा । पहले दष्टि युद्ध हया, उसमे बाहुबली विजयी हुए। अपने उस समय बाहबली ने अपने को बड़ा अनुभव किया, स्वामी की विजय से हपित हो वाहुबली को सेना जयघोप किन्तु घटनाचक ने उन्हें विचार सागर में निमग्न कर करने लगी, तब प्रमुख पुरुषों ने रोककर मर्यादा को दिया । वे सोचने लगे, देखो, हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर रक्षा की। . राज्य के लिए कैसा लज्जाजनक कार्य किया है। यह इसके बाद दोनों भाई जल युद्ध करने के लिए सरोवर राज्य क्षणभगुर है और उस व्यभिचारिणी स्त्री के समान मे उतरे और अपनी लम्बी भुजानों से एक दूसरे पर पानी है, जो एक स्वामी को छोड़कर अन्य के पास चली जाती फैकने लगे । भरत से बाहुबली लम्बे थे। प्रतः भरत के है। यह राज्य प्राणियों को छोड़ देता है। परन्तु अविवेकी द्वारा फैका गया पानी बाहुबली के विशाल वक्षस्थल से प्राणी इसे नहीं छोड़ते। भाई को परिग्रह की चाह ने टकरा कर ऐसे लौटता था जैसे पर्वत से टकराकर समुद्र अन्धा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी की लहर लोट पानी है, और बाहुवनी के द्वारा उछाला दर भगा दिया है। पर देखो. दनिया मे fatar free गया पानी भरत के मुख, पाख, नाक और कानों में भर स्थिर रहा है ? प्रहकार की चेष्टा का दंड ही तो अपमान जाता था। अतः जलयुद्ध मे भी भरत पराजित हुए। है। तुम्हे राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हाली और जो बाहुबली के सेना ने पुनः जयघोष किया। उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झता ली। उस पश्चात् दोनों नर शार्दूल बाहुयुद्ध के लिए रंगभूमि में राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय अन्याय का विवेक उतरे। दोनों ने हाथ मिलाये, ताल ठोंकी, पंतरे बदले भुला देती है । पोर इन्सान को हैवान बना देती है। अब मौर फिर मापस में भिड़ गये। सहसा बाहुबली ने चक्र- मैं इस राज्य त्याग कर प्रात्म-साधना का अनुष्ठान करना वर्ती भरत को दबोच लिया और उन्हें एक हाथ से उठा- चाहता हूं। भरत को बुद्धि भ्रष्ट हो गई है वह इस नश्वर कर पलात्चक्र के समान घुमा डाला। बाहुबली चाहते राज्य को प्रविनश्यर मानता है। तो चक्रवर्ती को जमीन पटक सकते थे। किन्तु उन्होंने बाहुबली ज्यों ज्यो अपने बड़े भाई की नीचता का माखिर बड़े भाई हैं उनकी पद मर्यादा का विचार कर विचार करते त्यों त्यों उन्हे घोर कष्ट होता था। मन में वसा नहीं किया, और चक्रवर्ती को अपने कन्धे पर बैठा वह भरत से बोने-राजधेष्ठ ! क्षण भर के लिए अपनी लिया। उस समय बाहबली के पक्ष में तुमल जयघोष को छोड़ कर मेरी बात सुनो -- तुमने प्राज बड़ा दुम्माहम हुमा । पौर भरत के पक्ष के राजामों ने लज्जा से अपने किया है जो मेरे इस अभेद्य शरीर पर चक्र का प्रहार सिर झुका दिये। किया है। जैसे वन के बने पर्वत को वन की कुछ हानि दोनों पक्षों के सामने हुए अपमान से भरस क्रोध से नहीं पहुंचती वैसे ही तेरा यह चक्र मेरा बाल भी बांश अन्धा हो गया। निधियों के स्वामी उस भरत ने बाहुबली नहीं कर सकता। दूसरे तुमने जो अपने भाइयो का घर की पराजय करने के लिए शत्रु समूह का विनाश करने उजाड़ कर राज्य प्राप्त करना चाहा है उससे तुमने खुन काले सुदर्शन चक्र रन का स्मरण किया, और विवेकहीन धर्म भोर यश कमाया है। प्राने वाली पीढ़िया कहमी, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४, वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त कि प्रावि ब्रह्मा ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत ने उनकी समता और अहिंसा की प्रतिष्ठा से जाति विरोधी अपने कुल का अच्छा उद्धार किया था। पाप से सनी हुई जीव सिंह हिरणादिक अपना वर भाव छोड़कर उस पर्वत जिस राज्य लक्ष्मी को तू अविनाशी समझता है, वह तुझे पर निर्भय होकर विचरण करते थे। इन्द्रियजय पौर हो मुबारिक हो। मब वह मेरे योग्य नही है। अब मैं तप परीषहजय से उनके विपुल कर्मों की निर्जरा हो रही थी। रूपी लक्ष्मी को स्वीकार करना चाहता हूं। मुझसे जो उन्होने क्षमा से क्रोध को जीता था अहकार के त्याग से माराध हुमा हो, उसे क्षमा करो। मैं अपनी चचलता के मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ पर कारण विनय को भूल बैठा, इसका मुझे खेद है। विजय प्राप्त की थी"। माहार, भय, मैथन और परिग्रह बाहुबली की इस उदार वाणी को सुनकर चक्रवर्ती रूप चार सज्ञामो पर विजय प्राप्त की थी। सतत जागरुक सन्तप्त हृदय कुछ शीतल हुमा, और वह अपने दुष्कृत्य के पौर स्वरूप में सावधान रहने से कषायरूपी नोर उनकी लिए पश्चाताप करने लगा। उसने बाहुबली की बहुत रत्नत्रय निधि (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) अनुनय विनय की, परन्तु बाहुबली अपने संकल्प से रच- को नही चरा सके थे। तपश्चरण से उन्हे अणिमामात्र भी विचलित नहीं हुए। और अपने पुत्र महाबली महिमादि अनेक ऋद्धियां प्राप्त हो गई थी। क्रीडार्थ पाई को राज्य देकर विरक्त हो वन मे जाकर तपस्या करने हुई विद्यारियां कभी कभी उनके शरीर पर लगी हुई लगे । उन्होने सर्व परिग्रह का परित्याग कर एक वर्ष माधवीलता को हटा देती थी"। तपश्चरण से उनका का प्रतिमायोग धारण किया । बाहुबली ने एक शरीर अत्यन्त कृश हो गया था किन्तु प्रात्मतेज चमक वर्ष तक एक ही स्थान में स्थित होकर घोर तपश्चरण रहा था। तपश्चरण और ध्यान केवल उनकी तप-शक्ति किया उनका तपस्वी जीवन बड़ा ही कठोर रहा है। बढ़ गई थी और लेश्या भी शुक्ल हो गई थी। एक वर्ष वे एक वर्ष में भूख, प्यास, शीत-उष्ण, दंश मशक का उपवास समाप्त होते ही भरतेश ने प्राकर उनके मादि विविध परीषहों को सहन करते हुए अपने शुद्ध चरणों की पूजा की। पूजा करते ही उन्हे बोधिलाभचैतन्य भाव में तन्मय रहे । वर्षा सर्दी गर्मी मादि केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। बाहुबली के चित्त में ऋतनों में होने वाले विविध कष्टो की परवाह न करते हुए शल्य का जो कोई सूक्ष्म अश प्रवशिष्ट था उसके दूर होते शम भाव में रहे हैं। उनकी दृष्टि में मान अपमान, सुख- ही वे पूर्ण ज्ञानी ही गये। भरत ने उनके केवलज्ञान की दुःख जीवन-मरण, घन-घान्य, कचन और काच आदि पूजा की पौर देवादिकों ने भी पूजा की। उन्होंने अनेक सभी पदार्थों में समता रही है। उनके इस तपस्वी जीवन देशों में विहार किया और जनता को सन्मार्ग का उपदेश मे माधवी लताए बाहनो से लिपट गई थी, और सर्पो ने दिया। प्रौर कैलाश पर्वत पर जाकर स्वात्मोपलब्धि को चरणो के नीचे वामियां बना ली थी और वे सर्प उनके प्राप्त किया-सिद्ध परमात्मा बन गए। शरीर पर चढ़ जाते थे, जिससे वे भयंकर प्रतीत होने लगे बाहुबली की मूर्ति थे। विद्याधरियों ने माधवी लता के पत्तों को तोड़ दिया बाहुबली की पावन स्मृति में चक्रवर्ती सम्राट् भरत था जिससे वे सूख कर उनके चरणों में गिर पड़े थे। ने पोदनपुर मे बाहुबली की समुन्नत सुवर्णाकित प्रशान्त ११. परीषहजयादस्य विपुला निर्जराभवत् । वल्लीरुद्धष्टयामासुः मुनेः सर्वाङ्गसङ्गिनी ॥ कर्मणो निर्जरोपायः परीषहजयः परः ॥ ३६-१२८ मा. पु. ३६-१८३ क्रोधं तितिक्षया मानम् उत्सेकपरिवर्जनः । १४. इत्युपारूढं सध्यानबलोद्भूततपोबलः । मायामृजतया लोभं सन्तोषेण जिगीयसः ।। १२६ स लेश्याशुद्धिमास्कन्दन शुक्लध्यानोन्मुखोऽभवत् ।। १२. कषाय तस्करनस्यि हृतं रत्नत्रयं धनम् । वत्सरानशमस्यान्ते भरतेशेन पूजितः । सततं जागरूकस्य भूयो भूयोऽप्रमाद्यतः ॥ ३६॥१३६ स भेजे परमज्योतिः केवलाख्यं यदक्षयम् ॥ ३. विद्यापर्यः कदाचिच्च क्रीडाहेतोरुपागताः । मादिपुराण ३६, १४-१८५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली भव्य मूर्ति का निर्माण कराया था, परन्तु वह कुक्कुट सो पक्रवर्ती ने पबलावि सिद्धान्त ग्रन्थों का सार लेकर रचा से व्याप्त हो जाने के कारण दुर्गम हो गई थी। इस कारण था। उसका दर्शन पूजन करना जनता को दुर्लभ हो गया था। गोम्मट जिनसेन तात्पर्य नेमिनाथ भगवान् की एक जब यह समाचार चामुण्डराय को ज्ञात हुपा तो उसने भी हस्त प्रमाण इन्द्र नीलमणि की उस मूर्ति से है, जिसे चाम. बाहुबली की विशाल मूर्ति का निर्माण कराया। जो ण्डराय ने बनवा कर अपनी वसति मे चन्द्रगिरि पर्वत पर दक्षिण भारत का निवासी था, और जिसका घरू नाम विराजमान किया था, किन्तु वह अब वहां पर नहीं है। गोम्मट था, और राजमल्ल द्वारा प्रदत्त 'राय' उनकी मोर दक्षिण कुक्कुट जिनसे अभिप्राय बाहुबली की उस उपाधि थी। इस कारण चामुण्डराय गोम्मटराय कहे जाते विशाल मूर्ति से है जो विन्ध्यगिरि पर चामुण्डराय द्वारा थे। जैसा कि गोम्मटसार जीवकाण्ड के-'सो राम्रो प्रतिष्ठित की गई है, और जो उत्तर प्रदेश पोदनपुर में गोम्मटो जयउ' वाक्य से स्पष्ट है। चामुण्डराय ब्रह्म- भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित बाहुबली की उस शरीराकृति क्षत्रिय वंश के भूषण थे, वीर प्रतापी और धर्मनिष्ठ थे। मूर्ति से भिन्न है, तथा कुक्कुट सर्पो से व्याप्त हो गई थी। वह गंगवंशी राजा राजमल्ल के प्रधान मत्री और सेनापति उससे भिन्नता द्योतन करने के लिए ही दक्षिण कुक्कुट थे। वह पराक्रमी, शत्रुजयी, दृढ़ निश्चयी, साहसी और विशेषण लगाया गया है। वीर योद्धा था। उसने अनेक युद्धों मे विजय श्री प्राप्त की चामुण्डराय द्वारा निर्मित यह दिव्य मूर्ति ५७ फुट थी। इसी से समर धुरंधर, वीर मार्तण्ड, रणरंग सिंह, ऊंची है। प्रशान्त कलात्मक और चित्ताकर्षक है। इतनी भज विक्रम और वैरी कुल कालदण्ड आदि अनेक उपा विशाल और सुन्दर कृति मूर्ति अन्यत्र नहीं मिलती। धियो से समलंकृत था। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्र श्रवणबेलगोल में प्रतिष्ठापित जगद्विख्यात यह मूर्ति अद्विवर्ती ने गोम्मटसार मे चामुण्डराय को 'गुणरत्नभूषण' तीय है। जो धप, वर्षा, सर्दी, गर्मी पौर मांधी मादि की और सम्यक्त्व रत्न निलय बतलाया है और गोम्मटराय वाघानों को सहते हर भी अविचल स्थित है। मतिशिल्पी नाम से भी उल्लेखित किया है। इससे चामुण्डराय के की कल्पना का साकार रूप है। मूर्ति के नख-शिख वैसे व्यक्तित्व की महत्ता का सहज ही प्राभास हो जाता है। प्रकित हैं जैसे उनका प्राज ही निर्माण हुमा हो । मूर्ति जहां वह राजनीतिज्ञ था वहां वह विद्वान धर्मनिष्ठ प्रोर को देखकर दर्शक की प्रांखें प्रसन्नता से भर जाती है। ग्रन्थ रचयिता भी था। बाहुबली की यह मूर्ति ध्यान अवस्था की है। बाहुबली के गोम्मटसार कर्मकाण्ड की १६८वी गाथा मे प्राचार्य केवल ज्ञानी होने से पूर्व वह जिस रूप में स्थित थे, माधवी नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उनकी तीन उपलब्धियों का लतामो ने उनके बाहुपों को लपेट लिया था और सों ने उल्लेख किया है : वामियां बना ली थी। कलाकार ने उसी रूप को भकित किया है। दर्शक की पाखें उस मूर्ति को देखकर तृप्त नहीं गोम्मट संगह सुत्तं गोम्मट सिहरुवरि गोम्मट मिणो य । होती। उसकी भावना उसे बार-बार देखने की होती है। गोम्मटराय विणिम्मिय दक्खिण कुक्कुट जिणो जयउ॥ मूति के दर्शन से जो प्रात्मलाभ और शान्ति मिलती है उक्त गाथा मे गोम्मट संग्रह सूत्र, गोम्मट जिन और वह शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं की जा सकती। मैं तो उस दविखण कुक्कुट जिन, इन तीन कार्यों में उल्लेख किया मूर्ति के दर्शन से अपना जीवन सफल हुमा मानता हूं। गया है। पौर चाहता हूं कि प्रन्तिम समय में इस मूर्ति का दशन गोम्मट संगह सुत-गोम्मट संग्रह सूत्र गोम्मटसार मिले। मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह निरानाम का ग्रन्थ है, जिसका दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है, वरण होते हुए भी उस पर पक्षी बीट नही करते । हजारों और जिसे चामुण्डराय के अनुरोध से नेमिचन्द्र सिद्धान्त विदेशी जन इस मूर्ति का दर्शन करना अपना सौभाग्य १५. अनेकान्त वर्ष ४ कि. ३-४ पृ. २२६, २६३ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६, वर्ष २६, कि.२ अनेकान्त समझते हैं । इस मूर्ति का निर्माण चामुण्डराय के सातिशय उक्त मूर्ति का प्रतिष्ठा काल सन् १८१ मानना समुचित पुण्य का प्रतीक है। उसकी धवल कीति अमर और चिर. जान पड़ता है"। स्थायी है। .. महाकवि रत्न ने अपना प्रजितपुराण शक सं० ६१५ मति के प्रतिष्ठा समय पर विचार सन् १९३ ई० में समाप्त किया है। उसमें बाहुबली की बाहुबली की इस मूर्ति की प्रतिष्ठा कब हुई, इस पर मूर्ति को कुक्कुटेश्वर लिखा है। गोम्मटेश्वर नही। और विचार किया जाता है। इसी पुराण के अनुसार प्रति मम्वे ने उक्त मूर्ति के दर्शन चामुण्डराय ने अपना चामुण्डपुराण (त्रिषष्ठिशलाका' किये थे। इससे स्पष्ट है कि बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा पुरुषचरित) शक संवत् ६००६० सन् ९७८ मे बना कर सन् ६६३ से पूर्व हो चुकी थी। उस समय तक उसकी समाप्त किया है। उस समय तक वाहुबली की मूर्ति का प्रसिद्धि कुक्कुटेश्वर थी । गोम्मटेश्वर और गोम्मट स्वामी निर्माण नही हुआ था, अन्यथा उसका उल्लेख उक्त ग्रन्थ १ के नाम से नहीं थी। में अवश्य हुमा होता । किन्तु उसमें कोई उल्लेख नहीं है। गोम्मटसार की रचना बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा इससे स्पष्ट है कि उस समय तक मूर्ति का निर्माण नहीं है के बाद हुई है, क्योंकि उसमे मूर्ति को गोम्मटेश्वर, गोम्मट हुमा था। बाहुबलि चरित मे गोम्मेटेश्वर की मूर्ति की न देव जैसे नामों से उल्लेखित किया है और चामुण्डराय की दर प्रतिष्ठा का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है : प्रशंसा करते हुए उन्हे गोम्मट राय, गोम्मट बतलाया है कल्क्यम् षट् शताख्ये विनतविभव संवत्सरे मासि चंत्रे, और उनके जयवंत होने की कामना की है। इससे चामुपञ्चम्यां शुक्ल पक्षे दिनमणि दिवसे कुम्भ लग्ने सुयोगे । ण्डराय के गोम्मट नाम की प्रसिद्धि हुई है, जो उनका घरू सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित भगणे सप्तशस्तां चकार । नाम था। उन्ही के नाम के कारण मति गोम्मटेश्वर गोम्मट देव नाम से ख्यात हुई। श्री चामुण्ड राजो बेलगुलनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ।। प्राचार्य जिनसेन ने भगवान् बाहुबली की स्तुति करते ____ इस पद्य से स्पष्ट है कि कल्कि सं०६०० विभव सवत्सर हए लिखा है कि जो शीतकाल में बर्फ से ढके हुए ऊचे में चैत्र शुक्ला पंचमी रविवार को कुम्भ लग्न सौभाग्ययोग, शरीर को धारण करते हुए पर्वत के समान प्रकट होते थे। मृगशिरा नक्षत्र में चामुण्डराय ने बेलगुल नगर मे गोम्मटेश वर्षा ऋतु में नवीन मेघो के जल समूह से प्रक्षालित होते की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। किन्तु इस तिथि के थे- भीगते रहते थे, और नीम काल मे सूर्य की किरणो सम्बन्ध मे विद्वानो मे मतभेद पाया जाता है । मि० घोषाल के ताप को सहन करते थे, वे बाहुबली सदा जयवत हो। ने वहद्रव्य सग्रह की अपनी अग्रेजी प्रस्तावना मे उक्त स जयति हिमकाले यो हिमानी परीतं, तिथि को २ मप्रेल सन् ६८० मे माना है। और श्री वपुश्चल इवोच्चविभ्रवाविर्बभूव । गोविन्द प ने १३ मार्च सन् ६८१ मे स्वीकृत किया है। नवधनसलिलोधर्यश्च धौतोऽन्दकाले, डा. हीरालाल जी ने २३ मार्च सन् १०२८ मे उक्त तिथि खरघणिकिरणानय्यष्णकाले विषेहे ।। ३६-५११ को ठीक घटित होना बतलाया है। पौर श्याम शास्त्री ने जिन बाहुबली ने अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग शत्रुओं पर विजय ३ मार्च सन् १०२८ को उक्त तिथि के घटित होने का प्राप्त कर ली है, बड़े-बड़े योगिराज ही जिनकी महिमा निर्देश किया है। जान सकते है और जो पूज्य पुरुषों के द्वारा भी पूजनीय डा० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने भारतीय ज्योतिप है ऐसे इन योगिराज बाहुबली को जो पुरुष अपने हृदय मे की गणना के अनुसार विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पचमी स्मरण करता है उसका अन्तरात्मा शान्त हो जाता और रविवार को मगशिरा नक्षत्र का योग १३ मार्च सन् १८१ वह शीघ्र ही जिनेन्द्र भगवान् की अजय्य विजय लक्ष्मी मे घटित होना प्रगट किया है । तथा अन्य ग्रहो की स्थिति को प्राप्त होता है। जो बाहबली के गुणो का शान्त भाव भी इसी दिन सम्यक् घटित होती बतलाई है। प्रतएव शेप पृष्ठ ८6 पर १६. जैन सिद्धान्त भाष्कर भाग थ किरण ४ पृ. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की सर्वज्ञता D डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्रो, नोमक्ष ऐतिहासिक महापुरुष वर्द्धमान का जन्म विदेह के जीत कर वे केवलज्ञानी बने थे। निर्दोष चारित्र का कुण्डपुर में ई पू. ५६६ मे हुप्रा था। उनके जीवन का भली पालन करने वाले वे पटल पुरुष प्रात्मस्वरूप में स्थिर थे। भांति अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि दार्शनिक सर्वोत्कृष्ट प्रध्यात्मविद्या के पारगामी, समस्त परिग्रहों के जगत मे भगवान महावीर की मान्यता का प्रमुख कारण त्यागी, निर्भय मृत्युजय एव अजर-अमर थे।' जिनके सर्वज्ञता की उपलब्धि थी। केवल ऐतिहासिक पुरुष होने केवलज्ञानी रूपी उज्जवत दर्पण मे लोक-प्रलोक प्रतिके कारण तथा धर्मप्रचारक, प्रसारक व नेता होने से ही बिम्बित होते है तथा जो विकसित कमल के समान कोई शत-सहस्राब्दियों तक पूज्य नहीं हो सकता। विभिन्न समुज्जवल है वे महावीर भगवान जयवन्त हों।' प्राचार्य मतो की स्थापना करने वाले भी अनेक प्राचार्य तथा हेमचन्द्र सूरि श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए विद्वान हए । किन्तु उन मे से कितने नाम अाज हम कहते है-मनन्तज्ञान के धारक, दोषो से रहित, अबाध्य जानते है ? भारतीय संस्कृति में त्याग और तपस्या के सिद्धांत से युक्त, देवों से भी पूज्य, वीतराग, सर्वज्ञ एवं परम प्रादर्श परमात्मा का ही प्रतिदिन नाम-स्मरण किया हितोपदेशियो मे मुख्य और स्वयम्मू श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र जाता है। भगवान महावीर ऐसे ही परमात्मा हुए, जो की स्तुति हेतु में प्रयत्न करूगा। सभी प्रकार के दोषो तथा बन्धनों से रहित एव परम गुणों सर्वज्ञ का अर्थ से सहित थे। परमात्मा के ही अन्य नाम है-- ज्ञानी, जो सब को जानता है, वह सर्वज्ञ है। 'सर्वज्ञ' शब्द शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, ब्रह्मा, बुद्ध, कर्मयुक्त का प्रयोग प्रायः दो अर्थों में किया जाना है। पदार्थ के मूल प्रात्मा। किन्तु विभिन्न दर्शनो मे इन शब्दो की निरुक्ति तत्त्व को जानना, समान चेतना सम्पन्न प्राणियो मे वही एव व्याख्या अलग-अलग रूपो में की गई है। इसलिए जीव तत्त्व है जो हम में है, इसलिये अपने पाप का जान प्राय. एक दर्शन का ज्ञाता दूसरे दर्शन को समझते समय लेने का अर्थ उन सभी जीवों को जान लेना है। इस अर्थ अपनी मान्यताप्रो एव पूर्वग्रह के अनुसार अपनी-अपनी के अनुसार सभी पदार्थों को जानना देखना प्रभीष्ट नही कसौटियो पर दूसरो को कसने का प्रयत्न करते है जिससे है, किन्तु तत्त्व को जानना, देख लेना ही सब को जानना उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। देख लेना है। कहा भी जाता है कि 'यत् पिण्डे तत् प्रश्न यह है कि महावीर सर्वज थे या नहीं। जन ब्रह्माण्डे' में व्याप्त है। वैसे इस सारे संसार का विशद मागम ग्रन्थों में पूर्ण ज्ञान से विशिष्ट भगवान महावीर का ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नही है. इसलिये पिण्ड में व्याप्त स्तवन किया गया है । भगवान महावीर सब पदार्थों के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेने से सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान ज्ञाता. द्रष्टा थे। काम क्रोधादि के अन्तरंग शत्रुओं को हो जाता है। जैनागम के वचन हैं१. "ववगयप्रसेस दोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।" ४. सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदपणम्मि लोयालोय । मसार, १, ५ पुढ पडिबिम्ब दोसइ विपसियसयवतगमग उरो वीरो ।। २. णाणी सिव पर मेट्ठी सव्वण्हूं विण्ड चउमुहो बुद्धो। -जयघवला अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुड ॥ ५. अनन्तविज्ञानमतीत दोषबाध्यसिद्धान्तममयं पूज्यम् । --भावपाहुड, १५१ श्रीवर्द्धमान जिनमाप्तमुरूप स्वरम्भुव स्तोतुमह यतिष्ये । ३. सूत्रकृतांग, १, १, १ । -स्याद्वादमजरी, १ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८, वय २६, कि० २ अनेकान्त "जे एगंजाणइ से सव्वं जाणइ जाते हैं। इस लिये इस ज्ञान में किसी प्रकार का अंतराल जे सव्व जाणइ से एग जाणइ" नहीं पड़ता।" इस प्रकार जनदर्शन ने सदा ही त्रिकाल (प्राचारांगसूत्र १, ३, ४, १२२) और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यो की समस्त पर्यायो के भाचार्य कुन्दकुन्द के वचनो का भी यही सार है जो प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ मे सर्वज्ञता मानी है।" इन्द्रियजन्य मात्मा को जानता है, वह सब को जानता है और जो ज्ञान तो जगत के सभी सज्ञी जीवों में पाया जाता है । सब को नहीं जानता, वह एक प्रात्मा को भी नही जानता किन्तु यदि मर्वज्ञ को न माना जाय तो फिर मीन्द्रिय जो जानता है. वह ज्ञान है और जो ज्ञायक है, वही ज्ञान ज्ञान किसे होता है। प्राव सभी तीरों तथा जिन है। जीव ज्ञान है और त्रिकालस्पर्शी द्रव्य ज्ञेय है । यदि केवलियों को सर्वज्ञ, सर्वदर्गी माना गया है ।" जिन को मात्मा पौर ज्ञान को सर्वथा भिन्न माना जाए, तो हमें पूर्ण ज्ञान उपलब्ध हो जाने पर इन्दिर, क्रप और व्यव. अपने ही ज्ञान से अपनी ही प्रात्मा का ज्ञान नही हो धान रहित तीनो लोकों के सम्पूर्ण द्रव्यों और पर्यायों का सकेगा। मात्मा ज्ञान-प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रकट हो जाता है, वे केवली कहे जाते हैं । गया है। ज्ञेय लोकालोक है, इसलिये ज्ञान सर्व व्यापक पर के द्वारा होने वाला जो पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान है, वह है।' यदि प्रात्मा ज्ञान से हीन हो, तो वह ज्ञान प्रचेतन परोक्ष है और केवल जीव के द्वारा ज्ञात ज्ञान प्रत्यक्ष है।" होने से नहीं जानेगा । इसलिये जनदर्शन मे प्रात्मा को मन, इन्द्रिय, परोपदेश उपलब्धि, सस्कार तया प्रकाश ज्ञानस्वभाव कहा गया है । ज्ञान की भाति प्रात्मा सर्वगत आदि पर है । इसलिए इनकी सहायता से होने वाला ज्ञान है। जिनवर सर्वगत है और जगत के सब पदार्थ जिनवर- परोक्ष है। केवल प्रात्मस्वभाव को ही कारण रूप से गत है। क्योकि जिनवर ज्ञानमय है (पूर्णज्ञानी है) और प्रत्यक्ष ज्ञान का साधक कहा गया है। सभी पदार्थ ज्ञान के विषय है इसलिये जिनवर के विषय डा० रमाकान्त त्रिपाठी के शब्दों मे 'सर्वज्ञता' शब्द तथा सर्व पदार्थ जिनवरगत है।' सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान का प्रयोग दो अर्थों में किया जा सकता है-(१) प्रत्येक इन्द्रियों से उत्पन्न हुमा क्षयोपशम ज्ञान रूप नहीं है, किन्तु वस्तु के सार (मूल तत्त्व) को जान लेना सर्वज्ञता है, जैसे प्रतीन्द्रिय ज्ञान है । अतः इन्द्रियों की अपेक्षा न होने में वह ब्रह्म प्रत्येक वस्तु का सार है, ऐसा जान लेना प्रत्येक वस्तु केवलज्ञान-क्रम की अपेक्षा नही रखता। सर्वज्ञ के ज्ञान को जान लेना है और यही सर्वज्ञता है। (२) प्रत्येक मे सभी ज्ञेय पदार्थ युगपत् प्रतिबिम्बित होते है। केवली वस्तु के विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना सर्वज्ञता है। भगवान के ज्ञानवरण और दर्शनावरण दोनो ही कर्मो का मीमासक दूसरे प्रकार की सर्वज्ञता का निषेध करते है। विनाश हो जाने से ज्ञान और दर्शन एक साथ उत्पन्न हो उनके अनुसार पुरुष अपनी सीमित शक्तियो के कारण ६. दम्ब अणतपज्जयमेगमणताणि दव्य जादागि । १०. प्रष्टसहस्री, प्रथम परिच्छद, कारिक । ३ ण बिजाणादि जदि जगव किघ सो सवाणिजाणादि । ११. जो जाणदि पच्चश्व तियाल-गुण-पज्जएहि सजत । ---प्रवचनसार, ४६ लोयालोय सयल सो सत्रह हवे देवो ॥ तथा-एको भावः सर्वथा येन दृष्ट. -कातिकेयानुप्रेक्षा, ३०२ १२. वही, ३०३। सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा । १३. से भगव परहं जिणे केवली सम्वन्न सव्वभावदरिसी सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा सव्वलोए सव्व जीवाण जाणमाणो पासमाणे एव च एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। णं विहर।" -प्राचारांगसूत्र, २, ३ -प्रमाणनयतत्वालोकालकार, ४,११ तथा-'तज्ज्यति परंज्योतिः सम समस्तैरनन्तपर्यायः । ७. प्रवचनसार, गाथा ३५, ३६ । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलिति पदार्थमालिका यत्र । ८. वही, २३॥ -पुरुषार्थ०,१ ९. वही, २६। १४. प्रवचनसार, गा०५८ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की सर्वज्ञता सर्वज्ञ नहीं हो सकता। यहां यह विचारणीय है कि कुछ चाहिए ? व्यक्तियो के विषय मे सर्वज्ञता का निषेध किया जा सकता जैनदर्शन का प्रतिपादन स्पष्ट है कि किसी एक है, किन्तु सब के विषय में सर्वज्ञता का निषेध नही किया पदार्थ का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त किये बिना सम्पूर्ण जा सकता । क्योकि सब के विषय मे सर्वज्ञता का निषेध पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। यह कहना ठीक नही है सर्वज्ञ ही कर सकता है।" किसी पुरुष द्वारा सम्पूर्ण कि मनुष्य के राग, द्वेष कभी विनष्ट नहीं होते। जो पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने मे मीमांगको को कोई पदार्थ एक देश में नष्ट होते हैं, वे सर्वथा विनष्ट भी हो ग्रापत्ति नहीं है, किन्तु धर्म का ज्ञान वेदो से ही हो । जाते है। जिस प्रकार मेघों के पटलों का मांशिक नाश सकता है। प्रतः पुरुप सर्वज्ञ हो सकता है ; धर्मज्ञ नही।" से उनका सर्वथा विनाश भी होता है, उसो प्रकार राग किन्तु जनदर्शन मे धर्मज्ञता और सर्वज्ञता मे कोई अतर सात का पाक्षिक RITोने में जमा भी nium नहीं माना गया है। सर्वज्ञ होने पर धर्मज्ञता स्वयमेव । हो जाता है। प्रत्येक प्राणी के राग, द्वेष प्रादि से प्रतिफलित हो जाती है। धर्मज्ञता सर्वज्ञता मे अन्तर्भूत है। दोषों की हीनाधिकता देखी जाती है। कैवल्योपलब्धि पर सर्वज्ञ-सिद्ध पुम्प के सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते है। प्रतएव बीतराग शबर, कुमारिल प्रादि मीमासको का कथन है कि । भगवान सर्वज्ञ है। गग, द्वेप व मोह के कारण मनुष्य धर्म प्रतीन्द्रियार्थ है । उसे हम प्रत्यक्ष से नही जान सकते । असत्य बोलते है। जिसके राग, द्वेष और मोह का क्योंकि पुरुष में राग, द्वेष प्रादि दोप पाए जाते है। धर्म अभाव है, वह पुरुष असत्य वचन नहीं कह सकता सर्वज के विषय मे केवल वेद ही प्रमाण है।" मीमांसकों का का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट होता है। जिस तरह सूक्ष्म पदार्थ यह भी कथन है कि सर्वज की प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से (इन्द्रियों से अज्ञेय) जन साधारण के प्रत्यक्ष नही होते उपलब्धि नही होती, इसलिये उसका प्रभाव मानना किन्तु अनुमेय अवश्य होते हैं। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान से चाहिए। मीमांसक पहले नही जाने हुए पदार्थों को बाह्य परमाणु प्रादि अनुमेय होने से किसी न किसी के जानने को प्रमाण मानते है। प्रभाकर मत वाले प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष अवश्य होते है। इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य के अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति तथा कुमारिल ग्रहण को बताने वाले ज्योतिषशास्त्र की सत्यता प्रादि भट्ट इनके साथ ग्रभाव को भी प्रमाण मानते है । वैशेषिक से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। केवल सूक्ष्म ही नहीं, भी ईश्वर को सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं मानते । उनका अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को भी हम अनुमान से मत है कि ईश्वर सब पदार्थों को जाने या न जाने, किन्तु जानते है। अतः इन पदार्थों को साक्षात जानने वाला वह इष्ट पदार्थो को जानता है, इतना ही पर्याप्त है। पुरुष सर्वज्ञ है।" प्राचार्य विद्यानन्दि ने विस्तार में सर्वज्ञ यदि ईश्वर कीड़े-मकोड़ो की संख्या गिनने बैठे, तो वह की मीमासा करते हुए सर्वज्ञ-सिद्धि की है। उनका कथन हमारे किस काम का ? अतः ईश्वर के उपयोगी ज्ञान है कि किसी जीव मे दोष और प्रावरण की हानि परिकी ही प्रधानता है। क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को पूर्ण से हो सकती है, क्योकि सभी में हानि की अतिशयत प्रमाण माना जाए, तो फिर गीध पक्षियों की पूजा करनी (तरतमता) देखी जाती है। जिस प्रकार से अपने हेतुपों १५. प्राप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका का 'फोरवर्ड', पृ० २१ । कीटसरूपापरिज्ञान तस्य नः क्वोपयुज्यते ।। १६. धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । - स्याद्वादमंजरी से उद्धृत सर्वमन्य द्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ -तत्त्वसंग्रह, ' १९. देशतो नाशिनो भावा दष्टा निखिलनश्वराः । कारिका ३१२८ (कुमारिल भट्ट) द्रष्टव्य है : प्राप्त मेघपङ्क्त्यादयो यत् एवं रागादयो मताः ।। -स्याद्वादमंजरी, पृ० २६३ मीमांसा-तत्त्वदीपिका, पृ० ७२ २०. सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। १७. शाबरमाष्य १,१,२ । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ।। १८. सर्व पश्यतु वा मा वा तस्वमिष्टं तु पश्यतु । -माप्तमीमांसा, १, ५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० बर्ष २६, कि०२ अनेकान्त के द्वारा स्वर्णपापाण मादि मे बाम एवं अन्तरंग मल का उनकी पर्यायों को समस्त रूप से जानता, देखता है। पूर्ण प्रभाव पाया जाता है।" 'दोषावरण' से यहा अभि- जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्प्राय कर्म रूप प्रावरण से भिन्न प्रज्ञान राम द्वेषादि है, चारित्र की समन्वित पूर्णता के साथ कैवल्योपलब्धि होती जो स्व-पर परिणाम हेतु से होते है। धर्म से भी सूक्ष्म है। व्यवहार नय के अनुसार सात तत्त्वों तथा उन पदार्थों पदार्थों को जानने वाला धर्म-ज्ञान से कैसे बच सकता है ? के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है। संशय, विपर्यय और मतः सर्वज्ञ को धर्म जानने का निषेध करना मीमांसकों अनध्यवसाय रहित तथा प्राकार विकल्प सहित जैसा का को उचित नहीं है। संक्षेस में. सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान तसा जानना सम्यग्ज्ञान है। अशुभ क्रियानों से निवृत इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से रहित प्रत्यक्षज्ञान सिद्ध है। होना और शुभ क्रियानों में प्रवृत्ति करना व्यवहार. नैयायिकों के अनुसार योग विशेष से उत्पन्न हुए अनुग्रह है। परन्तु निश्चयनय से रत्नत्रय प्रात्मा को छोड़ कर से योगियों की इन्द्रियां परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों को अन्य द्रव्य मे नही पाया जाता। इसलिए प्रात्मा में रुचि जान लेती है। फिर, जो परम योगीश्वर है वे सम्पूर्ण होना, प्रात्मा का अनुभव और ज्ञान होना तथा प्रात्मा मे सक्ष्म पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त कर सकते है। लीन होना पारमाथिक रत्नत्रय है। इसलिये चार घातिया परन्त सर्वज्ञ का ज्ञान सामान्य प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन को कमों के नष्ट हो जाने पर पूर्ण ज्ञानमय कैवल्योपलब्धि अपेक्षा से रहित है, इसलिये परमार्थ प्रत्यक्ष है। वह होते ही विद्या RT ने त में लीनो मात्मा का स्वभाव तथा पूर्ण ज्ञान कहा गया है। उसे ही है। द्रव्याथिक दष्टि से यही कहा जा सकता है।" प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहते है। 'नियमसार' में भी कहा गया है-केवली भगवान क्या प्रात्मज्ञ ही सर्वज्ञ है ? व्यवहार दृष्टि से सभी द्रव्यों को उनकी गुण, पर्यायों प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जो अहंन्त को सहित देखते जानते है ; किन्तु निश्चयनय से प्रात्मा को द्रव्य, गुण और पर्यायपने से जानता है, वह प्रात्मा को जानते, देखते है । " वस्तुत: इन दोनो कथनों में कोई जानता है।" प्ररहत भगवान और अपनी विशुद्ध प्रात्मा विरोध नही है। प्राचार्य सिद्धसेन सूरि कहते है कि मात्र दोनों समान है। इसलिये अपनी शुद्ध पात्मा को जानने अपने-अपने पक्ष में संलग्न सभी नय मिथ्यादष्टि है, वाला सर्वज्ञ है। वास्तव में इन मे कोई भेद नहीं है। परन्तु ये ही नय यदि परस्पर सापेक्ष हो तो सम्यक् कहे किन्तु हम प्रज्ञानी लोग इन मे भेद करते है ।" वस्तुतः जाते है। केवल ज्ञानी सहज रूप में अपने आप का मात्मा ही केवलज्ञानमूर्ति है। केवलज्ञानी प्रात्मा सारे निरीक्षण करते रहते हैं। क्षायिक उपयोगी होने के कारण संसार को और लोक में रहने वाले छहों द्रव्यों तथा केवलज्ञानी का सतत प्रात्मा में उपयोग रहता है, उसी २१. दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । २५. द्रव्यसंग्रह, ४१-४२, ४३ । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।। २६. वन्धच्छेदात्कलयदतुल मोक्ष मक्षय्यमेत-अष्टसहस्री, कारिका ४ । नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । २२. धर्मादन्यत्परिज्ञातं विप्रकृष्ट मशेषतः । एकाकारस्वरसमरतोत्यन्तगम्भीरधीर येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वं निषेधनम् ।। पूर्ण ज्ञानं ज्वलित मचले स्वस्य लीनमहिम्नि ।। -श्लोकवातिकालंकार -नियमसारकलश, २७१ २३. जो जाणदि प्ररहत दम्बत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । २७. जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगव । सो जाणदि प्रप्पाण मोहो खलुजादि तस्सलयं ।। केवलणाणी जाणादि पस्सदि णियमेण प्रपाण ।। --प्रवचनसार, गा०८० -नियमसार,१५६ २४. सर्वज्ञवीतरास्य स्ववशस्यास्य योगिनः । २८. तम्हा सम्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। न कामपि मिदां वापि तां विमो हा जडा वयम् ।। अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसम्मावा ।। -नियमसारकलश, २५३ (अमृतचन्द्रसूरि) -सन्मतिमूत्रत्र, १२१ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की सर्वज्ञता समय पर रूप से अन्य समस्त पदार्थों का ज्ञान भी होता (तत्वार्थसूत्र १, २६) के अनुसार प्रत्येक द्रव्य की अनन्त है। किन्तु छद्मस्थ का उपयोग एकांगी होता है, इसलिये पर्याय तथा छहो द्रव्यों की समस्त प्रवस्थानों को केवल. जिस समय वह प्रात्मोन्मुखी हो कर समाधिनिरत होता ज्ञान युगपत् (एक साथ) जानता है। केवलज्ञान व्यापक है, उसी समय प्रात्मनिरीक्षण करता है। निर्विकल्प रूप से सभी जयपदार्थो को युगपत् प्रत्यक्ष जानता है।" समाधिस्थित पुरुष ही विशुद्ध स्वात्मा का अनुभव करते इसलिये यह कहना ठीक नही है कि सर्वज्ञ के ज्ञान में है। प्रात्मा का निश्चयनय से एक चेतना भाव स्वभाव केवल वर्तमान पर्याय ही प्रत्यक्ष होती है, यदि ऐमा है। प्रात्मा को देखना, जानना, श्रद्धान करना एव परद्रव्य माना जाए कि सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत, भविष्य को पर्याय से निवृत्त होना रूपान्तर मात्र है। प्रात्मा का परद्रव्य के प्रत्यक्ष रूप से प्रतिविम्बित नहीं होती, तो फिर उनमे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये परद्रव्य का ज्ञाता और अल्पज्ञ में क्या अन्तर रह जाएगा? फिर, भतकाल द्रष्टा, श्रद्धान-त्याग करने वाला आदि व्यवहार से कहा की बातों का ज्ञान कई उपायो मे कई रूपो में जाना जाता है। यहां यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जीव जाता है। अत: भविष्य की पर्यायों का ज्ञान होने में क्यों को ज्ञान तो उसके क्षयोपशम के अनुसार स्व और पर की आपत्ति होनी चाहिए ? निश्चित ही सर्वज का ज्ञान प्रतीभत-भविष्य और वर्तमान की अनेक पर्यायों का हो सकता द्रिय होता है तथा अनन्त पर्यायों को प्रत्यक्ष करता है। है, किन्तु उसे अनुभव उसकी वर्तमान पर्याय का ही होता वह अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त, अमूर्त, अनुत्पन्न एव नष्ट है। जो पदार्थ किसी ज्ञान के ज्ञेय है, वे किसी न किसी पर्यायो को भी जानता है।" ज्ञान के सर्वजत्व को स्पष्ट के प्रत्यक्ष अवश्य है। करते हुए कहा गया है कि नेप सब कुछ है । जव तो यहां सहज ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या समस्त लोकालोक है। इसलिये सभी प्रावरणों का क्षय सर्वज्ञ के ज्ञान मे असद्भुत पर्याय भी प्रतिविम्बित होती होते ही पूर्णज्ञान सब को जानता है और फिर कभी सबके है ? जो पर्यायें भविष्य में होने वाली है, जिनका सदभाव जानने से च्युत नही होता, इसीलिये ज्ञान सर्वव्यापक है। नही है, वे कैसे ज्ञान का विषय बन सकती है ? इसो जनदर्शन में प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के के साथ यह प्रश्न भी सम्बद्ध है कि मन एक साथ सब सर्वद्रव्यो को एवं उनकी पर्यायो को जानने वाला होने से पदार्थो को ग्रहण नहीं कर सकता है और क्रम से सब सर्वगत है।" केवलजान का विषय सर्व द्रव्य और पर्याय पदार्थो का ज्ञान बनता नही है, क्योंकि पदार्थ अनन्त है, है। केवलज्ञानी केवलज्ञान उत्पन्न होते ही लोक और इसलिये जब तक युगपत् पदार्थो को न जाने तब तक अलोक दोनो को जानने लगता है ।" एक द्रव्य को या सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ? एक पर्याय को जानने की अवस्था केवलज्ञान के पूर्व की जैन आगम ग्रंथो में "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" है। सातवें गुणस्थान (प्राध्यात्मिक भूमिका) तक धर्म २६. 'सवणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।' पलय गय च जाणादि त णाणदिदियं भणियं ।। -समयसार, १४४ ।। -प्रवचनसार, ४१ ३१. 'ततो नि.शेषावरणक्षयक्षण एव लोकालोकविभागविम टीका-'समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थः क्तसमातवस्त्वाकारपारम्पा,म्य तथैव--- -पुरुषदृश्यते ज्ञायते च.' प्रत्युतत्वेन व्यवस्थितत्वान ज्ञानं सर्वगतम ।' ३०. ततःसमन्ततश्चक्षुरिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । ----प्रवचनसार, गा ६ २३ की टीका । निःशेषद्रव्यपर्याय विषयं केवलं स्थितम् ।। ३३. सव्वगदो जिणवमहो हव्वे वि य तगया जगदि प्रहा। -तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ. ३५३ णणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते मणिया ।। -प्रवन्सार, ३१. अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्त च पज्जयमजादं । ३४. दशवकालिकसूत्र, ४, २२ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२९० २ ध्यान होना है । भाठवें से शुक्लध्यान प्रारम्भ होता है । घाटवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क बीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान से आत्मा में अनन्तगुणी विशुद्धता होती है । क्षोणकपाय नामक बारहवें गुणस्थान में एकत्ववितर्क अविचार नामक का द्वितीय षध्यान होता है। संयोगकेवली के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक सूनीय ध्यान होता है और प्रयोगकेवली के व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान होता है। शुक्लध्यान मोक्ष का साक्षात कारण है। द्वितीय शुक्लध्यान में योगी बिना किसी वेद के एक योग से एक द्रव्य को या एक श्रृणु को अथवा एक पर्याय का चिन्तन करता है ।" केवलज्ञानी सयोगी जिस सूक्ष्म काययोग मे स्थित होकर सूक्ष्म मन, वचन और श्वासोच्छवास का निरोध कर जो ध्यान करते हैं, वह सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान है ।" इससे ही पूर्णज्ञान की उपलब्धि होती है, जिसमे युगश्त तीन लोक व तीन काल के द्रव्य, गुण. पर्यायो का एक साथ ज्ञान होता है । मनेकाल बना रहता है । उन्होने हमे प्रेरित किया है कि निर्ग्रन्थों ! पूर्वकृत कटुक कर्मों को दुर्धर तप से नष्ट कर डालो । मन, वचन काय को रोकने से पाप नहीं बंधते भौर तप करने से पुराने पाप सब दूर हो जाते है । इस प्रकार नए पापो का बन्ध न होने से पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है और कर्मों का क्षय होने से दुःखों का क्षय हो जाता है। दुःखो के क्षय से वेदना नष्ट होती है और वेदना के विनाश से सभी दुःखो का नाश होता है । भगवान् महावीर की सर्वज्ञता के प्रमाण भगवान् महावीर अपने समय में हो सवंश के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे । पालित्रिपिटको मे कई स्थानों पर दीर्घतपस्वी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी विशेषणों के साथ नियंत्र भगवान महावीर का उल्लेख किया गया है । 'मज्झिमनिकाय' में उल्लेख है " प्राबुस । निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र सर्वज्ञ सर्वदर्शी है। वे अपरिशेष ज्ञान दर्शन सम्पन्न है। चलते खड़े रहते, सोते जागते सभी दिशाओं में उन्हें ज्ञान दर्शन ३५. स्वामित ३६. स्वामिकार्तिकेयनुप्रेक्षा ४८६ २७. मज्झिमनिकाय लक्खग्धसतान्त ३८. यश प्राप्तो वास ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् सगभवर्द्धमानादिरिति । बिन्दु प० पु. ९८ ३६ यस्माल्लीनं जगत्सर्वं तस्मिल्लिडगे महात्मनः । नागमित्येव प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ श्राचार्य धर्मकीर्ति ने भी तीर्थंकर ऋषभ तथा वर्द्धमान की सर्वजना का उल्लेख किया है ।" वैदिक साहित्य में भी भगवान महावीर की सजता के संकेत मिलते हैं। 'स्कन्दमहापुराण में भ० वर्द्धमान तथा केवलज्ञान का उल्लेख है।" तीर्थंकर ऋषभदेव का तो पष्ट रूप से सर्वज के रूप मे उल्लेख किया गया है।" 'महाभारत' मे तो यहा तक कहा गया है कि सर्वन ही आत्मदर्शी हो सकता है । इन उल्लेखी से भगवान महावीर की सर्वज्ञता का निश्चय हो जाता है। भगवान महावीर की वाणी से प्रसूत भागम ग्रन्थों में उपलब्ध तथ्यों को वैज्ञानिकता से भी उनके सर्वज्ञ होने का प्रमाण मिल जाता है । इस प्रकार आगमप्रमाण के द्वारा सर्वज्ञ उत्कृष्ट ज्ञान के पारक प्रभिन् केवलज्ञान ऐश्वर्य से विभूषित होते है। केवलज्ञान में प्रत्यक्ष रूप से सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों का एक साथ प्रतिविम्व झलकता है। व्यवहार अनुमान से भी ऐसे सर्वज्ञ होने मे कोई बाधक प्रमाण नही है । गवर्नमेन्ट कालेज, नीमच (मध्य प्रदेश ) तथाभूतं वर्द्धमानं दृष्टवा तेऽपि सुरर्षयः । विष्णुवायुवाग्निलोकपालाः सपन्नया || स्कन्द महापुराण, ६, २१-३१ रम्येयुपभोऽयं जिनेश्वरः । चकार सर्वगः शिवः ॥ प्रभाष ० ५६ पश्यन्ति एवं स्वमात्मानमात्मना । सर्वशः सर्वदर्शी च क्षेमजस्तानि पश्यति ॥ महा० ४१. श्रोत्रादीनि न -१९६५ ४०. कैलाशे विपुले स्वावतारं सर्वज्ञ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन तीर्थ श्री राता महावीर जी श्री भूरचन्द जैन, बाड़मेर राजस्थान का पाली जिला न केवन ऐतिहाहिसक यातायात से भी जुड़ा हुआ है जिसका प्राचीन इतिहास एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से विख्यात है अपितु धार्मिक हथुडी, हस्तीकुडी, राष्ट्रकूट के नाम से उल्लेख मिलता दृष्टि से भी इस जिले की अद्भुत महत्ता बनी हुई है। है। यहां पर छठी शताब्दी का बना मन्दिर श्री राता जिले में सभी धर्म, सम्प्रदायों के विख्यात दर्शनीय, एवं महावीर स्वामी के नाम से पुकारा जाता है। इस स्थान पूजनीय धार्मिक स्थल विद्यमान है। पाली जिला जैन को कन्नौज के अतिरिक्त राठौड़ की उत्पत्ति और प्रोसवाल धर्मावलम्बियों का मुख्य केन्द्र रहा है। जहा पर जैन धर्म राठौड़ गोत्र का सूत्रपात केन्द्र होना भी बताया जाता है। के बड़े-बड़े प्राचार्यों, विद्वानो साधु सन्तो, यति-मनियो ने राठौड़ राजानो की हथु डी राजधानी रही है जो जैनाचार्यों सत्य और अहिंसा की अनूठी मशाल जलाई। इन्ही महान् की धार्मिक गतिविधियो का प्रमुख केन्द्र स्थान भी रहा है। त्यागमय विभूतियो के सद् उपदेशो से पाली जिला अपनी हथु डी मे बने श्री महावीर स्वामी के मन्दिर का कोख मे ऐसे जैन दर्शनीय स्थानों का निर्माण करवा सका निर्माण वि० स० ६२१ मे प्राचार्य महाराज श्री सिद्धिहै जो न केवल भारत विरूपात ही है अपितु विदेशी पर्यटक सरि जी के उपदेश से श्रष्ठि गोत्र के वीर देव ने करवाया। भी इन्हें देखने के लिए बराबर लालायित रहते है। जहां जहां पर वि० सं० १८% तक सर्वश्री प्राचार्य महाराज पाली जिले की गौड़याड जैन पंचतीर्थी जैनों के लिए धामिक सिद्धि सूरि जी, कक्कमूरि जी, देवगुप्तसूरि पौर सर्वदेवसूरि श्रद्धा से पूजनीय बनी हुई है वहा दूसरी पोर पर्यटकों, जी ने जैन मन्दिर के निर्माण के अतिरिक्त दुष्काल में इतिहासकारों, पुरातत्त्व विशेषज्ञों के लिए भी इनका बड़ा जनमानस एवं पशुगों की सेवा के साथ साथ जैनधर्म के महत्व बना हुया है। राणकपूर, नाडोल, नारलाई, वर. व्यापक प्रचार का कार्य भी किया। इस भव्य मन्दिर के काना एवं घाणेराव के पास स्थित मछाला महावीर गोड मूल द्वार के बाईं ओर ताक पर वि० स० ६६६ एवं वाड़ जैन पंचतीर्थी के मुख्य स्थान है जिनकी बेजोड एव १०५, के लेख भी थे जो ग्राजकल अजमेर म्यूजियम में सूक्ष्म शिल्पकला अत्यन्त ही सुन्दर है। राणकपूर के जैन होने बताये जाते है । वि. स १०११ ज्येष्ठ बदी पचमी मन्दिर शिल्पकला और स्तम्भों की बनावट के लिए जगत वि. स. १०४८ वैशाख वदी ४ और वि० स० मार्गशीर्ष विख्यात है। इसी जैन पचतीर्थी में धार्मिक कडी जोडने शुक्ल १२ के प्राचीन शिलालेख मन्दिर में विद्यमान है। इन में जिले में स्थित श्री राता महावीर तीर्थ स्थान भी अपनी लेखो के अतिरिक्त अन्य कई छोटे बड़े प्राचीन लेख प्रतिष्ठा प्राचीनता, ऐतिहासिक महत्ता, धार्मिक मान्यता, शिल्प- आदि से सम्बन्धित भी मन्दिर में दृष्टिगोचर होते है। कलाकृतियों के साथ निर्जन जगल मे प्राकृतिक नयना- श्री महावीर स्वामी के इस विशाल तीर्थ स्थान का भिराम दृश्यों के लिए विख्यात है। निर्माण वि० सं० ६२१ मे हुग्रा था और प्रथम जीर्णोद्वार श्री राता महावीर जैन तीर्थ स्थान पाली जिले में वि० सं०६६६ मे प्राचार्य श्री कारिजी ने करवाया। परावली पहाड़ियों की तलहटी में निर्जन वन में बीजापुर इसके पश्चात् वि मं. ६६६ में प्राचार्यश्री यशोभद्रारि जी ने ग्राम से २ मील दूर स्थित है । राणकपुर से १३ मील दूर मदिर का जीर्णोद्धार राजा विदग्ध के समय करवाया था उस यह स्थान दक्षिण और पूर्व दिशा के मध्य स्थित है। समय राजा विदग्ब ने अपने शरीर के बराबर सुवर्ण तोल ऐरिनपुरा रोड रेलवे स्टेशन से ८ मील दूर यह तीर्थ सड़क कर इस जीर्णोद्धार में लगाया। वि० सं० १०५३ माघ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४, वर्ष २६,कि.२ भनेकान्त सुदी १३ को मन्दिर की प्रतिष्ठा भी हुई। वि० सं० जैन धर्म प्रभावित होकर वि० सं० ६६६, १०५३, २००६ में प्राचार्य श्री विजयवल्लभसूरि जी ने मूल मन्दिर १२६६, १३३५, १३३६ एवं १३४६ मे राज्य करने वाले के जीर्णोद्धार के साथ-साथ प्रजनशाला की प्रतिष्ठा भी राज्य शासको ने राज्य मे जैनधर्म के प्रचार करने एवं करवाई। इस प्रकार अनेकों प्राचार्यों, साधु साध्वियों, प्राचार्यों की रक्षा हेतु शासन पत्र जारी किये, शासन पत्रों धनाढ्य जैन बन्धुओं ने तीर्थ के जीर्णोद्धार करवाकर इसे में लिखा गया कि जहा तक पर्वत, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, गंगा, और अधिक लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया। सरस्वती है वहा तक यह शासन पत्र कायम रहेगा। प्राज भी श्री राता महावीर जी क्षेत्र मे उक्त शासन पत्रों का श्री राता महावीर वह स्थान है जहां पर पशुओं की बराबर पालन हो रहा है । हिंसा पर वि० सं० १८८ मे राजा राव जगमान ने हथु डी स्थित श्री राता महावीर का जैन मन्दिर प्राचार्य देवसूरि जी के उपदेश से प्रेरित होकर राजपत्र शिल्पकलाकृतियों का भंडार है। जिसके अन्दर मूल भग. जारी कर रोक लगा दी और जैन धर्म के सत्य और अहिसा वान महावीर स्वामी को प्रतिमा के अतिरिक्त अनेको उपदेशों से प्रभावित होकर जनधर्म अगीकार किया था। छोटी बड़ी जन प्रतिमाए विद्यमान है। अरावली पहाड़ की इसी प्रकार जैनधर्म के प्राचार्य सर्वश्री बलिभद्राचार्य, गोद मे जगल मे प्राबादी रहित क्षेत्र में बसा राता महावासदेवाचार्य, सूर्याचार्य, शान्तिभद्राचार्य, यशोभद्राचार्य वीर जी का जैन मन्दिर प्राज भी तीर्थ स्थान के साथएव केशरसरि संतति के उपदेशों से प्रभावित होकर अनेकों मागोमा भपतियों ने जैन धर्म को अंगीकार किया। जिसमें सर्वश्री हजारों लोग यात्रा पर पाते है। राजस्थान के पाली जिले विदग्ध राजा, दुल्लभ राजा, सामंत सिंह, महेन्द्र राजा, मे स्थित गोड़वाड़ जैन पंचतीर्थी राणकपुर, नाडोल, नारघरणीवाह राजा हरीवम राजा, ममट राजा, घवल राजा, लाई, वरकाना, मंछाला महावीर के साथ-साथ श्री राता मल राजा प्रादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। महावीर की यात्रा भी करते है। यह राजस्थान का गौरववि० सं० १२०८ मे प्राचार्य महाराज जयसिंहसूरि जी ने मय स्थल है। जहां प्रतिवर्ष महावीर जयन्ती, चैत्र सुदी राठौड़ क्षत्रीय वशी अनन्तसिंह राजा को रोग मुक्त किया तेरस के दिन विशाल पैमाने पर मेले का भी प्रायोऔर धर्म उपदेशों से जैनधर्म की महत्ता बताई। राजा जन किया जाता है जिसमें देश के विभिन्न भागों के अनन्तसिंह ने प्राचार्य जी के उपदेशों से प्रभावित होकर हजारो लोग एकत्रित होकर भगवान की सेवा पूजा एवं पत्नी सहित जैन धर्म को अगीकार किया और इनसे रथ यात्रा में भाग लेकर प्रानन्दित होते है। उत्पन्न होने वाली संतान प्राज भी प्रोसवाल राठौड़ गोत्र जूनी चौकी का वास, से देश के कई भागो मे विद्यमान है। बाडमेर (गजस्थान) [70 ७६ का शेषाशा से चिन्तन करता है वह अवश्य ही स्वात्मोपलब्धि का ने इस मूर्ति का निर्माग कराकर फिरोजाबाद को एक तीर्थ पात्र हुए बिना न रहेगा। क्षेत्र बना दिया है । उनको धामिक परिणति सराहनीय है। जयति जयिनमे योगिनं योगिवर्यः, इस मूर्ति निर्माण से उन्होंने विपुल यश प्राप्त किया है। जो प्रधिगतमहिमानं मानितं माननीयः । उस मूर्ति का दर्शन करेगा, उसका अन्तरात्मा निर्मल और स्मरति हृवि नितान्त य. स शान्तान्तरात्मा, प्रशान्त होगा। सेठजी ने मन्दिर और बाहुबली की मूर्ति का भजति विजयलक्ष्मीमाशुजैनीमजय्याम् ॥ ३६-२१२ निर्माणकर अपनी कीति को अमर बना लिया है। वास्तव फिरोजाबाद निवासी स्व० सेठ छदामोलालजी ने बाहु- मे उत्तरप्रदेश और मध्य प्रदेश मे इतनी विशाल मूर्तियो बली की ४५ फुट ऊनी विशाल मूर्ति बनवाई है, और उमकी का निर्माण अभी तक नही हुप्रा था। सेट जी ने इस कार्य प्रतिष्ठा होने वाली ही थी कि अकस्मात् सेठजी के दिवगत को पूरा कर दिया है। हो जाने से इस महान कार्य में कुछ विलम्ब हो गया है। वह एफ ६५, लक्ष्मीनगर जे एक्सटेंशन, श्रवणबेलगोला की गोम्मटेश्वर मूर्ति के अनुरूप है । सेठ जी (जवाहर पार्क), दिल्ली-३२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त Oडा० शोभनाथ पाठक, मेघनगर "प्रने के प्रता: धमाः यस्मिन् स अनेकातः" सभी तदेव प्रतत्, यदेवकं तदेवानेक, यदेव सतदेवासत्, यदेव धर्मों के प्रति समान सद्भावना ही अनेकान्त की वरीयता नित्य तदेवानित्य - इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकारस्परहै। भगवान महावीर प्रणीत दर्शन के चिन्तन की शैली विरुद्धशक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः।" का नाम अनेकान दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का प्रति जो वस्तु तत्वस्वरूप है वही प्रतत्स्वरूप भी नाम स्याद्वाद है। अनेकान्त दृष्टि का तात्पर्य है वस्तु का का है, जो वस्तु एक है, वही अनेक भी है, जो वस्तु सन् है सर्वतोमुखी विचार । वस्तु में अनेक धर्म होते है। वही प्रसत् भी है, जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य भी है। महावीर ने प्रत्येक वस्तु के स्वरूप का सभी दृष्टियों इस प्रकार अनेकान्न एक ही वस्तु मे उसके वस्तुत्वसे प्रतिपादन किया। जो वस्तु नित्य मालूम होती है वह गुणपर्याय सत्ता के निष्पादक अनेक धर्मयुगलों को प्रकाअनित्य भी है। जहा नित्यता की प्रतीति होती है, वहा शित करता है। अनित्यता भी अवश्य रहती है। यही नहीं वरन अनित्यता वास्तव में किसी वस्तु की परख केवल एक ही दृष्टि के प्रभाव मे नित्यता की पहचान ही नही हो सकती। कोण से नहीं की जा सकती, वरन उसे अनेक दृष्टिकोणों नित्यता और अनित्यता सापेक्ष है। से ही परखा जा सकता है। अतः स्पष्ट होता है कि सभी धर्म मानव कल्याण का सन्देश अपने-अपने एकान्त दृष्टिकोण को मार्ग दर्शन देने हेतु अनेकान्त का प्रादों के अनुसार देते है। जैन दर्शन में भी यही है । प्रतिपादन हुमा। इसकी वरीयता इस उद्धरण से स्पष्ट महावीर ने इसकी महत्ता प्राचार व पिचार की गरिमा होती है यथासे उजागर की। पानार अहिंसा मूलक है और विचार "सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथै कान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः" अनेकान्तात्मक । तथ्यतः इसकी मूलदृष्टि एक ही है, किन्तु प्रर्यात् वस्तु सर्वथा सत् है, अयवा अमत् है. नित्य है जब वह दृष्टि प्राचारोन्मुख होती है तब वह अहिंसामुखी अथवा अनित्य, प्रादि के परखने की पद्धति का नाम है हो जाती है और जब वह विचारोन्मुखी हो जाती है तब अनेकान्तात्मक हो जाती है । अतः स्पष्ट होता है कि जैन अनेकान्त । किसी वस्तु के परख की अनुभूति की अभिदर्शन प्रादशं और यथार्थ तथा निश्चय और व्यवहार के व्यक्ति एक साथ हो नही वरन् क्रमानुसार होती है इमी त्रमबद्ध अभिव्यक्ति को पद्धति को स्याद्वाद' कहा गया है। सुदृढ धरातल पर प्रतिष्ठित है। अहिंसक प्राचरण प्रौर अनेकान्तात्मक चिन्तन ही मानव को सच्चा सुख देने में स्यात्' शब्द तिङन्त प्रतिरूप अव्यय है। इसके सक्षम है। प्रशंसा, प्रस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त सशय, प्रश्न अनेकान्त शब्द बहुव्रीहि समास युवत है, जिसरा आदि अनेक अर्थ है। महावीर जी ने इसे अनेकान्त कहा या तात्पर्य है अनेक अर्थात् एक से अधिक धो, रूपो, गुणों स्याद्वाद प्रर्थात् अनेकान्तात्मक वाक्य । स्पावाद की और पर्यायों वाला पदार्थ । पदार्थ अनेक गुण रूपात्मक अन्य व्युत्पत्तिया भी है । सामान्यतः यह शब्द स्यात्' और होने के साथ-माथ विवक्षा और दृष्टिकोणों के प्राधार पर 'वाद' इन दो पदो से बना है 'स्यान' का अभिप्राय है भी अनकान्त है। एक पौर अनेक की इम यथार्थना को कवित'। कथात् अर्थात प्रमुक निश्चिन अपेक्षा से बडी गरिमा के साथ परखा गया है यया --'यदेव तत् वस्तु अमुक धर्मशाली है। यह गायद, संभावना और Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, वय २६, कि० २ अनेकान्त कदाचित् शब्दों का प्रतिपादक नही है वरन इसका तात्पर्य मिथ्या अनेकान्त है। अन्य सापेक्ष एक धर्म का ग्रहण है-सुनिश्चित दृष्टिकोण । सम्यगनेकान्त है तथा अन्य धर्म का निषेध करके एक का 'स्यात्' निपात है। निपात द्योतक भी होते है और अवधारण करना मिथ्यानेकान्त है। वाचक भी। 'स्यात्' शब्द अनेकान्त-सामान्य का वाचक अनेकान्त अर्थात् राकलादेश का विषय प्रमाणाधीन होता है, फिर भी 'प्रस्ति' आदि विशेप धर्मों का प्रति- होता है और वह एकान्त की प्रर्थात् नयाधीन विकलादेश पादन करने के लिए 'अस्ति' प्रादि सत् धर्मवाचक शब्दों के विषय की अपेक्षा रखता है यथाका प्रयोग करना पडता है। तात्पर्य यह है कि 'स्यात् अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । मन्ति' वाक्य मे प्रस्ति' पद अस्तित्व धर्म का वाचक है, अनेकान्तः प्रमाणात तदेकान्तोऽपिताम्नयात् । और 'स्यात्' अनेकान्त का। -वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र समतभद्र १०२ 'अनेकान्त' शब्द वाच्य है और 'स्याद्वाद' वाचक । प्रर्थात् 'प्रमाण' और 'नय' का विषय होने से अने'स्यात' शब्द जो कि निपान है - एकात का खण्डन करके कान्त, अनेक धर्म वाला पदार्थ भी अनेकान्तरूप है। वह अनेकान्त का समर्थन करता है । इस महत्ता का प्रतिपादन जब प्रमाण के द्वारा समग्रभाव से गृहीत हता है तब वह मनीषियों ने किया है-- अनेकान्त, अनेकधमत्मिक है और जब किसी विवक्षित नय "वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्य प्रति विशेषकः । का विषय होता है तब एकान्त एकधर्मरूप है उस समय स्थानिपातीर्थ योगित्वात तब केवलिनामपि ॥ शेष धर्म पदार्थ में विद्यमान रहकर भी दृष्टि के सामने ___ -- प्राप्तमीमांसा नहीं होते। इस तरह पदार्थ की स्थिति हर हालत में THो वरीयता को न खनन में लोग अनेकान्तरूप ही सिद्ध होती है। इसका अर्थ संशय, अमदिग्धता प्रादि लगा लेते है जो ठीक अनेकान्तदृष्टि या नयदृष्टि विराट् वस्तु को जानने नहीं है। किसी वस्तु का मूल्यांकन करना ही इसकी का वह प्रकार है, जिसमे विवक्षित धर्म को जानकर भी महता है यथा---' स्याद्वाद सर्वथै कान्तत्यामात् विवन- अन्य अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता उन्हे गौण या चिद्विधि' यही नहीं वरन इस नोक की गहनता को अविवक्षित कर दिया जाता है और इस तरह प्रत्येक दशा भी थहाएं पूरी वस्तु का मख्य गौण भाव से स्पर्श हो जाता है। इस 'सर्वयात्वनिषेधको अनेकान्तता द्योतकः । तरह जब मनुष्य की दृष्टि अनेकान्ततत्व का स्पर्श करने कवितर्थ स्यात् शब्दो निपातः ॥" वाली बन जाती है, तब उसके समझाने का ढग निराला -पंचास्तिकाय हो जाता है प्राचार्य हेमचन्द्र ने बीजगगस्तोत्र में इसकी महत्ता को उजागर किया है यथा अनेकान्त वातु की अने कमिना गिद्ध करता है तथा विज्ञानस्यैकमाकार नानाकारकरम्बितम् । स्थाद्वाद उसकी व्याख्या करने में एक साक्षिक मार्ग का इच्छस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।८।। सूत्रपात करता है तथा मानभगी उस मार्ग का व्यवस्थित चित्रमेकमने च रूपं प्रामाणिकं वदन् । विश्लेषण कर उसे पूर्णता प्रदान करती है। योगो बंशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥६॥ अनेकान्त 'प्राण' और 'नय' की दृष्टि से कथञ्चित् इच्छन प्रधान सत्त्वाद्येविरुद्ध गुम्फितं गुण. । अनेकान्तरूप और कथञ्चित् कासमप है। 'प्रमाण' का सांस्यसंख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥१०॥ विषय होने से यह अनेकान्तरूप है। इसके दो भेद बताये डा. शोभनाथ पाठक, एम० ए० (सस्कृत, हिन्दी); गये हैं -- सम्पगनेकान्त श्री मियानकान्त । परम्पर पी.एच. डी., साहित्यरत्न सापेक्ष अनेक धौ का सकन भाव • ग्रहण करना सम्यग मेघनगर नेकान्त है और परस्पर निक्ष अनेक धर्मों का ग्रहण जि. झाबुमा (म.प्र.) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवीय समुन्नति का प्रशस्त मार्ग विनय पं० विमलकुमार जैन सोरया, एम. ए , शास्त्री विण मो मोक्खहारं विणयावो सजमो तवो जाणं, विनय के अन्र्तगत पाती है। अपने से श्रेष्ठ जनो के सामने णिगएजरातिज्गाह मायरियो सध्वसंघो य । यात ही आसन से उठना, हाय जोड़ कर अभिवादन करना, मायारजीदकप्प गुणदीवाण प्रत्तसोधिणिज्झझा, श्रेष्ट उच्च प्रासन देना, पूज्य जनो के चरणो में झुकना प्रज्जव मदद लाघव भत्ती पल्हाद करणं च ॥ और इष्ट देव को यथा य ग्ध पूजन अर्चन करना, किसी भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने उक्त गाथाओ में विनय की के प्रति प्रतिकूल न कह उसके अनुकूल बोलना, देश व काल महत्ता दर्शाते हुए विशिष्ट गुणो का प्रतिपादन करते हुए योग्य द्रव्य देना लोकानत्ति विनय है। लिखा है कि-"विनय मोक्ष का द्वार है विनय से सयम' २-अर्थ निमित्तक विनय --धनलाभ की प्राकांक्षा से तप और ज्ञान होता है और विनय से प्राचार्य व सर्वसध व्यापारिक कार्यों में ग्राहको के प्रति अर्थ लाभ की दृष्टि की सेवा हो सकती है। माचार के, जीव प्रायश्चित के से प्रादर सूचक सम्मान पूर्ण शब्दों से बोलना, अपने अर्थ पौर कल्प प्रायश्चित के गुणों का प्रगट हाना प्रात्म शुद्धि, प्रयोजन सिद्धि के लिए स्वार्थवश अधिकारियों, व्यक्तियों कलह रहितता, पाव, मादव, निर्लोभता, गुरुसेवा सबको या सहयोगी उद्योगपतियों के प्रति हाथ जोड़ना, नम्रता सुखी करना यह सब विनय के गुण है।" दिखाना अर्थ निमित्तक विनय है । विनय का तात्पर्य नम्र वृत्ति का रखना है । यह एक ३-कामतंत्र विनय-ज्ञन्द्रियवासनामों की पूर्ति के ऐसी मनोवैज्ञानिक ज्ञान गुण प्रवृत्ति है जो व्यक्ति के लिए अपने प्रेमीजन के प्रति नम्रता श्रादर प्रगट करना, व्यक्तित्व को और प्रात्मा को समुपलब्धि को प्राप्त कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतंत्र विनय है। कराती है। पूज्य पुरुषों के प्रति प्रादर गुणी एवं वृद्ध ४-भय विनय-धन हानि, मान हानि, अथवा शारीपुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति, कषायों एव इन्द्रियों को सरल रिक क्षति के भय से अपने से विशेष शक्तिशाली व्यक्ति, करना विनय की परिधि के प्राकार है। विनय व्यक्ति के शत्रु या शासकीय अधिकारी के प्रति जो पाटर पूर्वक यश की उज्वल ग्राभा मर्वत्र प्रकाशवान रहती है । विनय भक्ति या विनय की जाय अथवा जिसमें किसी भी प्रकार वान सभी का प्रिय और प्रादर भाजन होता है। विनय के भय की प्रागमाहा उसके प्रति जो विनय की जाती है सम्पन्नता से ही तीर्थकर नाम कम वो वास्ता है क्योकि वह भय विनय है। विनय सम्पन्नता एकमी होकर १६ अवयवो से सहित है। ५-मोक्ष विन्य-ग्रात्म कल्याण के हित अथवा मोक्ष प्रतः उस एक ही विनय सम्पन्नता से मनुष्य तीर्थ र नाम मार्ग मे विनय का प्रधान स्थान है। ज्ञ'न लाभ, प्राचार को बाधते है। शुद्धि और सच्ची पाराधना की सिद्धि विनय से होती है। माध्यात्मिक दृष्टि से मोक्ष के साधन भूत सम्यग्ज्ञाना- और अन्त में मोश सुख भी इसी मे मिलता है। प्रतः दिक मे तथा उनके साधको मे अपनी योग्य रीति से प्रादर मोक्ष मार्ग मे विनय भाव का मर्वोपरि स्थान है। व सम्मान करना, व पाय को निवत्ति करना, ज्ञान दर्शन मुमुक्षुजन सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र व तप चारित्र व तप की अतिचार प्रशुभ क्रियाग्रो को हटाना के दोष दूर करने के लिए जो कुळ प्रयत्न करते है उसे भौर रत्नत्रय मे विशुद्ध परिणाम लाना ही विनय है। विनय कहते है। इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर सामान्यरुप से विनय का वर्गीकरण पांच प्रकार से शक्ति के प्रनमार उन्हे करते रहना विनयाचार है। यह किया गया है। जो निम्नलिखिन अनुसार भेदो, प्रभेदो के विनयाचा पाच प्रकार की है। इन्हे अगर मोक्ष गति के रूप मे उल्लखित है--- नायक कहा जाय तो मतिशयोक्ति न होगी। भेद निम्न१-लोकानवृत्ति विनय - लोक परम्परा के अनुरूप लिखित अमुसार है। जो क्रियाएँ सम्पादित की जाती है-वे लोकानुवृत्ति १-ज्ञान विनय-ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय प्रत्यंत Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८, वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त प्रधान है। नीतिकार ने कहा है कि "सर्च संग रहित नमस्कार करना तथा परोक्ष में भी मन वचन काम पूर्वक गुरुषों की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियायें ऊसर नमस्कार करना और उनके अनुकूल भक्ति पूर्वक प्रवृत्ति भूमि पर पड़े वीज के समान व्यर्थ हैं।" ज्ञान का सीखना करना यह उपचार विनय के रूप हैं। मुख्तः इसके ३ उसी का चितवन करना, दूसरों को भी उसी का उपदेश भेद एवं १३ प्रभेद है। जिनका पर्यवेक्षण निम्नलिखित देना, तथा उसी के अनुसार न्याय पूर्वक प्रवृत्ति करना, अनुसार किया गया है। ज्ञान का अभ्यास करना और स्मरण करना, ज्ञान के (क) कायिक विनय - चारित्र और ज्ञान मे अपने उपकरण शास्त्र प्रादि तथा ज्ञानवंत पूरुष में भक्ति के से श्रष्ठ जनों अथवा साधु पुरुषों को प्राते हुए देख प्रासन साथ नित्य प्रति अनुकूल माचरण करना यह सब ज्ञान छोड़कर खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृति कर्म करना, उसके विनय है। इसके मूलभूत ८ प्रकार हैं। (१) काल पीछे पीछे चलना उनसे नीचे बैठना, सोना, प्रासन देना, (२) विनय (३) उपधान (४) वहुमान (५) भनिह्नव ज्ञान प्राचरण की साधक वस्तु या उपकरण देना तथा (६) व्यंजन (७) अर्थ (4) तदुभय । साधु पुरुषों का बल के अनुसार शरीर का मर्दन, काल के मनुसार क्रिया करना और परम्परा के अनुमार विनय २-वर्शन विनथ-भगवान जिनेन्द्र देव ने अपने दिव्य करता कायिक विनय है। यह सात प्रकार की होती हैउपदेश द्वा । पदाथों का जैसा उपदेश दिया है उसका उसी (i) मादर से उठना, (ii) नत मस्तक होना, (iii) रूप में बिना शका के श्रद्धान करना, पंचपरमेष्ठी, अरहत सिद्ध की प्रतिमाएं, श्रुतज्ञान जिनधर्म, रत्नत्रय, प्रागम प्रासन देना, (iv) पुस्तकादि देना, (v) यथायोग्य कृति और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा प्रादि करना और कर्म करना, (vi) ऊंचा प्रासन छोड़ कर बैठना. (vii) जाते समय ससम्मान भेजना। इनका महत्व बतलाना यह सब दर्शन विनय है। (ख) वाचिक विनय · प्रादरयुक्त नम्र, हितमित प्रिय ३.चारित्र विनय - मोक्षमार्ग मे चारित्र की महत्ता प्रागमोक्त, अल्प, उपशात, निबंध, मावद्य, क्रियारहित, सर्वोपरि है। विना चारित्र के मात्र ज्ञान पगुवत् है। अभिमान रहित वचनो से बोलना वाचिक विनय है। मत: इन्द्रिय और कपायों के परिणाम का त्याग करना वाचिक विनय मुख्यत: चार प्रकार की है -(1) हित तथा गुप्ति समिति प्रादि चारित्र के अंगो का पालन विनय, (ii) मित विनय, (m) प्रियकारी विनय, मोर करना ज्ञान और दर्शन युक्त पुरुष के पांच प्रकार के (iv) शास्त्रानुकल बोलना। दुश्चर चरित्र का वर्णन सुनकर अन्तभक्ति प्रगट करना, (ग) मानसिक विनय - धर्म के उपकार में परिणामो प्रणाम करना, मस्तक पर अजलि रखकर पादर प्रगट का होना, सम्यक्त्व की विराधना मे जो परिणाम हो करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान चारित्र करना उनका त्याग करना, साधर्मी जनो के प्रति उन्नत एवं पूज्य विनय है। परिणामरखना मानसिक विनय है। यह दो प्रकार की सविनय-अपने से श्रेष्ठ तपस्वी के प्रति भक्ति है---१. पापग्राहक चित्त को रोकना तथा २. धर्म मे करना उसके प्रति संकल्प रहित होना, संयम रूप उत्तर अपने मन को प्रवर्तन।। G H गुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परिषहो को परिषदो को विनय के इन पायामों का जीवन में उतारना और सहन करना यथायोग्य पावश्यक क्रियाओं मे हानि-वृद्धिन दैनिक जीवन मे साकार रूप देना मानवीय समन्वति मे होने देना, तप में अपनी प्रवृत्ति को लगाना तप विनय है। सर्वोपरि है । विनय जीवन की वह साधना सीढी है जो ५-उपचार विनय-नैतिक जीवन में अपने द्वारा व्यक्ति के नैतिक, प्राचरण तथा आध्यात्मिक जीवन की दूसरों के प्रति उसके गुणों, साधनामों पथवा मान्य दिशा को प्रकाशवान करता है। प्राशा है प्रत्येक व्यक्ति प्रवृत्तियो के प्रतिरुप प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से श्रद्धापूर्वक जीवन की धन्यता के लिए विनय जैसे प्रशस्त मार्ग को पादर देना उपचार विनय है। मुख्यतः रत्नत्रयघारी अपनायेगा। महावरा (ललितपुर) महापुरुषों, मुनिराजों, प्राचार्यों मादि के प्रति प्रत्यक्ष भक्ति, उत्तर प्रदेश Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा को नवीन अप्रकाशित जैन प्रतिमाओं के अभिलेख 0 डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जैन भगवान् महावीर के २५०० वें वर्ष में मालवा के दोनों पर प्रभिलेख क्रमश: इस प्रकार है :जैनावशेषो का सर्वेक्षण कार्य उज्जैन के डरसारी व (१) शांति भलई यः ।। मालव प्रान्तीय दिगंबर मूर्ति संग्रहालय के प्रमुख पं. सत्यं कांता च गुहतों।। वर्द्धमाना षिष्य जेष्ठ घर कुमार सेठी के प्रयासों से प्रारंभ हुमा । एक समिति कांति सोभयेथस्तयों संवत १२२७ वर्षे बनी जिसके प्रमुख जैन तीर्थ व स्थानों का सर्वेक्षण कार्य वदि प्रतिपदा गुरोः।। अपने हाथों मे लिया । पुरातत्ववेत्ता पदम श्री डा. विष्णु (२) सं. १२२७ वर्षे ज्येष्ठ वदि प्रतिपदा गुरी श्रीधर वाकणकर ने मुझे विशेषज्ञ के रूप में लिया । साध सातिसत नमैः प्रणमति नित्यं ।। श्रीमक्सी क्षेत्र के मंत्री श्री झांझरी ने वाहन सुलभ किया जिला रतलाम में बदनादर ऐसा स्थान है जहां लगव लगभग शुजालपुर व शाजापुर जिले का सर्वेक्षण संपन्न भग ७३ जैन मंदिर है व ७२० के करीब तीर्थकर प्रतिकराया। "मालवा के जैनतीर्थ" नामक पुस्तक लेखन के मायें भग्नावस्था में पड़ी है। यहां की कुछ अभिलेख लिए ऊन, बड़वानी, सिद्धवर कुट, मक्सी जी, बनेडिया जी युक्त प्रतिमायें जयसिंहपुरा जैन सग्रहालय उज्जैन में प्रा पौर महेश्वर प्रोकारेश्वर की यात्रा की-इन सब प्रयासों चकी है। परमार ताम्रपत्रों में इस स्थान का नाम से उज्जैन, मदसौर, खरगोन झाबमा व निमाड़ जिले की बर्द्धनापुर मिलता है जो कालान्तर में बदनावर हो गया। अनेकतीर्थकर प्रतिमाएं प्रकाश में पाई उनके पादपीठ के यह स्थान परमार कालीन जैन स्थापत्य एवं मूर्ति से मूतिलेखो का वाचन किया गया। यहा केवल मूर्तिलेख संपन्न है । यहां की एक जैन शासन देवी अइवारोटी रूप वाली प्रतिमायें ली जाती है। में है । यह प्रतिमा जयसिंहपुरा जैन संग्रहालय उज्जैन में उज्जैन के धार्मिक स्थलो मे गढ़ भैरव प्रसिद्ध स्थान स्थित है (मूर्तिकमांक ११०) । शीर्ष भाग पर पद्मासन है । यहां काल भैरव के निकट ही शिप्रा के किनारे पोख में तीर्थकर है जिनकी पुष्पहार से दो युगल पाराधना लेश्वर नामक मंदिर है। यहां १९७४ की ग्रीष्मऋतु में कर रहे है । बाई मोर वीणाधारी ललितासना अन्य देवी जल सूख गया और उसमे लगभग १६ जन प्रतिमाये है व दाहिनी ओर जैनदेवी है। नीचे मूर्तिलेख इस प्रकार प्राप्त हुई। यहां की एक ऋषभनाथ प्रतिमा पर निम्नलिखित अभिलेख है : 'संवत १२२६ वैशाख वदी ६ शक्र अद्य संवत १३४० वर्षे ज्येष्ठ वदि १२ शनि. माथुर सघे वर्द्धनापूरे श्री शांतिनाथ चेत्ये सा थी 'गोशल वघेरवालान्वये सा. जस भार्या पदामिणि तत्र लाला भार्या भार्या ब्रह्मदेव उ देवादि कूटम्ब सहितेन निज पुथम सिरि मातृ पाल्हा भार्या राय सिरिमातृ जात्या गोत्र देव्याः श्री अच्छुम्नापा प्रतिकृति कारिता। भार्या "सिरिमाल जात्या भार्या लाडी पुत्रस्य भार्या लाजू श्री कुलादण्डोयाशाय प्रतिष्ठिता:॥' मात काण्त पुत्र माहादेवे सहदेव प्रणमति नित्यं ॥ बदनावर की ही एक अन्य प्रतिमा में ६ शामन उज्जैन जिले की महीदपुर तहसील से २२ मील देवियां है और नीचे परमारकालीन लिपि मे देवियो के पूर्व में स्थित झारड़ा ग्राम मे अनेक तीर्थकर प्रतिमायें नाम लिखे है -(१) वारिदेवी (२)निमिदेवी ( ३) उमा. मकानों की नीव खुदाते समय प्राप्त हुई है । यहा की दो देवी (४) सुवय देवी (५) वर्षादेवी (६) सवाई देवी। जन प्रतिमाओं का उल्लेख १६३४ के इंदौर स्टेट गजे- देवास के निकट नेमावर ग्राम मे अम्बिका की प्रतिमा टियर में हुआ है । दो देवियों की प्रतिमा अभिलेख के पादस्थल पर निम्नलिखित प्रभिलेख है .युक्त हैं । प्रथम पद्मावती की है व दूसरी संभवतः सिद्धा- लोढ़ान्वये देशिन भार्या माना प्रणमति नित्य यिका यक्षिणी है। सूत्रधारा रक्षित प्रणमति नित्य संवत १२८३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त जनदेवालय में पार्श्वनाथ प्रतिमा के नीचे का अभि- कंवला, घुसई (घोमवती नाम यहां की एक तीर्थंकर लेख : प्रतिमा के नीचे अकित है) जीरण, झार्डा प्रादि ग्रामों संवत १७४५ वासरे सोम वैशाख मासे ३ में तीर्थकर प्रतिमायें मिली जिसमे से कुछ पर मूर्तिलेख जाजा संघ ससजी सा सादली । है, विवरण इस प्रकार है :--खिलचीपुर मे पार्श्वनाथ यहां की एक मादिनाथ की प्रतिमा पर अकित लेख - की प्रतिमा पर निर्माणकाल १४०५ अकित है । खानपुर पौर पादान्वये ख्यातः श्रीपालोः नामतः सुधिः (दशपूरों में एक जो प्राचीन समय मे मिलकर दशपुर रत्नत्रयो की संज्ञा से जाने जाते थे यही बाद में दशपुर) दसौर गुणोपेतस्तत्पुत्री लक्ष्यणौमतः गुणीकृतिः सुधिमान्यः बन गया और १३ वी शती में मुस्लिम आक्रान्तो द्वारा कृष्ण राजोऽस्ति तत्सुत जिन कारित तेन बिम्बभुवि मंद प्राभा वा ना यह दसौर नगर मद+दसौर हो गया) मनोहृतम् ।। संवत फाल्गुन सुदि ११६०॥ में पद्मावती की १६१० वि. की अभिलेख युक्त प्रतिमा रिंगणोद की पहचान डा. वाकणकर ने इगुणिपद्रक संवत के अतिरिक्त मतिलेख का वाचन कठिन है क्योंकि से की है जो नखमन के देवास ताम्रपत्र मे पाता है। धिस च का है। यह स्थान रतलाम कोटा रेल्वे लाइन पर स्थित है। यहा मंदसौर से ७६ कि. मी. उत्तर में झार्डी ग्राम है की एक तीर्थकर प्रतिमा पर प्राप्त लेख का वाचन इस जहां २ जनमन्दिर हैं। १५ वी शताब्दी मे मांडवगढ के प्रकार है : मन्त्री सप्रामसिह ने यहां जनमन्दिर का निर्माण कर ऊँ।। १७२३ वर्षे ज्येष्ठ वदि प्रतिप तीर्थकर प्रतिमायें प्रतिष्ठित की। यहा एक मूर्ति के साख श्री सुत प्रणति नित्यं ।। निम्नभाग पर अभिलेख मिलता है :-- रिंगनोद का ही एक अन्य प्रतिमालेख जो संभवतः १ संवत १५७६ वर्षे शुक्र १०४१ मासे.श्री स्वतत्र अभिलेख भी रहा हो वर्तमान में मध्यप्रदेश पुरा- सग्राम महा "रा. वियइ राज्ये राजश्री सिहलजी तत्व विभाग मे सुरक्षित है उसका वाचन इस प्रकार है - कन्नाजी साहितऊ महिन्दायान शोन मह देवालयों ...मिधेर्यभूत्वा सघंर्यादस्माद् .. लेख जल्लाजयो 'चाचदेव की प्राषाढ़ वदी ११ पधान कार्या। यानोह दत्तानि पुरा नरेन्द्र दाना- रविवार कान्त मही पर देवाण · पूज को भेंट निधर्माः पूजे कुम्भावलानवय शाभन भवन्तु ।। पुनराददोत । बहुभिर्वसुधा मुक्ता राजभिः सगरा- घसई जिला मदसौर के जनमदिर मे एक ६ पक्तियों दिभि यः .. का नागरी लिपि व संस्कृत भाषा में प्रस्तर अभिलेख है दत्ता वायोहरेत वसुधरा । प्राणास्त्रणाग्र जलविदु जिसमे रामचद्र आदि जैनाचार्यों का नाम है। वि.१३१३ समान राणा का यह लेख है। यहा की दो अन्य प्रतिमानो पर १३३४ धर्मयस्थ राजप,लस्य सुनना प्रासाधर सुननय बिल्हणेन व १३३७ विक्रम संवत के अस्पष्ट अभिलेख है। लिखिता हरसेण सुत साजणेन लिखित ।। इस प्रकार सन् १९७५ को जनवरी से जून १६७६ सन् १९७५ क अन माह में मध्यप्रदेश राज्य पुरा. तक की अवधि में किये गए सर्वेक्षण में उपरोक्त अभिलेखतत्व के तत्वावधान व विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के युक्त तीर्थंकर प्रतिमायें मिली । भावश्यकता है कि इस सहयोग से प्राचीन दयपुर व वर्तमान मदसौर का ओर ध्यान देकर उन जैनावशेषों को एकत्र किया जाकर उत्खनन कार्य किया गया, उस उत्खनन के साय ही मैंने सुरक्षा प्रदान करे । सखेडी, करेड़ी, पचोर, सुदरसी, व डा. वाकणकर ने मदमौर जिले के जनावशेषों को जामनेर, शुजालपूर में लगमग ३१० जैन तीर्थकर प्रतितालिका बनाई व जैनहस्तलिखित ग्रन्थ भंडारो को देखा। मायें ऐसी मिली है जो पूर्णतया प्रसुरक्षित है। 00 समीपवर्ती अचल का जैन अपशेपों की दृष्टि से भी प्रव- ४ धन्वन्तरि मार्ग, गली नं. ४, माधव नगर, उज्जैन लोकन किया। खिलचीपुर, कयामपुर, मोड़ी, संघारा, (मध्य प्रदेश) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा मूर्ति की नही, मूर्तिमान की : मूर्तिपूजा का इतिहास बहुत प्राचीन है। मनुष्य की धार्मिक चर्या में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । श्रास्था और श्रद्धा के अंग देव प्रतिमानों के चरणपीठ बने हुए है । मूर्ति मे निराकार साकार हो उठता है और इसके भावपक्ष की दृष्टि मे साकार निराकार की सीमात्रों को छू लेता है। मूर्ति प्रकम्प और विश्वल होने से सिद्धावस्था की प्रतीक है। उपासक अपनी समस्त वाह्य चेष्टयों को और शरीर की हलन चलनात्मक स्पन्दन क्रियाओ को योगमुद्रा मे श्रासीन होकर मूर्तिवत् अवल-ग्रडिंग कर ले और सम्म स्थित प्रतिमा के समान तद्गुण हो जाए, यह यह उसकी सफलता है । मूर्ति में मूर्तिवर के गुण मुस्कराते है वह केवल पापणमयी नहीं है। उसके अर्थको पर 'पाषाणपूजक' लाञ्छन लगाना अपने किंचित्कर बुद्धि वैभव का परिचय देना है। मूर्ति में जो व्यक्त सौदर्य है उसके दर्शन तो स्थूल वाले भी कर लेते है किन्तु उसके भावात्मक सौदर्य को पहचानने वाले विरले ही होते है । मूर्तिकार जब किसी अनगढ़ पत्थर को तराशता है, तो उसकी देनी की प्रत्येक टकोर उत्पद्यमान मूर्तिविग्रही देव की प्राणवत्ता को जाग्रत करने में अपना अशेष कौशल तन्मय कर देती है । असीम धैर्य के साथ, श्रश्रान्त परि श्रमपूर्वक उसके तत्क्षण मे गुणाधान की प्रक्रिया कार्य करती रहती है । श्रवयवो के परिष्कार से, रेखाओं की भंगिमा से प्रवरो की बनावट से, चितवन के कौशल से, बरौनियों की छाया में विभात नीलकमल से मन को विशालता से, पोनपुष्ट भुजदण्डों से न केवल मूर्तिकार श्रगसौष्ठव ही तैयार करता है, अपितु वह स्पन्दनरहित प्राणाधान ही मूर्ति मे प्रतिष्ठापित कर देता है । उस मूर्ति को विग्रह को देखने मात्र से प्राण पुलकित हो उठते है, जितकी शक्ति प्रबुद्ध होकर नाच उठती है। जिसको दूढ़कर नेत्र थक गये थे, उसकी मुद्राकित प्रतिमा स्वयं साकार होकर समुपस्थित हो जाती है। हमारा मन जो एक भावसमुद्र है, मूर्ति उसमे पर्व - तिथियो के ज्वार तरंगित कर देती है । जैसे गुलाब के पुष्प सौन्दर्य को देखने वाला उसके मूल मे लगे फोटो को नहीं देखता, उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द कमल पुष्प का प्रणयी जैसे उसके पंकमूल को स्मरण नहीं करता, उसी प्रकार श्रात्मा के समस्त चैतन्य को अपनी प्रशान्त मुद्रा से प्राकर्षित करने वाले भगवान् की प्रतिमा को देखते हुए भक्त के नेत्र उसके पाषाणत्व से ऊपर उठ कर गुणधर्मावच्छिन्न लोकोत्तर व्यक्तित्व का ही दर्शन करने लगता है और उस समय पूजक के कण्ठ से स्तुतिच्छन्द गीयमान होने है उनमे पाषाण की सत्ता के चिन्ह भी नहीं मिलते। भक्त के सम्मुख स्थित प्रतिमा में उसके आराध्य की झलक है, उसकी भावनाओं का प्राकार है । वे प्रभु अनन्त दर्शन और ग्रनन्त ज्ञानमय है । देव, देवेन्द्र उनकी पदवन्दना करते है। उनका वीतराग विग्रह पाषाण मे रति कैसे कर सकता है ? उनका मुक्त प्रात्मा प्रतिमा मे निवद्ध कैसे किया जा सकता है ? यह तो भक्त की भावना है, उसका उद्दाम धनुरोध है जो सिद्धालय मे विराजमान भगवान् के साक्षात् दर्शन के लिए धीर प्रतिमा के माध्यम से उनकी स्तुति करता करता है, पूजाप्रक्षालन करता है। उसकी भावना के समुद्रपर्यन्त विस्तीर्ण मनोराज्य को झुठलाने का साहस स्वयं भगवान् मे भी नही है । वह प्रतिमा के सम्मुख उपस्थित होकर किस भाषा में बोलता है ? सुनने वाले के प्राण गद्गद् हो उठते है, नेत्रो में भाव का समुद्र लहराने लगता हैदृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोयमुपयाति जनस्वचक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्बसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरसितु क इच्छेत् ? 'हे भगवन् ! आपके प्रनिमेष विलोकनीय स्वरूप को को देखकर मेरी आँखें दूसरे किसी को देखना नही चाहती। भला इन्दु की ज्योत्स्नाधाय पीने वाले को क्षार समुद्रजल क्या अच्छा लगेगा ? यहाँ मूर्तिपूजक के नेत्रो मे जो पार्थिव से पर दिव्य रूप नाच रहा है उस पाषाणपूजा कहने का साहस किस में है ? पाषाण और मूर्ति मे जो भेद है उस न जानने से ही इस प्रकार की असत् कल्पना लोग करने लगते है । पाषाण को उत्कीर्ण कर उसमे इतिहास और धागम प्रामाण्य से तत्तद् देवता के Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, वर्ष २६, कि० २ विग्रहों की रचना को जाती है । सिंह, वृषभ, कमल इत्यादि चिह्नांकन से तीर्थंकरों के पृथक-पृथक नामरूप के अस्तित्व का ज्ञापन मूर्ति में किया जाता है । यदि पाषाण को 'सुवर्ण' कहा जाए तो मूर्तियों को कटक, रूपक, कुण्डल कह सकते है । जैसे 'कुण्डल' स्वरूप में 'उत्पाद' अवस्था को प्राप्त हुए सुवर्ण को कोई सुवर्ण नहीं कहता 'कुण्डल' कहता है, उसी प्रकार विधिसम्मत स्थापनाओं के निमित्त देव प्रतिमा को पाषाण नही कहा जा सकता । प्रतिमा के पूज्य श्रासन पर प्रतिष्ठित होने वाली मूर्ति को मत्रों से, प्रतिष्ठा विधि से लक्षणानुसार बनाये गये मन्दिर मे विराजमान किया जाता है और उसमे देवत्व की भावना का विन्यास किया जाता है। वह प्रतिमा ढालुषो को प्रास्था को केन्द्रित करती है और इसके निमित्त से मदिरो श्रौर चैत्यालयों में धर्म के घण्टानाद सुनायी देते है । मत्र, स्तुति स्तोत्र, पूजा प्रक्षाल, अर्चन बन्दन होते है और जनसमुदाय की उदास भावनाओ को उस प्रतिमा से सम्बन मिलता है। इस प्रकार धर्म समाज धौर संस्कृति के उत्थान में मूर्तिपूजा का महत्व प्रतिरोहित है । मूर्ति मे संस्कारों की भावना देने से देवस्य की प्रतिष्ठा होती है। इसलिए मन्दिरों में स्थापित प्रतिमा और बाजार मे बिकते हुए तद्रूप खिलौनों में सस्कार प्रभाव से कोई साम्य नही । मूर्ति को पवित्र मन्दिर की ऊंची वेदी पर विराजमान कर अपने मनमन्दिर मे स्थापित करना ही उसकी सच्ची प्रतिष्ठा है । यदि पाषाण और मूर्ति में भेद नही मानोगे तो स्त्री, माता, भगिनी मे भेद मानने का क्या ग्राधार रहेगा ? क्योंकि स्त्रीपर्याय से तो ये समान है' । अपेक्षा और सम्बन्ध-व्यवच्छेद से ही इनमे व्यावहारिक भेद किया गया है । वही प्रात्मानुशासित, पूज्यत्व प्रतिष्ठान मूर्ति में किया गया है। हमारे भारतीय ध्वज में धौर दूकानो के उसी तिरंगे कपड़े मे क्या अन्तर है? वस्त्रांति तो दोनो में एक ही है परन्तु लाल किले पर राष्ट्रध्वज के रूप मे तिरंगा ही क्यों लहराया जाना है? क्योकि २१ जुलाई १४७० जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव पर एक निश्चित प्राकार मे भगवे, श्वेत और हरे तीन रंगो अनेकान्त में क्रमश: निष्काम त्याग, पवित्रता और सत्यता तथा प्रकृति के प्रति स्नेह को प्रेरित करने वाले प्रतीकों में राष्ट्रध्वज का स्वरूप स्थिर किया गया, जिसके बीच में सत्य, ज्ञान और नैतिकता की घोर सकेत करने वाले 'धर्मचक्र' को स्थान दिया गया। इस प्रकार उसे वस्त्रमात्र से भिन्न प्रतीक रूप में मान्यता देकर राष्ट्र निशान' के रूप में मान्य किया गया। यही इसका उत्तर है और इसी के साथ सामान्य 'पापा' और 'मूर्ति' के वैशिष्ट्य का उत्तर भी सम्मिलित है। राष्ट्रध्वज जैसे राष्ट्र की स्वतन्त्रता का प्रतीक है उसी प्रकार प्रतिमा समाज को दृढ प्रस्थाओं का प्रतीक है। मूर्ति के साथ मनुष्य की पवित्र भावनाओ का सनातन सम्बन्ध है । मूर्ति का दर्शन करने से मूर्ति मे प्रतिष्ठा प्राप्त देव का देवत्व दर्शन करने वाले में संक्रमित होता है याने बारमा मे देवर की प्रतिष्ठा करना ही पूजा का उद्देश्य है। मूर्तिपूजा मे यह विशेष स्मरणीय है कि मनुष्य अपने सस्कारो के उपयुक्त वातावरण को ढूंढता रहता है और वातावरण मिलने से उन भावनाओ और संस्कारो को ही बलवान् करता है । किसी व्यक्ति को सिनेमा देखने की यादत है । यह नयीनयी तस्वीरें देखने के लिए अनेक सिनेमा घरों में विविध समय पर पैसे देकर जाता है और अपने मन के अनुकूल उपस्थित उस 'छविप्रकन' को देखता है ।। इससे उसके मन में स्थित चित्रानुबन्धी राग को पोषण मिलता है, और उसी राग को पुष्ट करने पर पुनपुन. उन छवियों को देखना चाहता है भगवान् के देवस्वरूप को देखने के लिए भी सुसंस्कृत ग्रात्मा मन्दिर जाने का व्रत लेता है और अपने मन मे भावना में पूर्व से ही विद्यमान सात्विक प्रवृत्ति के पोषण के साधन मूर्ति में पाकर और अधिक धर्मानुरागी होता है यो देखा जाय तो चित्रदर्शन और मुनिदर्शन व्यक्ति के मन में संकुचित हो रहे भावों का स्पर्श कर उल्लित वरमित करने में सहायक होते है। एक मंदिरा पीने वाला मद्य बिकने के स्थान को देखकर अपनी 'पाकेट' के पैसे मद्य पीने में लगाता है। वह 'नशा' करके प्रसन्न होता है 'मदिरागृह' और 'पाकेट १. 'नाम्ना नारीति सामान्य भगिनीभार्ययोरिह' - भगिनी और भार्या मे नारीत्व सामान्य धम समान रूप से विद्यमान है परन्तु उनमे एक सेव्य है, एक असेव्य है । । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा : मूर्ति की नहीं, मतिमान की ६३ का पंसा' तो उसकी पूर्ति में सहायक है। इस प्रकार मूर्तिपूजा अपने सम्पूर्ण गुण समुदायों के संरक्षण का स्थान मनुष्य की भावना ही उद्देश्य की ओर दौड़ाती है तथा है, एकता प्राप्त करने का देवी संबल है। मनुष्य को प्रमअपनी उत्कट बुभुक्षा की शान्ति चाहती है। यह भावना रता का वरदान देव के चरणों में बैठकर ही मिलता है। 'मद्य' पीने की ओर प्रवृत्त होती है तो लोक में गहित मूर्ति के चरणों में ही उसका देहाभिमान गलित होता है कही जाती है। क्योकि मद्य पीने के परिणाम, उनमें व्यय और प्रात्मा का उदग्र पुरुषार्थ उदय में प्राता है। भव्य किया हा पंसा तथा मल में मद्य स्वयं दुषित है। यह परिणामों को उपस्थित करने में 'मूर्तिपूजा' का प्रमुख प्रात्म-विनाश के लिए त्रिदोष सन्निपात है। उसके पीने स्थान है। जिस प्रकार युद्ध-प्रयाण करने वाला सैनिक से व्यक्ति का चारित्रिक पतन होता है। पतन का मार्ग भरत, बाहुबली, भीम, अर्जुन, हनुमान, चक्रवर्ती खारवेल 'उन्मत्त' ही स्वीकार करता है। अतः देश, जाति, समाज (उड़ीसा), समर-केसरी, श्री चामुण्डराय, महाराणा प्रताप और स्वय प्रात्मा के उत्कर्ष के लिए देवस्थानों की रचना प्रौर शिवाजी [महाराष्ट्र] प्रादि वीरों का स्मरण कर की जाती है। भगवान की प्रतिमा को विधिपूर्वक उन में अपने मे अतुल शक्ति का संचय करता है उसी प्रकार विराजमान किया जाता है। भगवान् की प्रतिमा-मूर्ति , प्रात्मा के पुरुषार्थ से मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाला उनका अशेप सम्यक् चारित्र जो मानव जाति के लिए भगवान् की पवित्र प्रतिमा के दर्शन से अपने में सत्साहस श्रेयो मार्ग का निर्देशक है, दर्शक के मन-प्राण पर अकित और निर्मलना को प्राप्त करता है। होता है। जैसे किसी सुन्दरी को देखकर रागी का मन मूर्तिपूजा गुणों की पूजा है। वन्दना के पात्र तो गुण प्राकृष्ट होता है, उसी प्रकार वीतराग प्रतिमा के है। मूर्ति के माध्यम से पूजित भगवान् के गुणों का स्मरण दर्शन मन मे ससार की असारता और विराग की प्रोर व्यक्ति के गुणों को निर्मलता प्रदान करता है। निर्मलता प्रवृत्त होने के भाव प्रबल होते है। यह मनोवैज्ञानिक से परिणाम-विशुद्धि होती है और परिणाम-विशुद्धि हो सत्य है । गाधी जी के तीन वानर' मनुष्य की भावनाओं चावित्र-मार्ग की जननी है। चारित्र से मोक्षसिद्धि होती को मार्गस्थ रखने के सूचक ही है । 'मूर्तिपूजा' शब्द मे है। अतः मूर्तिपूजा को अपदार्थ मानने वाले बहुत भ्रम में जो 'पूजा' शब्द है उसका अभिप्राय है -सत्कार, भक्ति, है। उनकी दृष्टि प्रज्ञान से प्राच्छन्न है। मूर्तिपूजा की उपासना। जिस भगवान् की मूर्ति है उसके गुणों का विशाल पृष्ठभूमि से वे नितात अपरिचित है। मनुष्य बन्दन करना और उन्होंने लोक को अपने उत्तम चारित्र अपने उद्धार के लिए किसी-न-किसी सस्कार की पाठशाला से सन्मार्ग दिखाया इसके प्रति आत्मा की प्रशेष गहरा- में जाता है । देवालय ही वह सस्कार-पाठशाला है । भगइयो से कृतज्ञता ज्ञापन करना तथा उनके समान अपने वान् की मूति ही परमगुरु है । कोई भी सम्यक् चेता भव्य मात्म-लाभ के लिए प्रेरणा प्राप्त करना । मूर्ति का दर्शन, इस पाठशालासे लाभ उठाकर भागवत पद को प्राप्त कर उसकी नित्य पूजा सदा से मानव मे इन्ही उदार विशेष- सकता है। . ताओं की गुणाधान प्रक्रिया को बल प्रदान करती रही है। मूर्तिपूजा की प्राचीनता आज प्रमाणित हो चुकी है। 'मोहनजोदड़ो' और 'हड़प्पा' के उत्खनन से जो ५,००० ___ समाज के धार्मिक उत्थान मे मूर्तिपूजा ने महान् । ___वर्ष प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई है उनमे भगवान् प्रादिनाथ सहयोग दिया है। बड़े-बड़े समाज धर्म के संगठन से ही (ऋषभदेवकी खडगासन प्रतिमा भी है, जो नग्न है और शक्तिशाली बनते है और अपने प्रात्मिक उत्थान में प्रवृत्त जनो की मूर्तिपूजा को 'सिन्धुधाटी' सभ्यता तक ले जाती है। होते हैं। समाज के बहुधन्धी, बहुमुखी व्यक्ति समुदाय को वैदिक धर्मानुयायियो ने भी भगवान् ऋषभनाथ को ईश्वर का अवतार बताया है और मुक्तिमार्ग का प्रथम मन्दिरों के माध्यम से एक स्थान पर 'मास्था के केन्द्र' उपदेशक स्वीकार किया है। 'भागवत पुराण' मे भगवान् मिलत है। देवालय सार्वजनिक होने से उन्ही मे समाज वृषभनाथ का बड़ा सजीव वर्णन पौराणिक महर्षि व्यासदेव मिलकर वैठ सकता है। वहा पवित्र वातावरण रहता है ने किया है। योगवाशिष्ठ दक्षिणामूर्ति सहस्रनाम, वैशम्पा और भगवान् का सान्निध्य भी। इसीलिए समाज के लिए (शेष प्रावरण पृष्ठ ३ पर) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर जगतराम : व्यक्तित्व और कृतित्व 5 श्री गोकुलप्रसाद जैन, नई दिल्ली जगतराम (वि० सं० १७२०) का अपर नाम जगराम कविवर काशीदास ने अपनी 'सम्यक्त्व-कौमुदी' में उनको भी था । पद्मनन्दिपंचविंशति भाषा के कर्ता जगतराम भी रामचन्द्र का पुत्र माना है।' 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका' संभवतः ये जगतराम ही थे जिन्होंने विभिन्न नामों से अपनी को प्रशस्ति में उको स्पष्टतया नन्दलाल का पुत्र माना रचनायें प्रस्तुत की हैं। इनके पितामह का नाम भाई दास गया है ।' श्री प्रारचन्द जी नाहटा ने उनको रामचन्द्र था। ये सिंघल-गोत्रीय अग्रवाल थे । पहिले ये पानीपत में का पुत्र माना है।' रहते थे और बाद में प्रागरा पाकर रहने लगे । प्रागरा इनके पितामह तो गोहाना के निवासी थे, किन्तु उस समय प्रसिद्ध साहित्यिक केन्द्र था तथा कुछ समय उनके दोनो पुत्र पानीपत मे पाकर बम गए थे। जगत पूर्व ही वहां बनारसीदास जैसे उच्च कवि हो चुके थे। राम बाद में प्रागरा पाकर रहने लगे थे। यह बात तो इनके पितामह भाई दास श्रावकों में उत्तम और जगतराम की रचनाओं से और उनके प्राश्रित कवियो के धार्मिक कार्य कराने में प्रसिद्ध थे। उनकी पत्नी भी कथनों से भी प्रमाणित होती है कि जगतराम मपरिवार धार्मिक प्रवृत्ति वाली थीं। उनके दो पुत्र हुए : रामचन्द्र आगरा में बस गए थे तथा ताजगन में रायते बाग मे रहते और नन्दलाल । दोनों ही अपने माता-पिता के समान थे। वे औरंगजेब के दरबार मे किमी ऊँचे पद पर ग्रासीन स्वस्थ, सुन्दर और गुणी थे।' जगतराम नन्दलाल के थे और राजा की पदवी से विभूपिन थे । इसी कारण पुत्र थे या रामचन्द्र के, इस विषय में अभी मतभेद है। लोग उन्हें जगतराप भी कहने लगे थे । कविवर काशी. १. 'भाईदास मही मे जानिये, ता तिय कमला सम मानिए। ३. सुजानसिंघ नन्दलाल सुनन्द, जगतराय सुत है टेवाचद । ता सुत प्रति सुन्दर बरबीर उपजे दोऊगुण सायरधीर॥ जो लौ सागर ससि दिनकर,तोलौ अविचल एपरिवार ।।' दाता भुगता दीनदयाल, श्री जिनधर्म सदा प्रतिपाल। -पुण्यहर्ष, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, प्रशस्ति, प्रशस्ति रामचंद नंदलाल प्रवीन,मबगुण ग्यायक समकित लीन॥ संग्रह, पृ० २३४। -कवि काशीदास, सम्यक्त्व-कौमुदी; डा. ज्योति- ४ अगरचन्द नाहटा, 'मागरे के साहित्य प्रेमी जगतराय प्रसाद, हिन्दी जैन साहित्य के कुछ कवि; अनेकांत, ज्ञात और उनका छन्दरत्नावली ग्रन्थ", भारतीय वर्ष १०, किरण १०। साहित्य, वर्ष २, अंक २, अप्रैल १९५७, प्रागरा विश्वतथा विद्यालय, हिन्दी विद्यापीठ, आगरा, पृ० १८१ । भाईदास श्रावक परसिद्ध, उत्तम करणी कर जस लिद्ध। ५. सहर गुहाणावासी जोइ, पाणीपथ आइ है सोइ । नंदन दोइ भये तमु धीर, रामचद नन्दलाल सुवीर ॥ रामचद सुत जगत अनूप, जगतराय गुण ग्यायकभूप ।। सालिभद्र कलियुग मे एह, भाग्यवंत सब गुण को गेह । सम्यक्त्व-कौमुदी, प्रशस्ति, अनेकान्त, वर्ष १०, ---पुण्यहर्ष, पद्मनन्दिपचविंशतिका, प्रशस्ति संग्रह, किरण १० । जयपुर, अगस्त १९५०, पृ० २३३ । । ६. सहर प्रागरी है सुख थान, परतपि दौसे स्वर्ग विमान । २. 'रामचद सुत जगत अनूप, जगतराय गुण ग्यायक भूप।' चारो वरन् रहे सुख पाइ,तहां बहुशास्त्र रच्या सुखदाइ॥ काशीदास, संम्यक्त्व कौमुदी, प्रशस्ति, अनेकान्त, वर्ष -पद्मनन्दिपविशतिका, प्रशस्तिसग्रह, पृ०२३४ । १०, किरण १.। ७. अनेकान्त, वर्ष १०, किरण १०, पृ. ३७५ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर जगतराम : व्यक्तित्व और कृतित्व दास ने तो उन्हें 'भूप' और 'महाराज' जैसी विशेषण- प्ररणा से प्रागरे में की थी। यह हिन्दी साहित्य का एक सूचक सज्ञाओं से अभिहित किया है। अनूठा ग्रन्थ है। जगतराय ने सभी उपलब्ध छन्द-शास्त्रों स्वयं राजा होते हुए भी उनमें अहंकार किंचित् भी का अध्ययन करके इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसकी नहीं था। वे काशीदास आदि अनेक कवियों के प्राश्रय- एक हस्तलिखित प्रति दिगम्बर जैन नया मन्दिर, धर्मपुरा, दाता थे। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार, 'जगतराय दिल्ली के सरस्वती भण्डार मे सुरक्षित है। उसके शुरू एक प्रभावशाली, धर्म प्रेमी और कवि-पाश्रयदाता तथा के दो पद्यों में हिम्मतखान का गुणगान किया गया है।" दानवीर सिद्ध होते है ।' जगतराम के रचे हुए अनेक पद भी मिले हैं। इनकी ___ जगतराम का साहित्यिक जीवन वि० सं० १७२० से लघुमगल नाम की एक कृति भी मिलती है जिसमें १७४० तक रहा। जगतराम की रचनाओं के विषय में केवल १३ पद्य हैं और दि. जैन मन्दिर, बड़ौत के गुटका मतभेद है। पं० नाथ रामजी प्रेमी अपने 'दिगम्बर जैन स०५४ में पत्र सं०१६-१.२ पर अंकित हैं। ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' में जगतराय की तीन छन्दो- इनकी जैन-पदावली की सूचना काशी नागरी प्रचाबद्ध रचनामों का उल्लेख करते है: 'पागमविलास', रिणी पत्रिका के पन्द्रहवें वार्षिक विवरण मे संख्या १४ 'सम्यक्त्व कोमुदी' और 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका' । की प्रविष्टि से प्राप्त होती है। यह रचना जैन मन्दिर, दिल्ली के नये मन्दिर और सेठ के कंचे के मन्दिर को किरावली (आगरा) से उपलब्ध हुई थी। इसमें श्री अनेकान्त के वर्ष ४, अंक ६, ७, ८ में प्रकाशित ग्रन्थ जगतराम के रचे हए २३३ पद है। उनके बारे में उक्त सूची के अनुसार, जगतराय 'छन्द रत्नावली' और 'ज्ञाना- पत्रिका की पालोचनात्मक टिप्पणी में लिखा है कि नानी पाल न नन्द श्रावकाचार, गद्य ग्रन्थ के भी रचयिता थे । 'इन्होने प्रष्ट छाप कवियों की शली पर पदो की रचनाएं दिल्ली की ग्रन्थ सूची के अनुसार, इनका 'मागम- की, जिनका एक सग्रह प्रथम खोज में प्रथम बार उपलब्ध विलास' एक काव्य संग्रह है जिसका संग्रह मैनपुरी में हमा हैं। इसमें तीर्थकरो की स्तुतियाँ सुन्दर पदों में वि० सं० १९८४ की माघ सुदी १४ को किया गया था। वर्णन की गई है"। जगतराम के पद छोटे किन्तु बड़े सरस यह कृति पुण्यहपं और उनके शिष्य अभयकुशल की है और भावप्रवण है, मानो कवि ने उनमे अपना हृदय उंडेल और उन्होने इसकी रचना फाल्गुन सुदी १०, वि० सं० दिया हो। १७२२ को प्रागरे मे जगतराय के लिए की थी।" कविवर का एक पद इस प्रकार हैजगतराम ने 'चन्दरत्नावली' की रचना वि० सं० 'प्रभु बिन कौन हमारी सहाई ॥ टेक ।। १७३० कार्तिक सुदी मे आगरे के नवाब हिम्मतखान की और सबै स्वारथ के साथी, तुम परमारथ भाई ॥१॥ ८. काशीदास, सम्यक्त्व-कौमुदी, प्रशस्ति और पुष्पिका, छदो ग्रन्थ जितक है, करि इक ठौरे प्रानि । अनेकान्त, वर्ष १०, किरण १० । समुझि सबको सार ले, रतनावली बखानि ॥४॥ ६. अग्रवाल है उमग्यानि, सिंघल गौत्र वसुधा विख्यात । छन्द रत्नावली, नया मन्दिर, धर्मपुरा, दिल्ली की प्रति, पुण्यहर्ष, पद्मनन्दिपविशतिका, प्रशस्ति और संग्रह, सख्या ६१। पृ० २३३ । १३. 'उज्जल जस अबर कर्यो दस दिस हिम्मतखान । १..श्री ज्ञानचंद जैनी, दिगम्बर जैन भाषा ग्रन्थ नामावली, मुकता तजि सुर सुन्दरिन, भूषन कियो कान । लाहौर, सन् १९०१ ई०, पृ० ४, नं०८। हिम्मतखां सों अरि कपत, भाजत लै लै जीय । ११. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, प्ररि रि हमें हं संग लै, बोलत तिनकी तीन ॥ पृ० १८१। वही, पृ०१८३ । १२. जुगतराई सो यों कह्यो, हिम्मतखान बुलाई । १४. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका का पन्द्रहवां वार्षिक पिंगल प्राकृत कठिन है, भाषा ताहि बनाई ॥३॥ विवरण, संख्या १४। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष २६, कि० २ भूल हमारी ही हमको इह, भयी महा दुखदाई विषय काय सस्य संग सेयो, तुम्ही सुध बिसराई || २ || उन इसियो विष जोर भयो तब मोह लहरि चढि भाई । भक्ति जड़ी ताके हरिबें कूं, गुर गारुड़ बताई ॥३॥ यातें चरन सरन भाये है, मन परतीति उपाई । अब जगतराय सहाय की बेही साहिब सेबगताई ||४|| इस पद में कवि अपनी भूल स्वीकार करते हुये कहता है कि हम प्रापके चरण की शरण में श्राये है, हम पर कृपा कीजिए । श्रापके अतिरिक्त अन्य सब देवता स्वार्थ के साथी है। मनेकान्त जगतराम के पदों में आध्यात्मिक फागुनों का नोखा सौन्दर्य छोटे-छोटे रूपकों मे प्रस्तुत किया गया है, " यथा १५ "सुध बुधि] गोरी संग लेकर, सुरुवि गुलाल लगा रेते रे । समता जल पिचकारी, करुणा केसर गुण छिरकाय रे तेरे ॥ अनुभव पानि सुपारी चरचानि, सरस रंग लगाय रे तेरे । राम कहे जे इह विधि बेले, मोक्ष महल में जाय रे || सु०॥ ' जगतराम ने जैन पदावली के अतिरिक्त और भी अनेकों पदों की रचना की थी। बड़ौत के दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार के एक पदसंग्रह मे जगतराम के सैकड़ों पद [पंकित है। उनके पद जयपुर के बधीपद जी के शास्त्र भण्डार के गुटका नं० १३४ मे भी निविष्ट है । जगतराम ने अपने नाम के स्थान पर कही 'राम' और कहीं 'जगराम' भी लिखा है । उनके पदों को प्राध्यात्मिक और भक्तिपरक पदों की कोटि मे रखा जा सकता है । कवि की रचना देखिए". "मोहि समनि लागी हो जिन जी तुम दरसन की ॥ टेक ॥ सुमति चातकी की प्यारी जो पावस ऋतु सम मानवचन बरसन की ॥१॥ बार-बार तुमको कहा कहिए तुम सब लायक हो मेटो विथा तरसन की । त्रिभुवनपति जगराम प्रभु अब सेवक को दो सेवा पद परसन की ||२|| ' भक्त कवि को प्रभु की छवि अनुपम लगती है। उसे १५. श्री महावीरजी प्रतियक्षेत्र का एक प्राचीन गुटका, साइज ८६, पृ० १६० । - पूर्ण विश्वास है कि ऐसे प्रभु के स्मरण से ही मुक्ति मिलती है - 'प्रदभुत रूप अनूपम महिमा तीन लोक में छाजे । जाकी छवि देखत इन्द्रादिक चन्द्र सूर्य गण लाजै ॥ परि अनुराग विलोकत जाको अशुभ करम तजि भाजे। जो जगतराम बने गुमरन तो अनहद बाजा बाजे ॥' निम्न पद मे भी कवि इसी आशय का भाव व्यक्त करते हुए कहता है कि प्रभु के स्मरण से सभी कार्य सिद्ध हो जाते है । अतः इसमें श्रालस्य नही करना चाहिए, क्योंकि यत्न के बिना कार्य बिगड़ जाते है'जतन विन कारज विगरत भाई ॥ प्रभु सुमरन तें सब सुधरत है, या मे वय बलसाई ॥ १॥ विलीनता दुख उपजावत लागत जहाँ ललचाई ॥ चतुरन को व्योहार नय जहां, समझ न परत ठगाई ॥२॥ सतगुरु शिक्षा अमृत पीवी, भय करन कठोर लगाई || ज्यों श्रजरामर पद को पावो, जगतराम सुखदाई ॥ ३॥ ' कविवर ने स्वयं को प्रभु के दास के रूप में भी प्रस्तुत किया है। वे प्रभु के चरणों के निकट ही रहने की आकांक्षा रखते है -- प्रभुजी हो ॥ ही जिन मेरा ॥ १ ॥ करम रहे कर बेरा । 'तुम साहिब मैं बेरा मेरा चूक चाकरी मो वेरा की साहिब टहल यथाविधि बन नही भावे, मेरो अवगुण इतनी ही लीजे, निश दिन सुमन तेरा ||२|| करो अनुग्रह अब मुझ कार मेटो अव उरझेरा । 'जगतराम' कर जोड़ वीनवं राखौ चरणन नेरा ||३|| ' नेमीश्वर राजुल के कथानक पर प्राचारित इसी प्रकार के एक अन्य पद मे राजुल नेमीश्वर की सुन्दर, श्यामल और सलोनी मुखाकृति पर श्रासक्त है तथा उससे उसे देखे बिना नहीं रहा जाता । वह भी नेमीश्वर के साथ तपश्चरण को जाना चाहती है। इसके अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सुहाता पद इस प्रकार है'सखीरी विन देखे रह्यो न जाय, येरी मोहि प्रभु को दरस कराय || सुन्दर स्याम सलौनी मूरति नग रहे निरसन ललचाय ॥ १ ॥ १६. मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुर, पद-संग्रह ० ४९२, पत्र ७८।७४ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन सूकमाल मार जिह मार्यो, तासी मोह रह्यौ थरराय। विकारों का सुन्दर विश्लेषण हुमा है। इनके पद स्वोदजग प्रभु नेमिसंग तप करनौ, बोषक भी हैं। अब मोहि पोर न कछु सुहाय ॥२॥' कविवर ने पद-रचना कब प्रारम्भ की थी, इसका जगतराम हिन्दी के उच्च कोटि के कवि और विद्वान कोई प्रामाणिक उल्लेख तो नहीं मिलता है किन्तु ऐसा थे। वे प्रागरे की प्रध्यात्म शैली के उन्नायक भी थे। प्रतीत होता है कि ये अपने जीवन के अन्तिम चरण में कविवर के सैकड़ों पद प्राप्त होते है। इनके अधि- भजनानन्दी हो गए थे। कांश पद भक्ति, स्तुति और प्रार्थना परक है । कुछ पदो पदों की भाषा पर राजस्थानी एवं बुजभाषा का में जैनाचार का विश्लेषण भी किया गया है। नेमीश्वर प्रभाव परिलक्षित होता है। प्रायः सभी पद सरसता, और राजल के कथानक पर प्राधारित की अनेक पद है भावप्रवणता एवं मामिकता में एक से एक बढ़कर है। जो इनके शृगारिक पदों की कोटि मे भी रखे जा सकते ३, रामनगर, हैं। प्राध्यात्मिक पदों में मिथ्यात्व, राग-द्वेष एव क्रोधादि नई दिल्ली-५५ 000 [पृष्ठ ६३ का शेषांश] यन सहस्रनाम, दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न: स्तोत्र, हनुमन्ना- मानना कि माज स्कूल, कालिज मौर विविधाला टक, रुद्रयामल तंत्र, गणेशपुराण, व्याससूत्र, प्रभातपुराण, अधिक है तथा साक्षरता का प्रचार पूर्वापेक्षया व्यापक मनुस्मृति, ऋग्वेद और यजुर्वेद में जैनधर्म का उल्लेख प्रतः ज्ञान बढ़ा है, नितान्त भ्रान्ति है । ज्ञान मात्मा का हमा है और इसकी सनातन प्राचीनता को वैदिक पौरा- धर्म है और साक्षरता लोक व्यवहार चलाने का मा णिक मनीषियों ने साग्रह स्वीकार किया है। है। ज्ञान का मार्ग चारित्र से मिलकर कृतार्थ होता है 'सिन्धुघाटी सभ्यता के अन्वेषक श्रीरामप्रसाद चन्दा और साक्षरता से लोक के बहिरंग-रमणीय नश्पर उप. का कथन है कि-'सिन्धुघाटी में प्राप्त देवमूर्तियां न करणों के उपभोग की प्रवृत्ति प्रधिक जागत होत केवल बैठी हुई 'योगमुद्रा' में है अपितु खड्गासन देव- मोक्ष के लिए 'तुष-माष' मात्र भेदज्ञान रखने वाला साक्षर मर्तियां भी हैं जो योग की 'कायोत्सर्ग' मद्रा मे हैं। न होते हुए भी ज्ञानवान् है और विश्वविद्यालय की । सर्वोच्च उपाधि से अलंकृत भी मद्यमांस निषेवी, व्यवसना. कायोत्सर्ग की ये विशिष्ट मुद्राए 'जन' है। 'प्रादिपुराण' . मौर अन्य जैन ग्रन्थों में इस कायोत्सर्ग मद्रा का उल्लेख भिभूत, स्वपर-प्रत्यय रहित कार्यालयों में कामबचाऊ ऋषभ या ऋषभनाथ के तपश्चरण के सम्बन्ध मे बहुधा अधिकारी तो है, किन्तु ज्ञानी नहीं। साक्षर में मौर किया गया है। ये मूर्तियां ईसवी सन के प्रारम्भिक काल ज्ञानवान में यही मौलिक भेद है। प्रत्येक पदनिक्षेप को मिलती हैं और प्राचीन मिश्र के प्रारम्भिक राज्य काल 'प्रगति' ही नहीं होता, प्रगति अथवा पश्चाद्गति भी हो के समय की, दोनों हाथ लम्बित किये खड़ी मूर्तियों के सकता है। प्राज प्रगति का नाम लिया जाता है। परन्तु रूप में मिलती हैं। प्राचीन मिस्र मूर्तियों में तथा प्राचीन वास्तव में तो यह प्रगति है, अधोगति और 'पश्चाद् गति ही है। जितना व्यसनों से प्राज का मानब अभिभूत है, युनानी 'कुरोह' मूर्तियों में प्रायः खड़गासन में हाथ लटकाये हुए समानाकृतिक मुद्राए है तथापि उनमें देहोत्सर्ग पूर्वकाल में नही था। पहले मनुष्य में सात्विकता पौर का (निःसंगत्क का) वह प्रभाव है जो सिन्धुघाटी की धर्माचरण की प्रवृत्ति थी, भाज भोगलिप्सायें और स्वरामूर्तियों में मिला है।' चरण बढ़ गया है। एतावतापूर्व का मानव स्वस्थ था, प्राज मानसिक रूप से घोर रुग्ण है । अतः चिकित्सा की प्राचीन युग की अपेक्षा माज मूत्ति पूजा की अधिक माज मधिक अावश्यकता है। साक्षरता और ज्ञान का पावश्यकता प्रतीत होती है, क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में प्राज समन्वय होने से श्रेयोमार्ग की उपलब्धि सुलभ हो जाती का मानव पूर्वयुगीन मानव से पिछड़ा हुआ है। यह है। 000 कता है। साक्षरता समन्वय होने छड़ा हुमा है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जैनवाक्य-सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मून-प्रन्थों की पदानुक्रमणी, जिसके साथ ४६ टीकादि ग्रन्थों में उद्घृत दूसरे पथ की भी लगी हुई है। मिलाकर २५२५३ क्यों की सूची संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की पूर्ण महत्व को ७ पृष्ठ की प्रस्तावना मे अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन ( Foreword ) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए. डी. लिट्. की भूमिका ( Introduction) से भूपित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द । प्राप्तपरीक्षा श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक पूर्व कृति प्राप्तों को परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक : सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भू स्तोत्र समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्य, मुस्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित विविद्या: स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । म्रध्यात्मकमलमार्तण्ड पचाध्यायकार कवि राजमल की सुन्दर साध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद-महित : पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही । हुआ था। मुख्तारी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में प्रकृत सजि समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार विषयक ग्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार तार श्री जुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । अनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : मस्कृत प्रो प्राकृत के १७१ R. N. 10591/62 प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, सजिल्द | ... समातिन्त्र और इष्टोपदेश: अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल धौर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित) म्याय दोमिका पर अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो०ड० साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृष्ठ संख्या ७४० कायपासून मूल ग्रन्थ की रचना ग्राम से दो हजार वर्ष पूर्व श्री मध्यात्म रहस्य पं श्राशावर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । गन्य प्रशस्ति संग्रह भाग २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह पवन परमानन्द शास्त्री । सजिल्द | पानी द्वारा स० प्र० लाजी की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो में पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का भग्रेजी में अनुवाद बडे माकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द निरस्नावली श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया : १५०० ध्यानातक (ध्यानस्तव सहित ) सपादक पं० [वासचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री धावक धर्म संहिता भी दरयावसिंह सोधिया जन लक्षणावली (तीन भागों में ) : (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५००; द्वितीय भाग Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । ८-०० २०० १ ५० १५.० १-२५ ३६० ४०० ४-०० १-२५ १०० ५-०० २०-०० ६-०० ५-०० १२.०० ५-०० २५-०० (Under print) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनेकान्त वर्ष २६ : किरण ३ जुलाई-सितम्बर १९७६ विषयनुक्रमणिका परामर्श-मण्डल श्री यशपाल जैन डा०प्रेमसागर जैन मम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल.बी., साहित्यरत्न कम विषय १. उवसग्गहर- श्री भद्रबाहु विरचितम् २. स्वाध्याय-उपाध्याय मनि श्री विद्यानन्द ३. भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान-मनि श्री नथमल ४. प्रादिपुगण भे राजनीति - डा० रमेशचन्द्र जैन ५. कारीतलाई की द्विमूर्तिका जन प्रतिमाएं --श्री शिवकुमार नामदेव ६. कालिदास के काव्यों में अहिमा और जैनत्व -श्री प्रेमचन्द रावका ७. मध्य युग मे जैन धर्म और संस्कृति --कुमारी रश्मिबाला जैन, एम. ए. ८. शुग कुषाण कालीन जैन शिल्पकला -श्री शिवकुमार नामदेब 6 छीहल की एक दुर्लभ प्रबन्धकृति _ -- श्री अशोककुमार मिश्र | ०१. जैन वाङ्मय में आयुर्वेद-प्राचार्य श्री राजकुमार जैन वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण काम : १ रुपया २५ पैसा प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ वीर सेवा मन्दिर स्थापित : १९२६ वीर सेवा मन्दिर समाज के ऐसे धर्मवत्सल १००० विद्यावानियों की आवश्यकता है जो तिर्फ एक वार अनुदान देकर जीरा १, दरियागज, नई दिल्ली-२ भर शास्त्रवान के उत्कृष्ट पुण्य का संचय करते रहें। धीर सेवा मन्दिर उत्तर भारत का अग्रणी जैन बीर सेवामन्दिर' की स्थापना प्रा मे ४० वर्ष पूर्व सस्कृति, सात्य, इतिहास, पुरातत्त्व ,एवं दर्शन शोध स्व. श्री जुगलकिशोर मुख्तार, स्व० भी छोटेलाल जैन | संस्थान है जो १९२६ से प्रनवरत अपने पुनीत उद्देश्यों की तथा वर्तमान अध्यक्ष श्री शान्तिप्रसाद जैन प्रभृति जाग्रत सम्पूर्ति मे सलग्न रहा है । इसके पावन उद्देश्य इस प्रकार है :-- चेतनामों के सत्प्रयत्नों से हुई थी। तब से जैनदर्शन के - जैन-जनेतर पुरातत्व सामग्री का संग्रह, संकलन प्रचार तथा ठोस साहित्य के प्रकाशन में वीर सेवा मन्दिर और प्रकाशन । ने जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं वे सुविदित है और उनके 0 प्राचीन जैन-जनेतर ग्रन्थों का उद्धार । महत्त्व को न सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में भी विद्वानों 0 लोक हितार्थ नव साहित्य का सृजन, प्रकटीकरण और ने मुक्तकण्ठ से माना है। प्रचार। धीर सेवा मन्दिर' के अपने विशाल भवन में एक 0 'मने कान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार-विचार सुनियोजित ग्रन्यागार है जिसका समय-समय पर रिसर्च को ऊंचा उठाने का प्रयत्न । करने वाले छात्र उपयोग करते है। दिल्ली से बाहर के " जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक अनुशोधकर्ता छात्रों के लिए यहां ठहरकर कार्य करने के लिए संघानादि कार्यों का प्रसाधन और उनके प्रोने जनार्थ छात्रावास की भी व्यवस्था है। वृत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि का प्रायोजन । ब तक जो भी कार्य हुए हैं, आपके सहयोग से ही विविध उपयोगी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी एवं हो पाए है । यदि 'वीर सेवा मन्दिर' की कमजोर प्राथिक | अंग्रेजी प्रकाशनों; जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान स्थिति को प्रापका थोड़ा सम्बल मिल जाए तो कार्य अधिक विषयक गोध-अनुसंधान ; सुविशाल एवं निरन्तर प्रवर्धव्यवस्थित तथा गतिमान हो जाए। 'पाप २५१ रु० मात्र मान ग्रन्थगार; जैन मंस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुरादेकर प्राजीवन सदस्य बन जाएं' तो पापकी सहायता तत्व के समर्थ अग्रदूत 'अनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन एवं जीवन भर के लिए 'वीर सेवा मन्दिर' को प्राप्त हो अन्य अनेकानेक विविध साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिसकती है। सदस्यो को 'वीर सेवा मन्दिर' का त्रैमासिक विधियों द्वारा वीर सेवा मन्दिर गत ४६ वर्ष से .निरन्तर पत्र "अनेकान्त" नि.शुल्क भेजा जाता है तथा अन्य सभी सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है। प्रकाशन दो तिहाई मूल्य पर दिए जाते है। यह सस्था अपने विविध कि.पा-कलापो में हर प्रकार से हमे विश्वाम है कि धर्म प्रेमी महान् भाव इस दिशा मापका महत्त्वपूर्ण सहयोग एव पूर्ण प्रोत्साहन पाने की मे संस्था वी सहायता स्वय तो करेंगे ही, अन्य विद्या अधिकारिणी है। अतः आपमे सानुरोध निवेदन है कि :--- प्रेमियों को भी इस ओर प्रेरित करेगे। १. वीर सेवा मन्दिर के सदस्य बन कर धर्म प्रभावनात्मक --- महेन्द्रसैन जैनी, महासचिव कार्यक्रमो में सक्रिय योगदान करें। २. वीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनो को म्य अपने उपयोग 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण । के लिए तथा विविध मांगलिक अवसरों पर अपने प्रकाशन स्थान-बोरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली प्रियजनों को भेंट में देने के लिए खरीदें। मद्रक-प्रकाशन - वीर सेवा मन्दिर के निमित्त ३. त्रैमासिक शोव पत्रिका 'अनेकान्त' के ग्राहक बनकर प्रकाशन प्रधि... मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन | | जैन संस्कृति, साहित्य इतिहास एव पुरातत्व के शोधा माटिय नि: राष्ट्रिकता--भारतीय पता-२३, दरियागंज, दिल्ली-२ नुसन्धान मे योग दें। सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन ४. विविध धार्मिक, सांस्कृतिक पर्यो एवं दानादि के प्रवराष्ट्रियता- भारतीय ३, रामनगर, नई दिल्ली-५५ सगे पर महत उद्देश्यों की पूति में वीर सेवा मन्दिर स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ की आर्थिक सहायता करें। -~-गोकुल प्रसाद जैन (सचिव) ___ मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोपित करता हूँ कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त अनेकान्त मे प्रकाशित विदाने के लिए सम्पादक विवरण सत्य है। -मोमप्रकाश, अन प्रकाशक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -सम्पादक Page #108 --------------------------------------------------------------------------  Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष २६ किरण ३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर निर्वाण सवत् २५०२, वि० म० २०३२ जुलाई-सितम्बर १६७६ । उवसग्गहरं उवसग्गहरं पासं पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर-विसणिण्णासं मंगल-कल्लाण-प्रावासं ॥१॥ विसहर फुलिगमतं कंठे धारेई जो सया मणुप्रो। तस्स गहरोगमारो दुट्ठजरा जंति उसामं ॥२॥ चिठ्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामोवि बहुफलो होइ । णरतिरिए सुवि जीवा पावंति ण दुक्खदोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मते लद्धे चितामणि कप्पपायवाभहिए। पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ इन संथग्रो महायस ! भत्तिब्भर निन्भरेण हिपएण । ता देव दिज्ज बोहिं भवे भवे पास जिणचंद ॥५।। ॐ अमरतरु कामधेण चिन्तामणि कामकुंभमाइया । सिरिपासनाह सेवाग्गहाण सव्वे वि दासत्तं ।।६।। 'उपसर्गहरं स्तोत्र कृतं श्रीभद्रबाहुना। ज्ञानादित्येन सघाय शान्तये मंगलाय च ।।' -श्रीभद्रबाहु विरचितम् अर्थ-मैं घातिय कम से विमुक्त उपसर्गहारी भगवान श्री पार्श्वनाथ की वन्दना करता हूं। भगवान विषधर के विप का मन करने वाले है तथा मंगल एव कल्याण के निवास हैं। विषहरण शक्ति से स्फलिग के समान दोप्तिमान इस स्तोत्र को जो मनुष्य नित्य कण्ठ में धारण करता है (कण्ठस्थ रखता है, कम द्वारा उच्चारण करता है। उसके ग्रहपाड़ा, रोग, महामारो तथा वार्धक्य से उत्पन्न दुष्ट व्याधिया शान्त हो जाती हैं। हे भगवन ! मत्रोपचार तो दूर की बात है, उसे रहने दें तो भी आपको थद्धाभक्ति मे किया गया एक प्रणाम भी बहफलदायी होता है। नर और तियक गति में उन्पन्न जीव प्रापकी भक्ति मे दुःख तथा दुर्गति नहीं पाते। चिन्तामणि और कल्प पादपसमान अापके सम्यक्त्व जो प्राप्त कर जीव निविघ्न अजर-अमर स्थान प्राप्त कर लेते है। हे महान् यशस्विन ! भक्ति की अतिशयता से भरित हृदय से मैं आपकी स्तुति करता हूं। हे पार्श्व जिनचन्द्र ! मुझे बोधिलाभ हो, ऐसी प्रार्थना है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय 0 उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्न "णवि अस्थि वि य होहदि, सज्झायसमं तवो कम्मं ॥" __-प्राचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार १०/८२ 'स्वाध्याय' तप के सामान दूसरा कोई कार्य न है और न होगा। पशु जीवन से श्रेष्ठ है, क्योकि पशु उसी प्रकार अनेक दार्शनिको, चिन्तनशीलो, विचारकों और मनुष्य के विवेक मे अन्तर है। पशु का विवेक एवं विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित अनुभन तथ्यों की एकपाहार, निद्रा, भय और मथुन तक सीमित है किन्तु मनुष्य एक शब्द राशि से, भावसम्ादा से, अर्थविशिष्टता से का विवेक इससे ऊपर उठ कर चिन्तन की असीमता को ग्रन्थ रूप में जन्म लेकर ज्ञान हमारे कृपानु पूर्वजो ने, मापता है। उसकी जिज्ञासा से दर्शन शास्त्रों का जन्म पूर्ववर्ती विचारको ने, हमारे लिए छोड़ा है। जैसे जलहोता है, उसके ज्ञान से स्व-पर की भेद-विद्या का कणो से कुम्भ भर जाता है उसी प्रकार अनेक दार्शनिकों प्रादुर्भाव होता है। वह इह और अपरत्र लोकों के विषय चिन्तनशीलो, विचारको एव विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित में मात्ममन्थन की छाया मे नवीन उपलब्धियो से मानव अनुभत तथ्यों की एक-एक शब्दराशि से, भाव सम्पदा समाज के बुद्धि, चिन्तन और चेतना के घरातल का से, अर्थविशिष्टता से ग्रन्थरूप में जन्म लेकर ज्ञान-विज्ञान नवीन निर्माण करता है। मैं कौन ह? जन्म-मरण क्या की अपार विभूतियों ने हमारे प्रात्मदर्शन के मार्ग को का अपार विभूतिया न है ? संसार से मेरा क्या सम्बन्ध है ? मुझे कहाँ जाना प्रशस्त किया है। उन मारस्वत महषियों के अपार ऋणाहै? अनन्तानबन्धी कर्मशृंखला का अन्त कहा है ? नबन्ध से हम उऋण नहीं हो सकते । जब किसी ग्रन्थ इत्यादि दार्शनिक प्रश्नावली के ऊहापोह मनुष्य मे ही को पढ़ते है, उसे अल्पकाल मे ही पढ़ लेते है, किन्तु उसकी हो सकते है। चिन्तन की इस सहज धाग का उदय सभी एक-एक शब्द-योजना मे, पक्तिलेखन में, विषय प्रतिमानवों में होता है किन्तु कुछ लोग ही इस अनाहत पादन में और अन्य परियोजन की प्रतिपादन विधि में ध्वनि को सुन पाते है। सुनने वालो मे भी कुछ प्रतिशत मूल लेखक को, विचारक को कितने दिन, मास, वर्ष व्यक्ति ही गम्भीरता से विचार कर पाते है और उन लगे होगे, कितने काल की अधीत विद्या का निचोड़ विचारकों में भी बहुत थोडे लोग होते है जो अपने चिन्तन उसने उसमे निहित किया होगा इसे परखने का तुलादण्ड की परिणति से चारित्र को कृतार्थ करते है, क्योंकि 'बद्धः हमारे पास क्या है ? तथापि यदि हमने किसी की रचना फलं ह्यात्महित प्रवृत्तिः' अर्थात् आत्महित का ज्ञान चिन्तन- के एक शब्द को, प्राधे मूत्र को और एक पंक्ति-श्लोक शील मनीषियो ने ग्रन्थ भण्डारी के रूप अपनी उत्तराधि. को भी यथावत समझने का प्रयास करने मे अपनी कारिणी मानव पीढी को सौंपा है। एक व्यक्ति किसी आत्मिक तन्मयता लगायी है तो निस्सन्देह वह लेखक एक विषय पर जितना दे नही सकता, उतना अपरिमित स्वर्गस्थ होकर भी कृतकृत्य हो उठेगा। लेखक के श्रम ज्ञान हमारे कृपालु पूर्वजो ने और पूर्ववर्ती विचारको ने हमारे को उस पर अनुशीलन करने वाले अनुवाचक ही सफल लिए छोडा है। जैसे जल कणों से कुम्भ भर जाता है कर सकते है। जब तक शब्द प्रयुक्त होकर माहित्य में १. 'स्वाध्याय यदि निरन्तर करोति तथापि कर्म क्षय करोतीति भावः ।' Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय नहीं उतरते और जब तक कोई कृति सहृदयों के हृदय भूखा रहता है। मानव केवल शरीर नही है वह अपने का प्राकर्षण नही कर लेती तब तक शब्द का जन्म मस्तिष्क की शक्ति से ही महान् है। अस्वाध्यायी इस (निष्पन्नता) और कर्ता का कृतित्व कुमार ही है। महिमामय महत्त्व के अवसर से वचित ही रह जाता है। श्रेष्ठ कृतियों के अध्ययन से हमे विचारो मे नवीन शक्ति स्वाध्याय न करने के दुष्परिणाम स्वरूप ही कुछ लोग जो का उन्मेष होता हा प्रतीत होता है। नयी दिशा, नये प्रायु मे प्रौढ होते है, विचारो मे बालक देखे जाते हैं। विचार नये शोध मोर वष्य के अवसर निरन्तर स्वा- उनके विचार कच्ची उम्र वालो के समान अपक्व होते ध्याय करने वालों को प्राप्त होते है। है और इस प्रपरिपक्वता की छाया उनके सभी जीवनस्वाध्याय करते रहने से मनुष्य मेधावी होता है। म्यवहारो मे दिखायी देती है। जो मनुष्य चलता रहता शान की उपासना का माध्यम स्वाध्याय हा है। स्वा- है उसके पास पाप नही पाते। स्वाध्याय के माध्यम ध्यायशील व्यक्ति उन विशिष्ट रचनाप्रो के अनुशालन से व्यक्ति परमात्मा और परलोक से अनायास सम्पर्क से अपने व्यक्तित्व में विशालता को समाविष्ट पाता है। स्थापित कर लेता है। स्वाध्याय प्राभ्यन्तर चक्षुत्रों के वह रचनामो के ही नहीं, अपितु उन-उन रचनाकारो के लिए अंजनशलाका है । दिव्य दृष्टि का वरदान स्वाध्याय से सम्पर्क मे भी प्राता है जिनकी पुस्तके पढ़ता होता है, ही प्राप्त किया जा सकता है। वीवन मे उन्नति प्राप्त करने क्योकि व्यक्ति अपने चिन्तन के पारणामा का हा पुस्तक वाले नियमित स्वाध्यायी थे। एक बार एक महाशय को मे निबद्ध करता है। कोन कैसा है ? यह उसके द्वारा लोकमान्य तिलक की सेवा मे बैठना पड़ा। वह प्रात:निमित साहित्य को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है। काल से ही ग्रन्थो के विविध सन्दर्भ-स्वाध्याय मे लगे थे स्वाध्यायशील व्यक्ति की विचारशक्ति और चिन्तनधारा और इस प्रकार और इस प्रकार दोपहर हो गई। उठकर उन्होंने स्नान केन्द्रित हो जाती है। मन, जो निरन्तर भटकने का किया और भोजन की थाली पर बैठ गये। प्रागन्तुक ने मादी है, स्वाध्याय में लगा देने से स्थिर हान लगता है। पूछा-क्या प्राप संध्या नही करते ? तिलक महाशय और मन की स्थिरता प्रात्मोपलब्धि मे परम सहायक ने उत्तर दिया कि प्रात:काल से अब तक मैं 'सन्ध्या' होती है। एतावता स्वाध्याय के सुदूर परिणाम प्रात्मा ही तो कर रहा था। वास्तव में स्वाध्याय से उपाजित को उत्कर्ष प्रदान करते है। ज्ञान को यदि जीवन मे नही उतारा गया तो निरुद्देश्य पुस्तकालयो, व्यक्तिगत मंग्रहालयों, ग्रन्थ-भण्डारों 'जलताड़न क्रिया' से क्या लाभ ? आँखो की ज्योति को को दीमक लग रही है। नवयुवको का जीवन स्वाध्याय- मन्द किया, समय खोया और जीवन में पाया कुछ नहीं पराङ्मुख हो चला है। जीवन रात-दिन यन्त्र के समान तो 'स्वाध्याय' का परिणाम क्या निकला? स्वाध्याय उपार्जन की चक्की मे पिस रहा है। स्वाध्याय की परि- स्व के अध्ययन के लिए है। संसार की नश्वर प्राकूलता स्थितिया दुर्लभ हो गई है और बदलती परिस्थितियो के से ऊपर उठने के लिए है। स्वाध्याय की थाली में परोसा साथ मनुष्य स्वय भी स्वाध्याय के प्रति विरक्त हो चला हुमा अमृतमय समय जीवन को अमर बनाने में सहायक है। उसका कार्यालया से बचा हुमा समय सिनेमा, रेडियो, है। स्वाध्याय से प्रात्मिक तेज जाग्रत होता है, पुण्य ताश के पत्तों और अन्य सस्ते मनोरजनो में चला जाता की ओर प्रवृत्ति होती है और मोहनीय कर्म का क्षय करने है। स्वाध्याय शब्द की गरिमा से अनजाने लोग विचा- की ओर विचार दौड़ते है। पूर्वजो ने जिस वास्तविक रको की रत्नसम्पदा समान ग्रन्थ माला से कोई लाभ नही सम्पत्ति का उत्तराधिकार हमे सौपा है उस 'वसीयतनामे' उठा पाते। को पढ़ना वैसे भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। स्वाध्यायशील न रहन से मन में उदार सदगुणो को श्रत स्कन्धं घीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्', यह पूजी जमा नही होती। शरीर का भोजनरूपी खुराक मन वानर के समान चचल है, इस जो शास्त्र स्वाध्याय (मम्नमय प्राहार) तो मिल जाती है किन्तु मस्तिष्क में एकतान कर देता है वही धन्य है। स्वाध्याय से हेय Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००, वर्ष २६, कि०३ अनेकान्त पौर उपादेय का ज्ञान होता है। यदि वह न हो तो दार्शनिक रात-दिन भूख प्यास को भूलकर स्वाध्याय में 'व्यर्थः श्रमः श्रतो', शास्त्राध्ययन से होने वाला श्रम व्यर्थ लगे रहते है। स्वामी गमतीर्थ जब जापान गए तो हैस्वाध्याय करने पर भी मन मे विचारमूढता है, ज्ञान व्याख्यान सभा में उपस्थित होने पर उन्हे पराजित करने नावरण है, तो कहना पड़ेगा कि उसने स्वाध्याय पर की भावना से मंच सयोजक ने बोर्ड पर शुन्य (0) लिख हकर भी वास्तव में स्वाध्याय नही किया। 'पाणी दिया और भाषण के प्रथम क्षण स्वामी रामतीर्थ को पता कोन दीपेन कि कूपे पतता फलम्', दीपक हाथ में लेकर चला कि उन्हें शून्य पर भाषण करना है। उन्होंने और फिर भी कुएँ में गिर पड़े तो दोपग्रहण का जापानियों की दष्टि में शन्य प्रतीत होने बाले उस अकिचन नही तो क्या है ? शास्त्रों का स्वाध्याय प्रमोघ विषय पर इतना विद्वत्तापूर्ण भाषण दिया कि श्रोता उनके । यह सूर्य प्रभा से भी बढ़कर है। जब सूर्य वैदुष्य पर धन्य-धन्य और वाह-वाह कह उठे । यह उनके हो जाता है तब मनुष्य दीपक से देखता है और जब विशाल भारतीय वाइमय के स्वाध्याय का ही फल था। निर्वाण हो जाता है तब सर्वत्र अन्धकार छा काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने लिखा है कि जो बहुज्ञ किन्त उस समय अघीतविद्या का स्वाध्याय ही होता है वही व्युत्पत्तिमान होता है। जिसको स्याध्याय से मालोक का प्राविर्भाव करता है । यह स्वा- का व्यसन है वही बहुज्ञ हो सकता है । गोस्वामी तुलसीपार में उत्पन्न पालोक तिमिरग्रस्त नहीं होता। प्रखण्ड दास ने रामभक्ति के विषय में कहा है कि जैसे कामी नयर ज्ञान स्वाध्याय-रसिको के समीप 'नन्दादीप' पुरुष को नारी प्रिय लगती है और लोभी को पैसा प्रिय नकर उपस्थित रहता है। स्वाध्याय की उपासना लगता है उसी प्रकार जिसे भक्ति प्रिय लगे वह भगवान ना जीवन को नित्य नियमित रूप से को पा सकता है। ठीक यही बात स्वाध्याय के लिये लाग माँजने के समान है। एक अच्छे स्वाध्यायी का कहना है होती है। जो व्यक्ति अध्ययन के लिये अपने को अन्य कि यदि मैं एक दिन नही पढ़ता हूं तो मुझे अपने आप सभी ओर से एकाग्र कर लेता है वही स्वाध्याय देवता में एक विशेष प्रकार की रिक्तता का अनुभव होता है के साक्षात्कार का लाभ उठाता है। पढ़ने वालों ने घर और यदि दो दिन स्वाध्याय नही करता हूं तो पास- पर लेम्प के प्रभाव में म'को पर लगे 'बल्बो' के पडोस के लोग जान जाते है और एक सप्ताह न पढ़ने में ज्ञान को ज्योति को बढ़ाया है। जयपुर के प्रसिद्ध पर सारा ससार जान लेता है। वास्तव में यह अत्यन्त विद्वान् प० हरिनारायण जी पुरोहित ने बाजार में किसी सत्य है क्योंकि जिस प्रकार उदर को अन्न देना दैनिक पठनीय पुस्तक को बिकते हुए देखा। उस समय उनके मावश्यकता है उसी प्रकार मस्तिष्क को खुराक देना भी पास पसे नही थे, अत. उन्होने अपना का खोलकर उस अनिवार्य है। शरीर और बद्धि का समन्वय बना रहे विक्रेता के पास गिरवी रख दिया और पुस्तक धर ले इसके लिए दोनों प्रकार का माहार आवश्यक है। गये । इसलिए उनका 'विद्याभूषण' नाम सार्थक था। 'पज्झयणमेव झाणं', मध्ययन ही ध्यान है, सामयिक है, भारत के इतिहास म एस अनेक स्वाध्यायपरायण व्यक्ति ऐसा प्राचार्य कुन्दकुन्द का मत है। संसार में जितने हो चुके है। विदेशों में अधिकाश व्यक्तियों के घरो मे उच्च कोटि के लेखक, वक्ता और विचारक हुए है उनके 'पुस्तकालय' है । वे अपनी प्राय का एक निश्चित यश सिरहाने पुस्तकों से बने है। विश्व के ज्ञान-विज्ञानरूपी पुस्तके खरीदने मे व्यय करते है। धर्म-ग्रन्थों का दैनिक तुलधार को उन्होने प्रशान्त भाव से प्रांखों की तकली पारायण करने वाले स्वाध्यायी प्राज भी भारत में वर्तमान पर अटेरा है और उसके गुणमय गुच्छो से हृदय-मन्दिर है। वे धार्मिक स्वाध्याय किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं को कोषागार का रूप दिया है । लेखन की प्रस्खलित करते । 'स्वाध्यायान् मा प्रमद', स्वाध्याय के विषय मे सामर्थ्य को प्राप्त करने वाले रात-दिन श्रेष्ठ साहित्य के प्रमाद मत करो । स्वाध्यायशील अपने गन्तव्य मार्ग को म्वाध्याय में तन्मय रहते है, बड़े-बड़े अन्वेषक और स्वयं दृढ निकालते है। अज्ञान के गज़ पर स्वाध्याय Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय का अंकुश है। पवित्रता के पत्तन में प्रवेश करने के लिए होती है और उसे प्रात्मोपलब्धि साधन भी कहा जाता है स्वाध्याय तोरणद्वार है । स्वाध्याय न करने वाले अपनी तथापि प्रत्येक स्वाध्यायी निश्चित रूपसे प्रात्मा को प्राप्त योग्यता की डीग हाँकते हैं, किन्तु स्वाध्यायशील उसे करता है ऐसा नहीं माना जा सकता। जैसे 'पर्वतो पवित्र गोपनीय निधि मानकर प्रात्मोत्थान के लिए वह्निमान घुमवत्वात् । यो यो धूमवान् स स वह्निमान्'उसका उपयोग करते है। उनकी मौन प्राकृति पर पर्वत पर अग्नि है, क्योकि वहां धुआँ उठ रहा है। स्वाध्याय के प्रक्षय वरदान मुसकराते रहते हैं, यत्र यत्र वह्निस्तत्र तत्र धूमः'--जहाँ-जहाँ अग्नि है, और जब वे बोलते है तो साक्षात् वाग्देवी उनके मुख- वहां वहा घुम है, यह सर्वथा सत्य नही, क्योंकि मंच पर नर्तकी के समान प्रवतीर्ण होती है । स्वाध्याय निध् म पावक मे घुम नही होता। अतः यह सम्भव है के प्रक्षरो का प्रतिबिम्ब उनकी प्रांखों पर लिखा कि स्वाध्यायादि द्वारा प्रात्मा का साक्षात्कार किया रहता है और ज्ञान की निर्मलधारा से स्नात उनकी जा सके, परन्तु निश्चय ही स्वाध्याय प्रात्मोपलब्धि वाङ्माधरी मे मरस्वती के प्रवाह पवित्र होने के लिए का कारण होगा, यह नही कहा जा सकता। प्रत्युत नित्याभिलाषी होते हैं। एक महान् तत्वद्रष्टा, सफल अनुभवी व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि राजनेता और उत्तम सन्त स्वाध्याय-विद्यालय का स्नातक शास्त्रों की उस अपार शब्द-राशि को पढने से क्या ही हो सकता है। स्वाध्याय एकान्त का सखा है। सभी शिवपुर मिलता है। अरे ! तालु को सखा देने वाले उस स्थानों में सहायक है; विद्वद्गोष्ठियो मे उच्च प्रासन शुक-पाठ से क्या ? एक ही अक्षर को स्वपर-भेद-विज्ञान प्रदान करने वाला है। जैसे पंसा-पैसा डालने पर भी बुद्धि से पढ, जिससे मोक्ष प्राप्ति सुलभ हो।' कोषवृद्धि होती है, उसी प्रकार बिन्दु बिन्दु विचार संग्रह करने से पाण्डित्य की प्राप्ति होती है। शब्दों के अर्थ "बहुयह पठियहं मूढ पर तालू सुक्का जेण । कोषों मे नही, साहित्य की प्रयोगशालानों में लिखे है। एक्कुजि मक्खर तं पठह शिवपुर गम्मइ जेण ॥" हल मोदिवरेनायतु गिरिय सुत्तिदरेनायतु । अनवरत स्वाध्याय करने वाला शब्दों के सर्वतोमखी प्रों पिरिव लांछन तोहरेनायतु, निजपरमात्मनका ज्ञान प्राप्त करता है। स्वाध्याय करने वाले की भांखों ध्यानवनरियवे नरिकगि बलली सत्तंते ॥' में समुद्रो की गहराई, पर्वत-शिखरों की ऊंचाई और प्राकाश की अनन्तता समायी होती है। वह जब चाहता -रत्नाकर (कन्नड कवि) है, बिना तेरे, बिना प्रारोहण-अवगाहन किये उनकी -बहुत अध्ययन करने, तीर्थक्षेत्र (पर्वतादि) की सीमाग्रो को बता सकता है। स्वाध्याय का तप: साधना प्रदक्षिणा करने तथा धर्म विशेष के चिह्न धारण करने से के रूप मे सेवन करने वाला उससे प्रभीष्ट लाभों को क्या ? यदि स्वपरमात्मभाव का ध्यान नही किया तो प्राप्त करता है। उसके प्रभाव में ये बाह्य रूपक क के अरण्यरोदन के यद्यपि स्वाध्याय से प्रास्माभिमुखता की पोर प्रवृत्ति समान ही हैं। 000 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान 0 मुनि श्री नथमल विचार-स्वातंत्रय की दृष्टि से अनेक परम्परापों का की पृष्ठभूमि में रही हुई अखण्डता से हमें अनभिज्ञ नहीं होना अपेक्षित है और विचार विकास की दृष्टि से भी होने देता। निरपेक्ष सत्य की बात करने वाले इस वास्त का अपेक्षित नहीं है। भारतीय तत्व-चितन की दो विकता को भला देते है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वत्व में धारा है-श्रमण और वैदिक । दोनो ने सत्य को निरपेक्ष है किन्तु सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में कोई भी द्रव्य खोज का प्रयत्न किया है, तत्त्र चितन की परम्परा को निरपेक्ष नही है। गतिमान बनाया है। दोनो के वैचारिक विनिमय और व्याप्ति या अविनाभाव के नियमों का निर्धारण संक्रमण से भारतीय प्रमाण शास्त्र का कनेवर उचित सापेक्षता के सिद्धान्त पर ही होता है। स्थूल जगत् के हमा है। उसमें कुछ सामान्य तत्व है और कुछ विशिष्ट। नियम सूक्ष्म जगत् मे खण्डित हो जाते है। इसलिए जैन परम्परा के जो मौलिक और विशिष्ट तत्व है, उसकी विश्व की व्याख्या दो नयों से की गई। वास्तविक या संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रस्तुत है । जैन मनीषियो ने तत्व-चितन में मूक्ष्म सत्य की व्याख्या निश्चय नय से और स्थल जगत अनेकान्त दष्टि का उपयोग किया। उनका तत्व-चितन या दृश्य सत्य की व्याख्या व्यवहार नय से की गई। स्यादवाद की भाषा में प्रस्तुत हुप्रा। उसकी दो निष्प- प्रात्मा कर्म का कर्ता है-यह सभी प्रास्तिव दर्शनों की त्तियां हुई --सापेक्षता और समन्वय । सापेक्षता का सिद्धान्त स्वीकृति है, किन्तु यह स्थूल सत्य है और यह व्यवहार यह है-इस विराट विश्व को सापेक्षता के द्वारा ही नय की भाषा है। निश्चय नय की भाषा यह नहीं हो समझा जा सकता है और मापेजता के द्वारा ही उसकी सकती। वास्तविक सत्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने व्याख्या की जा सकती है। इस विश्व मे अनेक द्रव्य है ___ स्वभाव का ही कर्ता होता है। प्रात्मा का स्वभाव चैतन्य और प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक है। द्रव्यों में पर- है, अत: वह चैतन्य-पर्याय का ही कर्ता हो सकता है। स्पर नाना प्रकार के सम्बन्ध है। वे एक दूसरे से प्रभा- कर्म पौद्गलिक होने के कारण विभाव है, विजातीय हैं। वित होते है। पना परिस्थितिमा है और प्रतक घटनाए इसलिए प्रात्मा उनका कर्ता नही हो सकता। यदि घटित होती है। इस सबकी व्याख्या सापेक्ष दृष्टिकोण प्रारमा उनका कर्ता हो तो कर्म-चक्र से कभी मक्त कि बिना विसंगतियों का परिहार नहीं किया जा नहीं हो सकता। अतः मात्मा कर्म का कर्ता है' यह सकता । भाषा व्यवहारसापेक्ष भाषा है। सापेक्षता का सिद्धान्त समग्रता का सिद्धान्त है। वह हम किसी को हल्का मानते है और किसी को भारी, समग्रता के सन्दर्भ में ही प्रतिपादित होता है। अनन्त किन्तु हल्कापन और भारीपन देश-सापेक्ष है। गुरुत्वाकर्षण धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म का प्रतिपादन किया जाता है, की सीमा में एक वस्तु दूसरी वस्तु की अपेक्षा हल्को या तब उसके साथ 'स्याद्' शब्द जुड़ा रहता है। वह इस भारी होती है । गुरुत्वाकर्षण की सीमा का अतिक्रमण करने तथ्य का सूचक होता है कि जिस धर्म का प्रतिपादन किया पर वस्तु भारहीन हो जाती है। जा रहा है, वह समग्र नही है । हम समग्रता को एक माथ हम वस्तु को व्याख्या लंबाई और चौड़ाई के रूप नही जान सकते। हमारा ज्ञान इतना विकसित नहीं है मे करते है। मूर्त वस्तु के लिए यह व्याख्या ठीक है। कि हम समग्रता को एक साथ जान सकें। हम उसे प्रमूर्त की यह व्यागा नहीं हो सकती। उसमे लंबाई खण्डों में जाना है, किन्तु मापेक्षना का सिद्धान्त खण्ड और चौड़ाई नही है। वह प्राकाश देश का प्रवगाहन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान करती है पर स्थान नही रोकती। अत : लंबाई और यह अभ्युपगम इसलिए सत्य है कि एक क्षण में शब्द चौड़ाई मूर्त-द्रव्य-सापेक्ष है। उष्णता के रूप में विद्य- श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बनता है और दूसरे क्षण में वह मान ऊर्जा को गति में बदल देने पर भी उसकी मात्रा प्रतीत हो चुकता है। इस परिवर्तन की दृष्टि में शब्द समान रहती है। यह उष्णता गति-विज्ञान (थर्मोडाय- को अनित्य मानना असंगत नहीं है। मीसांसकों ने शब्द नेमिक्स) का पहला सिद्धान्त है। इसका दूसरा सिद्धान्त के आदानभूत स्फोट को नित्य माना, वह मी अनुचित यह है कि किसी यंत्र में निक्षिप्त ऊर्जा की मात्रा में कमी नहीं है। भाषा वर्गणा के पुद्गल शब्दरूप में परिणत हो जाती है। वह क्रमश : क्षीण होती जाती है। इसलिए होते हैं और वे पुद्गल कभी भी अ-पुद्गल नहीं होते । किसी ऐसे यंत्र का निर्माण संभव नहीं है जिसमे ऊर्जा इस अपेक्षा से उनकी नित्यता भी स्थापित की जा का निक्षेप किया जाए और वह उसके द्वारा सदा गति- सकती है । सापेक्ष सिद्धान्त के अनुसार, वस्तु का निरपेक्ष शील बना रहे । कुछ दार्शनिकों द्वारा यह संभावना व्यक्त धर्म सत्य नही होता। वे समन्वित हो कर ही सत्य की गई है कि हमारे देश और काल में व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। सायण माधवाचार्य ने सर्व-दर्शन संग्रह ऊर्जा की अक्षीणता निष्पन्न नहीं हुई है। पर संभव है नामक ग्रन्थ की रचना की । उसमें उन्होंने पूर्व किसी देश और काल में वह क्षीण न हो और उस देश- दर्शन का उत्तर दर्शन से खण्डन करवाया है और काल में यह संभव हो सकता है कि एक बार यत्र मे अन्तिम प्रतिष्ठा वेदान्त को दी है। प्रखर ताकिक मल्लऊर्जा का निक्षेप कर देने पर मदा गतिशील बना रहे। वादी (ई० ४-५ शती) ने द्वादशारनयचक्र की रचना इन कुछ उदाहरणों से हम समझ सकते है कि विशिष्ट की। उसमे एक दर्शन का प्रस्थापन प्रस्तुत होता है । देश और काल की व्याप्तियां सर्वत्र लागू नहीं होती। दूसरा उसका निरसन करता है। दूसरे के प्रस्थापन का इसीलिए उनका निर्धारण सापेक्षता के सिद्धान्त के तीसरा निरसन करता है। इस प्रकार प्रस्थापन और आधार पर किया जाता है। निरसन का चक्र चलता है। उममे अन्तिम प्रतिष्ठा साख्यिकी और भौतिक विज्ञान के अनेक किसी दर्शन की नही है। सब दर्शनों के नय समन्वित सिद्धान्तों की व्याख्या सापेक्षता के सिद्धान्त से की जा होते है तब सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। एक एक नय सकती है। ___ की स्वीकृति मिथ्या है। उन सबकी स्वीकृति सत्य __ स्याद्वाद को दूसरी निष्पत्ति समन्वय है। जैन है। इस समन्वय के दृष्टिकोण ने तर्कशास्त्र को वितंडा मनीषियों ने विरोधी धर्मों का एक-साथ होना असभव के वात्याचक्र से मुक्त कर सत्य का स्वस्थ प्राधार नहीं माना। उन्होंने अनुभवसिद्ध अनित्यता प्रादि धर्मों दिया। को अस्वीकार नही किया, किन्तु नित्यता प्रादि के साथ जैन प्रमाणशास्त्र की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैउनका समन्वय स्थापित किया। तर्क से स्थापन और प्रमाण का वर्गीकरण । प्रत्यक्ष और परोक्ष - इस वर्गीतर्क से उसका उत्यापन - इस पद्धति मे तर्क का चक्र करण में संकीर्णता का दोष नही है। इसमे सब प्रमाणों चलता रहता है। एक तर्क परम्परा का अभ्युपगम है का समावेश हो जाता है। हम या तो ज्ञेय को साक्षात् कि शब्द अनित्य है, क्योकि वह कृतक है। जो कृतक जानते है या किसी माध्यम से जानते है। जानने की होता है, वह नित्य होता है, जैसे घड़ा। दूसरी तर्क- ये दो पद्धतिया है। इन्ही के प्राधार पर प्रमाण के दो परम्परा ने इसका प्रतिवाद किया और वह भी तर्क के मूल विभाग किए गए है। बौद्ध और वैशेपिक ताकिकों माधार पर किया कि शब्द नित्य है, क्योकि वह प्रकृतक ने प्रत्यक्ष और अनुमान -- दो प्रमाण माने तो पागम को है। जो प्रकृतक होता है, वह नित्य होता है, जैसे ग्राकाश। उन्हें अनुमान के अन्तर्गत मानना पड़ा और पागम को इन दो विरोधी तों में समन्वय को खोजा जा सकता अनुमान के अन्तर्गत मानना निधिपाद नहीं है। परोक्ष है। विरोष समन्वय का जनक है। शब्द अनित्य है, प्रमाण में अनुमान, प्रागम, स्मृति, तर्क प्रादि सबका Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४, २५, कि.३ समावेश हो जाता है और किसी का लक्षण सांकर्य दोष की है। धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता पर तीखा व्यंग कसा है। से दूषित नहीं होता। इस दृष्टि से प्रमाण का प्रस्तुत उन्होंने लिखा हैवर्गीकरण सर्वग्राही और वास्तविकता पर पाधारित है। 'पूरं पश्यतु वा मा वा तत्वमिष्टं तु पश्यतु । इन्द्रिय ज्ञान का व्यापार-क्रम (प्रवग्रह, ईहा, प्रवाय प्रमाणं दूरदर्शी चेवेत गघ्रानुपाहे ॥ मौर धारणा) भी जैन प्रमाणशास्त्र का मौलिक है। 'इष्ट तत्त्व को देखने वाला ही हमारे लिए प्रमाण मानस-शास्त्रीय मध्ययन की दृष्टि से यह बहुत महत्व है, फिर वह दूर को देखे या न देखे। यदि दूरदर्शी ही पूर्ण है। प्रमाण हो तो माइए, हम गीधो की उपासना करें, तर्कशास्त्र में स्वतः प्रामाण्य का प्रश्न बहुत चचित क्योंकि वे बहुत दूर तक देख लेते हैं।' रहा है। जैन तर्क-परम्परा मे स्वतः प्रामाण्य मनुष्य सर्वज्ञत्व की मीमासा और उस पर किए व्यंगो का जन का स्वीकृत है। मनुष्य ही स्वत: प्रमाण होता है, ग्रन्थ माचार्यों ने स्टीक उत्तर दिया है और लगभग दो हजार स्वत : प्रमाण नही होता। ग्रन्थ के स्वतः प्रामाण्य की बर्ष की लम्बी अवधि में सर्वज्ञत्व का निरंतर समर्थन मस्वीकृति और मनुष्य के स्वतः प्रामाण्य की स्वीकृति किया है। एक बहुत विलक्षण सिद्धान्त है। पूर्व मीमांसा प्रन्थ का जैन तर्क-परम्परा की देय के साथ-साथ पादेय की स्वत: प्रामाण्य मानती है, मनुष्य को स्वत: प्रमाण नहीं चर्चा करना भी अप्रासंगिक नही होगा। जैन ताकिको मानती। उसके अनुसार, मनुष्य वीतराग नहीं हो सकता ने अपनी समसामयिक तार्किक परम्पराओं से कुछ लिया और वीतराग हुए बिना कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता पौर भी है। अनुमान के निरूपण में उन्होंने बौद्ध और भ-सर्वज्ञ स्वतः प्रमाण नहीं हो सकता। जैन चितन नैयायिक तर्क-परम्परा का अनुसरण किया है। उसमें के अनुसार, मनुष्य वीतराग हो सकता है और वह केवल अपना परिमार्जन और परिष्कार किया है तथा उसे जैन ज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ हो सकता है। इसलिए स्वत: परम्परा के अनुरूप ढाला है। बौद्धों ने हेतु क रूप्य प्रमाण मनुष्य ही होता है। उसका वचनात्मक प्रयोग, लक्षण माना है, किन्तु जैन ताकिकों ने उल्लेखनीय प्रन्थ का वाङ्मय भी प्रमाण होता है, किन्तु वह मनुष्य परिष्कार किया है। हेतु का अन्यथा अनुपपत्ति लक्षण की प्रमाणिकता के कारण प्रमाण होता है, इसलिए वह मानकर हेतु के लक्षण में एक विलक्षता प्रदर्शित को है। मानकर हेतु क लक्ष स्वत:प्रमाण नहीं हो सकता। पूरुष के स्वतः प्रामाण्य हेतु के चार प्रकारो की स्वीकृति भी सर्वथा मौलिक हैं: का सिद्धान्त जैन तर्कशास्त्र की मौलिक देन है। समूची १-विधि-साधक विधि हेतु ३-निषेध साधक निषध हतु भारतीय तर्क-परम्परा में सर्वज्ञत्व का समर्थन करने २-निषेध-साधक विधि हेतु ४-विधि साधक निषेध हेतु वाली जैन परम्परा ही प्रधान है। समूचे भारतीय समूच भारतीय उक्त कुछ निदर्शनों से हम समझ सकते है कि वाङ्मय में सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए लिखा गया विपुल भारतीय चिन्तन मे कोई प्रवरोथ नहीं रहा है। दूसरे साहित्य जैन परम्परा में ही मिलेगा। बोद्धों ने बुद्ध को के चिन्तन का अपलाप ही करना चाहिए और अपना स्वतः प्रमाण मान कर ग्रन्थ को परतः प्रामाण्य माना य माना मान्यता की पुष्टि ही करनी चाहिए, ऐसी रूढ़ धारणा है। किन्तु वे बुद्ध को धर्मज्ञ मानते हैं, सर्वज्ञ नही मानते। भी नहीं रही है। पादान पोर प्रदान की परम्परा प्रचलित पूर्वमीमांसा के अनुसार, मनुष्य धर्मश भी नहीं हो सकता। रही है। हम संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में इसका दर्शन कर बौद्धों ने इससे प्रागे प्रस्थपान किया और कहा कि मनुष्य सकते हैं। धर्मज्ञ हो सकता है। जैनों का प्रस्थापन इससे पागे है। दर्शन और प्रमाण-शास्त्र : नई संभावनाएं उन्होंने कहा-मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। कुमारिल प्रमाण-शास्त्रीय चर्चा में कुछ नई संभावनाओं पर ने समन्तभद्र के सर्वज्ञता के सिद्धान्त की कड़ी मीमांसा दृष्टिपात करना असामयिक नहीं होगा। इसमें कोई संदेह १. प्रमाणवातिक ११३४ : हेयोपादेयतत्वस्य साम्युपायस्य वेदकः । २. प्रमाणवातिक २३५: यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदः। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान नहीं कि प्रमाण-व्यवस्था या न्यायशास्त्र की विकमित की है। उसके विकास का मार्ग भिन्न हो सकता है, किन्तु अवस्था के दर्शन का अभिन्न अंग बनने की प्रतिष्ठा प्राप्त जो तथ्य इन्द्रियो से नही जाने जा सकते, उन्हें जानने के की है। यह प्रसदिग्ध है कि उसने दर्शन की धारा को साधन विज्ञान ने उपलब्ध किए है। प्रतीन्द्रिय ज्ञान के प्रवरुद्ध किया है, उसे अतीत की व्याख्या मे सीमित किया तीन विषय है- सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट । इन्द्रियों के है। दार्शनिकों की अधिकाश शक्ति तर्क-मीमांसा मे लगने द्वारा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट (दूरस्थ) तथ्य नहीं जाने लगी। फलत: निरीक्षण गौण हो गया और तर्क प्रधान । जा सकते । आज का वैज्ञानिक सूक्ष्म का निरीक्षण करता सूक्ष्म निरीक्षण के अभाव में नए प्रमेयों की खोज का द्वार है। तर्क की भाषा में जो चाक्षुष नही है, जिन्हें हम बन्द हो गया। सत्य की खोज के तीन माधन है-- चर्मचक्षु से नहीं देख सकते, उन्हे वह सूक्ष्म-वीक्षण यंत्र के १-निरीक्षण द्वारा देखता है। इस सूक्ष्मवीक्षण यत्र को मै प्रतीन्द्रिय २-अनुमान या तक उपकरण मानता है, जो प्रतीन्द्रिय ज्ञान मे सहायक होता ३ -परीक्षण है । जो इन्द्रिय से नहीं देखा जाता, वह उससे देखा जाता ज्ञान-विज्ञान की जितनी शाखाए है --- दर्शन, भौतिक है। व्यवहित को जानने के लिए 'एक्सरे' की कोटि के विज्ञान, मनो-विज्ञान वनस्पति विज्ञान-उन सबकी यंत्रों का प्राविष्कार हुमा है। उनके द्वारा एक वस्तु को वास्तविक नामो का पता इन्ही साधनों से लगाया जाता पार कर दूसरी वस्तु को देखा जा सकता है। विप्रकृष्ट है। इन्ही पद्धतियो मे हम मन्य को खोजते रहे हैं. जब से (दूरस्थ) को जानने के लिए दूरवीक्षण टेलिस्कोप प्रादि हमने सत्य की खोज प्रारम्भ की है। यंत्रों का विकास हुआ है। जिस प्रतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा दर्शन की धारा मे नए-नए प्रमेय खोजे गए है, वे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थ जाने जाते थे वह निरीक्षण के द्वारा ही खोजे जा सके है। जब हमारे पात्मिक प्रतीन्द्रिय ज्ञान वैज्ञानिक को उपलब्ध नहीं है. दार्शनिक निरीक्षण की पद्धति को जानते थे, तब प्रमेयो किन्तु उसने उन तीनो प्रकार के पदार्थों को जानने के लिए की खोज हो रही थी। जब नर्क-मीमासा ने बुद्धि की अपेक्षित यात्रिक उपकरण (सूक्ष्म दृष्टि, पारदर्शी दृष्टि प्रधानता उपस्थित कर दी तर्क का अतिरिक्त मूल्य हो और दूरदृष्टि ) विकसित कर लिए है। दार्शनिक के लिए गया, तब निरीक्षण की पद्धति दार्शनिक के हाथ से छुट ये तीनों बातें प्रावश्यक है। दार्शनिक वह हो सकता है जो इन्द्रियातीत सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट तथ्यों को गई । वह विस्मृति के गर्न मे जा कर लुप्त हो गई। प्राज किसी को दार्शनिक कहने की अपेक्षा दर्शन का व्याख्याता उपलब्ध कर सके । किन्तु दर्शन के क्षेत्र में प्राज ऐसी कहना अधिक उपयुक्त होगा। दार्शनिक वे हए है जिन्होंने उपलब्धि नही हो रही है। मुझे कहना चाहिए कि तर्कअपने सुक्ष्म निरीक्षणो के द्वाग प्रमेबों की खोज की है, परम्परा ने जहां कुछ अच्छाइया उत्पन्न की है, वहां कुछ अवरोध भी उत्पन्न किए है। आज हम प्रतीन्द्रिय ज्ञान के स्थापना की है। इन पन्द्रह शताब्दियों में नए प्रमेयों की विषय में संदिग्ध हो गए है। जिन क्षणों में प्रतीन्द्रिय खोज या स्थापना नही हुई है, केवल प्रतीत के दार्शनिकों बोध हो सकता है, उन क्षणों का अवसर भी हमने खो के द्वारा खोजे गा मेयो की चर्चा हुई है, मालोचना हुई है। प्रतीन्टिय-बोध के दो अवसर होते हैहै, खण्डन-मण्डन हुया है। सूक्ष्म निरीक्षण के प्रभाव में १-किसी समस्या को हम अवचेतन मन मे प्रारोइससे अतिरिक्त कुछ होने की प्रामा भी नही की जा सकती। पित कर देते हैळ टिनों के लिए उस समस्या पर सक्षम निरीक्षण की एक विशिष्ट प्रक्रिया थी। उसका अवचेतन मन में क्रिया होती रहती है। फिर स्वप्न में हमें प्रतिनिधि शब्द है-प्रतीन्द्रिय ज्ञाता। वर्तमान विज्ञान ने उसका समाधान मिल जाता है। एक सम्भावना थी नए प्रमेयों. गूण धर्मों और सम्बन्धों की खोज की है, उसका स्वप्नावस्था की, जिसका बीज प्रर्धजागत अवस्था मे बोया कारण भी प्रतीन्द्रिय ज्ञान है। मैं नही मानता कि भाज जाता था, उसका प्रयोग भी प्राज का दार्शनिक नही कर के वैज्ञानिक ने अतीन्द्रिय ज्ञान की पद्धति विकसित नहीं रहा है। दूसरी संभावना थी निर्विकल्प चैतन्य के अनुभव Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६, वर्ष २६, कि०३ अनेकान्त की। जीवन में कोई एक क्षण ऐमा प्राता है कि हम चार डिग्री से नी तक जल का फैलाव होता है। ठंडा विचारशून्यता की स्थिति में चले जाते है। उन क्षणो मे होने पर भी वह सिकुडता नही है । यह विशेष नियम है। कोई नई स्फुरणा होती है, असभावित और अज्ञात तथ्य केवल सामान्य नियमो के आधार पर वास्तविक घटनामों संभावित और ज्ञात हो जाते है। ये दो संभावनायें थी, के बारे में विधानात्मक बात नही कही जा सकती। यह प्राचीन दार्शनिक के सामने । वह उन दोनों का प्रयोग सिद्धात सैद्धातिक विज्ञान, चिकित्सा और कानून तीनो पर करता था। वर्तमान के वैज्ञानिकों ने भी यत्र-तत्र इन लागू होता है। विशेष नियम के आधार पर निर्णयक दोनों सम्भावनामों की चर्चा की है। विकल्पशून्य अवस्था भविष्य-वाणिया की जा सकती है, जैसे एक वैज्ञानिक में चेतना के सूक्ष्म स्तर सक्रिय होते है और वे सूक्ष्म सत्यो जल की चार डिग्री से नीचे की ठडक के आधार पर जलके समाधान प्रस्तुत करते है। स्वप्नावस्था में भी स्थूल वाहक पाइप के फट जाने की भविष्यवाणी कर देता है। चेतना निष्क्रिय हो जाती है। उस समय सूक्ष्म चेतना यह सब तर्क का कार्य है। उसका बहुत बड़ा उपयोग है, किसी सूक्ष्म तत्त्व से संपर्क करा देती है। मैं नही मानता फिर भी उसे निरीक्षण का मूल्य नहीं किया जा सकता। कि प्राज के दार्शनिक मे क्षमता नही है। उसकी क्षमता जब निरीक्षण के साक्ष्य हमारे पास नहीं है, तब हम तर्क के परतों के नीचे छिपी हुई है। वह दार्शनिक की नियमों का निर्धारण किस आधार पर करेंगे और तर्क का अपेक्षा ताकिक अधिक हो गया है। उसके निरीक्षण की उपयोग कहां होगा? दर्शन के जगत में मैं जिस वास्तक्षमता निष्क्यि हो गई है। दर्शन की नई संभावनाप्रो विकता की अनिवार्यता का अनुभव कर रहा है, वह तीन पर विचार करते समय हमे वास्तविकता की विस्मृति नही सूत्रों में प्रस्तुत है :करनी चाहिए। तर्क को हम अस्वीकार नही कर सकते । १. नए प्रमेयों की गवेषणा और स्थापना । दर्शन से उसका सम्बन्ध विच्छेद नही कर सकते । पर २. मूक्ष्म निरीक्षण को पद्धति का विकास । इस सत्य का अनुभव हम कर सकते हैं कि तर्क का स्थान ३. सूक्ष्म निरीक्षण की क्षमता (चित्त की निर्मलता) दूसरा है, निरीक्षण और परीक्षण का स्थान पहला । का विकास । 'अनुमान' मे विद्यमान 'अनु' शब्द इसका सूचक है कि इस विकास के लिए प्रमाणशास्त्र के साथ-साथ योगपहले प्रत्यक्ष ओर फिर तर्क का प्रयोग । तर्क-विद्या का शास्त्र, कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान का समन्वित अध्ययन एक नाम 'ग्रान्वीक्षिकी' है। ईक्षण के पश्चात् तक हो होना चाहिए। इस समन्वित अध्ययन की धारणा सकता है, इसीलिए इसे 'प्रान्वीक्षिको कहा जाता है। मस्तिष्क में नही होती तब तक सुक्ष्म निरीक्षण की बात निरीक्षण या परीक्षण के पश्चात् नियमो का निर्धारण सफल नही होगी। योग दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है। किया जाता है। उन नियमो के आधार पर अनुमान उसका उपयोग केवल शारीरिक अवस्था तथा मानसिक किया जाता है। प्रायोगिक पद्धतियां हमारे लिए अन्तिम तनाव मिटाने के लिए ही नहीं है, हमारी चेतना के सूक्ष्म निर्णय लेने की स्थिति निर्मित कर देती है। वे स्वयं स्तरो को उद्घाटित करने के लिए उसका बहुत बड़ा मूल्य सिद्धान्तों का निरूपण नहीं करती। तर्क ही वह साधन है, है। सूक्ष्म सत्यो के साथ संपर्क स्थापित करने का वह एक जिसके अाधार पर निरीक्षित तथ्यों से निष्कर्ष निकाले सफल माध्यम है। महर्षि चरक पौधों के पास जाते और जाते है और उनके आधार पर नियम निर्धारित किये उनके गुण-धर्मों को जान लेते थे । सूक्ष्म यत्र उन्हे उपलब्ध जाते है। इस प्रक्रिया का अनुसरण दर्शन ने किया था नही थे। वे ध्यानस्थ होकर बैठ जाते और पौधों के गुणपौर विज्ञान भी कर रहा है। वैज्ञानिकों ने परीक्षण के धर्म उनकी चेतना के निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्बित हो पश्चात् इस नियम का निर्धारण किया कि ठंडक से सिकु- जाते । जैन वाङ्मय मे हजारों वर्ष पहले वनस्पति प्रादि के इन होती है और उष्णता से फैलाव । यह सामान्य नियम वियय मे ऐसे अनेक तथ्य निरूपित है जो ध्यान की विशिष्ट सब पर लागू होता है, पर इसका एक अपवाद भी है। भूमिकामों में उपलब्ध हुए थे। (शेष पृ० ११५ पर) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराण में राजनीति डा. रमेशचन्द जैन प्रादिपुराण प्राचार्य जिनसेन का एक ऐसा सुविस्तृत (सीमारक्षको) के लिए बना दिये जाते थे। राज्य के महाकाव्य है जिसका भारतीय वाङ्मय की दृष्टि से बीच कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और प्रहालक से सुशोअत्यधिक महत्त्व है । लोक जीवन के लगभग सभी विषयो भित राजधानी होती थी। राजधानीरूप किले को घेर का समावेश उसमें कथा-माध्यम से हुया है। उसमे समाज- कर गांव आदि की रचना होती थी।" आदिपुराण में नीति व धर्मनीति के साथ-साथ राजनीति का और प्रामादि की जो परिभाषाएं हैं, उनके अनुसार जिनमें बाड़ प्रकारान्तर से युद्धनीति का भी सागोपांग वर्णन मिलता से घिरे हुए घर हों, जिनमे अधिकतर शूद्र और किसान रहते हों तथा जो बगीचे और तालाबों से युक्त हो उसे राजनीति और उसका महत्त्व-आदिपुराण में राज- ग्राम कहते है। जिसमे सौ घर हों उसे निकृष्ट अथवा नीति के लिए राज्याख्यान' और राजविद्या' शब्दों का छोटा गाव कहते है तथा जिसमें पाच सौ घर हों और प्रयोग हमा है। उस देश का यह भाग अमुक राजा के जिस के किसान धन-सम्पन्न हो उसे बड़ा गांव कहते हैं । अधीन है अथवा यह अमुक राजा का नगर है, इत्यादि के सामान्यतः गांव पास-पास बसे होते थे। ये इतने निकट वर्णन को जनशास्त्रों में राज्याख्यान कहा गया है।' राज- होते थे कि एक गांव का मुर्गा दूसरे गाव आसानी से जा विद्या के परिज्ञान से इहलोक-सम्बन्धी पदार्थों में बुद्धि सके । इसी कारण गावों का विशेषण कक्कूटसम्पात्यान दृढ़ हो जाती है। राजषि राजविद्यानो द्वारा अपने शत्रु मिलता है।" छोटे गाव की सीमा एक कोस की और के प्रावागमन को जान लता है। राजविद्या प्रान्वीक्षिकी, बड़े गांव की सीमा दो कोस की होती थी। नदी, पहाड़, त्रयो, वार्ता और दण्डनीति के भेद से चार प्रकार की गुफा, श्मशान, क्षीरवक्ष, कटीलवृक्ष, वन और पुल से गांव होती है। मन्यविद्या के द्वारा त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ मोर की सीमा का विभाग किया जाता था।" जो परिखा, काम) की सिद्धि होती है। यह लक्ष्मी का पाकर्षण करने गोपुर, प्रहाल, कोट और प्राकार मे सुशोभित होता हो, में समर्थ है और इससे बड़े-बड़े फल प्राप्त होते है। जिसमे अनेक भवन हों, जो बाग और तालाबों से युक्त राज्य-प्रादिपुराण में राज्य के लिए जनपद', विषय हो, जिसमे पानी का प्रवाह पूर्वोत्तर दिशा के बीच वाली देश" तथा राज्य शब्दो का प्रयोग हया है। जो राज्य ईशान दिशा मे हो और जो प्रधान पुरुषो के रहने योग्य प्राकार-प्रकार मे अन्य राज्यों से बड़े होते थे वे महादेश'२ हो उसे नगर कहते थे ।२ जो नगर नदी और पर्वत से कहलाते थे। सिंचाई की अपेक्षा से राज्य के तीन भेद घिरा होता था उसे खेट और जो पर्वत तथा दो सौ गावों किये जाते थे"....१. प्रदेवमातृक, २. देवमातक और से घिरा होता था उसे खर्पट कहते थे ।" जो पाच सौ ३. साधारण । नदी, नहरो प्रादि से सीचे जाने वाले राज्य गावों से घिरा होता था उसे मडम्ब कहते थे तथा जो भदेवमातृक, वर्षा के जल में नीचे जाने वाल राज्य साधा- समुद्र के किनारे हो और और जहा पर लोग नावों के रण कहलाते थे। राज्यो की सीमाओं पर अन्तपालो द्वारा उतरते हो उसे पत्तन कहते थे।" जो नदी के किनारे यहाँ अकित सब सन्दर्भ आदिपुराण से है। १. ४.७ २. ४२.३४,४११३६ ११. ३४.५२ १२. १६.१५१ ४.४२.३४ १३. १६.१२७ १४. १६.१६० ५.११.८१ ६.४१.१३६ १५-१८. १६.१६२-१६५ १६. २६.१२४ ७. ११.३३ ८. १६.१६२ २०.१६.१६६ २१.१६.१६७ १०. १६.१५२ २२.२४. १६.१६६-१७३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.१५ १०८, वर्ष २६, कि०३ अनेकान्त होता था उसे द्रोणमुख और जहां मस्तक पर्यन्त ऊंचे-ऊंचे २. नई वस्तुमों के निर्माण एवं पुरानी वस्तुओं के धान्य में ढेर लगे रहते थे, वह सवाह कहलाता था। एक - रक्षण के उपाय करना। राजधानी में पाठ सौ, द्रोणमख में चार सौ तथा खर्पट मे दो ३. प्रजा-जनों से बेगार लेना। सौ गांव होते थे।" दस गांवों के बीच के बड़े गांव को संग्रह ४. अपराधियों को दण्ड देना । (मण्डी) कहते थे।" जिस राज्य के एक से अधिक व्यक्ति ५. जनता से कर वसूल करना । होते थे, वह द्वैराज्य कहलाता था। ऐसे राज्य में स्थिरता उतराधिकार और राज्याभिषेक-जब राजा किसी नहीं रहती थी। इसीलिए कहा गया है कि राज्य और कारण विरक्त हो जाता था तो अपने सुयोग्य पुत्र को कुलवती स्त्री का उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है। राज्यभार सौंप देता था।" सामान्यतः बड़ा पुत्र राज्य का जो पुरुष इन दोनों का अन्य पुरुषों के साथ उपभोग करता अधिकारी होता था, किन्तु मनुष्यों के अनुराग और है, वह नर नही, पशु है ।८। उत्साह को देखकर राजा कनिष्ठ पुत्र को भी राजपट्ट राजा की उत्पत्ति और उसका महत्त्व-भरतक्षेत्र में बाघ देता था।" यदि पुत्र बहुत छोटा हुआ तो राजा पहले भोगभूमि थी। उस समय दुष्ट पुरुषों का निग्रह उसे राजसिंहासन पर बैठाकर राज्य की सारी व्यवस्था तथा भले पुरुषों के पालन की आवश्यकता नहीं थी, सुयोग्य मन्त्रियों के हाथों में सौप देता था।५ पिता के क्योंकि लोग निरपराध होते थे । भोगभूमि के बाद साथ-साथ अन्य राजा", अन्तःपुर, पुरोहित तथा नगरकर्मभूमि का प्रारम्भ हुमा । कर्मभूमि में दण्ड देने वाले निवासी" भी अभिषेक करते थे। क्रमश: तीर्थ जल, कषायराजा का प्रभाव होने पर प्रजा मत्स्यन्याय का प्राश्रय जल तथा सुगधित जल से अभिषेक किया जाता था। लेने लगेगी, अर्थात् बलवान निबल को निगल जायेगा। ये नगरनिवासी कमलपत्र से बन हए द्रोणो और मिट्टी के लोग दण्ड के भय से कुमार्ग की ओर नहीं जायेंगे, इसी- घड़ों से भी अभिषेक करते थे।" अभिषेक के अनन्तर लिए दण्ड देने वाले राजा का होना उचित है और ऐसा राजा आशीर्वाद देकर पुत्र को राज्यभार सौप देता था। राजा ही पृथ्वी को जीत सकता है, ऐसा सोचकर भगवान और अपने मस्तक का मुकुट उतारकर उत्तराधिकारी को ऋषभदेव ने कुछ लोगों को दण्डधर राजा बनाया, क्योकि पहना देता था।" चक्रवर्ती के नज्याभिषेक म बत्तीस विभिन्न प्रजा के योग-क्षेम का विचार करना राजाओं का हजार मुकुटबद्ध राजाओं के सम्मिलित होने का उल्लेख ही कार्य होता है।" है।" पट्टबन्ध की क्रिया मन्त्री ओर मुकुटबद्ध राजा करते राज्य के कार्य-प्रादिपुराण में राजसत्तात्मक शासन- थे।" पट्टबन्ध के समय युबराज राजमिहासन पर बैठता व्यवस्था का दर्शन होता है। राजतन्त्र में राजा प्रमख था। अनेक स्त्रिया उस पर चमर ढराती थीं" और अनेक होता है तथा वह सारे कार्यों का नियमन करता है । मतः प्रकार के प्राभूषणों से वह देदीप्यमान होता था।" आदिराजा के कार्यों को राज्य के कार्य कहा जा सकता है। पुराण के सोलहवें पर्व मे राज्याभिषेक की विधि का इस दृष्टि से राज्य के निम्नलिखित कार्य माने जा सकते साङ्गोपाङ्ग वर्णन है। राजानों के भेव-पादिपुराण मे राजाप्रो के निम्न१. गाव प्रादि के बसाने पोर उपभोग करने वालों निम्नलिखित भेद बतलाए गये हैके लिए नियम बनाना। १. चक्रवर्ती-इसके राजराज अधिराट् और सम्राट २५. वही २६.१६.१७५-१७६ ३५. ८.२५४ ३६. १६.२२४ २७. ३४.४५ २८. ३४.५२ ३७. ३७.३ ३८. १६.२२७-२२८ २६. १६.२५१ ३०. १६.२५२-२५५ ३६. १६.१२५ ४०. ११.४५ ३१. १६.१६८ ३२. ४.१४४-१५० ४१. १६.२३२ ४२. ७.३१८, ६.५६५ ३३. ४.१५१, १४० ३४. ५.२०७ ४३.४४. ११.३६.४० ४५. ११.४४ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 " विशेषण भी प्राप्त होते है यह छः खण्ड का अधिपति" और राजर्षियों का नायक सार्वभौम राजा होता है।" चौरासी लाख हाथी, " चौरासी लाख रथ", बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, ३२ हजार देश", ६६ हजार रानिया", ७२ हजार नगर", ६६ करोड गांव ४, ९६ हजार द्रोण मुख ४८ हजार पतन", १६ हजार पेट" पन्तद्वीप", १४ हजार सवाह", एक लाख करोड़ हल", तीन करोड़ व्रज" सात सौ कुक्षिवास" ( जहां रत्नो का व्यापार होता है ) अट्ठाईस हजार सघन वन", प्रठारह हजार म्लेच्छ राजा नो निधियां चौदह रत्न और दस प्रकार के भोगो का वह स्वामी होता है । प्रादिपुराण के संतीसवें पर्व मेउको नौ निधियों, चौदह रत्नों तथा धन्य वैभव और दस प्रकार के भोगो का विस्तृत वर्णन है । उलका शरीर वज्रवृषभनाराचसहनन का होता है तथा शरीर पर चौमठ लक्षण होते है । " 7 " २. मुकुटवद्ध राजा"। ३. कुद्ध (मौलिवढ ) " । मुकुटबद्ध ४. महामण्डनिक चार हजार राजाओं का प्रधि पति" । ५. मण्डलाधिप । ६ अमिराज" । .६८ प्रादिपुराण में राजनीति ७. भूपाल । ८. नृप । और मित्र की अपेक्षा राजा चार प्रकार के होते शत्रु है : १. शत्रु, २. मित्र, ३. शत्रु का मित्र और ४. मित्र का मित्र । अच्छे मित्र से सब कुछ सिद्ध होता है ।" शत्रु का कितना ही विश्वास क्यों न किया जाए वह घण्ट में ४६. ३७.२० ४७. ४१.१५५ ४५-४६. ३७.२३-२४ ५०. ३७.३२ ५१-५२. ३७.३३-३६ ५६. ६०.६६ ६१. ६७.६६ ६३-६४. ३७.७१-७३ ६७. २६.७५ ६६. ४१.१६ ५३-५८. ३७.६०-६६ ६०. ३७.३० ६२. ३७.७७ ६६. ३७.२७, ३७.२भ ६८. ४४.१०७ ७०. १६.१५७ यही रहता है।" C राजा के कर्तव्य न्यायपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाले राजा को ससार मे यश का लाभ होता है, महान वैभव के साथ-साथ पृथ्वी की प्राप्ति होती है, परलोक में प्रभ्युदय की प्राप्ति होती है तथा वह तीनों लोकों को जीतता है। न्याय को धन कहा गया है । न्यायपूर्वक पालन की हुई प्रजा (मनोरथों को पूर्ण करने वाली) कामधेनु के समान मानी गई है।" स्याय दो प्रकार का है- दुष्टो का निग्रह और शिष्ट पुरुषो का पालन ।" एक स्थान पर कहा गया है कि धर्म का उल्लंघन न कर धन कमाना, रक्षा करना, बढाना और योग्य पात्र में दान देना इन चार प्रकार की प्रवृत्तियो को सज्जनों ने न्याय कहा है। जैन धर्मानुसार प्रवृत्ति करना संसार में सबसे उत्तम न्याय है।"" अन्यायपूर्वक श्राचरण करने से राजाओं की वृत्ति का लोप हो जाता है ।" ८२ कुलपालन कुलाम्नाय की रक्षा करना और कुल के योग्य आचरण की रक्षा करना कुलपालन कहलाता है ।" राजानों को अपने कुल की मर्यादा का पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसे अपने कुल मर्यादा का ज्ञान नहीं है यह अपने दुराचारों से कुल को दूषित कर सकता है ( ३८.२७४) । द्वेष रखनेवाला कोई पाखण्डी राजा के सिर पर विषपुष्प रख दे तो उसका नाश हो सकता है। कोई वशीकरण करने के लिए उसके सिर पर वशीकरणपुष्प रख दे तो यह मूढ़ के समान आचरण करता हुआ दूसरे के वश हो जायेगा । अतः राजा को अन्य मतवालो के शेषाक्षत, माशीर्वाद और शातिवचन प्रादि का परि त्याग कर देना चाहिए अन्यथा उसके कुल की हानि हो सकती है। " ७१. ३१.६५, ३७.८० ७३. १४.७० ७५. ३४.३६ ७७. ४३.३२२ ७६.३८.२६६ १०१ ८१. ४२.१३-१४ ८३. ४२.५ ७२. १६.२६२ ७४. २०.१०६ ७६. ४३.४१४ ७८. ३८.२६३ ८०. ३८.२५६ ८२. ३६.२५८ ८४. ४२.२१-२३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०, २६, कि० ३ मनकामन मत्यनुपालन-राजानों को वृद्ध मनुष्यों की सगति- को जानने वाला निमित्तज्ञानी अपने जीवन का मन्त रूपी सम्पदा से इन्द्रियो पर विजय प्राप्त कर, धर्मशास्त्र बतला दे अथवा अपने माप ही निर्णय हो जाए तो उस और अर्थशास्त्र के ज्ञान से अपनी बुद्धि सुसंस्कृत करना समय से शरीर परित्याग को बुद्धि धारण करे; क्योंकि चाहिए (३८.२७२)। यदि राजा इससे विपरीत प्रवृत्ति त्याग ही परम धर्म है, त्याग ही परम तप है, त्याग से ही करेगा तो हित अहित का जानकार न होने से बुद्धिभ्रष्ट इहलोक में कीर्ति और परलोक में ऐश्वर्य की उपलब्धि हो जाएगा (३८.२७३) । इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी होती है।" प्रात्मा का स्वरूप न जानने वाला जो क्षत्रिय पदार्थों के हित-अहित के ज्ञान को बुद्धि कहते है। अपनी आत्मा की रक्षा नहीं करता उसकी विष, शस्त्र अविद्या का नाश करने से उस बुद्धि का पालन होता है। प्रादि से अवश्य ही अपमृत्यु होती है अथवा शत्रुगण तथा मिथ्या ज्ञान को अविद्या कहते है और प्रतत्त्वों मे तत्त्व- क्रोधी, लोभी और अपमानित सेवकों से उसका अवश्य ही बुद्धि का होना मिथ्या ज्ञान है । बिनाश होता है और अपमृत्यु से मरा प्राणी दुःखदायी मात्मानपालन- इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी तथा कठिनाई से पार होने योग्य इस संसाररूपी पावर्त अपायों से प्रात्मा की रक्षा करना प्रात्मा का पालन कह· में पड़कर दुर्गतियों का पात्र होता है। लाता है।" राजा की रक्षा होने पर सबकी रक्षा हो प्रजापालन - जिस प्रकार ग्वाला पालस्यरहित होकर जाती है (३८.२७५)। विष, शस्त्र प्रादि अपायो से रक्षा प्रयत्नपूर्वक गायो की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा करना तो बुद्धिमानों को विदित है; परलोक सम्बन्धी को भी प्रजा का रक्षण करना चाहिए।" उसके रक्षण अपायों से रक्षा धर्म के द्वारा ही हो सकती है, क्योकि कार्य को कुछ रीतियां निम्नलिखित है, जिन्हे ग्वाले के धर्म ही समस्त प्रापत्तियों का प्रतिकार है।८ धर्म ही दृष्टान्त से स्पष्ट किया गया है :अपायों से रक्षा करता है, धर्म ही मनचाहा फल देता है, १. अनुरूप दण-यदि गायो के समूह में से कोई धर्म ही परलोक में कल्याण करने वाला है और धर्म से गाय अपराध करती है तो वह ग्वाला अंगच्छेदन प्रात ही इस लोक मे प्रानन्द प्राप्त होता है। जिस राज्य के कठोर दण्ड न देकर अनुरूप दण्ड से नियन्त्रित करके लिए पूत्र तथा सगे भाई भी निरन्तर शत्रुता किया करते उसकी रक्षा ही करता है, उसी प्रकार राजा भी अपवी है, जिसमे बहुत से अपोय है, वैसा राज्य बुद्धिमान पुरुषो से प्रपोयसा राज्य बद्धिमान पुरुषो प्रजा की रक्षा करे। कठोर दण्ड देने वाला राजा अपनी को अवश्य छोड़ देना चाहिए।" मानसिक खेद की बह- प्रजा को अधिक उद्विग्न कर देता है, इसलिए प्रजा उसे लता वाले राज्य मे सुखपूर्वक नहीं रहा जा सकता, छोड़ देती है तथा मन्त्री प्रादि भी विरक्त हो जाते है।" क्योंकि निराकुलता ही सुख है। जिसका अन्त अच्छा २. मुख्य वर्ग को रक्षा-जिस प्रकार ग्वाला अपनी नही है, जिसमें निरन्तर पाप उत्पन्न होते रहते है ऐसे गायो के समूह में मुख्य पशुओं के समूह की रक्षा करता राज्य में सुख का लेश भी नही होता। सब प्रोर से शकित हुआ पुष्ट (सम्पत्तिवान्) होता है; क्योकि गायों की रहने वाले पुरुष को राज्य में भारी दुःख बना रहता है, रक्षा करके ही वह विशाल गोधन का स्वामी हो सकता प्रतः विद्वान पुरुष को अपथ्य औषधि के समान राज्य का है, उसी प्रकार राजा भी अपने मुख्य वर्ग की प्रमुख रूप परित्याग कर देना चाहिए और पथ्य भोजन के समान से रक्षा करता हुआ अपने और दूसरे के राज्य में पुष्टि तपश्चरण करना चाहिए। प्रतः राज्य के विषय मे पहले को प्राप्त होता है । " जो राजा अपने मुख्य बल से पुष्ट ही विरक्त होकर भोगोपभोग का त्याग कर दे; यदि वह होता है यह बिना किसी यत्न के समुद्रान्त पृथ्वी को जीत ऐसा करने में असमर्थ हो तो अन्त समय में उसे राज्य के लेता है।" प्राडम्बर का अवश्य त्याग कर देना चाहिए। यदि काल ३. घायल और मृत सैनिकों की रक्षा यदि प्रमाद ८५-८६. ४२.३१-३२ ८७. ४२.११३ ६२. ४२.१३४.१३५, ३८.२७६ ८८.८६. ४२.११४.११६ ६०.६१. ४२.११८, ११६-२४ ६३-६४. ४२.१३६-१४२ ६५-६६. ४२.१४४-१४५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माविपुराण में राजनीति १११ से किसी गाय का पैर टूट जाए तो ग्वाला उपचार भावि पर अनुरक्त रहते है और कभी भी उसका साथ नहीं से उस पर को जोड़ता है, गाय को बांधकर रखता है, छोड़ते।" बंधी हुई गाय को तृण देता है और उसके पैर को मजबूत ५. योग्य स्थान पर नियुक्ति-ग्वाला अपने पशुओं करने का प्रयत्न करता है तथा पशुओं पर अन्य उपद्रव के समूह को कांटों और पत्थरो से रहित तथा सर्दी-गर्मी आने पर भी वह उसका शीघ्र प्रतिकार करता है। इसी की बाधा से शून्य वन मे चराता हुमा प्रयत्नपूर्वक उनका प्रकार, राजा भी अपनी सेना में घायल योद्धा को उत्तम पोषण करता है। इसी प्रकार, राजा को भी अपने सेवकों वैद्य से औषधि दिलाकर उसकी विपत्ति का प्रतिकार करे को किसी उपद्रवहीन स्थान में रखकर उनकी रक्षा करनी और वह वीर जब स्वस्थ हो जाए तो उसकी प्राजीविका चाहिए। यदि वह ऐसा नही करेगा तो राज्य प्रादि का को व्यवस्था करे। ऐसा करने से मृत्यवर्ग सदा सन्तुष्ट परिवर्तन होने पर चोर, डाक तथा समीपवर्ती मन्य राजा रहता है । जैसे ग्वाला गांठ से गाय की हड्डी के विचलित उसके इन सेवको को पीड़ा देने लगेगे। हो जाने पर उस हड्डी को वही जमाता हुआ उसका योग्य ६. कण्टकशोधन-राजा को चाहिए कि वह चोर, प्रतिकार करता है, वैसे ही राजा को भी संग्राम में किसी प्रादि की प्राजीविका बलात् नष्ट कर दें; क्योकि काटों मुख्य भृत्य के मर जाने पर उसके पद पर उसके पुत्र के दूर करने से ही प्रजा का कल्याण संभव है।" अथवा भाई को नियुक्त करना चाहिए। ऐसा करने से ७. सेवकों की माजीविका-जैसे ग्बाला नवजात भृत्यगण राजा को कृतज्ञ मानकर अनुराग करने लगते है बछड़े को एक दिन तक माता के साथ रखता है, दूसरे और अवसर पडने पर निरन्तर युद्ध करते रहते हैं।" दिन दयायुक्त हो उसके पर मे धीरे-से रस्सी बांधकर ४. सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान- खंटी से बांधता है, उसकी जरायु तथा नाभि के नाल को जैसे गायो के समूह को कोई कीड़ा काट लेता है तो बड़े यत्न से दूर करता है, कीड़े उत्पन्न होने की शका ग्वाला योग्य औषधि देकर उसका प्रतिकार करता है, वैसे होने पर उसका प्रतिकार करता है पोर दूध पिलाकर उसे ही राजा भी अपने सेवक को दरिद्र अथवा खेदखिन्न जान प्रतिदिन बढ़ाता है, उसी प्रकार राजा को भी चाहिए कि उसके चित्त को सन्तुष्ट करे। जिस सेवक को उचित वह प्राजीविका के हेतू अपनी सेवा में प्रागत सेवक का माजीविका प्राप्त नही होती है वह अपने स्वामी के इस उसके योग्य प्रादर-सम्मान से सन्तुष्ट करे और जिन्हें प्रकार के अपमान से विरक्त हो जाएगा, प्रतः राजा कभी स्वीकृत कर लिया है तथा जो अपने लिए क्लेश सहन अपने सेवक को विरक्त न करे। सेवक की दरिद्रता को करते है, ऐसे सेवको की प्रशस्त भाजीविका प्रादि का घाब मे कीड़े उत्पन्न होने के समान जानकर राजा को विचार कर उनके साथ योग-क्षम का प्रयत्न करे । शीघ्र उसका प्रतिकार करना चाहिए। सेवको को अपने योग्य परुषों की नियक्ति - शकुन प्रादि का स्वामी से उचित सम्मान प्राप्त कर जैसा सन्तोष होता है निश्चय करने में तत्पर ग्वाला जब पशुप्र' का खरादन वैसा सन्तोष बहुत धन देने पर भी नही होता है । जैसे लिए तैयार होता है तब वह (दूध आदि को) परीक्षा ग्वाला अपने पशुओं के झण्ड में किसी बड़े बैल को अधिक कर उपयक्त पशु खरीदता है, उसी प्रकार राजा का भार वहन करने में समर्थ जानकर उसके शरीर की पुष्टि परीक्षा किए हए उच्चकुलीन सेवकों को प्राप्त करना के लिए नाक मे तेल आदि डालता है वैसे ही राजा भी चाहिए और पाजीविका के मूल्य से खरीदे हुए उन सेवकों अपनी सेना में किसी योद्धा को अत्यन्त उत्तम जानकर को समयानसार योग्य कार्यों में लगा देना चाहिए, क्योकि उसे अच्छी प्राजीविका देकर मम्मानित करे। जो राजा वह कार्य रूपी फल सेवकों द्वारा ही सिद्ध किया जा सकता अपना पराक्रम प्रकट करने वाले वीर पुरुष को उसके है। जिस प्रकार पशुमो के खरीदने मे किमी को प्रतिभू योग्य सत्कारों मे सन्तुष्ट रग्वता है उसके भत्य सदा उस (माक्षी) बनाया जाता है, उसी प्रकार सेवको के संग्रह में १७. ४२.१४६-१५२६८. ४२.१५३.१६० ६६.१००. ४२.१६१-१६६ १०१. ४२.१६१-१६६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२, २६, कि०३ किसी बलवान पुरुप को प्रतिभ बनाना चाहिए । सम्पदा के द्वारा उसे सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार यदि ९. कृषि कार्यों में योग-जैसे ग्वाला प्रहरमात्र रात्रि कोई बलवान राजा अपने राज्य के सम्मुख पाए तो वृद्ध शेष रहने पर उठकर जहां बहत घास और पानी होता लोगों के साथ विचार कर उसे कुछ देकर उसके साथ संधि है, ऐसे किसी योग्य स्थान में गायों को प्रयत्नपूर्वक चराता कर लेनी चाहिए। चंकि युद्ध बहुत से लोगो के विनाश है तथा सबेरे ही वापिस लाकर बछड़े के पीने से बचे हुए का कारण है, उससे बहत हानि होती है और उसका दूध को मक्खन प्रादि प्राप्त करने की इच्छा से दुह लेता भविष्य भी बरा होता है, अतः कुछ देकर बलवान शत्रु के है, उसी प्रकार राजा को भी प्रालस्यरहित होकर अपने साथ संधि करना उपयुक्त है। प्रधीन ग्रामों में बीज देने आदि उपायों द्वारा किसानों से १२. सामंजस्य-धर्म का पालन-राजा अपने चित्त का खेती करानी चाहिए। वह अपने समस्त देश में किसानों । समाधान कर जो दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों द्वारा भली भांति खेती कराकर धान्य का संग्रह करने के का पालन करता है वही उसका सामञ्जस्य गुण कहलाता लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित प्रश ले । ऐसा होने से उसके है। जो राजा निग्रह करने योग्य शत्रु अथवा पुत्र का भंडार प्रादि में बहत-सी सम्पदा इकट्ठी हो जाएगी। उससे निग्रह करता है, जो किसी का पक्षपात नहीं करता, जो उसका बल बढ़ेगा तथा सन्तुष्ट करने वाले उन धान्यों से दष्ट और मित्र सभी को निरपराध बनाने की इच्छा उनका देश भी पुष्ट अथवा समद्धिशाली होगा। करता है और इस प्रकार माध्यस्थ भाव रखकर जो सब १०. प्रक्षरम्लेच्छों को वश में करना-अपने प्राश्रित पर समान दष्टि रखता है वह समंजस कहलाता है। प्रजा स्थानो पर प्रजा को दुख देने वाले जो अक्षरम्लेच्छ है, को विषम दष्टि से न देखना तथा सब पर समान दृष्टि उन्हें कुलशुद्धि प्रदान करने प्रादि उपायों से अपने अधीन रखना सामजस्य धर्म है। इस समजतत्व गुण से ही करना चाहिए। अपने राजा से सत्कार पाकर वे फिर राजा को न्यायपूर्वक प्राजीविका चलाने वाले शिष्ट पुरुषों उपद्रव नहीं करेगे। यदि राजानों से उन्हें सम्मान प्राप्त का पालन और अपराध करने वाले दुष्ट पुरुषों का निग्रह नही होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते करना चाहिए। जो पुरुष हिंसादि दोषो मे तत्पर रहकर रहेगे।" जो अक्षरम्लेच्छ अपने ही देश मे सचार करते पाप करते हैं, वे दुष्ट हैं और जो क्षमा, सन्तोप आदि के हो, उनसे राजा को कृषको की तरह कर अवश्य लेना द्वारा धर्म धारण करने में तत्पर है, वे शिष्ट है ।" चाहिए।५ जो अज्ञान के बल पर अक्षरों द्वारा उत्पन्न १३. दुराचार का निषेध-दुराचार का निषेध करने अहकार को धारण करते है, पापसूत्रो से आजीविका से धर्म, अर्थ और काम तीनों की वृद्धि होती है, क्योकि चलाते है वे अक्षरम्लेच्छ है। हिंसा करना, मास खाने में कारण के विद्यमान होने पर कार्य की हानि नही देखी रुचि रखना, बलपूर्वक दूसरे का धन अपहरण करना और जाती। धूर्तता ही म्लेच्छो का प्राचार है।" १४. लोकापवाद का भय-राजा को लोकापवाद से ११. प्रजारक्षण- राजा को तृण के समान तुच्छ डरते हुए कार्य करना चाहिए, क्योकि लोक यश ही स्थिर पुरुष का भी रक्षण करना चाहिए (४४.४५)। जिस रहने वाला है, सम्पत्ति तो विनाशशील है । प्रकार ग्वाला आलस्य रहित होकर अपने गोधन की व्याघ्र, इस प्रकार हम देखते है कि प्रादिपुराण में विस्तारचोर प्रादि के आतंक से रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा पूर्वक राज्यधर्म या राजा के कर्तव्यो का वर्णन किया गया को भी अपनी प्रजा का रक्षण करना चाहिए। जिस है। नवीं शताब्दी के इस आदिपुराण में वर्णित राज्यधर्म प्रकार ग्वाला उन पशुओं के देखने की इच्छा से राजा के के मादर्श वर्तमानकालीन लोकतत्र के लिए भी बड़े उपमाने पर भेंट लेकर उसके समीप जाता है और धन योगी हैं। १०२. ४२.१७०-१७३ १०३. ४२.१७४-१७८ १०७. १६३-१६६ १०८. ४२.१६६-२०३ १०४.१०.. ४२.१७६-१८१ १०६. ४२.१८३.१८४ १०६.४४.६६ ११०. ३४.२६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारीतलाई को द्विमूर्तिका जैन प्रतिमाएं श्री शिवकुमार नामदेव कारीतलाई, मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले की मुड़- अजितनाथ एवं संभवनाथ वारा तहसील से २६ मील उत्तर-पूर्व मे कैमूर की द्वितीय जैन तीर्थकर अजितनाथ एव तृतीय तीर्थकर पूर्वीय पर्वतमालाओं मे स्थित है। प्राचीन काल में यह संभवनाथ की इस ४'.७" ऊँची द्विमूर्तिका में दोनों तीर्थंकर स्थान कर्णपुर के नाम से विख्यात था। यहां से उपलब्ध कायोत्सर्गासन में स्थित हैं। दोनों के हाथ एव मस्तक बहुसंख्यक हिन्दू, जैन एवं बौद्ध प्रतिमाएँ इस बात की। खण्डित है। उनके मस्तक के पीछे प्रभामण्डल, एक-एक साक्षी हैं कि यहां हिन्दू तथा बौद्ध धर्मों के साथ-साथ जैन- छत्र, एक-एक दंदुभिक, हाथियों के युग्म एवं पुष्पमालायें धर्म का भी व्यापक प्रचार रहा है। लिए विद्याधर अंकित हैं। उनके अलग-अलग परिचारक कारीतलाई से प्राप्त जैन द्विमतिका प्रतिमाएँ कला के रूप में सौधर्म और ईशान चन्द्र चंवर धारण किये खड़े की दृष्टि से उत्कृष्ट है। इनमें से प्रत्येक में दो-दो तीर्थकर हैं। तीर्थकरों के चरणों के निकट भक्तजन उनकी पर्चा कायोत्सर्ग ध्यानमद्रा में है। उनकी दष्टि नासिका के करते हुए प्रदर्शित किये गये हैं। तीर्थंकरों को अलग-अलग अग्र भाग पर केन्द्रित है। इन द्विमूर्तिका प्रतिमाओं में पादपीठ पर खड़े हुए दिख लाया गया है। प्रजितनाथ के पादपाठ पर खड़ हुए। तीर्थकर के साथ अष्टप्रातिहार्यों के अतिरिक्त तीर्थंकर का पादपीठ पर हस्ति एवं संभवनाथ के पादपीठ पर वानर लांछन एवं उनके शासन देवताओं की भी मतियां हैं। अंकित हैं। दोनो के साथ उनके यक्ष-यक्षी क्रमशः महाजहां तक प्रतिमा द्रव्य का प्रश्न है, अधिकांश प्रतिमायें यक्ष एवं रोहिणी तथा त्रिमुख एवं प्रशप्ति हैं। चौकी पर श्वेत बलुआ पाषाण की हैं । सिंहों के जोड़े एवं धर्मचक्र है। प्रतिमा दसवीं शती की है। ऋषभनाथ एवं अजितनाथ । पुष्पदंत एवं शीतलनाथ भगवान् ऋषभनाथ एवं अजितनाथ की यह प्रतिमा ३.७" ऊँची, श्वेत बलुमा पाषाण की इस द्विमूर्तिका श्वेत बलुमा पाषाण की है मौर कायोत्सर्गासन में ध्यानस्थ में नवें एवं दसवें तीर्थकर पुष्पदन्त एवं शीतलनाथ कायोहै। प्रथम एवं द्वितीय दोनों तीर्थकरो के मुख तथा हस्त सर्गासन में ध्यानस्थ हैं। पुष्पदंत का दक्षिण एवं शातल खंडित हो गए है। दोनों के हृदय पर श्रीवत्स चिह्न है नाथ का वामहस्त खण्डित है। चौकियों पर उनके लांछन तथा प्रभामण्डल भी अलग-अलग है। त्रिछत्र, दुन्दुभिक, क्रमशः मकर एवं श्रीवत्स बने है। पुष्पदंत का यक्ष हस्ति एव पुष्पवृष्टि करते हुए विद्याधरों का प्रकन अभिजित एवं यक्षी महाकाली तथा शीतलनाथ का यक्ष कलात्मक है। दोनों के परिचारक इन्द्र एवं पूजक प्रलग- ब्रह्म एवं यक्षी मानवी अंकित हैं। मलन है। चौकियों पर सिंहयुग्म अंकित है। प्रथम धर्मनाय एवं शांतिनाथ तीर्थकर भगवान् ऋषभनाथ की चौकी पर उनका लांछन महंत घासीराम स्मारक संग्रहालय, रायपुर (क्रमांक वृषभ एवं यक्ष-यक्षी गोमुख तथा चक्रेश्वरी हैं। तीर्थकर २५३१) में संरक्षित ३.७" ऊँची दसवीं सदी में निर्मित अजितनाथ की चौकी पर हस्ति एवं यक्ष-यक्षी महायक्ष इस द्विमूर्तिका में १५वें तीर्थकर धर्मनाथ एवं सोलहवे तथा रोहिणी का अंकन है। प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के तीर्थकर शांतिनाथ कायोत्सर्गासन में हैं। धर्मनाथ की दृष्टिकोण से उक्त प्रतिमा का काल दसवीं शती ई० ज्ञात चौकी पर उनका लांछन वष एवं शांतिनाथ की चौकी होता है। प्रतिमा ३.७" ऊंची है। पर उनका लांछन मुग उत्कीर्ण है। धर्मनाप के यक्ष Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४, वर्ष २६, कि. ३ अनेकान्त किन्नर एवं यक्षी मानसी तथा शातिनाथ के यक्ष गरुड है। प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के माघार पर विवेच्य प्रतिऔर यक्षी महामानसी प्रतिमा के माथ अंकित है। मानो का काल १०वी-११वीं सदी है। उक्त समयावधि मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रतनाथ में यह भूभाग मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवंश कलचुरियों इस विमूर्तिका में उन्नीसवें तीर्थकर मल्लिनाथ एव के अन्तर्गत था। प्रतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ कायोत्सर्ग प्रासन मे ध्यानस्थ प्रतिमाएँ त्रिपुरी के कलचुरि-नरेशों के काल की है। है। दोनों के हृदय पर श्रीवत्स अकित है। केश धुंघराले यद्यपि कलचुरि-नरेश शैवमतानुयायी थे, परन्तु उनके और कर्णलोर लंबी है। दोनों के परिचारक अलग-अलग काल मे अन्य धर्मों का भी पर्याप्त प्रभाव था, जो उनकी है। मल्लिनाथ का दक्षिण एवं मुनिसुव्रतनाथ का वाम हस्त धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। म्वण्डित है। अलग-अलग चारण, चौकियों पर लटकती प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन हुई झूल पर कलश एवं कच्छप चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ते जन प्रतिमानों में तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण है। मल्लिनाथ की चौकी पर उनका यक्ष कुबेर और मति प्राचीनकाल से होता रहा है। तीर्थकर प्रतिमानों में यक्षी अपराजिता तथा मनिसुव्रतनाथ की चौकी पर उनके साम्य होने पर भी उन्हे उनके लांछन, वर्ण, शासनदेवता यक्ष वरुण और यक्षी बहुरूपिणी ललितामन में स्थित है। एवं केवलवक्ष के आधार पर अलग-अलग समझा जा पाश्र्वनाथ एवं नेमिनाथ सकता है। पार्श्वनाथ एव नेमिनाथ की यह द्विमूर्तिका भी प्रायः सभी प्रतिमाशास्त्रीय ग्रथों में तीर्थंकरों के संभवतः कारीतलाई से उपलब्ध हुई है। सम्प्रति यह लांछन के विषय में मतैक्य है. परन्तु शासन देव-देवियों प्रतिमा फिलाडेलफिया म्यूजियम प्राफ पार्ट मे सरक्षित प्रादि के विषय में मतैक्य नही है। कारीतलाई से प्राप्त है। कृष्ण-बादामी बलुग्रा पाषाण से निर्मित १०वी सदी ऋषभनाथ एवं प्रजितनाथ की द्विमूर्तिका में ऋषभनाथ के की इस द्विमूर्तिका मे पार्श्वनाथ एव नेमिनाथ एक वटवक्ष यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी उत्कीर्ण है। यद्यपि के नीचे कायोत्सर्ग सन मे है। पार्श्वनाथ के मस्तक । अधिकाश ग्रथों जैसे रूपमण्डन, अभिधानचिन्तामणि, पर फैले हा सात फणों का छत्र है। नेमिनाथ का लांछन अमरकोश, दिगम्बर जैन ग्राइकोनोग्राफी (वर्जेश) एव शंख है। तीर्थकरों के दोनों पाश्वो मे भक्त एव चंवर हरिवशपुराण के अनुसार ऋषभनाथ का शासनदेव गोमुख लिए हुए परिचारक है। मस्तक के ऊपर छत्रावलि के बतलाया गया है, किन्तु अपराहितपृच्छा एवं वास्तुसार दोनों पाश्वों पर हस्तियों का प्रकन है। के अनुसार वह वृषवक्त्र है। प्रत हम इस निष्कर्ष पर अंबिका एव पद्मावती पहंचते है कि उक्त प्रतिमा के निर्माण का प्राधार अपरारायपुर-संग्रहालय मे किसी एक जैन देवालय के जितपृच्छा एवं वास्तुसार न होकर प्रथम पाच ग्रंथ थे। चौखट का खण्ड संरक्षित है। उसकी दाहिनी ओर के कारीतलाई से प्राप्त मूर्ति अंबिका की गोद में बालक अर्घ भाग में कोई तीर्थकर पद्मासनस्थ है। उनके दोनों एवं पद्मावती के मस्तक पर सर्प-फण है। प्रतिमाशास्त्रीय ओर एक-एक तीर्यकर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। ग्रथों के अनुसार, अबिका के वर्णन में अन्तर है । रूपमण्डन धुर छोर पर मकर एवं पुरुष है। बायी मोर एक विद्या- (६।१६) के अनुसार, अबिका का वर्ण पीत और प्रायुध घर अकित है एव नीचे ताख मे अम्बिका एवं पद्मावती नाग-पाश-अंकुश और चतुर्थ हस्त मे पुत्र बताया गया है। एक साथ ललितासन मे है। दोनों देवियां क्रमशः नेमि. अपराजितपृच्छा (२२१.२२) में अंबिका को द्विभुजी नाथ और पार्श्वनाथ की यक्षिणियां हैं। अबिका की गोद और उसका वर्ण हरा बताया गया है। इनके दोनों हाथों में बालक और पद्मावती के मस्तक पर सर्प का फण है। में से एक में फल और दूसरा वरमुद्रा में बताया गया है। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि कारीतलाई नेमिनाथचरित' (जैन प्राइकोनोग्राफी, पृ० १४२) में से प्राप्त जैन द्विमूर्तिका प्रतिमाएँ कला की दृष्टि से सुन्दर अबिका के दाहिने हाथ में पुत्र और दूसरे मे अंकुश बताया Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारीतलाई को विमतिका जैन प्रतिमाएं गया है। इस प्रकार, हम देखते है कि रूपमडन एव को तीर्थकर प्रतिमानों में । तीर्थकरों के हृदय पर श्रीवत्स नेमिनाथचरित में बालक का होना बताया है जो कारी- अर्थात् चक्रचिह्न रहता है। यह धर्मचक्र है । इनके तलाई से प्राप्त प्रतिमा मे है। प्रासन के नीचे प्रकित प्रतीक धारणधर्मा धर्म के प्रतीक पार्श्वनाथ की यक्षी पद्मावती का वाहन अपराजित- है। प्रत्येक जिन की माता ने इनके जन्म के पूर्व स्वप्न मे पृच्छा के अनुसार कुक्कुट, वास्तुसार के अनुसार सर्प एवं कुछ-न-कुछ देखा था। यही देखी हुई वस्तु उस जिन का प्रतिष्ठासारोद्धार, अभिधान चिंतामणि, अमरकोश, प्रतीक है। प्रत्येक जिन ने किसी-न-किसी वृक्ष के नीचे दिगंबर जैन माइकोनोग्राफी एवं हरिवंशपुराण के अनुसार केवल-ज्ञान प्राप्त किया था। वह ज्ञानवृक्ष कहलाता है। मैसा बताया गया है। परन्तु कारीतलाई से प्राप्त पद्मा उपरिवणित ऋषभनाथ एव अजितनाथ की द्विवती के मस्तक पर वास्तुसार के ही अनुरूप सर्पफण है। मूर्तिका प्रतिमा में से ऋषभनाथ की चौकी पर उनका प्रतीकशास्त्रीय अध्ययन लाछन वृषभ ग्रंक्ति है। वषभ धर्म का प्रतीक माना भारतीय मूर्तिकला में प्रतीक के रूप मे पशु-पक्षी, जाता है। उनके हृदय पर धर्म का प्रतीक श्रीवत्स अंकित मानव, अर्धदेव, लता, वनस्पति, अचेतन पदार्थ, शस्त्रास्त्र है। दोनों के मस्तक के पीछे लगा हुमा प्रभामण्डल धर्मप्रादि को स्थान दिया गया है। इन प्रतीकों के अध्ययन चक्र का प्रतीक है। यह वेद का कालचक्र है जो काल से भारतीय कला के अनेक रूपों को समझा जा सकता एवं धर्मचक्र के रूप मे हिन्दू, जैन एव बौद्धधर्म से सम्बद्ध है। प्रत्येक प्रतीक के पूर्व और अग्रिम इतिहास को जाने है। दोनों के मस्तक पर तीन छत्रोवाला छत्र है जो बिना भारतीय कला का मर्म एवं अर्थ समझना कठिन है। त्रिशक्ति या तीन लोक के चक्रवतित्व का प्रतीक है। देवी और देवतामो की प्रतिमानो का लक्षण निश्चित तीर्थकर अजितनाथ की चौकी पर उत्कीर्ण उनका लाछन करते समय धार्मिक प्रतीकों की अावश्यकता हुई। इसके हस्ति प्राध्यात्मिक गौरव और वैभव का प्रतीक है। इसी लिए धार्मिक प्राचार्यो और शिल्पियों ने प्राचीन मांगलिक प्रकार प्रत्येक जिन का नाछन प्रकित है। प्रतिमा-शास्त्र चिह्नों पर ध्यान दिया और उन्हे विमिन्न देवमूर्तियों के की दृष्टि से इन लाछनो का विशेष महत्त्व है। लिए स्वीकार किया, जैसे चक्र, सिंह और श्रीवत्स प्रादि D (पृष्ठ २१२ का शेषाश) सूक्ष्म निरीक्षण की पद्धति को विकसित करने के जीवन जीते है। जो सत्य की खोज में निरत होते है, लिए कर्मशास्त्रीय अध्ययन भी बहुत मूल्यबान है। हमारे उनके मन मे कलुषतायें नही रहती, और यदि वे रहती पोद्गलिक शरीर के भीतर एक कर्म शरीर है। वह सूक्ष्म है तो पग पग पर बाघायें उपस्थित करती है। सत्य को है। उसकी क्रियायें स्थूल शरीर के प्रतिबिम्बो की सूक्ष्म, खोज के लिए निरीक्षण पद्धति का विकास प्रावश्यक है तस व्याख्या कर सकते है और उनके कार्य-कारण भाव और उसके विकास के लिए चित्त की निर्मलता भोर का निर्धारण भी कर सकते है। एकाग्रता प्रावश्यक है। आज के वैज्ञानिक वातावरण मे मन की विभिन्न प्रवृत्तियों, उसको पृष्ठभूमि में रही निरीक्षण के द्वारा उपलब्ध प्रमयो का परीक्षण भी होना हई चेतना के विभिन्न परिवर्तनों और चेतना को प्रभावित चाहिए। विज्ञान को दर्शन का उत्तराधिकार मिला है, करने वाले बाहरी तत्त्वों का अध्ययन कर हम निरीक्षण प्रत. दर्शन और विज्ञान में दूरी का अनुभव क्यों होना की क्षमता को नया आयाम दे सकते है। चाहिए। निरीक्षण के पश्चात् परीक्षण और फिर तर्क इस समन्वित अध्ययन की परम्परा को गतिशील का उपयोग इस प्रकार तीनों पद्धतियो का समन्वित प्रयोग बनाने के लिए दार्शनिक को केवल तर्कशास्त्री होना हो तो दर्शन पुनः प्राणवान हो अपने पितृस्थान को प्रतिपर्याप्त नहीं है। उसे साधक भी होना होगा। उसे चित्त ठापित कर सकता है। इस भूमिका में वायशास्त्र या की निर्मलता भी अजित करनी होगी। बहुत सारे वैज्ञा- प्रमाणशास्त्र का भी उचित मूल्याकन हो सकेगा। निक भी माधक होते है और वे तपस्वी जमा निर्मल Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास के काव्यों में अहिंसा और जैनत्व श्री प्रेमचन्द रांवका संस्कृत वाङ्मय में महाकवि कालिदास का महत्त्व- उत्पन्न व्यक्ति राघव कहलाये । दिलीप तथा उसकी रानी पूर्ण स्थान है । अपनी काव्य-प्रतिभा द्वारा इस महाकवि सुदक्षिणा ने बड़ी साधना तथा व्रत करके रघु-सा पुत्र ने संस्कृत-साहित्य का भण्डार भरकर संस्कृत-जगत् को प्राप्त किया था। दिलीप ने जब अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा उपकृत किया और स्वयं भी अमर हो गया। इस अमर छोड़ा तो उसका रक्षक इस रघु को ही नियुक्त किया। कवि के काव्य के माधुर्य-प्रवाह से भारतीयों के सरस घोड़े को इन्द्र ने हर लिया तो रघु ने उससे भी लोहा हृदय ही परिप्लावित नहीं हुए हैं, अपितु पाश्चात्य पण्डितों लिया और उसके दात खट्टे कर दिए। इन्द्र गुणज्ञ था। के चित्त भी पूर्णरूप से सरसीकृत है। वह रघु के पराक्रम से प्रसन्न हुमा और उसने घोड़े के अतिरिक्त कुछ भी मांगने के लिए रघु से कहा। इस पर विद्वान् इतिहासकारों ने कविवर कालिदास का समय रघु ने प्रार्थना की कि यदि आप घोड़ा नहीं देना चाहते विक्रम की प्रथम शताब्दी-ईसा से लगभग ५०-६० वर्ष है तो मेरे पिता को उसके बिना ही अश्वमेध यज्ञ का पूर्व का माना है। वह सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ___ समग्र फल प्राप्त हो जाए, यह वर दीजिए। समकालीन था। कवि के मालविकाग्निमित्र पौर विक्रमोवंशीय नाटक इस तथ्य के साक्षी हैं। कालिदास के समय यद्यपि इससे रघु के असाधारण बल-पराक्रम का पता में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म का पर्याप्त प्रभाव था। इस चलता है, किन्तु क्या यह सम्भव नही कि शैव होते हए विषय में बागीश्वर विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक 'कालि भी कवि यज्ञों में होने वाली निरीह पशूमों की निर्मम दास और उसकी काव्यकला' में लिखा है कि उस समय हत्या को पसन्द नही करता? इसीलिए नायक की मार्य लोग प्रकृति की शक्तिरूप अदृश्य परमात्मा, प्रात्मा, प्रतिष्ठा के साथ उसने अपनी अहिंसात्मक भावना को भी पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास रखते थे। कालान्तर प्रकाशित करना अभीष्ट समझा। में यज्ञों में धीरे-धीरे पशुहिंसा का समावेश हुआ और जब वह बहुत बढ़ गई तो समाज में उसके विरुद्ध एक प्रति कवि ने रघुवश के दूसरे सर्ग मे भी सिंह वाले प्रसग क्रिया उठ खड़ी हुई। उस प्रतिक्रया का एक रूप वह की रचना कर एक गाय (कामधेनु) की रक्षा के लिए ज्ञान-मार्ग था, जिसकी झांकी उपनिषदों तथा प्रास्तिक दिलीप को अपनी देह प्रस्तुत करने के लिए उद्यत दिखदर्शनों के चिन्तन में मिलती है। दूसरा रूप अहिंसावादी लाया है। रघुवश के ही पांचवे सर्ग में हम पढते है कि जैन और बौद्ध धमों का प्रभाव था। इन धर्मों के प्राचार्य स्वयंवर मे भाग लेने के लिए रघ का पुत्र मज विदर्भ जा बड़े प्रतिष्ठित कुलों के क्षत्रिय राजकुमार थे। उनका रहा था। रास्ते में उसके पड़ाव पर एक जगली हाथी व्यक्तित्व पाकर्षक एवं प्रभावशाली था और उन्होंने अपने टूट पड़ा। 'हाथी मर न जाए' इस बात का विचार कर, प्रचार का माध्यम भी लोक-भाषा को बनाया, अतः उनकी केवल उसे डराने के उद्देश्य से मज ने एक साधारण-सा शिक्षायें शीघ्र ही सारे देश में फैल गई। तीर उस पर छोड़ा। तीर के लगने मात्र से हाथी महाकवि कालिदास शैव होते हए भी जनधर्म की गन्धर्व का रूप धारण कर प्रज के सम्मुख उपस्थित हो शिक्षामो से बहुत प्रभावित थे। रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तल गया और बोला कि मैं प्रियवद नामक गन्धर्व हूं, जो पौर कुमारसम्भव प्रादि कृतियां इस तथ्य को प्रमाण हैं। मातङ्ग नामक ऋषि के शाप से हाथी बन गया था। रघुवंश इस कवि का प्रमुख महाकाव्य है। इस काव्य में तुमने क्षत्रिय के कर्तव्य का पालन करते हुए भी दया नहीं राजा रघु का विशेष महत्त्व है। उसी के नाम से प्रागे छोड़ी और मेरे प्राण नही लिए । अत: मैं माज से तुम्हारा चलने वाले वश का नाम रघुवंश पड़ा। उस वंश में मित्र हं मोर इस मित्रता को स्मरणीय बनाने के लिए Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिदास के काव्यों में हिंसा और जैनत्व तुम्हें यह सम्मोहन नामक अस्त्र देता है जो बिना हिंसा २.सत्वं प्रसस्ते महिते मदीये वसंश्चतुर्थोऽग्निरिवाम्यगारे। किए शत्रुपों को पराजित करने वाला है ---- वित्राण्यहाग्यहसि सोढुमर्हन यावद्यते साधयित त्ववर्थम सम्मोहनं नाम सखे ममास्त्रं प्रयोगसंहारविभक्तमन्त्रम् । -रघु० ५.२५ गांषर्वमावत्स्व यतः प्रयोक्तुनं चारिहिसा विजयश्च हस्त ॥ ३. महंणामहंते चक्रुमनयो नयचक्षुषे। -रघु० १.५५ --- रघु० ५.५७ ४. मद्यप्रभृति भूतानामभिगम्योस्मि शुद्धये। इसी प्रकार, रघुवंश के सातवें सर्ग में अज ने अपने यदध्यासितमहंद्भिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते ।। शत्रुनों पर उस सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग कर उन्हें हरा -कुमारसम्भव, ६.५६ दिया, किन्तु मारा नहीं - ये सब तथ्य स्पष्ट करते है कि कहाकवि कालिदास यशोहतं सम्प्रति राघवेण न जावितं वः कृपयेतिवर्णा । अहिंसा-अनुरागी थे और जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तो -रघु० ७.६५ मे उनका अपना विश्वास एवं प्रादर था। कुमारसम्भव इन सब प्रकरणो से कविवर कालिदास की प्राणिमात्र के पांचवें सर्ग में पार्वती की कठोर तपस्या का जो सन्दर के प्रति दया व अहिसा की उत्कृष्ट भावना प्रकट होती चित्रण कवि ने किया है और रघुवंश के पाठवे सर्ग के मन्त में मज द्वारा भामरण उपवास करते हुए उसके यही कारण है कि कविवर कालिदास ने दशरथ के शरीर-त्याग का जो वर्णन किया है, वह उस समय के उस शिकार खेलने की निन्दा की है, जिसमे उसके हाथो समाज पर जैन धर्म के प्रभाव को ही सूचित करता है। श्रवणकुमार का वध हो गया था। कालिदास ने अभिज्ञान कालिदास के समय जैन धर्म हिसाप्रधान यज्ञ-यागादि शाकुन्तल के दूसरे अक मे भी माघव्य के मुख से शिकार का विरोधी होते हुए भी सुधारवादी था, क्रान्तिकारी खेलने को बुरा ठहराया है -मन्दोत्साहः कृतोस्मि मृगया नही। उसने प्राचार की शुद्धता, कठोर तप एव सत्य, पवाविना माषव्येन । इसी नाटक के छठे अंक में कोतवाल अहिंसा, अस्तेय तथा अपरिग्रह पर विशेष बल दिया ने मछुवे के व्यवसाय को बरा कह कर उसका मजाक समाज में फैली हई बुराइयो को इस प्रकार सुधारने का किया है और फिर उसके मुह से यज्ञ में पशु मारने वाले प्रयत्न किया कि उसका यह कार्य किसी को खटका नही 'श्रोत्रिय ब्राह्मण' के रूप में व्यग्य से कटाक्ष किया गया जब कि बौद्ध धर्म की शिक्षाप्रो ने तात्कालिक समाज के मूल प्राधार पर ही कुठाराघात कर दिया, जिससे सब इससे तो इनकार नही किया जा सकता कि उस सामाजिक बघन छूट गये। समाज इस अवस्था को अधिक ममय शिकार खेला जाता था। यज्ञो मे पशु-हिंसा को न सह सका और उसके विरोध का परिणाम यह हमा कि जाती थी। किन्तु यह सब कालिदास को रुचिकर न था। भारत से बौद्ध धर्म बिलकुल ही लुप्त हो गया। जैनधर्म उस युग मे बलात् ठूसी गई अहिसा के प्रति विद्रोह भावना मे दीक्षित होने वालो को खान-पान, रहन-सहन आदि के होने पर भी भारतीय नागरिक के हृदय पर अहिंसा की सम्बन्ध में कठोर नियमो का पालन करना पड़ता था। गहरी छाप अवश्य पड़ गई थी। इसमे पाश्चर्य नही कि प्रतः अवसरवादी प्रवाछनीय व्यक्तियों के लिए उसमें कवि कालिदास की इस अहिंसा, प्रेम प्रौर दया की कोई माकर्षण न था। इसलिए यद्यपि जैन धर्म का प्रचार भावना के अन्तस्तल मे जैनधर्म का प्रभाव अन्तनिहित है। उतना अधिक नही हमा, जितना बौद्ध धर्म का, किन्तु वह कवि ने अनेक स्थानो पर जैनों के माराध्य 'महन' माज भी जीवित है तथा भारतीय समाज पर उसका शब्द का प्रयोग बड़े प्रादर पूवक किया है जो इस प्रसंग प्रभाव चिरस्थायी है। वर्तमान भारतीय समाज मे जो ब्रत. में विचारणीय है उपवास तथा महिंसा की परंपरा पाई जाती है उसका १. "तवाहतो नाभिगमेन तप्तं मनो नियोगक्रिययोत्सुकं मे। बहुत कुछ श्रेय जैनधर्म को ही है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य युग में जैन धर्म और संस्कृति कुमारी रश्मिबाला जैन, एम० ए०, नई दिल्ली मध्य युग में भक्ति का प्राधान्य रहा। सभी धर्मों में किया। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी इस काल में भक्ति के कारण अनेक विकासपथ निर्मित हुए । मध्य काल उल्लेखनीय प्रगति हुई। दोनो परम्परामों और उनके के साहित्य का स्वर धर्म और भक्ति ही था। उस काल प्राचार्यों को परमार वशी राजानों ने विशेष राज्याश्रय के साहित्य में हमें वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मों के विकास दिया। अनेक राजा जैन धर्मावलम्बी भी रहे, जिनमें मौर परिवर्तन के विविध रूप दृष्टिगोचर होते है। मध्य प्रमुख है राजा मुज, राजा भोज तथा राजा नवसाहसांक यग में वैदिक धर्म ने विशेषतया से दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश प्रादि । इन्होंने ही अनेकानेक जै। कवियों तथा विद्वानों किया। प्रभाकर और कुमारिल ने मीमासा के माध्यम को समुचित प्राश्रय दिया। उनमे से कवि धनपाल, से और शंकराचार्य ने वेदान्त के माध्यम से वैदिक दर्शन अमितगति, प्रभाचन्द्र, नयनन्दी, धनञ्जय, माशाघर, का पुनरुत्थान किया। पौराणिक और स्मार्त धर्मों का माणिकनन्दी तथा महासेन आदि के नाम विशेष उल्लेखसमन्वयात्मक रूप सामने प्राया । वैष्णव धर्म विविध नीय है। हथूडी का राठोर वश जैन धर्म का परम भक्त शाखामों और उपसम्प्रदायों में विभक्त हमा जिसके अनेक था तथा इसी वश के प्राश्रय में वासुदेव सूरि, शातिभद्र भेद और प्रभेद परिलक्षित होते है जिसका विविध रूपों सूरि प्रादि विद्वान रहे। मेवाड की राजधानी चित्तौड मे देश के विभिन्न क्षेत्रो मे प्राबल्य रहा । जैन धर्म का विशिष्ट केन्द्र थी। ऐलाचार्य, हरिभद्र सरि, वीरसेन प्रादि विद्वानों ने यही पर अपने साहित्य का मध्य काल तक बौद्ध धर्म देश विदेशों मे हीनयान और सृजन किया। चित्तौड़ के राजा-महाराजामो ने अपने महायान के रूप मे बट गया था। साधारणतया उत्तर मे महलों के निकट सुविशाल जैन मन्दिरी का निम ण महायान और दक्षिण मे हीनयान का जोर था। भारत करवाया। में इस काल में महायानी परम्परा अधिक फली-फूली। चन्देल वंश के राजा भी जैन धर्म के परम अनुयायी हेनसांग ने इसी काल में बौद्ध धर्मानुयायी महाराजा थे । इसी शासनकाल मे खजुराहो के शांतिनाथ दि० जैन हर्षवर्धन के राज्यकाल मे भारत यात्रा की। शाक्त सम्प्रदाय मन्दिर मे आदिनाथ की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा विद्या. के प्रभाववश उसमे तान्त्रिक साधना के प्रवेश के कारण घर देव ने की। महोबा, देवगढ़, अजयगढ़, महार, पपोरा, बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर अप्रिय होता गया। मदनपुरा आदि जैन धर्म के केन्द्र-स्थल थे। ग्वालियर के ___ मध्य युग तक जैन धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो कच्छपघट राजामों ने भी जैन धर्म को पूर्ण प्रश्रय दिया। चुका था-दिगम्बर तथा श्वेताम्बर । इन दोनो परम्परामों को विकसित होने का पर्याप्त अवसर भी जैन धर्म के केन्द्र के रूप मे कलिंग राज्य की महत्ता मिला जिससे जैन साहित्य, कला और संस्कृति का पूर्ण प्रारभ से ही रही है। यद्यपि कलचुरी वश शैव धर्मावरूप से विकास हुग्रा। उत्तरकालीन प्राचार्य सोमदेव के कालीन प्राचार्य सोमदेव के लम्बी था तथापि उसने जैन धर्म और कला की पर्याप्त यशस्तिलकचम्पू (६५६ ई०), नीतिवाक्यामृत प्रादि ग्रन्थ प्रतिष्ठा की। जैन धर्म के और भी कई केन्द्र थे। उनमें इसी समय के है तथा इसी काल में गुर्जर-प्रतिहार राजा से रामगिरि, जोगीमारा, एलोरा, कारजा, धाराशिव, बत्सराज के राज्य में उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० मे कुव. अचलपुर, कुल्पाद, खनुपपदेव प्रादि प्रमुख है। लयमाला, जिनसेन ने स. ७८३ मे हरिवंश पुराण और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने में गुजरात का हरिभद्र सूरि ने समराहच्चकहा मादि ग्रन्थो का निर्माण प्रमुख हाथ रहा है। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा जैन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य युग में जैन धर्म प्रौर संस्कृति धर्म के प्रति पर्याप्त बढ़ा रखते थे। गुजरात नि पाटन के सोलंकी वंश ने भी जैन धर्म को अत्यन्त लोकप्रिय बनाया । अमोघवर्ष और कर्क भी जैन धर्म के प्रति प्रत्यन्त श्रद्धालु थे । राजा जयसिंह ने अन्हिलपाटन को ज्ञान केन्द्र बनाकर प्राचार्य हेमचन्द्र को उसका कार्यभार सौपा। इस वश के भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनानायक विमलशाह ने श्राबू का कलानिकेतन १०३२ ई० में बनवाया। इसी शासनकाल में हेमचन्द्र ने दूताश्रय काव्य, सिद्धहेम व्याकरण प्रादि बीसों ग्रन्थ तथा वाग्भट्ट ने अलंकार ग्रंथ की रचना की। कुमारपाल भी निर्विवाद रूप से जैन धर्म का अनुयायी था । कुमारपाल के मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल का सम्बन्ध धाबू के सुप्रसिद्ध जैन मन्दिरों से है । उन्होने इन मन्दिरों को बनवाने में विशेष यत्न किया । दक्षिण में पल्लव राज्य में जैन धर्म थोड़े समय फलाफूला, लेकिन शैव धर्म के प्रभाव से बाद में उसके साहित्य श्री कला के केन्द्रों को नष्ट कर दिया गया। बाद में, चालुक्य वंश ने जैन साहित्य और कला को लोकप्रिय बनाया। महाकवि जोइन्दु, मनन्तवीर्य, विद्यानन्द, रविपेण, पद्मनन्दि, धनञ्जय पार्वनन्दि, प्रभाचन्द्र, परवादिमल्ल आदि प्रसिद्ध जैनाचार्य इस काल में हुए है जिन्होंने जैन साहित्य का संस्कृत, प्राकृत और प्रपभ्रंश के अतिरिक्त कन्नड, तमिल श्रादि भाषाओं मे निर्माण किया। इसी समय में चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोल में ६७८ ई० में गोम्मटेश्वर बाहुबली की सुविशाल प्रतिमा निर्मित करायी । बंगाल में जैन धर्म का अस्तित्व ११-१२वी शती तक विशेष रहा है। बंगाल मे पाल वंश का साम्राज्य रहा । वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसके राजा देवपाल ने जैन धर्म के कलाकेन्द्र नष्ट-भ्रष्ट किये। सिन्ध, काश्मीर, नेपाल आदि प्रदेशो मे भी जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार था । राष्ट्रकूट वंश ने जैन धर्म को विशेष प्रश्रय दिया । इसी समय में गुणभद्र, महावीराचार्य, स्वयंभू, जिनसेन, वीरसेन, पात्यकीर्ति आदि ने प्रचुर जैन साहित्य की रचना की कल्याणी के कहपुरीकाल मे श धर्म की कुछ परम्परात्रों और जैन धर्म के सिद्धांतों का मिश्रण कर १२वीं शती में लिंगायत धर्म की स्थापना ११८ की। उन्होंने जैनों पर कठोर प्रत्याचार किये तथा बाद में वैष्णवी ने भी जैनों के पंचालयों और मन्दिरों को जलवाया। इसका फल यह हुआ कि अधिकांश जैन धर्मावलम्बी धर्म परिवर्तन कर शेव भोर वैष्णव गन गये । अरबों, तुर्कों और मुगलों ने भी जनों पर भीषण अत्याचार किये। उनके भयंकर आक्रमणों का प्रभाव जैन साहित्य और मन्दिरों पर पड़ा। उन्हे भूमिसात् कर दिया गया अथवा मस्जिदों में परिणत कर दिया गया । इन्ही परिस्थितियो के कारण भट्टारक प्रथा का उदय और विकास हुआ। इस काल में मूर्ति-पूजा का भी विरोध हुआ । इस काल में ही लोदी वंश के राज्यकाल में तारण स्वामी ( १४४८ - १५१५ ई०) हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया और 'तारण तरण" पंथ चलाया। प्राचार्य सकलकीर्ति, ब्रह्मजय सागर आदि विद्वान इसी समय हुए इसी काल मे प्रबन्धों और परितों का सरल हिन्दी और संस्कृत में लेखन कर जैन साहित्यकारों ने साहित्य क्षेत्र मे एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया जिसका उत्तरकालीन हिन्दी साहित्य पर काफी प्रभाव पडा । इस समय तक दिल्ली, जयपुर आदि स्थानों पर भट्टारक गद्दियां स्थापित हो चुकी थी। सूरत, भड़ौच, ईडर प्रादि अनेक स्थानों पर भी इन भट्टारकीय गद्दियों का निर्माण हो चुका था । इस परिस्थिति के कारण जैन साहित्य की अपार एवं अपूरणीय हानि हुई, फिर भी अकबर ( १५५६१६०५ ई०) जैसे महान शासक ने जैनाचार्यों को समुचित सम्मान दिया। इसी समय अध्यात्म शैली के प्रवर्तक बनारसीदास, कवि परमस्तरामस्वरूप पि राममल पांडे बादि हिन्दी के अनेक जैन कवि हुए साइ टोडरमल अकबर की टकसाल के अध्यक्ष थे। जहांगीर के समय मे भी अनेक जैन हिन्दी काव्यकार हुए जिनमें से ब्रह्मगुलाल, भगवतीदाम, सुन्दरदास, रायमल्ल आदि विशेष प्रसिद्ध है। इन काल मे एक पार जहा जनेतर कविगण तत्कालीन परिस्थिनियो के वश मुगलों और अन्य राजाम्रो को श्रृंगार श्रीर प्रम-वासना के सागर में डुबो कर उनकी दूषित वृत्तियों को निखार रहे थे, वही दूसरी ओर जैन (शेष पृ० १२२ पर) · Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुंग-कुषाणकालीन जैन शिल्पकला श्री शिवकुमार नामदेव प्राचीन भारत के शुंग एवं कुषाण दो राजवंशों का हुमा है तथा दक्षिण हस्त भी नृत्य की भगिमा को प्रस्तुत करूा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। शुंगों का काल कर रहा है । संगत करनेवाले निकट बैठे है। वैदिक धर्म के पुनरुत्थान एव कुषाणों का काल बौद्धधर्म के प्रिंस प्राफ वेल्म म्यूजियम, बम्बई में जैनधर्म के लिए स्वर्णकाल था। फिर भी दोनों वशों के नरेशों का तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की एक प्राचीन कांस्य प्रतिमा दृष्टिकोण संकुचित नही था। वे अन्य धर्मों के प्रति भी है। प्रतिमा खड्गासन में है। उसके सर्पफणों का वितान काफी उदार और सहिष्ण थे। इसी का यह परिणाम था एवं दक्षिण कर खंडित है। प्रोष्ठ मोटे है एव हृदय पर कि उनके काल मे अन्य मतो के साथ जैन धर्म भी उन्नति श्रीवत्स का चिह्न अंकित नही है। श्री यू० पी० शाह ने के शिखर पर था। इस प्रतिमा का काल १०० ई० पूर्व के लगभग माना है । शुंगकाल (१८५ ई०पू० से ७२ ई० पू०) यद्यपि शुंगकालीन ककाली टोला (मथुरा) से जैन स्तूप के बाह्मणधर्म के उत्कर्ष का काल था, तथापि इस युग की अवशेष मिले है तथा उसी समय के प्रस्तर के पूजापट्ट भी कलाकृतियों में जैन-प्रवशेष भी कम संख्या में उपलब्ध उपलब्ध हुए है, जिन्हे पायागपट्ट कहा जाता था। यह नहीं हुए है। शुगकाल मे जैनधर्म के अस्तित्व की द्योतक प्रस्तर अलंकृत है तथा पाठ मागलिक चिह्नो से युक्त है । कतिपय प्रतिमाएं उपलब्ध हुई है। लखनऊ-संग्रहालय में पूजा-निमित्त अमोहिनी ने इसे प्रदत्त किया था। संरक्षित मथुरा से प्राप्त एक फलक पर ऋषभदेव के शंगकालीन कला का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र उड़ीसा सम्मुख अप्सरा नीलांजना का नत्य चित्रित है। इसका प्रदेश में था। जिम समय पश्चिमी भारत में बौद्ध शिल्पी दृष्टांत इस प्रकार है--एक दिन, चैत्र कृष्ण नवमी को लेणों (गुफाओं) का निर्माण कर रहे थे, लगभग उसी राजा ऋषभदेव सहस्त्रों नरेशों से घिरे राजसिंहासन पर समय कलिंग मे जैन शिल्पी कुछ गुफाओं का उत्खनन कर मारूद थे। सर्वसुन्दरी अप्सरा नीलांजना का नत्य चल रहे थे। ये गुफाएं भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर-पश्चिम में न उदयगिरि और खण्डगिरि नामक पहाड़ियों में बनाई गई समस्त सभासद विमग्ध थे। तभी अचानक नीलांजना की हैं। ये गुफाएँ जैनधर्म से सम्बधित हैं । गुफानों के संरक्षक मायु समाप्त हो गई। उसके दिवंगत होते ही इन्द्र ने कलिंग-नरेश खारवेल (ई०पू०२री सदी) थे। यद्यपि तत्काल उसके जैसी ही अन्य देवांगना का नत्य प्रारम्भ इस काल के शिल्प-विषयक अवशेष उपलब्ध नहीं होते करा दिया। यद्यपि यह सब इन्द्र ने इतनी चतुराई एव किन्तु खारवेल के लेख से ज्ञात होता है कि वह मगध के शीघ्रता से किया कि किसी को पता भी न चल सका, नन्द राजा द्वारा कलिंग से ले जाई गई एक जैन मूर्ति को किन्तु यह सब सूक्ष्मदर्शी ऋषभदेव की दृष्टि से प्रोझल अपनी राजधानी वापस ले पाया था। यह उल्लेख महत्त्वन रह सका । संसार की नश्वरता का विचार प्राते ही रस पूर्ण है क्योंकि इससे द्वितीय सदी ई० पू० में जैन तीर्थंकरों फोका पड़ गया और वे वैराग्य के रंग में सराबोर हो की मूर्तियों का अस्तित्व सिद्ध होता है। गए। उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा लेने का संकल्प किया। शुग एव कुषाण काल मे मथुरा जैनधर्म का प्राचीन चित्रित फलक में अनेक नरेशों सहित ऋषभदेव को बैठे केन्द्र था। ब्राह्मणो एब बौद्धों के समान जैन धर्मानुयायियों दिखाया गया है । नर्तकी का दक्षिण पैर नृत्य-मुद्रा में उठा ने भी अपने धर्म और कला के केन्द्र स्थापित किए। १. स्टडीज इन जैन पार्ट-~-यू०पी० शाह, चित्रफलक २, प्राकृति ५. २. जर्नल माफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भाग २, पृ० १३. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंग-कुषाणकालीन शिल्पकला १२१ कंकाली टोले के उत्खनन से बहुसंख्या में मूर्तियां उपलब्ध स्थापना सिंहवादिक ने प्रत्-पूजा के लिए की थी। तीर्थहुई हैं। ये मूर्तियां किसी काल में मथुरा के दो स्तूपों में दूर-प्रतिमा से युक्त होने के कारण इसकी संज्ञा 'तीर्थकर. लगी हुई थीं। महत् नंद्यावर्त की एक प्रतिमा जिसका काल पट्ट' हुई। उसके मध्य में पद्मासनस्थ तीर्थङ्कर-मूर्ति है। ८६ ई० है: इस स्तूप के उत्खनन से प्राप्त हुई है। उसके चारों ओर चार त्रिरत्न है । इस पट्ट के वाह्य चौखट यहां से प्राप्त जैन मूर्तियाँ बौर मूर्तियों के इतनी पर अष्ट-मांगलिक चिह्न-मीन-मिथुन, देवग्रह-विमान, सदृश हैं कि दोनों में प्रस्तर करना कठिन हो जाता है। श्रीवत्स, रत्नपात्र ऊर्ध्व पंक्ति में एवं अघोपंक्ति में त्रिरत्न यदि श्रीवत्स पर ध्यान न दिया जाए तो ऊपरी अंगों को पुष्पस्त्रक, वैजयंती तथा पूर्णधट है। समानता के कारण जैन मूर्ति को बौद्ध एवं बौद्ध मूर्ति को कषाण संवत ५४ में स्थापित देवी सरस्वती की जैन मूर्ति प्रासानी से कहा जा सकता है। कारण यह था प्रतिमा भी प्रतिमा-शास्त्रीय दृष्टि से जैन कला की मौलिक कि कुषाणयुग के प्राम्भ में कला के क्षेत्र में धामिक देन है। इसका दक्षिण कर प्रभय-मुद्रा में है एवं वाम कर कट्टरता नहीं थी। में पुस्तक है। मथुरा से प्राप्त पायागपट्र कला की दृष्टि से प्रतीव पायागपट्ट पर अंकित मांगलिक चिह्नों की स्थिति से सुन्दर हैं । जैनधर्म में प्रतीक-पूजा की सतत प्रवाही धारा मूर्ति को जैन प्रतिमा मानने में संदेह नहीं रह जाता। इनसे सिद्ध होती है और किस प्रकार मूर्ति-पूजा का चिह्न ये हैं-१. स्वस्तिक, २. दर्पण, ३. भस्मपात्र, ४. बेत समन्वय उस धारा के साथ हुआ, यह ज्ञात होता है । की तिपाई (भद्रासन), ५.६. दो मछलियां, ७. पुष्पमाला, पायागपट्ट पूजा-शिलाएं थे। ये जैन-कला की प्राचीनतम ८. पुस्तक । पोपपातिकसूत्र में प्रष्ट मांगलिक चिह्नों के कृतियां है। नाम इस प्रकार हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त,वर्तमानक, कुषाण-युग के अनेक कलात्मक उदाहरण मथुरा के भद्रासन, कलश, दर्पण तथा मत्स्ययुग्म । कंकाली टोले की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त इस युग के अन्य प्रायागपट्ट पर जो मांगलिक उत्कीर्ण एक पायागपट्ट' पर महास्वस्तिक का चिह्न बना है जिसके हैं उनमें दर्पण तथा नंद्यावर्त का अभाव है। संभवतः मध्य में छत्र, नीचे पद्मासन में तीर्थङ्कर मूर्ति है, उनके कनिष्क के काल तक (ई० प्रथम शती) प्रष्टमांगलिक चारों भोर स्वस्तिक की चार भुजाएं हैं। तीर्थङ्कर के की अंतिम सूची निश्चित न हो सकी थी। दिगम्बर शाखा मण्डल की चारों दिशामों में चार विरल दिखाए गए हैं। में निम्नलिखित मष्टमांगलिक चिह्न वणित है-भृङ्गार, महास्वस्तिक की लहराती चार भुजानों के मोड़ों में भी कलश, दर्पण, चामर, ध्वज, व्यजन, छत्र, सुप्रतिष्ठ । चार धार्मिक चिह्न मीन-मिथन, वैजयंती, स्वस्तिक एवं श्रीवत्स हैं। स्वस्तिक के बाहर मण्डल में वेदिकान्तर्गत कुषाण-काल में प्रधानतः तीर्थङ्कर की प्रतिमाएं तैयार बोधिवृक्ष, स्तूप, एक प्रस्पष्ट वस्तु मौर सोलह विद्याधर की गई जो कि कायोत्सर्ग एवं पद्मासन-अवस्था में है। मथुरा युगलों से पूजित तीर्थङ्कर मूर्ति ये चार धार्मिक चिन । के शिल्पियों के सम्मुख यक्ष की प्रतिमाएं हो पादर्श थीं। रक चार कोनों में गुह्यक मुद्रा में चार महोरग हैं। प्रत : कायोत्सर्ग स्थिति में तीर्थकर की विशालकाय नग्न चौकोर चौखटे को एक मोर बढ़ाकर प्रष्ट मांगलिक चिह्नों मतियां बनने लगीं । कंकाली टीले के उत्खनन से उपलब्ध का पक्ति का मंकन है जिनमें स्वस्तिक, मीन-मिथन और बहसंख्यक नग्न प्रतिमाएं लखनऊ के संग्रहालय में संरक्षित श्रीवस्स सुरक्षित हैं। हैं। नग्न प्रतिमानों की स्थिति से यह निष्कर्ष निकलत, कला की दृष्टि से लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित है कि इस काल में दिगम्बर जैनों की प्रधानता थी ती पायागपट्ट क्राक जे २४६ विशेष उल्लेखनीय है। इसकी कर-प्रतिमानों में अधोवस्त्र का समावेश कुषाण-युग के ३. भारतीय कला-डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ. २७१-८२, चित्रफलक ३१६. ४. वही, पृ० २८२-८३, चित्रफलक ३१८. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२, वर्ष २६, कि०३ अनेकान्त पश्चात् हुआ। इस युग में तीथंकरों के विभिन्न प्रतीकों ये भी नग्न है, एव ४. सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बैठी हुई का परिज्ञान न हो सका था। विभिन्न तीर्थंकरों को पह- मुद्रा मे। चानने के लिए चौकियों पर अंकित लेखों में नाम का कुषाणकालीन मथुरा-कला में तीर्थंकरों के लांछन उल्लेख ही पर्याप्त था। नहीं मिलते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की कंकाली टीले के दूसरे स्तूप से उपलब्ध तीर्थकर- जाती थी। केवल ऋषभनाथ के कंधों पर खुले हुए केशों मूर्तियों की संख्या अधिक है, जिनकी चौकियों पर कुषाण की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर संवत् ५ से ६५ तक के लेख हैं। प्रतिमाए चार प्रकार सर्प-फणों का पाटोप है। तीथंकर-मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स एव मस्तक के पीछे तेजचक्र या प्रभा-मण्डल मिलता १. खड़ी या कायोत्सर्ग मुद्रा मे, जिनमें दिगम्बरस्व है। फणाटोपवाली मूर्तियों में प्रभाचक्र नहीं रहता। के लक्षण स्पष्ट हैं, २. पदमासन में मासीन मूर्तियां, ३. चौकी पर केवल चक्र या चक्रध्वज या जिन-मूर्ति या सिंह सर्वतोभद्रिका प्रतिमा या खड़ी मुद्रा में चौमुखी मूर्तियां; का अंकन पाया गया है। 000 (पृष्ठ ११६ का शेषांश) कवि ऐसे राजामों की दूषित वृत्तियों को अध्यात्म और लोकप्रिय भी हो गई। बाद में प्राचार्य सोमदेव ने भी वैराग्य की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे। प्रारम्भ में तो उसका विरोध करने का प्रयत्न किया मध्य युग का समाज कठोर वर्ण-व्यवस्था में जकड़ा किन्तु अन्ततः उन्होंने भी प्राचार्य जिनसेन के स्वर में ही हुमा था। इस काल की स्मृतियों में सामाजिक नियमो अपना स्वर मिला दिया। बाद के जैनाचार्यों ने प्राचार्य का विधान किया गया। । विदेशी आक्रमणों के कारण जिनसेन और प्राचार्य सोमदेव से द्वारा मान्य वर्णसामाजिक कट्टरता और अधिक बढ़ती गई। समाज व्यवस्था को सहर्ष स्वीकार कर लिया । भट्टारक सम्प्रदाय में घार्मिक स्वतन्त्रता तो विद्यमान थी किन्तु सती प्रथा, में विशेष प्रगति हुई। प्राचार के स्थान पर बाह्य क्रियाबहुपत्नीत्व प्रादि कुरीतियां प्रचलित थीं। तथापि काण्ड बढ़ने लगा। ११वीं और १२वीं शताब्दी से वैदिक संस्कृति के विपरीत श्रमण संस्कृति मे वर्ण. वैदिक समाज व्यवस्था और जैन समाज व्यवस्था व्यवस्था 'जन्मना' न मानकर 'कर्मणा' मानी जाती थी। में बहुत अन्तर नहीं रहा । जैन समाज मे अनेक नौवीं शताब्दी में प्राचार्य जिनसेन ने वैदिक व्यवस्था में सुधारक आन्दोलन भी हुए। समाज में प्रचलित अन्ध अन्य सामाजिक और धार्मिक संकल्पों का जैनीकरण करके विश्वासों और रूढ़ियों का व्यापक विरोध हुआ। इस जैन धर्म और सस्कृति को वैदिक धर्म और संस्कृति के काल में जो जैन साहित्य रचा गया उसमें ये सब विविध साथ लाकर खड़ा कर दिया, जो व्यवस्था कालान्तर में प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती है। ३, रामनगर, नई दिल्ली-५५ 000 ५. भारतीय कला-डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ० २८३ । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोहल की एक दुर्लभ प्रबन्ध कृति 0 श्री अशोककुमार मिश्र जैन प्रबन्ध-काव्यों की परम्परा का मूल स्रोत अप- पंडित देषो न घरह विचारी, खोटं पर्व लोज्यौ सवारी १९५॥ भ्रंश में विद्यमान है। इसका पूर्ण विकास भक्तिकालीन काम कथा रस रसीक पुराण, लहै भेद सो चतुर सुजाण । हिन्दी जैन काव्यों में पाया जाता है। सोलहवीं शताब्दी पठत गुणन जा होई वीस्तार. जयो सवनि के ऐकाकार १९६। के बैन कवि छीहल की अब तक प्रायः मुक्तक रचनायें -इति श्री माथवानल की कथा कंदला की कथा उपलब्ध होने के कारण उन्हें मुक्तक काध्य का रचयिता संपूर्ण समाप्त ॥ समझा गया। उल्लेखनीय है कि कवि ने दोनों ही प्रकार रचनाकाल --कवि ने कथा के अन्त मे इसका रचना की रचनायें की। उनकी एक प्रबन्ध कृति हारवर्ड विश्व- काल इस प्रकार दिया हैविद्यालय अमेरिका के संग्रहालय में उपलब्ध हुई है। यह पन्द्रा से इकहतरी सार, झोरी पाचं मास कुवार । कृति सर्वथा अज्ञात रही, भारतवर्ष में इसकी पांडुलिपि जया सकति मति सार कही, कवि छोहल जंपी चौपही ।१९३ मिलने की सूचना प्रभी तक प्राप्त नहीं हुई है। इस प्रबन्ध प्रतएव यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कृति का नाम है-माधवानल कथा। कवि ने अपने समय कवि ने इसकी रचना संवत् १५७१ (१५१४ ई.) में की सर्वाधिक लोकप्रिय कथा को लेकर इस काव्य की की रचना की, जो उनकी प्रब तक उपलब्ध समस्त रचनामों कथानक-गणपति की वदना करने के पश्चात् कवि की तुलना में अधिक विस्तृत और सरस कही जा सकती माधवानल-कामकदला की कथा लिखते हुए कहता हैहै। इसका प्रादि मोर अन्त इस प्रकार है - पुहपावती नगरी का राजा गोविदचन्द प्रत्यन्त शक्तिशाली प्रादि तथा वैभव-सम्पन्न था। उसके रनिवास मे सात सौ सुन्दर गणपति गयो गुणह प्रसेस, उदर वाहन चढ्यो नरेस । रानियां थी। उसकी पट्टमहिषी का नाम रुद्र महादेवी घधर पाय कर झुणकार, पणऊ सिषि बुषि दातार १२ था। उसकी नगरी में सभी लोग सुख से जीवन व्यतीत समर ब्रह्मा रच्यो संसार, फुणि सुमिरै सकर त्रिपुरारि। करते थे। कही पर भी कोई दुःखी अथवा निर्धन नही सर तैतीस ... गती माह, कर नोरं पर लागे पाहं।। था। उसी नगरी मे कामदेव के समान अत्यन्त सुन्दर, कासमीर गिरि थानर बन्न, वाहण हंस छत्र सो वर्ण। आकर्षक तथा सर्वकलासम्पन्न ब्राह्मण कुमार माधव भी वीणा पुस्तक नेवर पाय, नमस्कार दुति सारद माय ।। निवास करता था। उसके सौन्दर्य से अभिभूत होकर नमत मति होई घणी, कर्थ कथा नल माधव तणी। नगर की स्त्रियाँ व्याकुल होकर अपने तन की सुधि-बुधि पोरीमति मत होई घणी, करी प्रसाद माता भार हीण ४, भी बिसरा देती थी। किन्ही-किन्ही के तो गर्भपात भी हो जाते थे। यह देखकर नगर निवासियो का एक प्रतिनिधिकथा पाल प्ररथ प्रसेस, नर प्रबोष मति मही प्रवेस । मण्डल राजा के पास गया और वहा जाकर उससे माधव प्रगम प्रमेव कठिण सी खरी, को राज्य से निष्कासित करने के लिए विनय की। उन्होंने सरस बहत कवि छोहल करी ।१९४। कहा कि यदि माधव राज्य से बाहर नहीं जायेगा तो वे पुरबकपा मति देखी जीसी, तिहि पट तरि मौ जंपी तीसी। सभी राज्य को छोड़कर चले जायेंगे। राजा ने परिस्थिति १.(प्र-बंधु (बाँधना)+घञ्) यहाँ प्रबन्ध से हमारा तात्पर्य कथाप्रधान रचना से है, महाकाव्य प्रादि से नहीं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४, बर्ष २६, कि०३ अनेकान्त की गम्भीरता देखकर माधव को बुलवाया। राजा ने उसने सभा मे हो रहे उस नृत्य तथा संगीत की ध्वनि को उससे कहा कि तुम अपनी कला प्रदर्शित करो। मादेशा- जब सुना तो वह समस्त सभा को मूर्ख बताने लगा। नसार माधव वीणा-वादन करने लगा जिसे सुनकर सारी प्रतिहारी ने जब यह सुना तो वह राजा के पास गया सभा विमोहित हो गई। उस पंचम नाद को सुनकर दुःखी और उससे बोला कि महाराज! एक परदेशी ब्राह्मण सभा अपना दुःख भूल गया, सुखी मोर अधिक सुखी हुमा। को मूर्ख कहता है। राजा को यह सुनकर आश्चर्य हुमा। किन्तु 'प्रति सर्वत्र वर्जयेत्' के अनुसार माधव की सुन्दरता उसने प्रतिहारी से कहा कि माधव से जाकर पूछो कि वह व कला भी उसके लिए अभिशाप सिद्ध हुई। राजा ने सभा को मूर्ख क्यों समझता है। प्रतिहारी के पूछने पर माधव से कहा कि तुम हमारे देश में मत रहो। माधव ने माधव ने कहा-"... · द्वादश तुर जस न वाजंत । मध्य राज-भय से राजा के इस आदेश का पालन किया और तर परख पख जाम । कर पागली नही तुर पुरव पख जासु । कर प्रागुली नही है तासु ।" यह सारी सभा को प्राशीष देकर विदेश की भोर प्रस्थान कर सुनकर प्रतिहारी राजा के पास गया। समस्त वृत्तान्त गया। जान लेने के पश्चात् राजा ने माधव को राजसभा में वन उपवन, वन-खण्ड तथा गुफा व पर्वतों को पार बुलवाया और उसे भर्द्धसिंहासन पर बैठाकर उसका भव्य करता हुआ वह कामावती नगरी में पहुंचा जहाँ कामसेन स्वागत किया, साथ ही अपने प्राभूषण भी उसे उपहार मे राजा राज्य करता था। इसी राज्य मे कामकंदला नाम दे दिये। कामकंदला ने भी यह अनुभव किया कि यह की नतंकी भी निवास करती थी। कवि ने यहाँ काम- पुरुष सर्व कलाओं का ज्ञाता है, अत: वह पहले से भी कंदला के सौन्दर्य का सुन्दर वर्णन इस प्रकार किया है- कही अधिक उत्साह मे अपना एक विशेष प्रकार का नत्य प्रस्तुत करने लगीता पटतरि रंभा उनहारि, रूप प्रछंग लखु गुणीत नारि। सोवा न मंछ कीर ग पीडरी, जहा सथल कदली समसरी। जल भरि कुभ सीस ले धरै, ऐक चरण की भावरि फोर। गुरु व पोत खीण कटि तीरी, मंडल नाभि कमल गंभीर। दुई कर चक्र फिरावं जाणि, कर नीरत राजा प्रागे वाणि। कुच कठोर अम्रत रस भास, मुसि मुह ढलि चानि सो पर्यो। ईही अंतर मधुकर इक दीठ, कुच ऊपर सो पानि बैठ। मुगफली साम सरी प्रागली, कह नुह वणी कणी रह कली। वास लुद्ध परमल के संग, लागे उसन सुकोमल अग। धो दुरम महिर उसण जणु हीर, तीख सुरग नासिका कोर। कला भंग करि छीनी होई, व्याकुल अंग पीडव सोई। कुटिल भौंह पनहर उपमान, चक्रीत कुरग नयण जणु सरवाण पवन खंचि पसु विद्या करी, इणी परि भवर उड़ायो तीरी। बदन सकोमल कापति तोल, काम पासी जाणे सरवण सलोल माघव उसकी इस कला पर विशेष प्रसन्न हुमा, होया तन चंदन : बर वास, वेणी वीसहर लपो तास । लेकिन भ्रमर-रहस्य को उसके सिवाय कोई न जान सका। इस दिन अवसर दोन राई, कामकंवला हरषीत भई। मूर्ख राजा ने भी यह भेद नही जाना। अत: माधन ने चवन मय कंचुक ना सोयो, सीस तीलकुकीस पुरीव दीयो। मोती माणीक माग भराई, षोडस तन सिंगार कराई। कामकदला की इस कुशलता पर राजा द्वारा दिये गये उपहार कामकदला पर न्यौछावर कर दिये । यह देखकर कंडल अवण झलकहि तास, जाणं रवि किरणि विमाकास । राजा ने कोधित होकर पूछा कि मेरे द्वारा प्रदत्त उपहारों रहट नासिका तुलई साथोर, जणु रस प्रहि रह के चोर। को तूने एक वेश्या को क्यो दे डाला? माधव ने हरिण कूच ऊपर मोती के हार, नेवर चलण कर झुणकार। नेत्र मेखला खंधि विहारी, करि सिगार चली सुन्दरी॥ मादि के उदाहरण देते हुए अपनी बात की पुष्टि की। किन्तु राजा ने क्रोधित होकर उसे निर्वासन का प्रादेश एक दिन राज-दरबार में उसका नृत्य हो रहा था। दे दिया। दुःखी माधव कामावती नगरी छोड़कर जाने उसकी बहुविध कला को देखकर सभी सभासद हर्षित हो लगा, तभी मार्ग में कामकंदला ने उसे रोककर सविनय रहे थे। इतने में माधव राजसभा के सिंहद्वार पर पाया। अपने घर चलने का प्राग्रह किया। माधव ने उसका Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोहल की एक दुर्लभ प्रबन्ध इति १२५ प्रगाढ़ प्रेम देखकर यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वहाँ को बुलवाया। राजा ने वेश्या-प्रेम की भसारता बतलाते दोनों ने प्रेमालाप किया तथा दोहा, गाहा, समस्या प्रादि हए माधव से कहा कि मेरे नगर में कामकंदला के समान कहते हुए रति-सुख प्राप्त किया। भनेक सुन्दरियां हैं, तुम अपनी रुचि के अनुसार उनका प्रभात होने पर माधव विदेश-गमन के लिए प्रस्तुत वरण कर लो। यह सुनकर माधव ने कहा कि मेरे हृदय हो गया। कामकंदला से उसकी विदाई न देखी गई। वह में कामकंदला का ही निवास है, उसे छोड़कर मैं किसी अत्यन्त दुःखी होकर मूर्छित हो गई। मूर्छा दूर होने पर को वरण नहीं कर सकतामाधव के विरह में क्रंदन करने लगी। यहाँ कवि ने उसकी बोल माषव संभाल राई, प्रवर तीरी मोहिन सुहाह। विरहावस्था का बड़ा ही भावपूर्ण वर्णन किया है। विरही जिहि रेणी हीर पुण्या प्रसंस, क्यों छालर रति मान हंस । माधव भी कामकंदला की स्मृति को संजोए भटकता हुआ जाण सरद संपूर्ण चंद, कमल उघारि पोयो मकरं। उज्जैन पहंचा । क्या करे? अपना दुःख किससे कहे ! देखने, रस भायो केतको समीर, सो मनकर किम रमै करीर ।। सुनने वाला भी कोई नहीं, प्रतः जब विरह की पीड़ा धनी हो गई तो शिवमन्दिर की दीवार पर ही निम्नलिखित यह सुनकर राजा प्रसन्न होकर बोला-मैं तुम्हें काम पंक्तियाँ अंकित कर दी कंदला से अवश्य मिलाऊँगा। राजा प्रतिज्ञा करके उज्जन कहा कर कहै दुष तास, सुहन केण देख्यो चौह पास । से चलकर कामावती माया मोर गुप्त रूप से कामकंदला से सोय वीयोग दुख देख्या भारी, सोई व राम नही संसारी। मिलने गया। विरहिणी कामकन्दला सो रही थी। राजा विरला तप करि कष्ट देह, विरला प्रारति भंजन हेह। ने उसके हृदय पर अपने पैरों का स्पर्श किया जिससे विरला कर सिघ सौ नेह, परदुख विरला भंजन ऐह॥ कामकन्दला की निद्रा भग्न हो गई और वह माधव-माषव कहकर बिलखने लगी। राजा ने उससे कहा कि ए वेश्या! प्रातः काल होने पर राजा विक्रम शिवमन्दिर में तू नहीं जानती कि मैं कौन हूँ ? कामकन्दला बोली-मेरे पाराधना करने के लिए पाया तो उसने दीवार पर उक्त हृदय में केवल माधव का ही निवास है, अन्य कोई इस पक्तियों को पढ़ा और पाश्चर्यचकित होकर विचार करने हृदय में विश्राम नही कर सकता। मेरे हृदय को घर से लगा कि मेरी इस नगरी में कौन ऐसा दु.खी व विरही स्पर्श करने का अर्थ है ब्राह्मण का अनादर करना। प्रतः व्यक्ति है, जिसका पता मुझे नही। उसने नगर में यह रे राजन को मारो । राजा ने माघोषणा करवा दी-'इस नगरी में एक विरही व्यक्ति है। माधव ? क्या वह ब्राह्मण तो नहीं जो कि एक स्त्री के उसका पता यदि कोई बतायेगा तो मनवांछित फल वियोग में उज्जैन में मर गया। इतनी बात सुनते ही पायेगा'। यह घोषणा सुनकर भनेक गुप्तचर तथा गणिकाए कामकन्दला ने माह भरी और वह मर गई। राजा दुःखी विरही को ढढ़ने के लिए प्रयत्नशील हो गई। विरही की होकर वहां से बापस भाया और यह दु:खद समाचार खोज मे सध्या हो गई, लेकिन कुछ परिणाम न निकला। माधव को विया जिसे सुनते ही माधव की मृत्यु हो गई। अत में रात्रिबेला मे एक गणिका ने एक ब्राह्मण को सोते यह देखकर राजा पोर अधिक संतप्त हुमा। उसे बगा हुए देखा जो निद्रा में भी दुःखी निश्वास छोड़ रहा था। उसने ही इन दोनों की हत्या की है। प्रायश्चित्त-स्वरूप गणिका ने उसके हृदय पर अपना चरण रखा। यह व्यक्ति वह खड़ग लेकर अपना वलिदान करने के लिए प्रस्तुत हो माधव ही था जो गणिका को कामकंद ला ही समझकर गया। जब वह खड़ग से अपना मस्तक काटने वाला प उसे कामकंदला कहकर पुकारने लगा। गणिका समझ तभी महाबली बेताल ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। गई कि यही विरही व्यक्ति है, जिसकी राजा को तलाश उसने कहा-हे राजा! वर माग, मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। है। वह तुरंत राजा के पास गई और सारी बातें बताई। राजा ने कहा, 'जै सन्तुष्ट हो तु भाई। तोरी बंभण देही राजा ने उसे बहन-मा द्रव्य देकर विदा किया पोर माधव जीबाई। उसी समय वह वीर पाताल गया और वहा से Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६२०३ ' ले प्राया। माधव और कामकंदला के मुख में अमृत अमृत की बूंदे डाली गईं और वे दोनों जीवित हो गये । राजा यह देखकर हर्षित हो गया। अब उसने ससंन्य कामावती नगरी पर पढ़ाई कर दी। कामावती नगरी के समीप पहुंचकर राजा ने कामसेन के पास संदेश भिजवाया कि वह कामकन्दला को सौंप दे, किन्तु कामसेन ने इसे अपमान समझा भौर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गया । घमासान युद्ध हुआ । इसमे कामसेन की पराजय हुई | विक्रम ने कामंकन्दला को प्राप्त कर लिया। कामसेन की याचना पर राजा विक्रम ने उसे भी क्षमा कर दिया। इसके बाद कामक दला सहित राजा उज्जैन श्राया भौर फिर वहाँ माघव तथा कामकन्दला का पाणिग्रहण करवा दिया। सारी नगरी मे हर्षोत्सव मनाया गया। माधव तथा कामकन्दला भौतिक ऐश्वयं भोगते हुए सानन्द जीवन यापन करने लगे । स्रोत एवं प्राधार- - इस कथा पर प्राधारित अन्य रचनायें भी लिखी गई । छोहल के पूर्व भी अन्य दो कवि मानन्धर तथा नारायनदास ने यह कथा लिखी। इस कथा का मूल स्रोत क्या रहा होगा इस पर विभिन्न मत प्रस्तुत किये गये। प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इसका मूल स्रोत विक्रम की पहली शती ही सकता है। उनका कथन है कि माघव और कामकन्दला की कहानी सम्भवतः प्राकृत और अपभ्रंश के संधिकाल मे रची गई थी। पं० उदयशंकर शास्त्री से भी इस कथानक के स्रोत पर लेखक ने विचार विनिमय किया था, जिसके अनुसार इस कथा के मूल मे अपभ्रंश की कोई लोक प्रचलित कथा रही होगी। श्री कृष्ण सेवक ने माधव अनेकान्त श्रौर कामकन्दला को ऐतिहासिक पात्र बताया है।' श्रीकृष्ण सेवक के कथन को ही उद्धृत करते हुए डा० हरिकांत श्रीवास्तव ने इसे ऐतिहासिक घटना माना है। किन्तु इस तथ्य को मानने में दो पतियां है (१) श्रीकृष्ण सेवक ने जिस खण्डहर को कामकन्दला का महल बताया है उसे 'मार्केलॉजिकल सर्वे आफ इण्डिया' ने सिद्ध कर दिया है कि वह महल न होकर शिव मन्दिर था । (२) कामावती और पुष्पावती के राज्यों के विवरण विक्रमकालीन होने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता । प्रतः इस कथा का मूल स्रोत ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता। इस परम्परा के प्रथम हिन्दी कवि नारायनदास ने अपने प्राश्रयदाता का निर्देश करते हुए लिखा मनि परि वोरा दोनो राउ, मोहि भेद मावा सुमार ताहि वियोग कौन विधि भयो कैसे निकर वितरि गयो। क्यों सुन्दरी सो भयो मिलाउ, क्यों धाराष्यो विक्रम राज क्योंषु सहि बहुरं सुख लहयो सब समुभाइ बेद यों कहो | इन पंक्तियों से यह तो स्पष्ट है कि यह लोक प्रचलित सरस कथा रही होगी, तभी प्राश्रयदाता ने कवि से इस कथा को लिखने की इच्छा व्यक्त की। इसके पूर्व श्रानन्दघर भी इस काव्य की संस्कृत में रचना कर चुके ये धतः कवि छोहल ने संभवतः इन्हीं दो कवियों की रचनाओं को अपने इस प्रबन्ध का मूल श्राधार बनाया होगा । 000 १. भारतीय प्रेमाख्यान काव्य (डा० श्रीवास्तव, हरिकांत), पृ० २२०. २. Seventh Oriental Conference, Baroda, 1933 pp. 995-999. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वाङ्मय में आयुर्वेद 0 प्राचार्य श्री राजकुमार जैन भारत में प्रत्यन्त प्राचीन काल से प्रायुर्वेद की उल्लेख मिलता है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण एक तथ्य परम्परा चली पा रही है। प्रायुर्वेद के उपलब्ध ग्रन्थों का यह है कि जैन धर्म के विशाल वाङ्मय के अन्तर्गत स्वतन्त्र अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैद्यक शास्त्र या रूप से प्रायुर्वेद का विकास हुप्रा है। बहुत ही कम लोग मायुर्वेद का मूल स्रोत वैदिक वाङ्मय है। वेदों में प्रायुर्वेद इस तथ्य से अवगत है कि वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म सम्बन्धी पर्याप्त उद्धरण मिलते है। सर्वाधिक उद्धरण की भांति जैन साहित्य और जैन धर्म से भी मायुर्वेद का मपर्ववेद में मिलते है। इसीलिए मायूर्वेद को उपवेद निकटतम सम्बन्ध है। जैन धर्म में प्रायुर्वेद का क्या माना गया है। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ चरकसहिता महत्व है और उसकी कितनी उपयोगिता है, इसका एवं सुश्रुतसंहिता में प्राप्त वर्णन के आधार पर प्रायुर्वेद अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि की उत्पत्ति (पभिव्यक्ति) सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी जैन वाङमय में प्रायुर्वेद का समावेश द्वादशांग वाङ्मय में द्वारा हुई । ब्रह्मा ने प्रायुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में अन्य दिया, दक्ष प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को उपदेश दिया शास्त्रों या विषयों की भांति प्रायुर्वेद-शास्त्र या बंधक पौर अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने प्रायुर्वेद का ज्ञान विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में ग्रहण किया। इस प्रकार सुदीर्घ काल तक देव लोक में वैद्यक (पायर्वेद) विषय को भी पागम के अंग के रूप में मायुर्वेद का प्रसार रहा । ताश्चात् भूलोक मे व्याधियो स्वीकार किया गया है। से पीड़ित मार्त प्राणियों की रोग मुक्ति करने की दृष्टि प्राचीन भारतीय वाङमय का अनुशीलन करने से से मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज देवलोक में गये और वहां इन्द्र जात होता है कि भारत में प्रायुर्वेद की परम्परा अत्यन्त से अष्टांग प्रायुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका गीत। समय-समय पर विभिन्न जनेतर विद्वानों द्वारा प्रसार किया। उन्होंने कायचिकित्सा-प्रधान प्रायुर्वेद का नाम में प्रायर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की गई उपदेश पुनर्वसु अत्रेय को दिया, जिससे अग्निवेश प्रादि वा समाज उन ग्रन्थों से भली भांति परिचित है। छः शिष्यों ने विधिवत प्रायुर्वेद का अध्ययन कर उसका किन्त अनेक जैन विद्वानों ने भी प्रायुर्वेद सम्बन्धी अनेक ज्ञान प्राप्त किया और अपने-अपने नाम से पृथक-पृथक __ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है जिनमें दो चार को छोड़ इसा प्रकार, दिवोदास कर शेष सभी प्रायुर्वेद के ग्रन्थों से वैद्य समाज अपरिचित धन्वन्तरि ने सुश्रतप्रभूति शिष्यो को शल्यतन्त्रप्रधान ही है। इसका एक कारण यह भी है कि उनमें से अधिमायुर्वेद का उपदेश दिया। उन सभी शिष्यो ने भी अपने कांश ग्रन्थ प्राज भी प्रप्रकाशित ही है। गत कुछ समय से अपने नाम से पृथक्-पृथक् संहितामों का निर्माण किया, शोधकार्य के रूप में राजस्थान के जैन मन्दिरो में विद्यमान जिनमें से केवल सुश्रुतसंहिता ही माज उपलब्ध है। शास्त्र भण्डारों का विशाल पैमाने पर अवलोकन किया तत्पश्चात् अनेक प्राचार्यो, विद्वानों और भिषक श्रेष्ठों गया और उनकी बहदाकार सूची बनाई गई। यह सूची द्वारा यह परम्परा विस्तार और प्रसार को प्राप्त कर गत दिनों विशाल ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित की गई है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में व्याप्त हुई। यह ग्रन्थ चार भागों में विभक्त है। इस सूची-ग्रन्थ के जिस प्रकार वैदिक वाङ्मय और उससे सम्बन्धित चारो खण्डो क चारों खण्डों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनमें, साहित्य में भायुर्वेद के बीज प्रकीर्ण रूप से विद्यमान है, अनेक ऐसे अन्य विद्यमान है जो प्रायुर्वेद विषयक है और उसी प्रकार जैन वाङ्मय और इतर जैन साहित्य मे जिनकी रचना जैनाचार्यों द्वारा की गई है। पर्याप्त रूप से मायुर्वेद सम्बन्धी विभिन्न विषयों का जैन दर्शन के विभिन्न प्रागम ग्रन्थों का अध्ययन Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८, २९ कि. ३ अनेकान्त करने से ज्ञात होता है कि इनमे भी प्रायुर्वेद सम्बन्धी विषयों बरोध, ६. मलावरोध, ७. प्रध्वगमन, ८. प्रतिकूल भोजन के पर्याप्त उद्धरण विद्यमान हैं । स्थानांगसूत्र और विपाक. और ६ कामविकार । यदि इन नौ कारणों से मनुष्य सूत्र में प्रायुर्वेद के पाठ प्रकार (अष्टांग प्रायुर्वेद), सोलह बचता रहे तो उसे रोग उत्पन्न होने का भय विल्कुल नहीं महारोगों और चिकित्सा सम्बन्धी विषयों का बहुत अच्छा रहता। इस प्रकार, जैन ग्रन्थों में प्रायुर्वेद सम्बन्धी विषयों वर्णन है। संक्षेप में, यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है। का उल्लेख प्रचर रूप में मिलता है, जिससे इस बात की पायुर्वेद के पाठ प्रकार -१. कौमारभत्य (बाल पुष्टि होती है कि जैनाचार्यों को प्रायुर्वेद श स्त्र का मी चिकित्सा), २. काय चिकित्सा (शरीर के सभी रोग और पर्याप्त ज्ञान रहता था। उनकी चिकित्सा), ३. शालाक्य चिकित्सा (गले से ऊपर के भाग में होने वाले रोग और उनकी चिकित्सा- इसे सम्पूर्ण जैन वाङ्मय का अवलोकन करने से ज्ञात मायुवद में 'शालाक्य तन्त्र' कहा गया है). ४. शल्य होता है कि उसमें अहिंसा तत्त्व की प्रधानता है और चिकित्सा (चोड़-फाई सम्बन्धी ज्ञान जिसे प्राजकल अहिंसा को सर्वोपरि प्रतिष्ठापित किया गया है। आयुर्वे'सजरा' कहा जाता है-इसे प्रायुर्वेद में शल्यतन्त्र' की दीय चिकित्सा पद्धति में यद्यपि प्राध्यात्मिकता को पर्याप्त संज्ञा दी गई है), ५. जिगोली विषविधात तन्त्र (इसे रूपेण प्राधार मानकर वही भाव प्रतिष्ठापित किया गया मायुर्वेद में 'अगदतन्त्र' कहा जाता है-इसके अन्दर सर्प, है और उसमें यथासम्भव हिंसा को बजित किया गया है, कीट, जूता, मूषक मादि विषों का वर्णन तथा चिकित्सा किन्तु कतिपय स्थलों पर अहिंसा की मूल भावना की एवं विष सम्बन्धी अन्य विषयों का उल्लेल रहता है), उपेक्षा भी की गई है, जैसे भेषज के रूप में मधु, गोरोचन, ६. भूतविद्या (भूत-पिशाच मादि का ज्ञान और उनके विभिन्न पासव, अरिष्ट प्रादि का प्रयोग। इसी प्रकार, शमनोपाय का उल्लेख), ७. क्षारतन्त्र (वीयं सम्बन्धी बाजीकरण के प्रसंग में चटकांस, कुक्कुटमास, हसशुक्र, विषय पौर तद्गत विकृतियों की चिकित्सा-इसे मायुर्वेद मकरशक्र, मयरमांस मादि के प्रयोग एवं सेवन का उल्लेख में वाजीकरण की संज्ञा दी गई है), ८. रसायन (इसके मिलता है। कतिपय रोगों में शूकरमांस, मृगमसि तथा अन्तर्गत स्वस्थ पुरुषों द्वारा सेवन योग्य ऐसे प्रयोगों एवं अन्य पश-पक्षियों के मांस सेवन का उल्लेख मिलता है। पनववाना का उल्लेख है जो मसामयिक वृद्धावस्था ऐसे प्रयोगों से प्रायुर्वेद में अहिंसा भाव की पूर्णतः रक्षा को रोक कर मनुष्य को दीर्घायु, स्मृति, मेघा, प्रभी, वर्ण, नही हो पाई है । अतः ऐसी स्थिति मे यह स्वाभाविक है। स्वरोदार्य प्रादि स्वाभाविक शक्तियां प्रदान करते हैं।) था कि जैन साधनों के लिए इस प्रकार का प्रायुवदार इसी प्रकार, जैन मागम ग्रन्थों में सोलह महारोग- उसमें वणित चिकित्सा उपादेय नहीं हुई । जैन साधुओ के श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, भलस, भगा- अस्वस्थ होने पर उन्हें केवल ऐसे प्रयोग ही सेवनीय थे जा सीर, मजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तकशूल, भरोचक, पक्षिवेदना, पूर्णतः महिंसक, अहिंसाभाव प्रेरित एवं विशुद्ध रीति से कणवदना, कण्डू-खुजली, दकोदर-जलोदर, कुष्ट-कोढ़ निर्मित हों । जैनाचार्यों ने इस कठिनाई का अनुभव किया गिनाए गए हैं। रोगों के चार प्रकार बतलाए गए हैं और उन्होंने सर्वांग रूपेण प्रायुर्वेद का अध्ययन कर उसमें बातजन्य, पित्तजन्य, इलेष्मजन्य और सन्निपातज । परिष्कारपूर्वक अहिंसाभाव को दृष्टिगत रखते हुए आयुर्वेद चिकित्सा के चार अंग प्रतिपादित है--वैद्य, प्रौषधि, रोगी सम्बन्धी अन्थों की रचना की। वे ग्रन्थ जैन मुनियों के मरि परिचारक | जैनागमानुसार चिकित्सक चार प्रकार लिए उपयोगी सिद्ध हए। जैन गहस्थों ने भी उनका के होते हैं -स्वचिकित्सक, परचिकित्सक, स्वपर चिकित्सक पर्याप्त लाभ उठाया। इसका एक प्रभाव यह भी हुआ कि पौर सामान्य ज्ञाता। जैन भागमों में प्राप्त विवेचन के जैन साधुनों, साध्वियों, श्रावकों एवं श्राविकानों की अनुसार रोगोत्पत्ति के नौ कारण होते हैं-१. प्रतिमाहार, चिकित्सार्थ जैन साधुनों-विद्वानों को भी चिकित्सा काय २. महिताशन, ३. प्रति निद्रा, ४. प्रति जागरण, ५. मूत्रा में प्रवृत्त होना पड़ा। Page #141 --------------------------------------------------------------------------  Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले पहल दिगम्बर भट्टारकों ने वैद्यक विद्या को अनेक वैद्यक ग्रन्थों का अध्ययन एवं मनन करने के उपग्रहण कर चिकित्सा-कार्य प्ररम्भ किया। कालान्तर में गन्त ही इसकी रचा की है। ग्रन्थ के प्रादि मगलाचरण श्वेताम्बर जैन यतियों ने इस में प्रत्यन्त दक्षता प्राप्त की। में भी यह स्पष्ट है कि ग्रन्थ रचना से पूर्व कवि ने आयुर्वेद बाद में ऐसा समय भी पाया कि उनमे क्रमशः शिधिनता मास्त्र का गहन अध्ययन किया है, पर अन्यों का मनन प्राती गई । दिगम्वर प्राचार्यों और विधानों ने प्रायुर्वेद के किया है और उसमे अनिल ज्ञान को शुभव द्वार परिजिन ग्रन्थो का निर्माण किया है वे अधिकाशनः प्राकृत- माजित किया है। संस्कृत भापा गे है। चूकि उन ग्रन्थों के रख-रखाव एवं -रखाव एवं यह सम्पूर्ण प्रस्थ मात ममुद्देशों में विभक्त है। इसमें प्रकाशन मादि की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, कुल ३३२ गाथाग है। इस ग्रन्य को एक अन्य प्रति में, अतः उनमे में अधिकांश नष्ट या लुप्तप्राय हो चुके है। जो माद्यन्त मंगलाचरणरहित अनेक आयुर्वेद ग्रन्थों के प्रमाण बचे हए है उनके विषय मे जैन समाज की रुचि न होने सहित १६७ गाघापो का एक और ग्रन्थ है। उसके अन्त के कारण वे प्रज्ञान है। श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा जो ग्रन्थ में भी इति वैद्यमनोत्सवे लिना है। ये दोनों ग्रन्थ दोहा, रचे गये है वे गत चार सौ वर्षों से अधिक प्राचीन नही सोरठा एवं चौपाई में है। इनमें से एक अन्य प्रकाशित हो है। अतः उनको रचना हिन्दी मे दोहा, चौपाई आदि चमा है. चिन्न वह भी अब मम्भवतः उपलब्ध नहीं है। छन्दो मे हुई है। इस प्रकार के ग्रन्थो मे योग चिन्तामणि, २. वेद्य हुलास - इसका दूसरा नाम तिब्बसाहबी भी वैद्य मनोत्सव-विनोद, रामविनोद, गंगयतिनिदान प्रादि है। इसका कारण यह है कि लूकमान हकीम ने फारसी । हिन्दी बैद्यक ग्रन्थो का प्रकाशन हो चुका है। में तिब्बमाहबी नामक जिस ग्रन्थ की रचना की है उसी __ संस्कृत के वैद्यक ग्रन्थो में पूज्यपाद विरचित वंद्यमार का यह हिन्दी पद्यानुवाद है। तिब्बसाहबी एक प्रामाणिक और उग्रादित्याचार्य विराचन कल्याणकारक नामक ग्रन्थो एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। प्रतः ऐसे ग्रन्थ का का मी हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। इनमे अनुवाद निश्चय ही उपयोगी माबित होगा। हिकमत के वैद्यसार के थिय विद्वानो का मत है कि वह वस्तुन. फारसी अन्यो का अनुवाद उर्दू भाषा में तो हुआ है, किन्तु पूज्यपाद की मोलिक कृति नहीं है, किसी अन्य व्यक्ति ने हिन्दी में नहाय यिनन नही त्रा: ऐ स्थिति में उनके नाम से इस ग्रन्थ की रचना की है। यह एक साहसिक प्रयास ही माना जायगा कि हिकमत हिन्दी में रचित वैद्यक ग्रन्थ विषयक प्रधान अन्य का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो, वह १. वैद्यमनोत्सव -यह ग्रंथ पद्यमय है और दोहा, भी पद्यमय शैली में । इस प्र के अनुशीलन से अनुवादक सोरठा व चौपाई छन्दो में है। इस ग्रन्थ के रचपिना कवि का फारसी भाषा का विद्वान होना और हिन्दी भाषा पर वर नयनसुख है जो केशवराज के पुत्र थे। उन्होने इस ." , पूर्ण अधिकार होना निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है । अनुग्रन्थ की रचना संवत् १६४१ में की है। ग्रंथ में प्राप्त F वादक में काव्य प्रतिभा का होना भी असंदिग्ध है। वा उल्लेख के अनुसार, अकबर के राज्य में सीहनन्द नगर में इम ग्रंथ के रचयिता कविर मलकचन्द्र है। 'धावक चत्र शुक्ला द्वितीया (स० १६४१) को उन्होने इस ग्रंथ धर्मकुल को नाम मलूकचन्द' इन शब्दो के द्वारा अनुवादक के की रचना पूर्ण की। अन्य के प्रारम्भ में 'बावककूल ही अपन नाम का उल्लम निख कर उन्होंने अपना थावक होना प्रतिपादित के अनन्तर लेखक ने उयु पक्त रूप से संक्षेपतः अपना उल्लेख किया है। ग्रन्थ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि किया है, अपना व्यक्तिगत विशेष परिचय कुछ नहीं दिया। प कसा अन्य ग्रन्थ का अनुवाद मात्र ही नही है,, यही कारण है कि कवि का कोई विशेष परिचय प्राप्त प्रपितु मौलिक रूप से इसकी रचना पद्ध रूप में की गई है। नही होता। यह प्रथ में अन्य ग्रंथों की भांति अन्त्य प्रशस्ति सम्पूर्ण प्रन्थ में प्राद्योपान्त की रचना की मौलिकता का भी नही है। इससे ग्रा रचना का काल और रचना स्थान सहज ही भाभास मिलता है इतना प्रवश्य है। कि कवि ने दोनों प्रज्ञात हैं। 000 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी मकाशन पुरातन नवाक्य-तूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूगरे पछी को भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्यों की सूची। मंपादक सनार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा. कालीदाम नाग, एम. ए., डीलिट के प्रारकाधन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) मेपित है। शोधमोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगल किशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । ___... २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मोर श्री जुगल किशोर मुस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित। राध्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित ।। पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था । मुख्तार थी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १.२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ३-६० अनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपुर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । ... ४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० अयणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राज कृष्ण जैन ... पध्यात्मरहस्य - पं पाशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन ग्रन्थ कारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । सं. पं परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूपण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७-०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहुडसुत्त : गूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।। २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-.. श्रावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया जैन लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५-००; द्वितीय भाग २५०० . Jain Bibliography -(Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pagcs 2500) (Under print) प्रकाशक - बी र संग मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । ܘܘܙܕ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनेकान्त वर्ष २६ : किरण ४ अक्टूबर-दिसम्बर १९७६ विषयानुक्रमणिका परामर्श-मण्डल श्री यशपाल जैन डा०प्रेमसागर जैन सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए, एल-एल.बी., साहित्यरल विषय १. ज्ञान की गारिमा १२६ २ वारंगल के काकातीय राज्य संस्थापक जैन गुरु । श्री मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी ३. जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती १३३ डा. ज्योति प्रसाद जैन ४. उज्जयिनी की दो अप्रकाशित महावीर प्रतिमायें -डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य ५. कर्नाटक मे जैन शिल्प कला का विकास - श्री शिव कुमार नामदेव ६. अहिंसा के रूप- श्री पद्मचन्द शास्त्री, ७. गिरनार की ऐतिहासिकता - श्री कुन्दन लाल जैन १४६ ८. रेवतगिरि रास ६. स्वस्तिक रहस्य --श्री पद्म चन्द शास्त्री १५३, १०. हिन्दी के आधुनिक जैन महाकाव्य -कु० इन्दुराय, ११. प्राकृत, अपभ्र श और अन्य भारतीय भाषाएँ १६१ १ १५० वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य: १ रुपया २५ पैसा प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर स्थापित : १६२६ वीर सेवा मन्दिर समाज के ऐसे धर्मवत्सल १००० विद्यादानियों की मावश्यकता है जो सिर्फ एक बार अनुदान देकर जीवन २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ भर शास्त्रदान के उत्कृष्ट पुण्य का संचय करते रहें। वीर सेवा मन्दिर उत्तर भारत का अग्रणी जैन 'वीर सेवामन्दिर' की स्थापना प्राज से ४७ वर्ष पूर्व | संस्कृति, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व एवं दर्शन शोध स्व. श्री जगलकिशोर मुस्तार, स्व. श्री छोटेलाल जैन | संस्थान है जो १९२६ से अनवरत अपने पुनीत उद्देश्यों की तथा वर्तमान अध्यक्ष श्री शान्ति प्रमाद जैन प्रभूति जाग्रन सम्पति में सलग्न रहा है । इपके पावन उद्देश्य इस बनायो के सत्प्रयत्नों से हुई थी। तब से जैनदर्शन के - जैन-जनेतर पुरातत्व सामग्री का सग्रह, संकलन प्रचार तथा ठोस साहित्य के प्रकाशन मे वीर सेवा मन्दिर और प्रकाशन । ने जो महत्त्वपूर्ण कार्य किक है वे सुविदित है और उनके प्राचीन जन-जनेतर ग्रन्थो का उद्धार । महत्त्व को न सिर्फ भारत मे बल्कि विदेशो मे भी विद्वानों 0 लोक हितार्थ नव साहित्य का सृजन, प्रकटीकरण और ने मुक्तकण्ठ से माना है। प्रचार । वीर सेवा मन्दिर' के अपने विशाल भवन में एक 'अनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार-विचार सनियोजित ग्रन्यागार है जिसका समय-समय पर रिमचं को ऊँचा उठाने का प्रयत्न। करने वाले छात्र उपयोग करते है। दिल्ली से बाहर के जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक अनगोधार्ता छात्रों के लिए यहां ठहरकर कार्य करने के लिए। संधानादि कार्यों का प्रसाधन और उनके प्रोत्तेजनार्थ छात्रावास की भी व्यवस्था है। वत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि का प्रायोजन । अब तक जो भी कार्य हर है, पापके सहयोग से ही विविध उपयोगी सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी एवं हो पाए है। यदि 'वीर संवा मन्दिर' को कमजोर प्राविक अंग्रेजी प्रकाशनो; जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान स्थिति को प्रापका थोड़ा सम्बल मिल जाए तो कार्य अधिक | विषयक शोध-अनुमंधान ; सुविशाल एवं निरन्तर प्रवर्धव्यवस्थित तथा गतिमान हो जाए। 'पाप २५१ २० मात्र मान ग्रन्थगार, जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एव पुरादेकर आजीवन सदस्य बन जाएँ' तो यापकी सहायता तत्व के समर्थ अग्रदूत 'अनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन एवं जीवन भर के लिए 'वीर सेवा मन्दिर' को प्राप्त हो। अन्य अनेकानेक विविध साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिसकती है। सदस्यों को 'वीर सेवा मन्दिर' का मासिक विधियो द्वारा वीर सेवा मन्दिर गत ४६ वर्ष से निरन्तर पत्र "अनेकान्त" नि शुल्क भेजा जाता है तथा अन्य सभी सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है। प्रकाशन दो-निहाई मूल्य पर दिए जाते है। यह सस्था अपने विविध क्रिया-कलापों में हर प्रकार से हमें विश्वास है कि धर्म प्रेमी महान भाव इस दिशा प्रापका महत्त्वपूर्ण सहयोग एवं पूर्ण प्रोत्साहन पाने की में संस्था की सहायता स्वय तो करेंगे ही, अन्य विद्या अधिकारिणी है। अतः प्रापसे सानुरोध निवेदन है कि :प्रेमियों को भी इग और प्रेरित करेंगे। १. वीर सेवा मन्दिर के सदस्य बनकर धर्म प्रभावनात्मक -महेन्द्रसैन जैनी, महासचिव | कार्यक्रमो में सक्रिय योगदान करें। २. वीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनो को स्वयं अपने उपयोग 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण के लिए तथा विविध मांगलिक अवसरों पर अपने प्रकाशन स्थान-बोरसेवामन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली प्रियजनों को भेट में देने के लिए खरीदें। मद्रक-प्रकाशन-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त ३. त्रैमासिक शोव पत्रिका 'अनेकान्त' के ग्राहक बनकर प्रकाशन अवधि-मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन जैन सस्कृति, साहित्य इतिहास एव पुरातत्व के शोधाराष्ट्रिकता--भारतीय पता-२३, दरियागज, दिल्ली-२ नुसन्धान मे योग दें। सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन | ४. विविध धार्मिक, सास्कृतिक पर्वो एवं दानादि के प्रवराष्ट्रिकता- भारतीय ३, रामनगर, नई दिल्ली-५५ सरों पर महत् उद्देश्यो की पूर्ति में वीर सेवा मन्दिर स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ की आर्थिक सहायता करें। ___मैं, प्रोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि -गोकुल प्रसाद जैन (सचिव) मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक विवरण सत्य है। --प्रोमप्रकाश, जैन प्रकाशक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -सम्पादक Page #146 --------------------------------------------------------------------------  Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् কার परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्ध मिन्धरविधानम् । सकतनविलसितानां विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ बी निर्वाण मव। २५०२, वि०म० २०३: वर्ष २६ किरण ४ अक्टूबर-दिसम्बर १६७६ ज्ञान की गरिमा स एव परम ब्रह्म स एव जिनपंगवः । स एव परमं तत्त्वं स एव परमो गुरुः ।। स एव परमं ज्योतिः स एव परमं तपः । स एव परमं ध्यानं स एव परमात्मकः ।। स एव सर्वकल्याणं स एव सुखभाजनं । स एव शुद्ध चिद्रूप स एव परमं शिवः ।। स एव परमानन्दः स एव सुखदायकः । स एव परम ज्ञानं स एव गुणसागरः ।। परमालादसम्पन्नं रागद्वषविजितम् । सोऽहं तं देहमध्येषु यो जानाति स पण्डितः ।। अर्थ-वह स्वात्मा ही गुद्धावस्थापन्न होने पर परम ब्रह्म है, वही जिनश्रेष्ठ है, वही परम तत्त्व है, वही परम गुरुदेव है, वही परम ज्योति, परम तप, परम ध्यान और वही परमात्मा है । वही सर्वकल्याणात्मक है, वही मुग्खों का अमर पात्र है, वहीं विशुद्ध चतन्यस्वरूप है, वही परम शिव है, वही परम आनन्द है, वही मुख प्रदाता है, वहो परमजान है और गुणसमूह भी वही है। उस परम पाह्लाद से सम्पन्न, रागद्वेषजित प्रात्मा का, जिसके लिए 'सोह' का व्यवहार किया जाता है और जो देह में स्थित है, जो जानता है वह पण्डित है ।। आकाररहितं शुद्धं स्वस्वरूपे व्यवस्थितम । सिद्धमष्टगुणोपेतं निविकारं निरंजनम ।। तत्सदृशं निजात्मान यो जानाति स पडितः । सहजानन्दचतन्यप्रकाशाय महीयसे । पाषाणेष यथा हेम दुग्धमध्ये यथा घृतम् । तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिवः ।। काष्ठमध्ये यथा वह्निः शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः ।। अर्थ--यह प्रात्मा निराकार, शुद्ध, स्वस्वरूप में स्थित, सिद्ध, अप्ट गुणयुक्त, विकारनिरस्त और निरजन है। अपने प्रान्मा में विद्यमान महान् सहजानन्द स्वरूप चैतन्य के प्रकाशनार्थ जो सिद्ध प्रात्मा के सदश अपने प्रात्मा को जानता है, वह पण्डित है, जैसे पाषाण में स्वर्ण, दुग्ध में घत तथा तिलों में तेल है वैसे इस देह में शिव है, आत्मा विद्यमान है। और जसे काष्ठ में अग्नि है उसी प्रकार शक्तिरूप में इन शरीरों में प्रात्मा का निवास है इसे जानने वाला ही विद्वान है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारंगल के काकातीय राज्य संस्थापक जैन गुरु 0 डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ जन साघु प्रायः निवृत्ति मार्गी, निस्पृह, निष्परिग्रह, सल (पोयसल या होयसल) ने द्वारसमुद्र के होयसल राज्य मोर ज्ञान-ध्यान-तपोरत वीतरागी होते रहे हैं । किन्तु की स्थापना स्वगुरु सुदत्त वर्धमान के आशीर्वाद, प्रेरणा कभी-कभी वे सवत्तियों के भी पोषक रहे है और और सहायता से की थी। अन्य भी कई उदाहरण हैं, धर्मसंरक्षणार्थ किन्ही सुराज्यों की स्थापना में भी प्रेरक जिनमे से एक का प्रागे वर्णन किया जायेगा । यों जैन हुए हैं । विशुद्ध इतिहासकाल मे सुप्रसिद्ध मौर्य साम्राज्य धर्म की मल्पाधिक प्रवृत्ति तो पूर्व मध्यकाल के अनेक के संस्थापक वीर चन्द्रगुप्त मौर्य पौर उसके पथप्रदर्शक, छोटे-बड़े राज्य वंशो मे रही। राजनीति गुरु एवं मन्त्रीश्वर मार्य चाणक्य दोनों ही १४वी शताब्दी ई. के पूर्वार्ध में दिल्ली में खिलजी जैन धर्मानुयायी थे। वीर विक्रमादित्य द्वारा उज्जयिनी और तुगलुक सुल्तानों के भीषण एवं विध्वंसक प्रहारों मे शब्दों का उच्छेद करके मालवगण की पुन: स्थापना को दक्षिणापथ की जिन राज्यसत्तानो को झेलना पड़ा में प्रार्य कालक प्रेरक रहे थे। दूसरी शती ई. के अन्त उनमें देवगिरि के यादव, द्वारसमुद्र के होयसल और के लगभग गंगवाडि (मैसूर) के गंग राज्य की स्थापना वारंगल के काकातीय प्रमुख थे। इन तीनों ही राज्यों दड्डिग एव माधव नामक भ्रातृद्वय ने मुनीन्द्र सिंहनन्दि का उदय कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य सम्राटो के रूप के आशीर्वाद, प्रेरणा और सहायता से की थी। यह में १०वीं शती के अन्त अथवा ११वी शती ई० के राजवंश हजार-बारह सौ वर्ष पर्यन्त प्रविच्छिन्न रूप से प्रारम्भ के प्रासपास हुप्रा था। १२वी शती के अन्त के चलता रहा । पाठवीं शती में संस्थापित हुमच्च के सान्तर- लगभग उक्त साम्राज्य की समाप्ति के कुछ पूर्व ही ये वंश के प्रथम पुरुष जिनदत्तराय के धर्मगुरु एवं राजगुरु तीनों राज्य स्वतन्त्र हो गए थे। प्रतएव दक्षिणापथ पर जैनाचार्य सिद्धांतकीर्ति थे, और हवी शती में सोन्यत्ति मुसलमानों के प्राक्रमण के समय उस क्षेत्र मे यही तीन के रट्ट राज्य का संस्थापक पृथ्वीराम रट्ट इन्द्रकीति स्वामी राज्य सर्वोपरि, स्वतन्त्र, वैभवसम्पन्न, शक्तिशाली और का विद्या-शिष्य था।' गुजरात-सौराष्ट्र में ७४५ ई. विस्तृत थे । मुसलमानो द्वारा इनमे से सर्वप्रथम देवगिरि चापोत्कट (चावड़ा) राज्यवंश की स्थापना वनराज का यादव राज्य समाप्त किया गया, तदन्तर द्वारसमुद्र चावड़ा ने स्वगुरु शीलगुरुसूरि के प्राशीर्वाद, उपदेश और के होयसलों की बारी आई और अन्त मे वारंगल के सहायता से की थी। ग्यारवीं शती के प्रारम्भ में वीर काकातीय भी समाप्त कर दिए गए। किन्तु अन्तिम दो १. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, (द्वि० सं), पृ. ७६६१, प्रमुख ऐति जैन, पृ० ३४-४४ । २. वही, पृ. ६०.६२ ३. वही, पृ०७१-७२; भा० इ० ए०० पृ० २५६. २५८ ४. प्रमुख ऐति० जैन, पृ० १७१ ५. वही, पृ० १७७ ६. वही, पृ० २२८-२२६ ७. वही, पृ० १३४.१३५ ८. देखिए हमारी उपरोक्त दोनो पुस्तके तथा साल्तोर कृत मेडीवल जैनिज्म, १० कैलाशचन्द्र शास्त्री कृत 'दक्षिण भारत मे जैनधर्म', देसाई कृत 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया', शेषगिरि राव कृत 'पान्ध्र कर्ना टक जैनिज्म', इत्यादि, ६. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ० ३६२, ४१०, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारंगल के काळातीय राज्य संस्थापक जैन गुरु के अवशेषों में से ही प्रायः तत्काल सुप्रसिद्ध विजयनगर हमने अन्यत्र उल्लेख किया है।" साम्राज्य का उदय हुप्रा था।" अभी हाल मे, श्री भंवरलाल नाहटा द्वारा अनुवापूर्व मध्यकालीन दक्षिणापथ के उक्त तीन प्रमख दित 'विविध-तीर्थ कल्प" की प्रस्तावना लिखते समय भारतीय राज्यों में से देवगिरि के यादव जैन धर्म के अन- हमारा ध्यान एक ऐसे विवरण की ओर प्राकषित हुग्रा, यायी नही थे, किन्तु उसके अच्छे प्रश्रयदाता रहे। होयसल जिसकी पोर संभवतया अभी तक किसी अन्य इतिहासराज्यवंश में प्रारम्भ से प्रायः पन्त पर्यन्त जैन धर्म की विद्वान का ध्यान नहीं गया प्रतीत होता, और जिससे प्रल्पाधिक प्रवृत्ति रहती रही, राज्य परिवार के अनेक सिद्ध होता है कि पूर्वोल्लिखित होयसल प्रभति कई राज्यों सदस्य परम जैन और जन बन्धुप्रो के भक्त भी होते रहे। की भाति वारगल के काकातीय की स्थापना का श्रेय भी इस राज्य एवं वश की स्थापना का श्रेय ही, जैसाकि एक जैनाचार्य को ही था। ऊपर कथन किया जा चुका है, एक जैनाचार्य को है।" 'कल्पप्रदीप' (पपरनाम 'विविध तीर्थकल्प) को श्वे ताम्बराचार्य जिनप्रभसूरि ने वि० सं० १३८६ (सन् जहा तक वारगल के काकातीय राज्यवंश का प्रश्न ' प्रश्न १३३२ ई.) की भाद्रपद कृष्ण दशमी बुधवार के दिन है, उसके विषय में प्राधुनिक इतिहासकार प्रायः यही श्री हम्मीर मुहम्मद (सुलतान महम्मद बिन तुगलुक) प्रतिपादित करते है कि वह हिन्दू या शवमत का अनु. के शासनकाल में योगिनीपत्तन (दिल्ली) मे रचकर पूर्ण यायी था। किन्तु ऐसे सकेत भी मिलते है कि काकातीय किया था। इस ग्रन्थ मे कुल कल्प या प्रकरण सकलित नरेश गणपतिदेव (११६८-१२६१ ई.) के शासन काल है, जिनमे से अधिकांश स्वयं जिनप्रभसूरि द्वारा रचित मे तैलूगु महाभारत का रचयिता टिक्कन सोमय्य नामक है-कई एक ऐसे भी है जो अन्य विद्वानो द्वारा रचित है। हिन्दू विद्वान ने राजसभा मे जनो को शास्त्रार्थ में परा- अधिकतर कल्प किसी न किसी पवित्र जैन तीर्थ, पतिशय जित किया था। परिणामस्वरूप राजा कट्टर शेव बन क्षेत्र प्रादि से सम्बन्धित है, और भिन्न-भिन्न समयों मे गया और जैनो पर उसने भारी अत्याचार किये तथा रचे गये है। कुछ एक कल्पो के अन्त में उनकी रचना तभी से इस राज्य मे जैन धर्म की अवनति प्रारम्भ हुई।" तिथि भी दी हुई है, जिनमे से सर्वप्रथम तिथि" वि० स० इससे यह भी विदित होता है कि उसके पूर्व वहां जैन- १३६४ (सन् १३०७ ई.) कल्प नः ११-वैभारगिरिधर्म उन्नत अवस्था में था, और राज्यवंश मे भी जैन धर्म कल्प के अन्त मे प्राप्त होती है, और अन्तिम वि० स० की प्रवृत्ति थी । वस्तुतः इस प्रान्त से सम्बन्धित पुरानी १३८६ (सन् १३३२ ई०) कल्प न०३६ - श्री महावीर 'कैफियतो' (निबद्ध अनुश्रुतियो) के प्राधार पर प्रो० गणधरकल्प के अन्त में सूचित की गई है।“ कल्प न०६३ शेषगिरिराव ने, जो स्वयं आन्ध्र प्रदेशवासी थे, यह प्रमा- मे जो वास्तव मे ग्रन्थ की अन्त्य प्रशस्ति है, ग्रन्थ समाप्ति णित किया था कि वारगल एक समय जैनधर्म का एक की तिथि भी सन् १३३२ ई० प्राप्त होती है। उक्त प्रमुख केन्द्र रहा था।" उस काल में उक्त प्रदेशो के जैन ६३ कल्पो में से ४० प्राकृत भाषा मे रचित है और शेष सम्बन्घो और वहाँ जैनो द्वारा किए गये कार्यकलापों का २३ सस्कृत में । १०. वही, पृ० ३६२..६३; विन्सेंट स्मिथ-माक्सफोर्ड १५. विविध तीर्थकल्प', मुनि जिन विनय द्वारा सम्पदित हिस्टरी प्राफ इण्डिया, पृ० ३०१ तथा सिंधी जैन ग्रन्यमाला के अन्तर्गत १९३४ ई. ११. देखिए हमारी पूर्वोक्त दोनों पुस्तकें । में विश्वभारतीय सिंधी जैन ज्ञानपीठ शाति निकेतन १२. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, पृ. ३३५ द्वारा प्रकाशित । १३. वही, पृ० ३३५-३३६; शेषगिरि राव : प्रान्ध्र. १६. वही, पृ.१०६ कर्नाटक जैनिज्म १७, वही, पृ०२३ १४. प्रमुख ऐति जैन, पृ० १६१ १८. वही, पृ. ७७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२, वर्ष २६, कि० ४ अनेकान्त ग्रंथ का कल्प संख्याक ५३, प्रामरकण्ड पावती देवी के छद्म से मुक्त जिनका मन था, जिनका हृदय विषयसुख कल्प"" है जो संस्कृत भाषा मे निबद्ध है और स्वयं ग्रन्थ- वांछा से क्षुभित नहीं था, जो सहृदय जनों के हृदयों को कार प्राचार्य जिनप्रभसूरि विरचित है, किन्तु इस कल्प के आह्लादित करते थे, कामविजेता थे, जिन्होंने विस्मयकारी रचनाकाल का कोई सक्त उसमे नही है। प्रथ के प्रारम्भ चरणचयो से पद्मावती देवी को स्ववश करके सिद्ध कर में मंगलाचरण के रूप मे 'तिलग नामक जनपद के लिया था-उसका इष्ट प्राप्त कर लिया था, ऐसे मेघमाभूषण, प्रमरकुण्ड नामक सुन्दर नगर मे गिरिशिखर चन्द्र नाम के अनेकान्ती दि० ब्रतिपति अपने शिष्य समुपर स्थित भवन (देवालय) के मध्य भाग में विराजमान दाय के साथ निवास करते थे। एकदा श्रावकगोष्ठी की पद्मिनीदेवी (पद्मावती देवी) की जय मनाई है । तदन्नतर प्रार्थना पर उन्होने किसी अन्य स्थान के लिए विहार समस्त गुणगणों के प्राकर, प्रान्ध्रदेश के प्रामरकुण्ड नगर किया । कुछ ही दूर चले थे कि अपने हाथ में अपनी के सौन्दर्य का वणन किया है। अनेक रमणीक भवनों एव पुस्तक (जो हस्ताभरण रूप ही थी) न देखकर बोले कि प्रासादों की सुव्यवस्थित पंक्तियो से सुसज्जित, नानाविध अहा ! प्रमादवश वह अपनी पुस्तक पीछे मन्दिर वृक्षों से भरे उद्यानो एवं वाटिकाओं से अलंकृत, निर्मल में ही भूल पाए है । प्रस्तु, उन्होने माधवराज नामक जलपूरित सरोवरों से शोभित, शत्रों को शोभित करने अपने एक क्षत्रियजातीय छात्रशिष्य को उक्त पुस्तक को वाले दुर्गम दुर्ग से युक्त इस उत्तम नगर का कहां तक लाने के लिए भेजा। वह छात्र दौड़ा-दौड़ा मठ मे गया, वर्णन करें ? उसकी पण्यबीथिया (बाजार) करवीर आदि किन्तु भीतर पहुचने पर उसने देखा कि अद्भुत रूपवती सुगन्धित पुष्पों से, मोठे इक्षुदण्डों, मोटे-मोटे केलों, चङ्ग कल्याणी स्त्री उक्त पुस्तक को अपनी गोद मे रखे बैठी है । नारङ्ग, सहकार, पनस, पुन्नाग, नागवल्ली, पूग, उत्तम उस प्रक्षुब्धचेता निर्भीक युवक ने स्त्री की जघा पर से नारिकेल प्रादि स्वादु खाद्य फलों से जो ऋतु-ऋतु मे पुस्तक उठानी चाही तो क्या देखा कि पुस्तक तो स्त्री के फलते है और दशो दिशानों को सुवासित करते थे, उत्तम कंधे पर रखी है । तब उस छात्र ने उक्त स्त्री को माता शालि-धान्यादि, पट्टांशुक (रेशमी वस्त्रों) मुक्तामो एव मानकर पुत्रवत् उसकी गोद मे पैर रक्वा और पुस्तक नानाविध रत्नों से भरी हुई थी। इस देश की यह राज- उसके कन्धे पर से उतार ली। देवी ने यह जानकर कि धानी 'मुरंगल'" तथा 'एकशिलापत्तन' नामो से प्रसिद्ध यह युवक राज्यारोहण करेगा, उससे कहा कि 'वत्स ! मैं थी। नगर के निकट सब अोर से रमणीक ; अपने मौन्दर्य तेरी साहसिकता को देखकर सन्तुष्ट हुई । जो चाहे, वर से पर्वराज सुमेरु का गर्व खर्व करने वाला, पृथ्वी का मांग।' छात्र ने उत्तर दिय। 'मेरे जगद्वन्द्य गुरुदेव ही मेरे अलकार विष्णुपदचुम्बि शिखर ऐसा एक पर्वत था। उसके समस्त मनोरथो को पूर्ण करने में समर्थ है, फिर मैं और ऊपर ऋषभ, शान्तिनाथ आदि जिनेन्द्रो की प्रतिमानो क्या चाहूं ? और पुस्तक लेकर वह गुरु की सेवा मे प्रा से अलंकृत, मनुष्यो के हृदयो को आह्लादित करने वाले उपस्थित हुअा, तथा मन्दिर मे जो घटा था वह भी कह जिनालय विद्यमान थे । उस पवित्र जिनालय मे, सर्व प्रकार सुनाया । तब उन क्षपणक गणाधिपति ने कहा 'भद्र ! वह १६. वही पृ० ६८-६९ विविधतीर्थकल्प का भूलपाठ 'उरंगल' रहा होगा। २०. मान्ध्रदेश का यह भाग-तेलंग-तेलगाना कहलाता स्वय वारंगल भी मूल नाम 'मोरुक्कुल' का अपम्रष्ट रहा है, किन्तु इस नाम का प्राचीन मूलरूप त्रिलिंग रूप है (ोरुक्कुल-उरुकुल-उरगल-पौरगल-वारगल) रहा प्रतीत होता है। एक त्रिकलिंगाधिपति की और उसका अर्थ तेलुगु भाषा में एकाकी पर्वत होता पूर्वी समुद्रतट पर स्थित राजधानी रत्नसंचयपुर मे है, जैसाकि स्मिथ साहब ने लिखा है (माक्सफोर्ड अकलक देव का बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ हमा था। हि० इ०, पृ. २८६ फुटनोट); सम्मवतया इसी २१. ग्रन्थ में नगर का नाम पाठ 'मुरगल' मिलता है, कारण उक्त नगर का अपर नाम 'एकशेलगिरि', जबकि उसका सुप्रसिद्ध नाम वारत है । सम्भव है एक शिलापत्तन या एकशेलपुर प्रसिद्ध रहा । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंगल के काकातीय राज्य संस्थापकन गुरु कोई सामान्य स्त्री नहीं थी, वरन् वे तो स्वय भगवती प्रवेश नहीं पा सकता । जो विशिष्ट बलशाली एवं साहसी पद्मावती देवी थीं जो तुझे प्रत्यक्ष हुई। मैं तुझे एक पम है वे ही शिलाद्वार खोलकर भीतर जाते है और देवी लिखकर यह पत्र देता हूं तू तुरन्त वापस जा और देवी सदन में भगवती की भक्तिपूर्वक उपासना करते है। अन्य को वह पत्र दिवाना ।' गुरु का प्रादेश मानकर वह पत्र गुफाद्वार पर ही देवी की पूजा करके अपने मनोरथ सिद्ध सहित फिर मठ में पहुचा और पत्र देवी को समर्पित कर करते है। दिया । उसमे लिखा था कि 'मुझे अष्ट सहस्र हाथी, उक्त माधवराज कंकति ग्राम" का निवासी था। नव कोटि पदाति, एक लक्ष रथाश्व और विपुल कोश उसके वंशज-पुरटिरित्तमराज-पिण्डि कुण्डिराज-प्रोल्लराज प्रदान करो।' भगवती ने पत्र पढ़कर उस युवक को एक रुद्रदेव -गणपतिदेव की पुत्री रुद्रमहादेवी, जिसने पैतीस वर्ष अत्यन्त तेजस्वी अश्व दिया और कहा कि 'तुझे जो पत्र राज्य किया, उसके पश्चात् प्रताप-रुद्रये प्रसिद्ध काकतीय में लिखा है, प्राप्त होगा, यदि तू घोड़े पर चढ़कर द्रुतवेग नरेश हुए हैं । यह पारामकुण्ड की पद्मावती का जिनसे चला जाएगा और पीछे मुड़कर नही देखेगा।" उसने प्रभसूरि ने जैसा सुना (यथाश्रुतम्) वैसा ही लिखा है। ऐसा ही किया, किन्तु बारह योजन ही जा पाया था कि मम्भव है कि उल्लेखित गुफाद्वार के शिलापट्ट पर पीछे घटे-घड़ियाल मादि का तुमुलख सुना और कौतूहल- देवी के अतिशय का उपरोक्त विवरण अकित रहा हो । वश पीछे मुड़कर देखने लगा । घोड़ा वहीं स्थिर हो गया। अंतिम राजा प्रतापरुद्र ने १२६६ से १३२६ ई. यही उसके राज्य की अन्तिम सीमा हो गई। तक राज्य किया था और उसके पूर्व उसकी मातामही तदनन्तर उस परम जैन माधवराज ने नगर में प्रविष्ट रुद्र महादेवी ने १२६१ से १२६६ तक राज्य किया होकर देवी के भवन मे जाकर उसकी पूजा की। फिर था। सन् १३०८.६ मे अलाउद्दीन खिलजी की सेनामो पानमत्कुण्ड या प्रामरकुण्डर नगर मे पाकर राज्यलक्ष्मी ने वारंगल पर प्राक्रमण किया और लूटपाट की थी और का उपभोग और प्रजा का पालन न्यायपूर्वक किया। १३२१-२२ मे जूनाखाँ (सुहम्मद बिन तुगलक) ने तो उसने इष्टदेवी पद्मावती का स्वर्णमयी दण्ड-कलश-ध्वजादि राजा को हराकर बन्दी बना लिया था, किन्तु फिर से चमचमाता, ऊचे शिखर वाला मनोरम प्रासाद बनवाया राज्य का कुछ भाग और बहुत-सा धन लेकर छोड़ दिया और भक्तिपूर्वक देवी की नित्य पूजा होने लगी। था । इससे लगता है कि जिनप्रभसूरि ने इस कल्प की जिन प्रभसूरि कहते है कि भुवनव्यापी महात्म्य और रचना १३०० और १३०८ ई० के बीच किसी समय की अमन्द तेजवाला भगवती का वह मन्दिर प्राज भी वहां थी। अतएव उनका यह विवरण बहुत कुछ समसामयिक विद्यमान है और भव्यजन उसकी पूजा भी करते है। है। एक जीवित समकालीन राज्य एवम् राज्यवंश के किन्तु मन्दिर तक पहुंचने के लिए पर्वत की एक गंभीर सम्बध में ततःप्रचलित एव लोकप्रसिद्ध अनुश्रुति को गुफा को पार करना पड़ता है । गुफाद्वार पर एक भारी प्राचार्य ने निवद्ध किया है, अतएव उसकी ऐतिहासिकता विशाल शिलापट्ट लगा है जिसके कारण हर कोई उसमें (शेष पृ० १३६ पर) २२. पारामकुण्ड -प्रामरकुण्ड -पानमकुण्ड से अभिप्राय २३. भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित भारतीय इति आन्ध्रदेश के प्रसिद्ध एवं अतिप्राचीन जैन केन्द्र हास (भाग ५, पृ० १९८) मे इस ग्राम का नाम रामकोण्ड अपरनाम रामतीर्थ या रामगिरि से रहा काकतिपुर दिया है और कारिकल चोल को इसका प्रतीत होता है। तेलुगु भाषा की अनभिज्ञता से मूल निर्माता बताया है; काकातीय वंश का अपर'कोण्ड' का कुण्ड हो गया और प्रतिलिपिकारों ने नाम दुर्जय वंश दिया है और उसे शूद्रजातीय बताया 'राम' का प्राराम, प्रामर, प्राममत् प्रादि कर दिया । है; जो वंशावली ही उसमे भी विविधतीर्थकल्प में 'रामकोण्ड' के लिए देखें हमारी जैना सोर्सेज प्राफ उल्लिखित प्रथम तीन नाम नही है, शेष है, बल्कि दो हिस्टरी प्राफ एन्थेट इण्डिया, पृ. २०३ कुछ मतिरिक्त भी। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती श्री मारुतिनन्दद प्रसाद तिवारी सगीत, विद्या और बुद्धि की प्रधिष्ठात्री देवी सर. सरस्वती-प्रान्दोलन के कारण ही जैन प्रागमिक ज्ञान का स्वती भारतीय देवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है। लिपिबद्धीकरण प्रारम्भ हुअा था और उसके परिणामभारतीय देवियों में केवल लक्ष्मी (समृद्धि की देवी) एवं स्वरूप ही प्रागमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप मे सरस्वती ही ऐसी देवियां है जो भारत के ब्राह्मण, बौद्ध और सरस्वती को उसका प्रतीक बनाया गया और उसकी पूजा जैन तीनों प्रमुख धर्मों में समान रूप से लोकप्रिय रही है। प्रारम्भ की गई। प्रागमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को कभी ब्रह्मा की (मत्स्यपुराण) होने के कारण ही उसकी भुजा मे पुस्तक के प्रदर्शन की और कभी विष्णु की (ब्रह्मवैवर्तपुराण) शक्ति बताया परम्परा प्रारम्भ हुई। मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त गया है। ब्रह्मा की पुत्री के रूप में भी सरस्वती का सरस्वती की प्राचीनतम जैन प्रतिमा मे भी देवी की एक उल्लेख किया गया है। बौद्धों ने प्रारम्भ में सरस्वती की भुजा मे पुस्तक प्रदर्शित है। कुषाणयुगीन उक्त सरस्वती पूजा बद्धि की देवी के रूप में की थी, पर बाद में उसे मूर्ति (१३२ ई०) सम्प्रति राजकीय संग्रहालय, लखनऊ मंजश्री की शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। ज्ञातव्य (क्रमांक जे-२४) मे संकलित है। है कि मंजुश्री बौद्धदेव-समूह के एक प्रमुख देवता रहे है। साहित्य में : जैनों में भी सरस्वती प्राचीन काल से ही लोकप्रिय रही अंगविज्जा, पउमचरिउ और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन है. जिसके पूजन की प्राचीनता के हमें साहित्यिक मोर जैन ग्रंथों में सरस्वती का उल्लेख मेधा और बुद्धि की देवी पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त होते है। के रूप मे है । एकाणसा सिरी बुद्धी मेधा कित्ती सरस्वती। प्रारंभिक जैन ग्रन्थो मे सरस्वती का उल्लेख मेघा (अंगविज्जा, प्रध्याय ५८)। पौर बद्धि की देवी के रूप में किया गया है, जिसे प्रज्ञान देवी के लाक्षणिक स्वरूप का निर्धारण पाठवीं शती रूपी अंधकार का नाश करने वाली बताया गया है। ई० में ही पूर्णता प्राप्त कर सका था। पाठवी शती ई० सगीत, ज्ञान और बुद्धि की देवी होने के कारण ही सगीत के ग्रन्थ चतुर्विशतिका (वपट्टिकसूरिकृत) मे हसवाहना ज्ञान और बुद्धि से सबधित लगभग सभी पवित्र प्रतीकों सरस्वती को चतुर्भुज बताया गया है, और उसकी भुजाम्रो (श्वेत रग, वीणा, पुस्तक, पप, हंसवाहन) को उससे में अक्षमाला, पद्म, पुस्तक एवं वेणु के प्रदर्शन का निर्देश सम्बद्ध किया गया था। जैन ग्रन्थों में सरस्वती का मन्य है। वेणु का उल्लेख निश्चित ही प्रशुद्ध पाठ के कारण कई नामों से स्मरण किया गया, यथा श्रुतदेवता, भारती, हुपा है । वास्तव में इसे वीणा होना चाहिए था। शारदा, भाषा, वाक्, वाक्देवता, वागीश्वरी, वागवाहिनी, प्रकटपाणितले जपमालिका क.मलपुस्तकवेणुवराघरा। वाणी और ब्राह्मी। उल्लेखनीय है कि जैनों के प्रमुख पवलहंससमा श्रुतवाहिनी हरतु मे दुरितं भुविभारती ॥ उपास्य देव तीर्थकर रहे है, जिनकी शिक्षाएं जिनवाणी', --चतुर्विशतिका 'मागम' या 'श्रुत' के रूप में जानी जाती थीं। जैन मागम दशवी शती ई० के ग्रन्थ निर्वाणकलिका (पादलिप्तग्रंथों के संकलन एवं लिपिबद्धीकरण का प्राथमिक प्रयास सूरिकृत) मे समान विवरणों का प्रतिपादन किया गया लगभग दूसरी शती ई० पू० के मध्य में मथुरा में प्रारम्भ है। केवल वेणु के स्थान पर वरदमुद्रा का उल्लेख है । हमा था। ऐसी धारणा है कि मथुरा में प्रारम्भ होनेवाले १४१२ ई. के ग्रंथ प्राचारदिनकर (वर्धमानसूरिकृत) में Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती १३५ भी समान विवरणों का उल्लेख है। केवल वरदमुद्रा के में द्विभज सरस्वती को स्थानक मुद्रा में पद्मासन पर स्थान पर वीणा के प्रदर्शन का निर्देश है । मामूर्तित किया गया है। पद्मासन के दोनो मोर मंगलभगवती वाग्देवते वीणापुस्तकमौक्तिक क्षवलपश्वेताज- कलश उन्कीर्ण हैं । सरस्वती की भुजागो मे पन मौर मजितकरे। -- प्राचारदिनकर पुस्तक प्रदर्शित है। सरस्वती भामहल, हार, एकावली श्वेताम्बर ग्रंथो के विपरीत दिगम्बर ग्रन्थ प्रतिष्ठा. एव अन्य सामान्य अलंकरणो से सज्जित है। द्विभुज तिलकम् (१५४३ ई.) में सरस्वती का वाहन मयर सरस्वती की एक अन्य मूर्ति राजस्थान के ही राणकपुर बताया गया है। प्रतिमानिरूपण सम्बन्धी ग्रंथो के अध्ययन जैन मन्दिर (जिला पाली) से प्राप्त है। इसमे सरस्वती से स्पष्ट है कि हमवाहना (कभी-कभी मयूरवाहना) सरस्वती को दोनों हाथो से वीणावादन करते हुए दर्शाया गया है। चतुर्भुजा होंगी और उनके करो मे मख्यतः पुस्तक, वीणा समीप ही हसवाहन उत्कीर्ण है। तथा पद्म प्रदर्शित होगा। सरस्वती की सगमरमर की एक मनोहारी प्रतिमा मूर्त प्रकनों में : राजस्थान के गगानगर जिले के पल्ल नामक स्थान में है। जैन परम्परा मे सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण १०वी-११वी शती ई० को इस मूर्ति मे चतुर्भूज सरस्वती को कुषाण-युग से निरन्तर मध्ययुग (१२वी शती ई०) तक साधारण पीठिका पर खड़ा दर्शाया गया है। पीठिका पर सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा है। मूर्त चित्रणो मे सरस्वती हमावाहन पार हाय । हमावाहन और हाथ जोड़े उपासक प्राकृतियां निरूपित है। को मुख्यतः तीन स्वरूपो मे अभिव्यक्त किया गया है - अलकृत कांतिमण्डल से युक्त देवी के शीर्ष भाग मे तीर्थकर द्विभुज, चतुर्भुज और बहुभुज । ग्रथों के निर्देशों के अन- की लघु प्राकृति उत्कीर्ण है । देवी ऊर्ध्व दक्षिण और वाम रूप ही मूर्त अकनो मे सरस्वती का वाहन हंस (या मयर) करो मे क्रमश: सनालपद्म और पुस्तक प्रदर्शित है, जब है और उनकी भुजाओं मे मुख्यतः वीणा, पुस्तक एवं कि निचले करों में वरद-प्रक्षमाला और कमण्डल स्थित पद्म प्रदर्शित है। सरस्वती को या तो पद्म पर एक पैर है। सरस्वती के दोनों पाश्वों में वेणु और वीणावादिनी लटकाकर ललित मद्रा में पासीन निरूपित किया गया है. स्त्री प्रकृतियां आमूर्तित है। सरस्वती मूर्ति के दोनों या फिर स्थानक मद्रा मे ग्वडे रूप में। पावों और शीष भाग मे अलकृत तोरण उत्कीर्ण है, सरस्वती की प्राचीनतम मूनि कुषाणकाल (१३२ ई०) जिस पर जैन तीर्थकरों, महाविद्या प्रो, गन्धर्वो और गजकी है, जो मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त हई है। जन ध्यालो की प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है। देवी कई प्रकार के परम्परा को यह सरस्वती-मूर्ति भारतवर्ष मे सरस्वती- हारों, करण्डमुकुट, वनमाला, धोती, बाजूबन्द, मेखला, प्रतिमा का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। द्विभुज सरस्वती कगन और चड़ियो जैसे अलकरणो से सुशोभित है। को दोनों पैर मोडकर पीठिका पर बैठे दर्शाया गया है। मूति सम्प्रति बीकानेर के गगा गोल्डेन जुबिली संग्रहालय देवी का मस्तक और दक्षिण भुजा भग्न है। देवी की (क्रमांक २०३) मे है । समान विवरणो वाली कई मूर्तियाँ वामभुजा मे पुस्तक प्रदर्शित है। भग्न दक्षिण भजा मे खजुराहो (मध्यप्रदेश), तारगा (गुजरात) एव विमलअक्षमाला के कुछ मनके स्पष्ट दिखाई पड़ते है। सरस्वती वसही और सेवाड़ी (राजस्थ न) जैसे जन स्थलो मे है । के दोनों पाश्वों से दो उपासक आमूर्तित है, जिनमे से एक ऐसी एक मूर्ति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (क्रमाककी भुजा मे घट प्रदर्शित है और दूसरा नमस्कारमद्रा मे १।६।२७८) में मी शोभा पा रही है। अवस्थित है। उल्लेखनीय है कि इस मूर्ति के बाद आगामी झांसी जिले के अन्तर्गत देवगढ़ मे भी ग्यारहवी शती लगभग ४५० वर्षों तक, यानी गुप्तवश की समाप्ति तक, ई० की एक मनोज्ञ सरस्वती-मूति है। जटामुकुट से जैन परम्परा की एक भी सरस्वती-मूर्ति प्राप्त नही होती। सुशोभित चतुर्भुज सरस्वती स्थानक मुद्रा में सामान्य सरस्वती-मूर्ति का दूसरा उदाहरण सातवी शती ई० का पीठिका पर खड़ी है । सरबती की भुजाप्रो मे प्रक्षमालाहै। राजस्थान के वसतगढ़ नामक स्थान से प्राप्त मूर्ति व्याख्यानमद्रा, पद्य, वरदमुद्रा और पुस्तक प्रदशित है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६, वर्ष २६, कि०४ अनेकान्त मूर्ति के शीर्ष भाग में तीन लघु तीर्थकरमू तियाँ और पाश्वा प्रवशिष्ट भुजामों में पद्म, पद्म प्रौर पुस्तक है। चतुर्भुज मे चार सेविकाएँ प्रामूर्तित हैं। सरस्वती की दो मूर्तियाँ सरस्वती की १३वीं शती ई० को एक स्थानक मूर्ति ब्रिटिश संग्रहालय में भी संकलित है। राजस्थान से प्राप्त हैदराबाद संग्रहालय में है। हंसवाहना देवी के करों मे ११वी-१२वी शती ई. की पहली मूर्ति मे चतुर्भुज सरस्वती पुस्तक, अक्षमाला, वीणा और अंकुश (या वज्र) है। त्रिभंग मे खडी है। देवी की दो प्रवशिष्ट वाम भुजानों परिकर मे उपासक और तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राकृतियां में अक्षमाला और पुस्तक प्रदर्शित है । शीर्ष भाग में पांच उत्कीर्ण है। राजस्थान के भरतपुर जिले के बयाना नामक लघु तीर्थकर मूर्तियाँ एव पीठिका पर सेवक और उपासक स्थान से प्राप्त चतुर्भुज मूर्ति में देवी का वाहन मयूर है। आमूर्तित है। दूसरी मूर्ति संवत् १०६१ (१०३४ ई०) देवी के करों में पद्म, पुस्तक, वरद और कमण्डलु है । मे तिथ्यकित है । लेख में स्पष्ट त. वाग्देवी का नाम खुदा सरस्वती की बहभुजी मूर्तियों के उदाहरण मुख्यतः है। बड़ोदा-सग्रहालय की ११वीं-१२वी शती ई० को गुजरात (तारंगा) और राजस्थान (विमलवसही एवं हसवाना चतुर्भुज सरस्वती मूर्ति मे देवी के हाथों मे वीणा लणवसही) के जैन स्थलों में है । षड्भुज सरस्वती की वरद-अक्षमाला, पुस्तक एव जलपात्र प्रदर्शित है। पार्व- दो मूर्तियां लणवसही में है। दोनो उदाहरणों में सरस्वती वर्ती चामरधारिणी सेविकानों से सेव्यमान सरस्वती हंस पर आसीन है। एक मूर्ति में देवी की पाँच भुजाएँ विभिन्न प्रलकरणों से सज्जित है। खण्डित हैं और प्रवशिष्ट एक भुजा में पद्म है। दूसरी राणकपुर की चतुर्भुज मूर्ति में देवी को ललित मुद्रा मूर्ति में दो ऊपरी भुजामो में पद्म प्रदर्शित है, जब कि में पासीन दिखाया गया है। देवी की भुजामों मे प्रक्ष- मध्य की भुजाएं ज्ञानमुद्रा में है। निचली भुजानों में माला, वीणा, अभयमुद्रा और कमण्डलु है। एक अन्य प्रभयाक्ष और कमण्डलु चित्रित है। अष्टभुज सरस्वती उदाहरण मे चतुर्भुज सरस्वती हस पर प्रारूढ़ हैं और की हंसवाहना मूर्ति तारंगा के अजितनाथ मन्दिर में है। उनकी एक भुजा मे अभयमुद्रा के स्थान पर पुस्तक है। त्रिभग में खड़ी देवी के ६ प्रवशिष्ट करों में पुस्तक, अक्षचतुर्भुज सरस्वती की एक सुन्दर प्रतिमा राजपूताना माला, वरदमुद्रा, पद्म, पाश एव पुस्तक प्रदर्शित है । संग्रहालय, अजमेर में है। बासवाडा जिले के अर्थणा सरस्वती की एक षोडशभुज मूर्ति विमलवसही के वितान नामक स्थान से प्राप्त मूर्ति मे देवी वीणा, पुस्तक, प्रक्ष- पर उत्कीर्ण है। नृत्यरत पुरुष प्राकृतियो से आवेष्टित माला और पद्म धारण किए है। समान विवरणों वाली देवी भद्रासन पर पासीन है। देवी के प्रवशिष्ट हाथों में मूर्तियां कभारिया के नेमिनाथ एवं पाटण के पचासर पद्म, शंख, वरद, पद्म, पुस्तक और कमण्डलु प्रदर्शित मन्दिरों (गुजरात) और विमलवसही में है । विमलवसही हैं। हंसवाहना देवी के शीर्ष भाग में तीर्थकर-मूर्ति उत्कीर्ण की एक चतुर्भुज मूर्ति मे हसवाहना सरस्वती की तीन है। 000 (पु० १३३ का शेषांश) में सन्देह नही होना चाहिए- विस्तारों और घटनापों परम न होने पौर स्वगुरु दिगम्बराचार्य मेषचन्द्र के के वर्णन में कथंचित् पौराणिकता या अतिशयोक्ति हो भाशीर्वाद, प्रेरणा एवं सहायता से राज्य स्थापन करने सकती है, किन्तु वारगल के काकातीय राज्य के संस्थापक वाला तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय है। माधवराज के, जिसका अपरनाम सम्भवतया बेतराज था," २४. भा० वि० भवन वाले इतिहास में वंश के सर्वप्रथम ज्ञात नरेश का नाम 'बेत' दिया है और उसका समय १०२५ ई० के लगभग अनुमान किया है। प्रतएव या तो माधवराज का ही अपरनाम बेत होगा, अथवा वह बेत का पूर्वज होगा. और इस प्रकार प्राचार्य मेषचन्द्र, माधवराज, काकातीय पोर उक्त राज्य की स्थापना सन १२५ ई. के मासपास होनी चाहिए। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जयिनी की दो अप्रकाशित महावीर प्रतिमाएं 0 डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य, उज्जैन भगवान् महावीर के जीवन-काल मे ही उज्जयिनी संपूर्ण प्राचीन मालवा मे जैन धर्म का प्रसार उज्जयिनी पश्चिमी भारत के एक महान सांस्कृतिक नगर के रूप मे से ही सम्पन्न हुआ। और यह समद काल हवी से १३वी प्रमुख घ्यापारिक स्थल बन चुका था। जैन ग्रन्थों मे कहा शताब्दी तक अपनी चरम सीमा पर रहा। १३वी शताब्दी गया है कि भगवान् महावीर ने उज्जयिनी मे कठोर में उज्जयिनी का देवधर जैन-संघ का प्रधान था। इससे तपस्या की थी और रुद्र ने अपनी पत्नी सहित इनकी पुष्टि होती है कि उस समय उज्जैन जैन प्रचार का प्रधान तपस्या भंग करने का निष्फल प्रयास किया था। यद्यपि केन्द्र था। उज्जैन जिले के लगभग ४० स्थल मैंने व विद्वानों का मत है कि भगवान महावीर अपने भ्रमण मे पुरातत्त्ववेत्ता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने कभी भी उज्जैन नहीं पाये थे, फिर भी यदि प्रतीकात्मक खोजे हैं। जहां जैन मंदिर व तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं, अर्थ लिया जाय तो यह स्पष्ट है कि महावीर के चलाये प्रायः सभी प्रतिमाएं अप्रकाशित हैं। इन स्थानों में जैन जैन धर्म को यहां बड़ी साधना से प्रस्थापित किया गया पुरातत्त्व की दृष्टि से निम्नलिखित स्थान महत्त्वपूर्ण हैं :मोर पूर्व के प्रचलित शैव धर्म ने बाधा डाली, पर वह इस १. उन्हेल २. रुणीजा ३. भहतपुर ४. झारड़ा ५. धुलेद धर्म के चतुर्दिक प्रसार में रोक न लगा सका और जैन ६. कायदा ७. खाचरोद ८. विक्रमपुर ६. हासामपुरा धर्म निर्वाध प्रसारित हया। मौर्यकाल में संप्रति द्वारा इसे १०. इंदौख ११. मनसी १२. सौढ़ग १३. करेड़ी राज्याश्रय में मिलकर पोर फैलाव मिला और यही से वह १४. सुंदरसी १५. इंगोरिया १६. दंगवाड़ा १७.दक्षिण भारत की ओर बढ़ा व दक्षिण भारत मे भी खरसौद १८. नरवर. १६. ताजपुर. २०. टुकराल. पर्याप्त विकसित हुग्रा। २१. जैथल. २२. पानबिहार' । उज्जैन में अखिल भारतीय दिगम्बर सभा के तत्त्वाजैन परम्परामों मे उज्जैन के शासक चंडप्रद्योत को वधान में एक जैन-मूर्ति संग्रहालय की स्थापना सन् १९३० म का कुसुम कहा गया है। डा. में की गई और निकटवर्ती स्थानो से जैन अवशेष एकत्रित एस. बी. देव के अनुसार, मौर्य सम्राट् संप्रति ने पूर्ण किये गये । इसमें प० सत्यंधर कुमार जी सेठी का योगउत्साह लेकर जैन धर्म का विस्तार पूर्वी भारत से हटाकर दान विशेष उल्लेखनीय है। अब यह संग्रहालय ५८० मध्य व पश्चिमी भारत में किया और एक प्रकार से मूर्तियों से सम्पन्न है। यहां की दो अप्रकाशित भगवान् उज्जयिनी को ही उसका केन्द्र-बिद् बनाया और दक्षिण महावीर प्रतिमानों का विवरण यहा पर दिया जा भारत में जैन धर्म के प्रसारित होने का मार्ग खोल दिया। रहा है। संप्रति ने प्राचार्य सुहस्तिन के मार्गदर्शन मे उज्जयिनी से संग्रहालय की मूर्ति क्रमांक ३ में प्रथम प्रतिमा है। जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। उज्जयिनी के ही संपूर्ण संग्रहालय की तीर्थकर प्रतिमानों में यह विशेष परम्पराश्रुत एवं अनेक कथामों के नायक विक्रमादित्य कलात्मक है। भगवान् महावीर पद्मासन में बैठे है । नेत्र ने सिद्धसेन दिवाकर के द्वारा जैन-धर्म में दीक्षित होने उन्मीलित हैं और मुखाकृति पर सौम्य भाव व गहन के पश्चात् जन धर्म के प्रसार में विशेष योगदान दिया। (शेष पृ० १४० पर) १. डा. एस. बी. देव : हिस्ट्री आफ जैन मोनाकिज्म, पृ. ६२. २. प्राच्य विद्या निकेतन, बिड़ला म्यूजियम, भोपाल द्वारा प्रायोजित जैन सेमिनार में पढ़ा गया डा. वाकघरका शोघलेख। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटक में जैन शिल्पकला का विकास । श्री शिवकुमार नामदेव कर्णाटक मे जैन धर्म के अस्तित्व का प्रमाण प्रथम एवं ज्वालिनी की विशेष प्रतिष्ठा की सूचक है।' सदी ई० पू० से ११वी सदी ई० तक ज्ञात होता है। कन्नड क्षेत्र से प्राप्त पार्श्वनाथ-मूर्ति (१०वी-११वीं तत्पश्चात् वहाँ वीरशैव मत का प्रचार हुमा। होयसल सदी) मे एक सपंफण-युक्त पद्मावती की दो भुजानो में मादि वंश के नरेश इस मत के प्रबल समर्थक थे। पूर्व. पद्म एव अभय प्रदर्शित है।' कन्नड शोघ संस्थान सग्रहाकालीन जैन देवालय एवं गुफाएं ऐहोल, बादामी एव लय की पार्श्वनाथ-मूर्ति मे चतुर्भुज पद्मावती पद्म, पाश, पट्टडकल प्रादि स्थलो मे उपलब्ध होती है। उपर्युक्त गदा या अंकुश एव फल धारण किए हुए है। उक्त संग्रहा स्थलों के अतिरिक्त लकुण्डी (लोकिगडी), बंकपुर, बेलगाम, लय मे चतुर्भुजी पद्मावती को ललितमद्रासीन दो स्वतंत्र हल्शी, बल्लिगवे, जलकुण्ड प्रादि मे भी जैन देवालय है। मूर्तियां भी सुरक्षित है । प्रथम प्रतिमा (के० एम०८४) ये देवालय विभिन्न देव-प्रतिमानो से विभूषित है। इन मे सर्पफण से मडित यक्षी का वाहन कुक्कुट-सर्प है । यक्षी देवालयों में श्रवणबेलगोल का शांतिनाथ मदिर, हलेविद का की दोनो दक्षिण भजाए खडित है एवं वाम मे पाश एवं पार्श्वनाथ मंदिर एवं अगदि का मल्लिनाथ मदिर उल्लेख- फल प्रदर्शित है। प्रतिमा के किरीट (मुकुट) मे लघु जिन नीय है । इस काल की बृहदाकार प्रतिमाएं श्रवणबेलगोल, प्राकृति उत्कीर्ण है।' द्वितीय प्रतिमा में पांच सर्पफणों से कार्कल एवं बेनूर मे है। सुशोभित पद्मावती की भुजाओं मे फल, अंकुश, पाश एवं कर्णाटक के हायलेश्वर देवालय से दो फांग की दूरी पद्म प्रदर्शित है। यक्षी का वाहन हम है। बादामी की पर जैनों के तीन मदिर है जिनमे चौबीस तीर्थ करो की पांचवी गुहा के समक्ष की दीवार पर भी ललित मुद्रा में प्रतिमाएं संरक्षित है। पासीन च ज यक्षी प्रा मूतित है। प्रासन के नीचे कर्णाटक में पद्मावनी सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी रही उत्कीर्ण वाहन सभवत हस या कोच है। सर्पफण से है।' यद्यपि पद्यावती का सम्प्रदाय काफी प्राचीन रहा है, विहीन यक्षी के करों मे अभय, अंकुश, पाश एवं फल परन्तु दसवीं सदी के पश्चात् के अभिलेखीय साक्ष्यों में प्रदर्शित है। निरंतर पद्मावती का उल्लेख प्राप्त होता है। कर्णाटक के कर्णाटक से उपलब्ध तीन चतुर्भुजी पद्मावती की विभिन्न स्थलों से ग्यारहवीं सदी से तेरहवी सदी के मध्य प्रतिमाएं सम्प्रति प्रिंस ग्राफ वेल्स म्यूजियम, बंबई मे हैं।' की कई प्रतिमाएँ उपलब्ध होती है ।' घारवाड जिले मे तीनों उदाहरणो मे एक सर्पफण से सुशोभित पद्मावती ही मल्लिसेन मूरि ने 'भैरव-पद्मावती कल्प' एवं 'ज्वालिनी- ललितमुद्रा में विराजमान है । पहली मूर्ति में यक्षी की तीन कल्प' जैसे तांत्रिक ग्रन्थों की रचना की थी, जो पद्मावती अवशिष्ट भजायो मे पद्म, पाश व अकुश प्रदर्शित है। १. जैनिज्म इन साउथ इडिया-देसाई, पी० बी०, पृ० घारवाड़, १६५८, १० १६–अन्निगेरी ६. वही, पृ० १६ ७. वही २. वही, पृ० १६३। ३. बहो, पृ०१०। ८. जैन यक्षाज एण्ड यक्षिणीज, बुलेटिन डेक्कन कॉलेज४. नोट्स प्रान टू जैन मेटल इमेजेज : हाडवे, डब्ल्यू. रिसर्च इस्टिट्यूट, खंड १, १९४०, पृ० १६१ एच. एस., रूपम., अक १७, जनवरी १९२४, पृ०४८.४६ डी. सांकलिया। ५. ए गाइड टू द कन्नड रिसर्च इंस्टिट्यूट म्यूजियम, ६. जन यक्षाज एण्ड यक्षिणीज, पृ० १५८-५९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाटक में जैन शिल्पकला का विकास १३६ दूसरी मूर्ति की एक प्रबशिष्ट भुजा में मंकुश तथा तीसरी से हुआ है। अनुमान है कि मूर्ति का वजन करीब ४०० मूर्ति में प्रासन के नीचे उत्कीर्ण वाहन संभवतः कुक्कुट टन है । मूर्तिकार का असली नाम प्रज्ञात है। कार्कल की या शुक है । यक्षा वरद, अकुश, पाश एव सर्प से युक्त है। इस मूर्ति के निर्माण के सम्बन्ध मे 'चन्द्रम कवि' ने अपने बादामी में तीन ब्राह्मण गुफाओं के साथ पूर्व की पोर 'गोम्मटेश्वरचरित' में बहुत कुछ लिखा है। कार्कल के एक जैन गृहा भी है, जिसका निर्माण काल ६५० ई० के गोम्मटेश्वर प्रतिष्ठापन समारोह मे विजयनगर ने तत्कालगभग है। उक्त गुफा में पीछे की दीवाल में सिंहासन लीन राजा द्वितीय देवराज उपस्थित थे। मूति के दाहिनी पर चौबीसवें तीर्थकर महावीर विराजमान हैं। उनके प्रोर अकित संस्कृत लेख से ज्ञात होता है कि शालिवाहन दोनों ओर दो चवरधारी है और बरामदे के दोनों छोरों शक १३५३ (ई० सन् १४३१-३२) में विरोधिकृत संवत् पर क्रमशः पाश्वनाथ एवं बाहुबली ७ फुट ऊँचे उत्कीर्ण की फाल्गुन शुक्ला ११ बुधवार को, कार्कल के भैररसो है। इसी प्रकार, स्तंभो पर तीर्थकर मूर्तियां उत्कीर्ण है। के गुरु मंसूर के हनसोगे देशी गण के ललितकीतिजी के बादामी की ही तरह ऐहोल में भी जैन गुफाए है। आदेश से चन्द्रवश के भैरव राजा के पुत्र वीर पांड्य ने इसमें सहस्त्र फणयुक्त पाश्वनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसे स्थापित किया। पार्श्वनाथ के अतिरिक्त भगवान महावीर की भी प्राकृति वेणर स्थित गोम्मट-मूर्ति को वहा के समीपवर्ती यहाँ दृष्टिगोचर होती है। उपर्युक्त दोनो स्थल-बादामी कल्याणी नामक स्थल की शिला से निर्मित किया गया है। एवं ऐहोल चालुक्य नृपतियों को राजधानी रहे है । इससे श्रवणबेलगोल मे चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मट मूर्ति ज्ञात होता है कि चालुक्यों के काल में निर्मित जैनकला उनके को देखकर तिम्मण अजिल ने अपनी राजधानी में ऐसी ही जैन धर्मावलम्बी अथवा धर्म-सहिष्णु होने का परिणाम था। एक मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया और यह मति कर्णाटक मे गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ है। चालुक्यो खुदवाई। मूर्ति के दाहिनी ओर उत्कीर्ण संस्कृत लेख में के काल मे निर्मित ई० सन् ६५० की गोम्मट की एक बताया गया है कि चामुण्डराय के वश के तिम्मराज ने प्रतिमा बादामी मे स्थित है। तलकाडु के गग राजाप्रो के श्रवणबेलगोल के अपने गुरु भट्टारक चारुकीति के शासनकाल में गगराज रायमल्ल सत्यवाक्य के सेनापति प्रादेशानुसार शालिवाहन शक १५२५ शोधकृत सवत् के व मत्री चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोल मे ई० सन् १८२ गुरुवार १ मार्च १६०४ को इसका प्रतिष्ठापन कराया। मे स्थापित विश्व-प्रसिद्ध गोम्मट मूर्ति है। यह ५७ मूर्ति के बायी ओर कन्नड पदो मे भी यही बात उल्लिफुट ऊँची है। मैसूर के समीप गोम्मट गिरि मे १४ फुट खित है। ऊँची एक गोम्मट प्रतिमा है जो १४वीं सदी की है। श्रवणबेलगोल के उत्तराभिमुख स्थित मूर्ति विश्व इसके समीप ही कन्नबाड़ी (कृष्णसागर) के उस पार १२ की प्रसिद्ध आश्चर्यजनक वस्तुप्रो मे से एक है। लम्बे मील की दूरी पर स्थित बसदि होस कोटे हल्ली मे गग- बड़े कान, लम्बवाहु, विशाल वक्षस्थल, पतली कमर, कालीन गोम्मट की एक अन्य १८ फुट ऊंचो प्रतिमा है। सुगठित शरीर आदि ने मूर्ति की सुन्दरता को और अधिक कार्कल में ४२ फुट ऊँची १५६२ ई० में वीरपाण्ड द्वारा बढ़ा दिया है। कायोत्सर्ग मुद्रा मे ५७ फुट ऊची तपोरत निमित गोम्मट प्रतिमा है। श्रवण-बेलगोल के भट्टारक यह प्रतिमा मीलो दूर से ही दर्शक को अपनी पोर माकृष्ट चारुकीति की प्रेरणा से तिम्मराज अजिल ने वेणर में ई० कर लेती है। सन १६०८ मे ३५ फुट ऊँची गोम्मट मूर्ति की स्थापना इस विशालकाय प्रतिमा के निर्माण के विषय में हमे कराई। एक अभिलेख से जानकारी उपलब्ध होती है, जो मूर्ति कार्कल की गोम्मट मूर्ति का निर्माण पहाड़ी शिला के पाश्र्वभाग मे उत्कीर्ण है। अभिलेख से यह ज्ञात होत, १०. प्राकियालोजिकल सर्वे आफ इडिया रिपोर्ट, भाग ११. कर्नाटक की गोम्मट मूर्तियाँ-प० के० भुजबली १, प० २५ . शास्त्री, मानेकान अगस्त १९७२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०, बर्ष २९, कि.४ अनेकान्त है कि इस प्रतिमा का निर्माण चामुण्डराज ने कराया था। विश्व की सर्वोच्च ५७ फुट ऊंची प्रतिमा के विभिन्न चामुण्डराज गगनरेश राजमल्ल (रायमल्ल) चतुर्थ अंगों के विन्यास से इसकी विशालता का स्वतः अनुमान (९७४-६८४ ई०) के मंत्री और सेनापति थे। चामण्डराज लगाया जा सकता हैने कन्नड भाषा में 'चामुण्डरायपुराण' की रचना की थी जिसमें उन्होंने २४ तीर्थकरों का चरित्र वर्णित किया । चरण से कर्ण के मधोभाग तक ... ५० इस प्रतिमा के निर्माता शिल्पी अरिष्टनेमि हैं। उन्होंने कर्ण के अधोभाग से मस्तक तक... मति के निर्माण में अंगों का विन्यास ऐसे नपे-तुले ढंग से चरण की लम्बाई किया है कि उसमे किसी प्रकार का दोष निकालना चरण के अग्रभाग की चौड़ाई ... संभव नहीं है; जैसे कर्ण का अधोभाग, विशाल स्कंध एवं चरण का अंगूठा माजानुबाहु । प्रतिमा के स्कंध सीधे हैं, उनसे दो विशाल वक्ष की चौड़ाई पांव की उंगली की लम्बाई ... २ भजाएं अपने स्वाभाविक ढंग से प्रलंबित हैं। हस्त की मध्य की उँगली की लम्बाई अंगलियो सीधी एवं प्रगूठा ऊर्ध्व को उठा हुमा अंगुलियों एड़ो की ऊंचाई ... २ से विलग है। कर्ण का पारिल... इस विशालकाय प्रतिमा का निर्माण श्रवणबेलगोल कटि ... के इन्द्रगिरि के कठोर हल्के भूरे प्रस्तर से हुआ है। इस प्रकार प्रतिमा-निर्माण के क्षेत्र में शिल्पी ने अपूर्व उत्तराभिमुख सीधी खड़ी इस दिगम्बर प्रतिमा के जानु सफलता पाई है। इतने भारी व कठिन पत्थर पर चतुर के ऊपर का भाग बिना किसी सहारे के अवस्थित है। शिल्पी ने अपनी जो निपूणता दिखाई है उससे भारतीय प्रतिमा का निर्माणकाल लगभग ६८० ई. के निकट है। शिल्पियों का चातुर्य प्रदर्शित होता है। 000 (पृ. १३७ का शेषांश) चितन है। अलकावली सुचिक्कण व वर्तुलाकार है और मे खड्गासन में अंकित है। विद्याघर व दुंदुभिक प्रथम प्रोष्ठ-भाग मे प्रस्तर के कटाव की बरीकी देखते ही प्रतिमा की भाति ही है। ऊपर व पार्श्वभाग मे २३ बनती है। ऊपर माला लिए विद्याधर है व हर्ष व्यक्त तीर्थडुर अकित है, पर सभी दिगम्बर प्रतीक या वाहनों करते किन्नर व दुंदुभिक है । मृदग, झाझ व तुरही लिए पर आसीन है। मूर्तिशिल्प की दृष्टि से यह प्रतिमा भी वादक-वृद सजीव जान पड़ते है। ऊपर कोनो मे दो प्रभूतपूर्व है। यह विक्रम संवत् १०५० में निर्मित हुई थी तीर्थङ्कर पद्मासन मे, छोटे प्राकार मे उत्कीर्ण है। चंवर. जैसा कि उसकी पाद-पीठ पर अकित अभिलेख से पुष्ट घारी चवर डुला रहे है। वाहन शेर है व नीचे के दोनों होता है। इस प्रतिमा का प्राकार ६८४४३४ २२ से. कोनों में क्रमशः मातंग यक्ष भोर सिद्धायिका यक्षिणी मी. है। प्रतिमा थोड़ी-सी भग्न है । मूर्ति क्रमांक ३ है। अंकित है। मूर्तिशिल्प के आधार पर यह प्रतिमा दसवी से इसमें भी मातंग यक्ष व सिद्धायिका यक्षिणी स्पष्ट है। ग्याहरवी शताब्दी के मध्ग की है जबकि परमार शासक उपरोक्त दोनों महावीर प्रतिमाए' श्रेष्ठ मूर्तिकला यहां के राजा थे । प्राकार ७५४४५४२२ से० मी०। र ७५X ४५X २२ स० मा०। का ज्ञापन करती है और प्राचीन मालवा के जैनधर्म के लाल पत्थर मे निर्मित यह महावीर प्रतिमा मालवा की गौरवशाली पक्ष को प्रकट करती है। जैन तीर्थ डर मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करती है। विक्रम विश्वविद्यालय, दूसरी प्रतिमा मे भगवान महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा उज्जैन (मध्य प्रदेश) 000 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के रूप (प्राध्यात्मिक प्रौर व्यावहारिक) - श्री पद्मचन्द शास्त्री, एम० ए० दिल्ली, प्राध्यात्मिक-स्वानुभूति रूपी स्वानुभाविकी परिणति पहुंच जाती है तब "सावद्य" के अर्थ की सीमा भी विस्तत में लीन सम्यग्दृष्टि समस्त-वभाविकी-बन्धरूप अर्थात् क्षेत्र को घेर लेती हैं । लोक में "सावद्य" शब्द प्रायः परप्रात्मानुभति में विघ्नभत क्रियाओं के प्रति सर्वथा मौन है। पीडन, हिंसा प्रादि पापाचार और लोकहित क्रियामों मात्माभिमुखी की रुचि पर-पदार्थों में न हो, सर्वथा के भाव में लिया जाता है । परन्तु जहां प्रात्माभिम खता स्वभाव में ही है। प्रकारान्तर से इस तथ्य को हम इस संबंधी मौन प्रकरण है" सावद्य" का अर्थ उक्त न लें। प्रकार कह सकते है कि प्रात्माभिमुखी एक ऐसा मौनी मन-वचन-काय तीनो की उन सभी प्रवृत्तियों में लिया मुनि है जिसके प्रात्मानुभूति के सिवाय बाह्य (साबद्य) जायेगा तो पर-रूप हैं, फिर वे लोक-विरुद्ध अथवा लोक का लेश नही। विरोधातीत जैसी भी हों। मनि और मौनी दोनों शब्द प्राध्यात्मिक और भाव प्राचार्य कहते हैअभिन्न तो है ही, साथ ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को तत्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्र वा यतः स्वयं सिद्धम् । बतलाने में भी समर्थ है, अर्थात् मुनि वह है जो मौनी (पर तस्मादनादिनिधनं स्वःसहायं निविकल्पम् ॥ पंचाध्यायीठ॥ से निवृत्त) हो । जो मौनी नही वह मुनि भी नहीं । कोष तत्व सत् लक्षणवाला है, सत् मात्र और स्वयं सिद्ध है, कारों ने मौन शब्द का व्युत्पत्तिपुरस्सर जो विश्लेषण किया इसलिए वह अनादि है, प्रनिधन है, स्व-सहाय पौर है वह मनन योग्य है। वे लिखते हैं निर्विकल्प है। "मुनेरयं मौन"। मनेर्भावः वा मौनभू । मौनं चाशेष सर्वदयानुष्ठानवर्जनम् । मौनमविकल मुनिवृत्त तन्न उक्त प्रमाण के प्राधार से सभी द्रव्य स्वतन्त्र मोर श्चायिकं सम्यवत्वम्"। लक्षण भिन्नत्व को लिये हुए है एतावता अपने में ही हैं । इसका भाव ऐसा हुया कि प्रशेष (सम्पूर्ण) सावद्य' कोई "पर" अन्य किसी "पर" का कर्ता या हानि (पापसहित) के अनुष्ठान का त्याग करना मौन है और दाता नही । यह मौन पूर्णरूप से मुनि का चारित्र है और यह निश्चय यदि प्रमाद है तो वह प्रशुद्ध जीव का अनादि संसार सम्यक्त्व है। जैसे लौकिक व्रती जन को समस्त लौकिक रूप अपना, पौर हिंसा है तो वह अपनी। जब जीव सावद्य क्रियानों के प्रति मौनी होना लाभदायक है। अपनी स्वाभाविकी मौनवृत्ति को छोड़ कर प्रमाद भाव आत्माभिमुखी मनि और सम्यग्दृष्टि को भी प्रात्मसाधक जन्य दोष से प्रात्मानुभूति के विमुख होता है तब वह प्रवृत्तियों के अतिरिक्त सभी विभायो से मोन (विमुखता) अपनी ही हानि -अपने ही हिंसा रूपकर्म (पाप) सावधआवश्यक है। जिसने प्रात्मातिरिक्त समस्त रुचियों कर्म को करता है, उसका मुनित्व भग होता है। पर का (प्रमाद, कषाय और पापरूप) का परिहार किया वही भहित तो व्यवहार से कहा जाता है-निश्चिय में जीव सम्यग्दृष्टि (लब्धिरूप में ही क्यो न हो) है। का स्वयं का ही बिगाड़ होता है। स्मरण रहे कि प्राध्यात्मिक प्रकरण में मौन का भाव इसी प्रसग में जब हम हिंसा मादि पापों पर विचार केवल वाचिक मौन तक ही सीमित नहीं रहता। वहां तो करते है तब यही फलित होता है कि वहा भी प्राचार्य मन और काय भी गभित हो जाते है, और जब मौन की का अभिप्राय पर.पात प्रादि की प्रमुखता से नहीं, प्रपात सीमा मन-वचन-काय तीनों के व्यापार रुद्ध करने तक हिंसा का मूलभूत अभिप्राय पात्मघात से रहा है और पर १. भवद्यं पाप सह तन वर्तते । पशियति मलिनयति जीवमिति पापम् । कर्मबन्धो अवज्ज सहतेण सोसावज्जो जोगोत्ति वा वावारो"-मभिः राजेन्द्र कोष । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२, वर्ष २६, कि०४ अनेकान्त धात को गौण कर दिया गया है। पाठक इसका अभिप्राय ही हिंसा है। बे स्पष्ट लिखते हैं-" स्वयमेवात्मात्मानये न लें कि व्यवहारिकी हिंसा हिसा नहीं । अपितु ऐसा मात्मना हिनस्ति प्रमादवान्'-प्रमादी प्रात्मा स्वयं ही भाव ले-कि वह भी अपना घात किये बिना नही हो अपने से अपना घात करता है । वे कहते है - सकती। एतावता अपने परिणाम शुद्ध रखें। प्राचार्य अत्रापि प्राणव्यपरोमणमस्ति भावलक्षणम्"कृत (प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपम् हिसा) सूत्र द्वारा प्राण व्यपरोपण भावरूप है । इसलिए प्रात्मदर्शी मनिप्रतिपादित हिंसा का लक्षण पारमार्थिक और लौकिक सम्यग्दृष्टि के प्रमाद के प्रति मौनी होने के कारण मनदोनों ही दृष्टियों से युक्तिसगत है । जब हम प्राणों का वचन-काय की क्रिया रोककर प्रात्मालीन होने की स्थिति घात करने से लौकिक दश प्राणों (५ इन्द्रिय, ३ बल, पायु मे हिंसा आदि (मावध) का स्वय ही त्याग है। सच्चे और श्वासोच्छथास) का भाव लेते है तब इन प्राणों का मुनि कहो, सम्यक्त्वी कहो, वे ही है। छेद होने से प्राण व्यपरापण (पर-पीडन आदि) व्यवहार जिनवाणी मे जहा हिमादि पच पापों संबंधी रौद्र. में सावध नाम पाते है और जब हमारी दृष्टि तत्व (तत्वं ध्यानों का वर्णन है वहा इन प्रशुभ ध्यानों के सद्भाव का सल्लाक्षणिक) की मोर होती है, तब प्रमाद को सावध विधान पंचम गुणस्थान तक ही है । मनि (षष्ठम्गुणस्थान) संज्ञा दी जाती है, यतः जीव अपना ही घात करता है। में सर्वथा ही नहीं। कहा भी है-तद्रौद्रध्यानमविरत देशप्रात्मरसरसिक निश्चयावलम्बी अहिंसा आदि विरतयोर्वेदितव्यं" अर्थात् रौद्र ध्यान अविरत और देश महाव्रत इसलिए तो धारण करता नहीं कि वह इनके विरत गुण स्थानो में ही होता है । मुनि के अर्थात् षष्ठम कारण पर-घात मादि को कर पुण्य उपार्जन करेगा। गुण स्थानवर्ती के नही होता। इससे यह भी समझना वह तो अपनी दष्टि "निज" में केन्द्रित करने के लिए चाहिए कि मुनि में जोमहाव्रत रूप मे व्रत का विधान है वह "पर"-प्रमाद का परिहारमात्र करता है, और प्रमाद मुख्यतः अभ्यन्तर - मुख्यतः अभ्यन्तर संभाल की दृष्टि से ही है और वास्तव में का परिहार होने में प्रात्म-हिसा का प्रभाव होने पर, मुनि प्रमत्त विरत होने के कारण हिंसा आदि से रहित ही उसके लिए पर-हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर है। है, अर्थात् जब प्रमाद नही तय हिसा कसी ? यदि कदाचित व्यावहारिकी हिंसा मे भी तो अपनी हिंसा (प्रमाद) की कहा जाय कि अपने व्रतो मे दोष पाने पर मुनिगण को भी प्रायश्चित का विधान किया गया है तो वहां भी दोष ही प्रमुखता है। इसीलिए कहा है -' प्रमत्तयोगादिति । विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाऽधर्माय इति ज्ञापनार्थम (हिंसा) की उत्पत्ति प्रमाद जन्य ही है और इसलिए (प्रमाद टालने के हेतु) प्राचार्यों ने अहिंसा महाव्रत की अर्थात् केवल प्राण व्यपरोपण अधर्म हेतु नहीं है, अपितु भावनामो में सर्वप्रथम वाङ्मनो गुप्तियो का विधान कर प्रमाद विशेषण ही अधर्म हेतु है । इसका तात्पर्य यह है बाद मे कायगुप्ति को अगभूत ईर्यादि समितियो का उल्लेख कि आत्माभिमुखी का प्रमाद ही उसकी स्वयं की हिंसा है किया है-वाड्. मनोगुप्तीर्यादान निक्षेपण-समित्याऔर इसी के प्रति पूर्ण मौन होना अहिंसा-सावध का वच का लोकित पानभोजनानि पच"। त्याग है। उक्त सभी प्रसगो से स्पष्ट होता है कि निश्चय दष्टि शास्त्रों में जहां प्रमाद के भेदों को गिनाया है वहाँ से मनि-मौनी व सम्यग्दृष्टि पर के प्रति प्रशुभ व शुभ भी किसी मे कोई ऐसी झलक नहीं मिलती जिससे पर में दोनों मे पूर्ण मौन है-वह अपने में ही जागरुक है । इसीकृत-कर्म मात्र हिंसा सिद्ध हो। सभी स्थानों पर स्व-हिंसा लिए "मोनमविकलमुनिवृत्तं तन्नश्चयिकं सम्यक्त्वम्" (प्रमाद जन्य) को ही मुख्य बतलाया है। यदि हिंसा में ऐसा विधान किया गया है। इससे यह भी ध्वनित होता मात्र प्राणव्यपरोपण अभीष्ट होता तो प्राचार्य प्रमाद है कि सच्चा मुनि सम्यक्त्वी ही होता है और सम्यक्त्वी ही विशेषण का समावेश नहीं ही करते । वे कहते हैं-"ननु मनि हो सकता है । शास्त्रों में मुनियो के भेदों मे द्रव्यच प्राण व्यपरोपणाऽभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिसेष्यते", लिंगी का जो पाठ पाया है वह केवल जनसाधारण के प्रर्थात प्राण घात के न होने पर भी प्रमाद योग मात्र में बोध को बालिग मात्र की अपेक्षा से दिया गया मालम Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिता के रूप होता है, वास्तव में "द्रव्यलिंगी मुनि" शब्द नही केवल साधना के लिए प्रयत्नशील है, समिति वाला है, उसको "द्रव्यलिंगी" समझा जाना चाहिए। बाहर से प्राणी को हिंसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है, जिसको तू मारना चाहता है वह तू ही है: अर्थात् वह हिसा नहीं है।" जिसको तू परिताप वेना चाहता है वह वही है- "वीरतो पुण जो जाणं कुणति प्रजार्ण व अप्पमत्तो वा । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी तत्थ वि प्रज्झत्यसमा संजायति णिज्जराण चो॥ मात्म-हिंसा को ही प्रमुखता दी है। वे कहते है वृह भा० ३६३६ ॥" "प्रात्मपरिणामहिसन हेतुत्वात् सर्वमेव हसतत् । अप्रमत्त संयमो (जागृत साधक) चाहे जान में (अपअनृतवचनादि केवलमदाहृत शिष्यवोधाय ॥ ४२ ॥ वाद स्थिति में?) हिंसा करे या अनजान में, उसे अतरंग अर्थात् प्रात्म परिणामो (स्वभाव) की हिसा होने के शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं। कारण ही अन्य प्रवृत्तिया हिमा नाम पाती है। अनत "प्रज्झत्थ विसोहिए, जीवनिकाह संथडे लोए । मादि का विधान भी केवल शिष्यों के वोध के लिए है-- देसियमहिमं गत्त, जिणेहि तेलोक्क दरमीहि ।। सभी हिंसा में गभित हो जाते है । और भी अन्य अनेकों ओ० नि० ७४७ ॥" दिगम्बर-श्वेताम्बर शास्त्रों में इसी भाव के उल्लेख मिलते त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकाहैं, जिनमें हिंसा को ही प्रमुखता दी गई है। यथा- नेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का मायाचेव अहिंसा आया हिसत्ति निच्छयो एमो। अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, जो होइ अप्पमत्तो अहिंमनों इयरो ॥ प्रो०बि० ७५४ ॥" बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।' ___ निश्चय दृष्टि से प्रात्मा ही हिसा है और प्रात्मा ही "उच्चालियम्मि पा, इरियासमियस्स सकमठाए । महिंसा है। जो प्रमत्त है वह हिसक है और जो अप्रमत्त वावज्जेज्ज कुलिगी, मरिज्जतं जोगमामज्ज ।। प्रो. नि. है वह अहिसक।" ७४८ ।। "नय हिंसा मेत्तेण सावज्जेणावि हिसो होइ । यदा कदा ईर्यासमिति लीन साधु के पैर के नीचे भी सुद्धस्स उ संपत्ती अफलाभणिया जिणवरेहि ।। मो०नि० कोट, पतंग प्रादि क्षुद्रप्राणी पा जाते है और मर जाते ७५८॥" हैं । परन्तुकेवल बाहर में दृश्यमान पाप रूप हिंसा से कोई "नय तस्स तन्निमित्तो, बन्धो सुहमोवि देसियो समए । हिसक नहीं हो जाता । यदि साधक अन्दर में राग-द्वेष प्रणवज्जो उपयोगेण सावभावेण सो जम्हा ।। मो० नि. रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाहर को ७४६॥" हिंसा को कर्मबध का हेतु न होने से निष्फल बताया है। उक्त हिसा के निमित्त मे उग साधु को सिद्धात मे "जा जयमाणस्सभवे, विराहणा सुत्त विहिसगग्गस्म । सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं बताया है, क्योंकि वह अन्तर में सा होइ निज्जरफला, प्रज्जत्थ विसोहि जुत्त स्स ||७५६॥" सर्वतोभावेन उस हिंसा व्यापार में निलिप्त होने के कारण जो यातानावान् साधक अन्तरा विशुद्धि से युक्त है और अनवदयनिष्पाप है। प्रागविधि के अनुसार ग्राचरण करता है, उसके द्वारा होने "जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स या जोगं पडुच्च जे सत्ता। वाली विराधना (हिसा) भी कमनिर्जरा का कारण है।" वावज्जते नियमा, तसि सो हिंसो होई॥ "मरदु व जियदु व जीवी, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिसा। मो०नि० ७५२ ।।" पयदस्स पत्थि वन्धो, हिमा मेत्तेण समिदस्स ।। प्रवचन जे बिन वावज्जती, नियमा तसिं पि हिसनो सोउ। ३/१७ ।" सावजी उ पनोगेण, सत्वभावेण सो जम्हा ।। बाहर से प्राणी मरे या जिये, अयताचारी-प्रमत्त प्रो०नि० ७५३॥ को पन्दर मे हिसा निश्चित है । परन्तु जो अहिसा की जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४, वर्ष २९, कि०४ भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका अपितु पुण्यबन्ध होता है; और जब बन्ध होता है तब हिंसक होता है । परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गये हैं वह विचार उठता है कि क्या मुनिव्रत का उद्देश्य बन्ध करना प्रमत्त उनका भी हिसक है क्योंकि वह अन्तर में सर्वतो. था, या संवर-निर्जरा ? और भी 'जीवेसुसाणकम्पो भावेन हिंसावृत्ति (प्रमाद) के कारण सावध है। उवमोगो सो सुहोतस्स, अर्थात् जीवो मे अनुकम्पा करना "तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि । शुभोपयोग है। तुमसि नाम तं चेव जं परियावेमन्वं ति मन्नासि ॥ यह तो माना जा सकता है कि जब तक साधु निवृत्ति प्र. चा० १/५/५ ॥ में नहीं तब तक प्रशुभ-प्रवृत्ति न कर के शुभ-प्रवृत्ति करता जिसको तू मारना चाहता है वह तू ही है; जिसको है, पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह उसका कार्य तू परिताप देना चाहता है वह तू ही है। कर्तव्य रूप नहीं अपितु शिथिलता-जन्य है, क्योंकि मुनि "जे ते अप्पमत संजया ते णं नो मायारंभा, को चारित्र-धाम कहा है और वह चारित्र 'स्वरूपेचरणं नो परारंभा, जाव प्रणारंभा ।। (भग० १११) चारित्र' रूप है। जब तक स्वरूप में रमण नही तब तक घना में अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी उसका मुनिपद किसी भी दृष्टि से कहो, सदोष ही है, हिंसा करते हैं, न दूसरों की हिंसा करते है। वे सर्वदा क्योंकि सम्यक् चारित्र का उत्कृष्ट स्वरूप ही इस श्रेणी अनारंभ-अहिंसक रहते है । का है कि वह पर-माश्रित बाह्य-अभ्यन्तर दोनो प्रकार "प्रज्झत्थ विसोहीए जीवनिकाएहि संथडे लोए । की क्रियानों से विरक्त-विराम रूप है। कहा भी हैदेसियमहिसगत्त जिणेहि तिलोक्क दरसीहिं ।। संसारकारणनित्ति प्रत्यागर्णस्य ज्ञानवतो ब्राह्यभ्यन्तर प्रा०नि० ७४७॥ क्रियाविशेषोपरमः सम्यकचारित्रम', यानी संसार का त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेका- नित्ति के प्रति उद्यत ज्ञानवान जीव का वाह्य-प्राभ्यन्तर नेक जीव समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का दोनों प्रकार की (शुभ-अशुभ) क्रियानों से विराम लेना पहिसकत्व अन्तर से अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, सम्यक चारित्र है। व्रत संज्ञा भी विरति को दी गई है बाह्य हिंसा या अहिसा की दृष्टि से नहीं। प्रवृत्ति को नहीं । कहा भी है--विरत्तिव्रतम् ।' उक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि प्रध्यात्म में यदि कोई जीव व्यवहार में हिंसा से विरत' होता है हिंसा-अहिंसा के कथन का साक्षात् सम्बन्ध प्रारम-लक्ष्य से तो उसे कहा जाता है कि अहिमा मे प्रवृत्त हुपा, अर्थात् ही रहा है, बाह्य पर-लक्ष्य से नही। साथ ही यह भी तो जो पहिले हनन् रूप क्रिया कर रहा था वह उससे विरत विचारणीय है कि क्या अध्यात्मरसिक-मौनी या मुनि के होकर पहनन् रूप क्रिया मे प्रवृत्त हो रहा है। पर यह लिये जिस चारित्र का विधान किया गया है वह आत्म- व्यवहार ही है। वास्तव मे तो वह क्रिया कर ही नहीं कल्याण-मोक्ष की दृष्टि से किया गया है या सांसारिक- रहा। जो हिंसा रूप क्रिया मे उसका उपयोग था वह पुण्य-शुभप्राप्ति को दृष्टि से किया गया है ? जहां तक हिंसा से हटा अर्थात् तरिक्रया से विरमित हो गया। उसे सिद्धान्त का प्रश्न है, मुनिव्रत-वीतरागरूपचरित्र धारण उसका विकल्प ही नहीं रहा, और जब विकल्प नही रहा का उद्देश्य, परनिवृत्ति-स्व-प्रवृत्ति रूप है और स्व-प्रवृत्ति तब हिंसा रूप क्रिया की विरोधी 'अहिंसा' रूप क्रिया से में पर-हेतुक प्रयत्न कसा ? यदि कोई जीव 'पर-रक्षारूप' भी उसे क्या सरोकार रहा। वह तो अपने भाव में मा अपनी प्रवृत्ति करता है तो ऐसा समझना चाहिए कि अपने गया। जहां तक प्रवृत्ति प्रौर निर्वृत्ति का सम्बन्ध है दोनों मार्ग में पूर्ण स्वस्थ नहीं। कहा भी है-भूतवृत्तनुकंपा ही परस्परापेक्षी-विरुद्ध होने से एक के विकल्प में दूसरे च सद्वेद्यास्रव हेतवः-(तत्वार्थसार माश्रवप्रकरण),मर्थात के प्रादुर्भाव की सिद्धि करते है। जहां एक है वहाँ दोनों पर मे अनुकम्पा-दया (महिंसा) साता वेदनीय कर्म के (अपेक्षा दष्टि से) ही है। एक स्थल पर चारित्र के 'वर्णन माधव का कारण है, यानी उस दया से निर्जरा नही, में' 'पचिदिय संवरणं' पद पाया है। पाठक विचारेंगे कि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिसा के रूप १४५ वहां भी 'संवरणं' पद को चारित्र रूप महत्त्व दिया गया है, है। वे कहते है-"विलश्यन्तां च परे महाव्रततयो भारेण न कि पंचेन्द्रियों की प्रवृत्ति को चारित्र रूप दिया गया भग्नाश्चिरम्"- अमृतः॥१४२ ॥ प्रर्थात् 'महाव्रत मौर हो, फिर चाहे वह प्रवृत्ति शुभ रूप ही क्यों न हो? तप के भार से बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश करें बंध में कारण-भूत होने से त्याज्य ही है। यदि प्राचार्य तो करो । भाव ऐसा है कि जब तक पर-निवृत्ति और स्वको प्रसंग (चरित्र पाहुड २७) में प्रवृत्ति इष्ट होती तो प्रवृत्ति रूप महाबत व तप नही तब तक दुःख से छुटकारा वे स्पष्ट लिखते कि पंच-इन्द्रियों को शुभ से सम्बद्ध करना नही, क्योंकि जब सर्वपरिग्रह-बाह्यभ्यन्तर विकल्प मात्र चारित्र है। पर ऐसा उन्होंने लिखा नहीं। उन्होंने तो शुभ- के त्याग में दीक्षा का विधान है तबदीक्षा से संभावित प्रशुभ दोनों प्रवृत्तियों से विमुख 'संवरण' पद दिया। मनि और मौनी अथवा सम्यग्दष्टि के विकल्प कैसा? अन्यत्र एक स्थान पर भी 'रायादीपरिहरणं चरणं'- वहां तो सर्व परिग्रह का त्याग होना ही चाहिये । कहा समय-१५५ ; द्वारा परिहार को ही चारित्र बतलाया न, भी है-'पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता' अर्थात् सर्व संग कि उनमें बिहार को। यदि राग है, चाहे वह शुभ ही है (परिग्रह-पर-ग्रह, विकल्प भी) का त्याग ही 'प्रव्रज्या' तो भी वह परिहार नही, बिहार ही है। अत: अध्यात्म में है। एतावता जहां मौन का सम्बन्ध है, मौनी, मुनि, उस शुभ को भी स्थान नही दिया गया क्योकि वह पर सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में अहिंसा प्रादिक महाव्रतों का भाव से ही सबन्धित होगा। प्रात्मभाव से ही है पर-शुभाशुभ विकल्पों से नहीं। कहा जाने में प्राता है कि यदि व्रत में प्रवृत्ति निषिद्ध प्राचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवति तो चारित्र के लक्षणों है तो अणव्रती की अपेक्षा महाव्रती के असख्यात गुनी में स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं। उनका भाव है कि अध्यात्म निर्जरा सिद्धान्त में क्यों कही गई है ? यह तो व्रत का में चारित्र का जो स्थान है वह व्यवहार में नहीं है और ही प्रभाव है कि उसके असंख्यात गुनी निर्जरा होती है। व्यवहार में चारित्र का जो स्थान है वह अध्यात्म में नहीं पर इस स्थल में भी हमें विचार रखना चाहिये कि उक्त है। जब एक और समस्त क्रियानों को निर्वत्ति चारित्र असंख्यातगुनी निर्जरा में भी विरति' रूप व्रत ही कारण है तो दूसरी ओर प्रवृत्ति को चारित्र समझा जाता है। है 'प्रवृत्ति रूप' नहीं। जैसी-जैसी प्रवृत्ति का प्रभाव है वे लिखते है व्यवहार मेंवसी-वैसी और उस रूप में निर्जरा है। वास्तव में तो 'प्रसुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्तं । जैन दर्शन में प्रवृत्ति सर्वथा ही निषिद्ध है। साधु व्रत वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिण भणियं ।। द्रव्य ४५। ग्रहण करता है यह तो व्यवहार में कहा जाता है अन्यथा प्रशुभ से निवृत्ति शुभ मे भौर में प्रवृत्ति-ब्रतकरता तो वह निवृति ही है। किसी साघु ने 'अहिंसा समितिगुप्तिप्रादिरूप व्यवहार चारित्र है। फलितार्थ यह महाव्रत' धारण किया इस कथन में भी विचारा जाय तो हा कि उक्त प्रवृत्ति रूप चारित्र उन जीवों की अपेक्षा अहिंसा नामक कोई पदार्थ नहीं-स्वभाव नहीं : वह तो से है जो प्रध्यात्म स्वरूप में नहीं पहुंच पाये है और परहिंसा क्रिया पौर हिंसा भाव के प्रभाव का ही नाम है वश हों, जिन्हें प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं मिल सका है। पौर प्रभाव को क्या, कैसे ग्रहण किया जायेगा ? ये सब जिन जीवों ने पर को पर समझा और अनुभवा है, ऐसे प्रश्न हैं, जो हमें अन्ततोगत्वा इसी निष्कर्ष पर पहुंचाते सम्यग्दृष्टि की दृष्टि (माध्यात्मिक दृष्टि) में तो प्रवृत्ति, हैं कि निर्वृत्ति ही चारित्र है, प्रवृत्ति चारित्र नहीं। प्रवत्ति ही है-पर-रूप और विकल्पात्मक है, वहां मौन उक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि अध्यात्म में महा- अथवा मुनित्व नही है। उनके लिए तो भाचार्य कहते व्रती-मनि, मौनी व सम्यग्दृष्टि में भेद-बुद्धि का सर्वथा हैप्रभाव है, पर निर्वृत्ति ही है प्रवृत्ति नहीं। इतना ही क्यों 'वहिरन्भन्तरकिरिया रोही भव कारणप्पणासठ्ठ । एक स्थान पर तो प्राचार्य महाव्रत और तप आदि को णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तम् ॥ द्रव्य ४६ ॥ (पर-सापेक्ष होने के कारण) भार तक घोषित कर देते बहिरंग और प्राभ्यंतर दोनों प्रकार की क्रियामों का Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६, वर्ष २६, कि० ४ अनेकान्त रोष संसार के कारणों-प्राथद-बंध को नष्ट करने वाला मार्ग से अज्ञही समझना चाहिये। जिन व्रतों को मशुभ है और वह जिनेन्द्र देव ने ज्ञानी को बतलाया है। वही नित्ति और शभ-प्रवत्ति रूप में लिया जाने का चलन पूर्ण भोर सच्चा चारित्र है । एतावता ऐसे चारित्र को सा चल चुका है। वास्तव में उनकी स्थिति ससा-र पारण करना अपना कर्तव्य मान प्राध्यात्मिक दप्टि. प्रदान करने तक ही सीमित है और इसीलिये पाचायों प्रवृत्ति मार्ग में सर्वथा दूर-मौनी रहता है और इसी. ने उन व्रतादिकों को प्राश्रव-अधिकार-रूप सप्तम अध्याय लिए वह सम्यग्दृष्टि और मुनि भी है और इसीलिए में ही प्रदर्शित किया है, संवर और निर्जरा रूप नवम मुनित्व में मुक्ति भी है। वह निर्ग्रन्थ है, परिग्रह और अधिकार मे नही । पंचाध्यायी कार भी व्रतादि को सर्वथा सांसारिक वासनामों से विरक्त है। उसमे जो कुछ भी बन्ध का कारण ही घोषित करते है । वे लिखते हैंपाश्रव-बंध की छटा होती है वह सब प्रवृत्ति रूप की ही 'सर्वतः सिद्धमेवैतद्वत बाह्यं दयाङ्गिषु । है-मुनि अथवा मौन रूप की नही। इससे स्पष्ट है कि व्रतमन्तः कषायाणां त्याग: सैषात्मनि कृपा ।। ७५२ ॥' अध्यात्म में अहिंसा प्रादि, स्वकी अपेक्षा से ही है पर की प्राणियो में दया-अहिंसा भाव करना बाह्य (लौकिकअपेक्षा से नहीं। कहा भी है व्यवहार) व्रत है। वास्तविक ब्रत तो अंतरंग की कषायों 'परमट्टो खलु समयो'-समय सार १५१ ।- (रागद्वेषादि विकल्पों) का त्याग ही है। निश्चय से प्रात्मा ही परमार्थ है । अतः प्रात्मा के ही अर्थाद्रागादयो हिसा चास्त्यधर्मोवतच्युतिः । सन्मुख होना चाहिए। यदि कोई जीव प्रात्मा का लक्ष्य अहिसा तत्परित्यागो ब्रतं धर्मोऽथवा किल ।। ७५४ ॥' तो करे नहीं और पाप निवृत्ति कर पुण्य रूप शुभ कर्म अर्थात् रागादिभाव ही हिसा है, रागादिभाव ही में प्रवृत्त हो, उसे ही कल्याण-परमपद मोक्ष-का हेतु अधर्म है, और रागादिभाव ही ब्रत-च्युति हैं और रागादिमानने लग जाय-जिन वचनों का लोपकर स्वच्छन्द हो भावों का त्याग ही हिंसा है, रागादिभावों का त्याग ही जाय-ती उसके ब्रत-तप आदि बाह्याचार बालतप ही धर्म है, रागादि भावों का त्याग ही व्रत है। कहलायेंगे, क्योंकि 'रूढे शुभोपयोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसज्ञया । 'परमम्हि दु पठिदो जो कुणदि तवं वद च धारेई । स्वार्थ क्रियामकुर्वाणः सार्थनामास्ति दीपवत् ।। ७५६ ।। सव्वं बाल-तवं बाल-वदं विति सव्वण्हू ।।' -समयसार, १५२ यद्यपि रूढ़ि से शभोपयोग भी चारित्रनाम से प्रसिद्ध 'जो जीव परमार्थ-- प्रात्मा मे स्थिर नही रहते और है परन्तु ऐसा चारित्र निवृत्ति रूप न होने के कारण बाह्म में व्रत-तप को धारण करते है, उनकी समस्त निश्चय से चारित्र नहीं है। व्रत-तष रूप क्रियाओं को सर्वज्ञ देव ने बाल-तप "किन्तु बन्धस्य हेतुः स्यादर्थात्तत्प्रत्यनीकवत् । मौर बाल-व्रत कहा है।' अर्थात् ऐसा तप शुभ मे नासौ वरं, वरं यः स नापकारोपकारकृत् ।। ७६०॥ प्रवृत्तिरूप होने से संसार का ही कारण है। यदि कोई रूढ़ि के वश से चारित्र सज्ञा को धारण करने वाला जीव ऐसा माने कि पुण्य की प्राप्ति मे भी मोक्ष हो तो चारित्र, बन्ध का हेतु होने के कारण श्रेष्ठ नहीं है । श्रेष्ठ उसका मानना भ्रम ही है। प्राचार्य कहते है कि तो वह है जो अपकार अथबा उपकार कुछ भी न करे "परमटि वाहिराजे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छन्ति । प्रर्थात श्रेष्ठता परापेक्षीपन मे न होकर स्वाश्रय में ही है संसार गमण हेदू विमोक्ख हेदं अजाणता ॥ पौर शुभ-अशुभ दोनों पर होने से सर्वथा हेय है। -समयसार, १५४ ॥' 'नोह्यं प्रज्ञापराघत्वान्निर्जरा हेतु रंजसा। जो जीव परमार्थ से विमुख है बे अज्ञानी होने के अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभोनाप्य शुभा वहः ॥ ७६२ ॥' कारण पुण्य की इच्छा करते है। वास्तव मे पुण्य तो ससार बुद्धि विभ्रम से ऐसा भी विचार नहीं करना चाहिए गमन-परिम्रमण का ही हेतु है । ऐसे जीवों को मोक्ष- कि ऐसा शुभोपयोग रूप चारित्र एकदेश निर्जरा का Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिसा के रूप १४७ कारण है, क्योकि न तो शुभोपयोग ही प्रबन्ध का हेतु है काल से पनन्तों बार करता रहा । प्रतः निष्कर्ष ऐसा लेना और न प्रशुभोपयोग ही प्रबन्ध हेतु है । चाहिए कि इस जीव को मोक्ष प्राप्ति के लिये परम समाधि प्राचार्य कुन्द कुन्द प्रवचनसार में लिखते है लेने मे सम्यग्दृष्टि का विश्वास होता है। अतः सम्यग्यदृष्टि 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्ध सपनोगजुदो। वस्तुतः शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, परापेक्षीव्रत-अव्रत मादि पावदि णिबाण सुहं सुहोवजुत्तो व सग्गमुहं ।। प्रव०॥' परकृत भावों मे समता भाव रखकर उनके प्रति मौनी है। ___'धर्म (निश्चय और व्यवहार) से परिण त प्रात्मा एतावता सम्यग्दृष्टि को मौनी और मुनि भी कहा जाता है। जब शुद्धोपयोगी होता है तब निर्वाण पद को प्राप्त करता प्रकृति के विभिन्न रूपो की समष्टि ससार है मोर है और जब शभोपयोग युक्त होता है तब स्वर्ग (आदि) इस समष्टि के माधार पर ही यह चर-अचर जगत अपने के सुखों को प्राप्त करता है। इसमे भी निश्चय (अध्यात्म) विभिन्न रूपो मे दृष्टिगोचर हो रहा है। थोड़ी देर के मार्ग मे नित्ति (शुभ से भी) को ही प्रमुखता दी है। लिये हम ऐसी कल्पना करें कि ससार का प्रत्येक पदार्थ प्राचार्य अमृतचन्द्र जी लिखते है हमें अपने-अपने शुद्ध-एकाकी रूप मे दृष्टिगोचर हो यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या रहा है और किसी से किसी का कोई सम्बन्ध नही है तो मंगच्छते तदा स प्रत्यनीक शक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः ऐसी हमारी कल्पना हमे अन्ततोगत्वा ससार से दूर पहंकथंचिद्विरुद्ध कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्त- चाने की साधन ही बनेगी । इसका भाव ऐसा है कि जब पुरुषोदाहदुखमिव स्वर्गसुग्वबन्धमवाप्नोति । अतः शुद्धो. प्रत्येक पदार्थ के शुद्ध रूप की झलक ससार, शरीर और पयोग: उपादेयः शुभापयोगो हेयः ।। भोगों से विरक्त कग मुक्त पद प्राप्त कराती है तो इससे अर्थात धर्मपरिणत स्वभाव वाला यह प्रात्मा जब विपरीत अर्थात् प्रशुद्ध रूप अवस्था की कल्पना हमे ससार शभोपयोग परिणित से परिणत होता है तब विरुद्ध करायेगी। तात्पर्य ऐसा है कि मिलाप का नाम संसार (बाघक) शक्ति के उदय मे कथचिन् विरुद्ध कार्यकारी और पृथक्त्व का नाम मोक्ष है। चारित्र के कारण स्वर्ग सुख के बधन को वैसे ही प्राप्त जब हम ससार मे हे और संसार व्यवहार मे पाये होता है जैसे अग्नि से तप्त धृत से स्नान करने पर पुरुष बिना हम इस संसार मे सुखी नहीं रह सकते, तब यह प्रावउसके दाह से दुखी होता है; अर्थात् इसके सवरनिर्जरा के श्यक है कि हम अपने ससार-व्यवहार को सही बनाने का विरोधी प्राथव पीर बन्ध होते है । अत: ज्ञानी जीवों को प्रयत्न करें । जब हम पर के सुख-दुख, हानि-लाभ, जीवनमात्र शुद्धोपयोग (प्रात्मरूप) उपादेय और शुभ उपयोग मरण का ध्यान नहीं रखते तब हमे भी अधिकार नहीं कि - इसी प्रसंग मे श्री जयसेनाचार्य का अभिमत भी अपने सुखदुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण का ध्यान रखने देखिए की दूसरो से अपेक्षा करें। ___..यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिण- स्वभावतः ही प्राणी मे चार सज्ञाये पाई जाती है। मति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिक सुखविपरीतमा- इन्हें पूर्व जन्म के संस्कार कहो, या जीव का अपना मोहकुलोत्पादक स्वर्गसुखं लभते । पश्चात परमसमाधिसामग्री प्रज्ञान कहो, इनसे सभी समारी प्राणी बद्ध है, चाहे वे सद्भावे मोक्ष च लभते इति सूत्रार्थ. हेय. । मनुष्य हों या तिर्यच । छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा अर्थात् जब शुभ योग रूप सराग चारित्र में परिणमन जीव आहार करता है यहां तक कि दृष्टव्य भौतिक करता है तब अपूर्व और अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक शरीर छोड़ने (मरने) पर, जब यह जीव जन्मातर मे सुख के स्थान पर उससे विपरीत अर्थात् माकुलता को नवीन शरीर को धारण करने जाता है, तब भी इसे उत्पन्न करने वाले स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है। बाद में अधिक से अधिक तीन समय तक निराहारी रहने का परम समाधि सामग्री के सद्भाव मे मोक्ष भी प्राप्त करता अधिकार है, अन्यथा सर्वकाल और सब-स्थितियों मे है । भाव ऐसा है कि इसे शुभ से प्रात्म-लाभ त्रिकाल मे इसका पाहार से छुटकारा नही। शेष तीन सज्ञायें इसी भी नही होना । क्योंकि इस प्रकार के शुभ तो ये अनादि पाहार पर अवलम्बित है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८, वर्ष २९, कि० ४ अनेकान्त लोक में (स्थल रीति से) मुख द्वारा अन्न-पान, उपस्थित करता है-उसके साधनभूत प्राणों का नाश खाद्य-प्रखाद्य का ग्रहण करना 'पाहार' रूढ़ि में प्रचलित करता है तो ऐसा समझना चाहिए कि वह उसके सांसा. हो गया है। परन्तु वास्तव में यदि हम पाहार को परि- रिक रूग को दूखी बनाने का प्रयत्न करता है। ऐसे भाषा करें तो ऐसा कह सकते हैं कि उन सब पदार्थो अनधिकार को प्रयत्न लोक में हिंसा नाम दिया गया है का, जो इस 'स्व'-जीव से 'पर' है, ग्रहण करना पाहार पौर विवक्षा भेद से इसके अनेकों भेद हो जाते हैं। पाहार की व्याख्या के प्रसंग में एक स्थान पर इसी संसारी जीव पाहार पर प्राधित है। यदि पाहार लक्षण को अनुसरण करने वाला उल्लेख मिलता है। वहाँ नही तो उसका संसार भी नही। यह माहार विभिन्न रूपों कहा गया है-'प्रौदारिक, वैक्रियिक, माहारक तीन शरीर का है, अतः इसके ग्रहण करने के साधन भी विभिन्न है तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को पौर वे हैं -- इन्द्रियां (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु पोर पाहार कहते है।' ऊपर गिनाये गये दश प्राण उक्त कर्ण), मनोबल, वचनबन, कायबल, प्रायु और श्वासोच्छ- माहार-प्रहण में कारण है । अतः उक्त दश प्राणों का हरण वास । इस प्रकार ये दश प्राण कहलाते है । क्योंकि जीव करना लोक में हिंसा कहलाता है । जैन धर्म ने इस प्रकार को संसार-धारण में कारण ये ही है । इनके द्वारा जीव की हिंसा के त्याग का उपदेश दिया है। अपने योग्य पाहार (वर्गणाओं) का ग्रहण करता है और यद्यपि साधारणतया भारतीय-सस्कृति और प्राचार जीता है। अतः जीवन के कारण-भूत पाहार ग्रहण कराने मे सर्वत्र ही हिसा को स्पर्श किया गया गया है तथापि वाले इन साधनों से किसी जीवधारी को वंचित करना इसमे अवगाहन करने वाले अनेकों ऋषि, महर्षि अहिंसा के हिसा कहलाता है, क्योंकि आहार संसारी जीव की स्थूल प्रश को भी स्पर्श नही कर पाये है। यदा-कदा तो स्वाभाविकी प्रवृत्ति है। इसके बिना वह जीवित नहीं रह उनकी दृष्टि, स्वार्थपरक होने के कारण, हिसा मे ही अहिंसा सकता। की मान्यता करने को वाध्य हो, विपरीत मार्ग का अनु___ जीव के द्वारा अनुभव किये जाने वाले ऐसे ससारी सरण कर गई है। याज्ञिकी हिमा हिंसा न भवति' जैसे सुख-दुख भी जिनका संबंध स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, सिद्धान्तों की उपज निजी स्वार्थ --स्वर्ग-सुख की कामना चिन्तन, प्रायु और श्वास से है, एक प्रकार के आहार नहीं, तो और क्या है ? यह सत्य है कि प्राणी स्वार्थ ही हैं, क्योकि ये जीव की स्वाभाविक शुद्ध चैतन्य रूप में लीन होकर दूसरो के सुख-दुख का ध्यान नहीं रखता, परिणति से भिन्न है और जीव इनका पाहार- हरण, अथवा अपने स्वार्थों के सन्मुख होने पर वास्तविकता से इन्द्रिय, मन, श्वासोच्छवास आदि के द्वारा करता है, अपनी दष्टि हटा लेता है; अन्यथा 'अहिमा भूतानां जगति और पर को ग्रहण करना ही पाहार है। कहा भी है - ग्रिदितं ब्रह्मपरम' जैसे विशद और निर्मल तथ्य मानने से पा-समन्तात् हरणं, आहारः। अर्थात् संसार मे अनेको कौन इन्कार कर सकता है ? प्रकार की वर्गणाएं भरी हुई है। प्राकाश मे कोई एक पाहार के भेदों के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता हैप्रदेश भी ऐसा नही, जो इन वर्गणामों से शून्य हो। जब 'णोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। यह जीव विभिन्न प्रकार की इन वर्गणाओं मे से प्रोज मणो वि य कमसो माहारो छविहो यो।" अपने संसारानुकल किन्ही स्व-विजातीय वर्गणामो को -नोकर्म पाहार, कर्म पाहार, कवलाहार, लेपाहार, ग्रहण करता है तब कहने में आता है कि जीव ने पाहार प्रोजाहार और मनसाहार । ग्रहण किया । ऐसे जीव के प्राहार में बाधा देने की क्रिया १. नोकर्म आहार-नो कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करना। हिंसा है, क्योंकि पाहार की कमी मे उसका वर्तमान २. कर्माहार-कर्म वर्गणामो को ग्रहण करना। सामान्य संसारी जीवन सन्देह मे पड़ जाता है । ३. कवलाहार-मुख द्वारा पुद्गल वर्गणामों को ग्रहण यदि कोई जीव किसी अन्य जीव के आहार में बाधा करना। (क्रमशः) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरनार को ऐतिहासिकता 0 श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली गिरनार जी जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है । यहा महाराज जयसिंह सिद्धराज के जो सं० ११९० में से २३वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ ने निर्वाण प्राप्त किया राज्यासीन हुए थे 'दण्डनायक खंगार साजन ने यहा था। कुछ और ऋषि मनियों ने यहां घोर तपस्या कर के नेमि प्रभु के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था तथा सम्राट मुक्ति प्राप्त की, अतः यह सिद्धक्षेत्र भी कहलाता है। कुमारपाल के, जिसने सं० १२०६ मे अजयमेरु पर आक्रमण गिरनार जी भारत के पश्चिम मे काठियावाड़ प्रान्त में किया था और सं० १२२६ मे जो स्वर्गवासी हए थे दण्डस्थित है जो पहले सोरठ प्रदेश कहलाता था । इतिहास नायक की माता ने स० १२४२ में इस क्षेत्र की सीढ़ियों में गिरनार रैवतक पर्वत, उर्जयन्त गिरि, रेवन्तगिरि का निर्माण कराया था और वास्तुपाल ने प्रादि प्रभ प्रादि नामों से विख्यात है। ऋषभ देव का मंदिर भी बनवाया था। यो तो प्राकृतिक सम्पदा के रूप में गिरनार को कहते है कि इन्ही दिनों काश्मीर से अजित और प्राचीनता हजारो-लाखों वर्ष पुरानी है, पर नेमि प्रभु के रत्न नामक दो सधाधिपति नेमि प्रभु को बंदनाहेतु गिरनार निर्वाण के कारण इसकी ऐतिहासिकता लगभग तीस पधारे थे। उन्होंने जब मूर्ति का अभिषेक किया तो वह हजार वर्ष प्राचीन तो सुनिश्चित ही है। तुरन्त ही गल गई। इससे दोनों व्यक्ति प्रान्तरिक वेदना नेमि प्रभु अब केवल पौराणिक कथा नायक ही नहीं एवं प्रात्मग्लानि से पीड़ित हो उठे और उन्होंने प्रायरह गए हैं अपितु प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों और शोधों श्चितस्वरूप अन्त जल का परित्याग कर आमरण अनशन के प्राधार पर वे भी भ. महावीर और बुद्ध की भांति व्रत धारण कर लिया। उनकी इस घनघोर तपस्या के एक सुनिश्चित एवं प्रामाणिक इतिहास पुरुष सिद्ध हो जब २१ दिन बीत गए तो अम्बिका देवी ने उन्हे दर्शन गए है । अत: नेमि प्रभु के साथ गिरनार क्षेत्र की ऐति- दिए और उनसे नेमि प्रभु की मणिमय प्रतिमा ग्रहण करने हासिकता एवं प्रामाणिकता सुस्पष्ट और सुनिश्चित है। का अनुरोध किया। दोनो सघाधिपतियो ने प्रसन्नता ___ हाल ही में नागेन्द्र गच्छीय विजयसेन सूरि (सम्वत् पूर्वक देवी प्रदत्त प्रतिमा स्वीकार की और उसे यथा१२८७) कृत रेवन्तगिरि रास नामक रचना देखने को स्थान प्रतिष्ठित कर स्वदेश लौट गए । मिली। इस रचना से गिरनार जी पर सीढ़ियों उपर्युक्त घटना से प्राश्चर्य होता है कि प्रब से हजार का निर्माण, मंदिरों की रचना तथा उनके वर्ष पूर्व जबकि यातायात के साधनों का सर्वथा अभाव था, जीर्णोद्धार सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों का लोग काश्मीर जैसे दूर-दराज प्रदेश से भी गिरनारजी की उद्घाटन होता है। यात्रा करने पाया करते थे। इतना अधिक आकर्षण था गिर. चालुक्य राज महाराज जयसिंह सिद्धराज तथा उनके नार जी के प्रति । गिरनार (रैवतक) के प्राकृतिक सौन्दर्य उत्तराधिकारी सम्राट् कुमारपाल के समय में गिरनारजी का वर्णन संस्कृत के विख्यात कवि माघ ने अपने 'शिशुपाल के विकास में बड़े-बड़े का यहुए थे। पोरवाड़-बंशी प्रासा- वध' नामक काव्य में भी बड़ी रोचकतापूर्वक किया है। राज के पुत्र वास्तुपाल तेजपाल ने यहां पर्वत की तलहटी। इस तरह गिरनार प्राकृतिक दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है में तेजलपुर नगर बसाया था। ये वही वास्तुपाल तेजपाल उतना ही धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक पूजनीय एवं प्रादरप्रतीत होते है जिन्होने दैलवारा (पाबू) का प्रादिनाथ णीय है और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में यह अत्यधिक जिनमंदिर बनवाया था जो अपनी कलात्मक विभूति के अभिनन्दन एवं गौरव का केन्द्र है। लिए जगत्प्रसिद्ध है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त देवंतगिरि रास इस प्रकार हैं: रेवंतगिरि रास नागेन्द्र गच्छीय विजयसेन सूरिकृत (सं० १२८७) प्रथम कड़वम् वासंती वोरिणि विरह वंसियालि वण वंग ॥ १७ ॥ परमेसर तित्थे सरह पय पंकय पणमेवि । सीसमि सिवलि सिरस सभि सिंध वारि सिरखंड। भणि सुरासु रेवत गिरे अंबिक दिवि सुमरेवि ॥६॥ सरल सार साहार सय सागुसिगु (?) सिणवड ॥ १८ ॥ गामागर पुरवण गहण सरि सरवरि सुपएसु।। पल्लव फुल्ल फलुल्लसिय रेहइ ताहि (?) वणराइ। देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठ देसु ॥ २॥ हिउज्जिल तलि धम्मियह उलटु अंग न माइ॥ १६ ॥ जिणु (जणु) तहि मंडल मंडणउ मरगय मउड महंतु । बोलाबी संघहतणीय कालमेघन्तर पंथि (?)। निम्मल सामल सिहर भरे रेहइ गिरि रेवंतु ॥३ मेल्हविय (?) तहि दिधणीय वस्तुपाल वरमंति ॥ २०॥ तसुसिरि सामिउ सामलउ सोहग सुन्दर साह । द्वितीयम् कडवम् जाइय निम्मल कुल तिलउ निवसइ नेमि कुमार ॥४॥ दुहविहि गुज्जर देसे रिउराय विहंडणु ॥ तसु मुह वसण दए दिसि विदेस देसंतह संघ ॥५॥ कुमारपाल भूपाल जिण सासण मंडणु । मावह अब रसाल भण, उट्टलि (?) रंग तरग । तेण मंठाविमोसुरठ दंडाहियो अंब प्रोसिरे सिरिमाल पोरपाड कुल मडणउ नंदणु आसाराय । कुल संभवो। वस्तुपाल वरमंति तहि तेजपाल दुइ भाय ॥ ६ ॥ पाज सुविसाल तिणि नठिय अंतरे धवल पुणुपरव मराविय ॥ गुरजरधर धुरि धवलकि वीरधवलदेव राजि । धनु सुषवलह भीड जिणि पाग पयासिय । विहु वंधवि अवयारिऊ सुरायु दूसम माझि ॥ ७॥ वार विसोतर बरसे जसु जसिदिसि वासिय ।। नायल गच्छह मडणउ विजय सेण सूरिराऊ । जिम जिम चढ़इ तडि कडणि गिरनारह । उवएसिहि विहुनर पवरे धम्मि धरिउ विटु भावु ॥ ॥ तिम तिम ऊडइ जण भवण सतारह ।। तेजपाल गिरनार तले तेजलपुरु नियनाभि । जिम जिम से उजलु अग्गि पालाट एं। कारिउ गढ़ गढपव पवरु मणहरु धरि पारामि । तिम तिम कलिमलु सयल प्रोट्टह ए। तहि पुरि सोहिउ पास जिणु प्रासाराय विहारु ।। ६॥ जिम जिम वायह वाऊं तहि निझर सीयलु । निम्मिउ नामिहि निज जणणि कुमर सरोवर कार ।। १०॥ तिम तिम भव दुह दाहो तरकणि तुट्टइ निच्चलु ।। तहि नयरह पूरब दिसिहि उग्रसेण गढ़ दुग्ग। कोइल कलयलो मोर केकाखो सुमए महयरु महरु गुंजाखो। मादि जिणंसर पमुह जिण मदिरि भरिउ समग्गु ॥११॥ पाजचंडतह सावयालोयणी लाखाराम (?) दिसि दोसए वाहिरिगढ़ दाहिण दिसिहि चउरिउ वेहि विसालु । वाहिणी। लाडकलह (?) हिय पोरडिय तडि पसुठाइ (?) करालु। जलव जाल बंबाले नीझरणिरमाउलु । तहि नयरह उत्तर विसिहि साल थंभ संभार ॥ १२॥ रेहइ उज्जिल सिहरु अलि कज्जल सामल ।। मंडण माहि मंडल सयल मंडप बसह उसार ॥ १३॥ बहल बुद्धधातु रस भेडणी जत्थ उल दलह सोवन्नमह मेडणी जोइउ जोइउ भविय यण, पेमि गिरिहि दुयारि। जत्थ दिप्पंति दिवोसही सुंदरा गहिरवर गरुय गंभीर दामोदर हरि पचमउ सुवन्नरेह नई पारि ॥ १४ ॥ गिरि कंवरा॥ प्रगुण अंजण विलीय प्रवाउय अंकुल्लु । जाइ कु, विहसन्तो जं कुसुमिहि संकुल । उंबरु अंबरु प्रामलीय प्रगरु प्रसोय अहल्ल । १५॥ दोसई बसदिसि दिवसो किरि तारा मंडल ।। करवर करपट करुणतर करवंदी करवीर। मिलिय नवलवलि दल कुसुम झलहालिया । कुडा कडाह कयंब कड करव कदल कंपोर ॥ १६ ॥ ललिय सुरमहिवलय चलण कल तालिया। वयल वंजलु बडल बड़ो वेडस वरण विडंग। गलिय थल कमल मयरंद जल कोला । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरनार की ऐतिहासिकता विडल सिलबह सोहंति तहि संमला। संघाहिव संघेण सहिय निय मणि संतविउ । मणहर घणवण गहणे रसिरहसिय किनरा। हा हा घिगु धिगु मह विमल कुल गंजण गाविउ । गेड महरू गायतो सिरि नेमि जिणेसरा ॥५॥ साभिय सामल धीर चरण मह सरणि भवंतरि । जत्य सिरि नेमि जिणु प्रच्छय प्रच्छरा। इभ परिहरि प्राहार नियम लइउ संघ धुरंपरि । असुर सुर उरग किंनरयं विज्जाहरा ।। एक बीसि उपवासि तास अंबिक विवि प्राविय । मउडमणि किरण पिंजरिय गिरि सेहरा। पभणइ सपसन्न देवि जय जय सद्दाविय । हरसि बहु प्रावंति बहुभलि भर निन्भरा । उह विणु सिरि नेमि विवतुलिउ तुरंतउ । सामिय नेमि कुमार पय पंकय लंबिउ । पच्छल मन जोएसि वच्छतुं भवणि वलतउ। घरधलिविजिण बन्न मन पूरइ वंछिउ ॥६॥ णइवि अंबिक देवि कंचण बलाणउ । जोभव कोडा कोड्डि अनु सौवन्नु घणुदाणु जडदिज्जए । सिरिनेमि बिबु मणिम उतहि प्राणई । सेवउ जड़कम्मघण गंठि जड तिजए । पठम भवणि देह लिहि देउ छडि पुंडि पारोबिउ । तउ उज्जित सिहरु पाविज्जए । संघा विहि हरिसेण तम दिसि पच्छल जोइउ । जम्मणु जोव जाबिय तसि तहि कवत्थू । ठिउ निश्चल बेहलिहि देव सिरि नेम कुमारो। जेनर उज्जित सिहरु पेक्खइ वर तिथ्य ।। कुसम बुद्धि मिल्हेवि देवि किउ जइ जइ कारो। प्रासि गुरजर घरय जेण अमरेसरु । वासाहि पुंनिमह नवतिण जिणु थप्पिउ । सिरि जयसिंध देउ पवर पुहवी सरु । पच्छिम दिसि निम्मविउ भवण भव दुह तरु कपिउ । हणकि सोरठु तिणि राड खंगारउ विउ साजण उबंडाहि न्हवण विलवण तणीयवंछ भवियण जणपरिय । व सारइ। संघाहिवि सिरि अजितु रतन निय देसि पराइय । अहिणवु नेमि जिणिव तिण भवण कराविउ । सयल विपति कलि कालि काल कलमे जाणविछाहिउ । निम्मल चंदरु बिबे निय नाऊं लिहाविउ॥ ८ ॥ भलहलति मणि विब कलि अबि कुरु प्राय । थोर विरकंभ वायभरमाउलं ललिय पुभालिय समद्दविजय सिवदेवि पुत्र जायव कुल माउणु जरासिंघ दल । कलसनुमकुल। मलण मयण भंड माण विहाणु । मंडपु वंड धकु तुंगतर तोरणं । राह मइ भण हरणु रमणु सिव रमणि मण्मेहरु । धवलिय वज्झि रुण झणिरि किकणि घणं । पुन्नवंतपण मंति नेमि जिणु सोहग सुंदरु । इक्कारसम सहीउ पंचासीय वच्छरि । नेमि मुयणु उद्धरिउ साजणि नर सेहरि ॥ ६ ।। वस्तुपाल वरमति भूयणु कारिउ रिस हे सरु । अट्ठावय संमेय सिहर वर मंडपु मणहरु । मालव मंडले गुहगुह मंडणु भावउ साहु दालिघु खंडणु। कउडि जक्खु (रकु) मरदेवि दुह वितुंगु पासाइउ । मामलसार सोवन्नु तिणि कारिउ । धम्मिय सिरु धुणंति देव बालवि पलोइउ । किरि गमणगण सूरु अवयारिउ । तेजपालि निम्मविउ तत्थ तिहवण जणु रजणु । अवर सिहर वरणकलस झलहलह मनोहर । कल्याणउ तउतुंग भयण लघिउ गयणंगयु । नेमि मयण तिगि विदुइ दुह गलइ निरंतर ॥ १० ॥ दोसइ दिसि दिसि कुंडि डि नोझरण उमालो। तृतीय कडवम् इन्द्र मंडप देपालि मत्रि उद्धरिउ विसालो। दिसि उत्तर कसमीर देसु नेमिहि उझिहिय । मह राव ग गय राय पाय मुद्दा समट किउ । अजिउ रतन दुइ बंधु गरुय संघाहिब प्राविय । बिछ गयंद मुकुंड विमल निझर समलंकिउ । हरसवसिण घण कलस भरिवि तिहन्हवणु करंतह । गउण गग जयसल तित्थ अवमार, भणिज्जइ । गलिउ लेवम नेमि बिबु जलधार पडतह । पक्खा लिवि तहि अंग डुक्ख जल अजलि दिज्जइ। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२, वर्ष २६, कि० ४ अनेकान्त सिंदुवार मंदार कुरवा कंदिहि सुंदरु । पवले षय चमर सिंगार प्रारत्ति मंगल पईव । जाइजह सयवन्नि विन्नि पुलेहि निरंतर । तिलव मऊ कुंडलहार मेघाउंबर जाविये ए॥१०॥ विट्ठय छत्र सिल कड गि अबवणि सह सारामु । विहिं नर जो पवर चन्द्रीय नेमि जिणेसरियर भयभि। नेमि जिणेसर विक्ख नाण निब्वाण हठायु । इह भविए भुजवि भोय सो तित्थे सर सिरि लहइए ॥११" चतुर्थ कडवम् चहु विहए संघु करेइ जो प्रावह उज्जित गिरि । गिरि! गह पा(ए) सिहरि चडेवि अब जवाहि बबालिउए। विविसवह रागुकरे सो मंचइ चउगहे गयणि ।। १२ ।। संमिणि णिए अवि देवि देउल कडु रम्माउलए ॥१॥ प्रहबिहएज्जय करति प्रहाई जो तहि करइ ए । वज्जद एताल कंसाल वज्जइ मदल गुहिर सर । भट्ट विहए करम हणंति सो प्रभाव सिज्झाइ॥१३ ।। रंगिहि नच्चइ बाल पेरिववि अंबिक मुहकमल ।।२।। अंबिल एजो उपवास एगासण नीवी करई ए। सुमकरु एक ठविउ उछगि विमकरो नंदण पासिकए। तसुमणिए प्रच्छह मास इह भव परभव विहव परे ॥ १४ ।। सोहइ एऊजिलि सिगि सामिणिसीह सिषासणीए ॥ ३ ॥ पेमिहि मुनि प्रत्रहदाणु धम्मियबच्छलुकरई ए। दावह ए दुक्खहं मगु पुरहए वंछिउ भविय जण । तसु कही नहीं उपमाणु परभाति सरण तिणउ ।। १५ ।। रक्खइए उविहु संघ सामिणि सीह सिषासणीए॥४॥ प्रावद ए जेन उज्जितिघर घरह धंधोलियाए। दस विसि ए नेमि कुमारि प्रारोही अवलोइ पडंए। प्राविहीए हीयइ न संतिनिफ्फल जीविउसासतणऊ॥१६॥ बीजइ एतहि गिरिनारि गयणांगणु अवलोण सिहरो ॥५॥ जीविउ ए सोजि परघन्नु तासु समच्छर निच्छणु ए। पहिलइ ए सांव कुमार वीजा सिहरि पज्जून पुण। सोपरिए मासु परिधन्नु वलिहीजइ नहि वासर ए॥१७॥ पणभई ए पामहं पार भवियण भोसणभव भमण ॥६॥ ज(जि) ही जिणुए उज्जिलठामि सोहग सुंदर सामलु ए। ठामिहि ए ठामि रयण सोवन्न बिबजिणेसुरतहि ठविय। दोसइ ए तिहुवण सामिनयण सलणऊं नेमिजिण ॥ १८ ॥ पणभइ ए ते नर धन्न जेन कलिकालि मल भयलियए ॥७॥ नोझरण ए चमर ढुलंति मेघाडंबर सिरी धरोई। जं फखु ए सिहर सभेय अढावय नंदो सरिहि । तित्यह ए सउ रेवदो सिंहासणि जयइ नेमि जिण ॥ १६ । तं फलु ए भवि पामेइं पोवेविण रेवंत सिहरो ॥८॥ रंगिहि ए रमइ जो रासु (सिरिविजयसेण सूरि निमविजए।' गहगण एमाहि जिम भाणु पन्वय माहि जिम मेरुगिरि। नेमिजिणुतूसह तासु प्रबिक पूरह मणिरलीए ।। २० ॥ त्रिभवणे तेय पहाण तित्थं माहि रेवंतगिरि ।। ६ ।। || समत्तरेवतगिरि रासु॥ (पृ० १५३ का शेषाश) पाठ के मूलभूत अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म के विशेष 'स्वस्तिक' नाम में मिलता है, क्योकि यह पहले ही कहा गुण पढ़ने पड़ते है । यथा जा चका है कि 'स्वस्ति एवं स्वस्तिकम्' में ऊपर के 'स्वस्ति' त्रिनोकगुरुवे जिनपुंगवाय, वर्णन में हमें देव (अरहंत-सिद्ध) और धर्म (बोध) की स्वस्ति स्वभावमहिमोदयसुस्थिताय । स्पष्ट झलक मिल रही है और इनको मंगल कहा गया स्वस्ति प्रकाशसहजीजितदृङ्मयाय, है; तथा 'स्वस्ति' और स्वस्तिक दोनों का अर्थ मंगल है। स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भूतवैभवाय ।। प्रागे चलकर इसी पूजा प्रसंग मे हम साधुओं की 'स्वस्तिस्वस्त्युछलविमलबोधसुधाप्लवाय, रूपता' उनकी ऋद्धियों के वर्णन में पढ़ते है। अरहंत रूप स्वस्ति स्वभावपरभावविभासकाय । में तीर्थकरों की 'स्वस्ति'-रूपता पढ़ने को मिलती है। स्वस्ति त्रिलोकविततकचिदूद्गमाय, प्ररहंत और साधुओ के लिए निम्न 'स्वस्ति' विधान हैस्वस्ति त्रिकालसकलायतविस्तृताय ॥' परहंत स्वस्तिइत्यादि। श्री वृषभो न: स्वस्ति, स्वति श्री अजितः । उक्त प्रसंग में हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इन श्री संभवः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनंदनः ॥ सभी श्लोकों में ग्रहीत पद 'स्वस्ति' ही है, जो हमें इत्यादि । - क्रमशः Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्तिक रहस्य 0 श्री पद्मचन्द शास्त्री, एम. ए. प्रास्तिक भारतीयो में, चाहे वे वैदिक मतावलम्बी पढ़ता है । मन्त्र इस प्रकार हैहों या मनातन जैन मतावलम्बी, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र 'णमो अहंताण णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाणं । सभी की मांगलिक क्रियाओं में (जैसे विवाह आदि षोडश णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्व साहूण ॥' संस्कार, चूल्हा-चक्की स्थापना, दुकानदारों के खाता-बही, परहन्तो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, प्राचार्यों तराजू-बांट के महूर्त में) तीन परिपाटियां मुख्य रूप से को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार और लोक में सर्व देखने को मिलती है। कुछ लोग 'ॐ' लिखकर कार्य प्रारम्भ सायो। __साधुग्रो (श्रवण जैन) मुनियों को नमस्कार । करते है और कुछ स्वास्तिक अंकित कर कार्य का श्री ॐ में परमेष्ठी गणेश करते है। इसके सिवाय कुछ लोग ऐसे भी है, जो ___ यदि उक्त मन्त्र को सर्वगुण सम्पन्न रखते हुए, एकादोनों को प्रयोग में लाते है । वे 'ॐ' भी लिखते है और स्वस्तिक भी अकित करते है। ग्रामीण अनपढ़ स्त्रियां भी क्षर मे उच्चारण करना हो तो 'ॐ' मात्र कह देने से निर्वाह हो जाता है, क्योंकि 'ॐ' को शास्त्रों में बीजाक्षर इन विधियो को सादर अपनाती है । जैनियों के प्रागमो में 'ॐ' और 'स्वस्तिक' को प्रमुख स्थान दिया गया है। माना गया है। जिस प्रकार छोटे से बीज मे वृक्षरूप वेदों मे भी ऊँकार को 'प्रणव' माना गया है, और प्रत्येक होने की सामर्थ्य है, उसी प्रकार 'ॐ' मे पूरे णमोकार वेद मन्त्र का उच्चारण ॐकार से प्रारम्भ होता है। मन्त्र की सामर्थ्य है, क्योंकि ॐ' में पांचो परमेष्ठी गभित 'स्वस्ति' शब्द भी वेदों मे अनेक बार पाता है जैसे'स्वस्ति न इन्द्रः' इत्यादि । जब एक ओर भारत में इनका ___ 'अरहंता असरीरा पाइरिया तह उवज्झाया मुणिणो पढ़मक्खर णिप्पण्णो ऊँकारो पंचपरमेष्ठी ॥" इतना प्रचार है, तब दूसरी ओर जर्मन देश भी 'स्वस्तिक' पर से वंचित नही है। वहा स्वस्तिक चिह्न को राजकीय अरहन्त, अशरीर (सिद्ध), प्राचार्य, उपाध्याय और मनि, इन पांचों परमेष्ठियों के प्रथम प्रक्षर से सम्पन्न सन्मान मिला हुआ है। गहराई से खोज की जाय तो। अंग्रेजो के क्रास चिह्न मे भी 'स्वस्तिक' की मूलक झलक 'ॐ' है, और यह 'ॐ' परमेष्ठी वाचक है । तथाहिमिल सकती है। सम्भावना हो सकती है कि ईसा की अरहन्त, का म, शरीर (सिद्ध) का प्र, प्राचार्य फाँसी के बाद चिह्न का नामान्तर या भावान्तर कर दिया का प्रा, उपाध्याय का उ और मुनि का म् । गया हो। प्र+प्रपा (मकः सवर्ण दीर्घः) + ____' के सम्बन्ध में विविध मतावलम्बी विविध प्रा+प्रा .) --- विविध विचार प्रस्तुत करते है और विचार प्रसिद्ध भी है पा+उ-प्रो (ग्राद्गुणः) यथा '3' परमात्मा वाचक है, 'मंगल स्वरूप है' इत्यादि । प्रो+म्प्रोम् अनुस्वारयुक्त रूप=ॐ जैनियों की दृष्टि से 'ॐ' पंचपरमेष्ठी वाचक एक लघु पंच परमेष्ठियों के आद्यक्षरों से निष्पन्न 'ॐ' की संकेत है। इसे पंचपरमेष्ठी का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। महिमा इस प्रकार निर्दिष्ट हैवह इस प्रकार जिन शासन मे णमोकार मन्त्र की अपार ऊँकारं बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिन : । महिमा है। प्रत्येक जैन, चाहे वह किसी पन्थ का हो, कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम : ।। हिमालय से कन्याकुमारी तक इस मन्त्र को एक स्वर से बिन्दु सहित ऊंकार का योगीजन नित्य ध्यान करते Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४, वर्ष २६, कि० ४ प्रनेकांत हैं । यह ॐकार इच्छित पदार्थ दाता और मोक्ष प्रदाता है। मे बना है, यथा-- मु+अस्ति-स्वस्ति । इसमें 'इकोयउस ऊँकार को नमस्कार हो। ___णचि' सूत्र से इकार के स्थान में वकार हुआ है। उपनिषद्कार के शब्दो में- ॐकारे परमात्मप्रतीके बहुत से लोग 'अस्ति' को त्रियापद मानकर उसका दढ़ामकाम्यूलक्षणां मति सन्तनुयात छांदोग्योपनिपद् थांकर है' या 'हो' अर्थ करते हैं, जो उचित नहीं है, क्योंकि यहां भाष्य ।' ११, १ । इसे 'प्रणव' नाम से भी सम्बोधित 'अस्ति' पद क्रियारूप में नही है, अपितु तिनत प्रतिरूपक किया जाता है, क्योकि यह कभी भी जीर्ण नहीं होता। अव्यय' है। जैसे कि 'अस्तिक्षीरा' में तिनत प्रतिरूपक इसमें प्रतिक्षण नवीनता का संचार होता है और यह अध्यय' है। वैसे 'स्वस्ति' में भी 'अस्ति' को अव्यय प्राणों को पवित्र और संतुष्ट करता है। 'प्राणान् सर्वान् माना गया है, और 'स्वस्ति' प्रव्यय पद का अर्थ परमात्म निप्रणामयतीत्येतस्मात् प्रणवः ।' कल्याण, मगल, शुभ प्रादि के रूप में किया गया है। __ ऊपर कहे गये णमोकार मन्त्र की मंगल-रूपता मन्त्र प्रकृत में उच्चरित 'स्वस्तिक' शब्द भी इसी 'स्वस्ति' के साथ पढ़े जाने वाले माहात्म्य से निविवाद सिद्ध होती का वाचक है । जब 'स्वस्ति' प्रत्यय से स्वार्थ मे 'क' प्रत्यय है। प्रागमों मे प्रत्य अनेको मन्त्रों की मगलरूपता प्राप्त हो जाता है, तब यही 'स्वस्ति' प्रकृत में 'स्वस्तिक' नाम है, पर मुख्यत: दो ही प्रसग ऐसे पाते है, जिनमें मंगल पा जाता है । परन्तु अर्थ में कोई भेद नहीं होता। 'स्वस्ति शब्द का स्पष्टतः उल्लेख है-'णमोकार मन्त्र' और एवं स्वस्तिक' की इस व्युत्पत्ति के अनुसार, जो 'स्वस्ति' है 'मंगलोत्तमशरणपाठ ।' णमोकार मन्त्र के सबन्ध मे कहा वही 'स्वस्तिक' है और जो 'स्वस्तिक' है वही 'स्वस्ति' है। गया है उक्त प्रसंग से ऐसा फलित हुअा कि सभी 'स्वस्ति' 'स्वस्तिक' है और सभी 'स्वस्तिक' 'स्वस्ति' है, अर्थात् 'एमो पंच णमोयारो सम्बपावप्पणासणो । 'स्वस्ति' और 'स्वस्तिक' मे कोई भेद नहीं है। यतःमंगलाण च सव्वेसि पढ़म हवइ मंगल ॥' 'स्वन्ति एवं स्वस्ति। यह पच नमस्कार सर्व पापो को नाश करने वाला पौर सर्व मगलो में प्रथम मगल है। प्राकृत भाषा में 'स्वस्ति' या 'स्वस्तिक' के विभिन्न रूप मिलते है । जिन रूपो का प्रयोग मंगल, क्षेम, कल्याण उक्त विवरण के प्रकाश मे, मंगल कार्यों में 'ॐ' का जैसे प्रशस्त अर्थो मे किया गया है, उनमे कुछ इस प्रकार प्रयोग किया जाना स्पष्टत. परिलक्षित होता है, जो उचित हो है । पर 'स्वस्तिक' के सबन्ध में अभी तक निर्णय नही हो पाया है। कोई इसे चतुर्गति भ्रमण और (१) सत्थि (स्वस्ति) 'सस्थि करेई कविलो' । मुक्ति का प्रतीक मानता चला पा रहा है तो कोई ब्राह्मी --पउमचरिउ, ३५१६२. लिपि के 'ऋ' वर्ण के समाकार मानकर इसे ऋषभदेव का (२) सत्थि (स्वस्ति क्षेम, कल्याण, मंगल, पुण्य प्रतीक सिद्ध करने के प्रयन्न मे है। मत ऐसा भी है कि __ आदि), है ० २।४५, स० २१ । यह 'सस्थापक' के भाव मे है। तात्पर्य यह कि अभी कोई Hom नई (३) सत्थिा (स्वस्तिक) प्रश्न व्याकरण, पृ०६८, निष्कर्ष नही मिल रहा है। अत उसकी वास्तविकता पर सुपासनाह चरिम ५२, श्रा. प्र. सू २७ । विचार करना श्रेयस्कर है। (४) सत्यिक, ग (स्वस्तिक) पाइय सद्द महण्णव स्वस्ति, स्वस्तिक या सांथिया कोष, पंचासक प्रकरण ४।२३ । 'स्वस्तिक' सस्कृत भाषा का अव्ययपद है । पाणिनीय (५) सोत्यय (स्वस्तिक) पाइय सह महण्णव कोष, व्याकरण के अनुसार, इसे वैयाकरण कौमुदी मे ५४ वे पचासक प्रकरण । क्रम पर अपव्यय पदों में गिनाया गया है । यह 'स्वस्तिक' (६) सोवत्थिम (स्वस्तिक) उववाई सूत्र, ज्ञातृ पद 'सु' उपसर्ग तथा 'मस्ति' अव्यय (क्रम ६१) के सयोग धर्मकथा, पृष्ठ ५४ । . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ उक्त सभी शब्द-रूपों में मंगल भाव ध्वनित है। कामना में साधु-साध्वियों से प्रार्थना करता है कि महा. प्रतः यह निश्चय सहज ही हो जाता है कि 'स्वस्ति' और राज ! 'मंगली' सुना दीजिए, तो वे सहर्ष 'चत्तारिपाठ' 'स्वस्तिक' का प्रयोग भी 'ॐ' की भांति मगल निमित्त द्वारा उसे पाशीर्वाद देते है । इस मंगल पाठ का भाषान्तर होना चाहिए। (हिन्दी रूप) भी बहुत बहुलता से प्रचारित है, यथाअब प्रश्न यह होता है कि जैसे 'ॐ' को पंच परमेष्ठी 'अरिहत जय जय, सिद्ध प्रभु जय जय । का प्रतिनिधित्व प्राप्त है, वैसे स्वस्तिक को किसका प्रति- साधु जीवन जय जय, जिन धर्म जय जय ।। निधित्व प्राप्त है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि:- अरिहंत मंगलं, सिद्ध प्रभु मगल । जब यह निश्चय हो चुका कि 'स्वस्तिक' निर्माण में साधु जीवन मंगलं, जिन धर्म मगल । मंगल कामना निहित है, तो यह भी आवश्यक है कि भरिहत उत्तमा, सिद्ध प्रभु उत्तमा । इसमें भी 'ॐ' की भांति कोई मगल निहित होना चाहिए। साधु जीवन उत्तमा, जिन धर्म उत्तमा । इसकी खोज के लिए जब हम णमोकार मन्त्र से आगे अरिहंत शरणा, सिद्ध प्रभु शरणा। चलते है, तब हमे उसी पाठ परम्परागत चतुःशरण पाठ ___ साधु जीवन शरणा, जिन धर्म शरणा ।। मिलता है और इम पाठ को स्पष्ट रूप से मंगल घोषित ये ही चार शरणा, दुख दूर हरना । किया गया है, यथा --'चत्तारिमगल' इत्यादि। इस पाठ शिव सुख करना, भवि जीव तरणा ।' को आज सभी जैन आबालवृद्ध पढ़ते है । पूरा पाठ इस ___ इस सर्व प्रसंग का तात्पर्य ऐसा निकला कि उक्त भांति है मूल-पाठ जो प्राकृत में है और 'चतुः मंगल' रूप मे है, __'चत्तारि मंगलं'। अरहन्ता मगलं । सिद्धा मंगलं, वह मंगल, कल्याण, शान्ति और सुख के लिए पढ़ा जाता साहू मगल, केवलि पण्णत्तो धम्मो मगलं । है तथा 'स्वस्ति या स्वस्तिक' (मगल कामना) से सम्बचत्तारि लोगुत्तमा । अरहन्ता लोगुत्तमा । सिद्धा धित है। लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलि पण तो धम्मो दिगम्बर माम्नाय' में पूजा को श्रावक के दैनिक षटलोगुत्तमा । कर्मों में प्रथम गिनाया गया है। वहा प्रथम ही देवशास्त्रचत्तारिसरण पवज्जामि । अरहते सरणं पवज्जामि। गुरु की पूजा की जाती है और पूजा का प्रारम्भ दोनो सिद्धे सरण पवज्जामि । साहसरणं पवज्जामि। केवलि (णमोकारमत्र और चतु शरण पाठ) और उनके माहात्म्य पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि । से होता है। जैसे णमोकार मन्त्र वाचन का प्रथम क्रम है, उक्त पूरा पाठ 'मंगलोत्तमशरण' या 'चतुःशरण' पाठ वैसे उसके माहात्म्य वाचन का क्रम भी प्रथम है, यथाके नाम से प्रसिद्ध है और णमोकार मन्त्र के क्रम से उसी अपवित्रः पवित्रो वा सु.स्थितो दु.स्थितोऽपि वा। के बाद बोला जाता है। यह मगल अर्थात् 'स्वस्ति पाठ' ध्यायेत् पचनमस्कार सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ णमोकार मन्त्र की भाति प्राचीनतम प्राकृत भापा मे अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। निबद्ध और मंगल शब्द के निर्देश से युक्त है । अन्य स्थलो य. स्मरेत् परमात्मान सः बाह्यऽभ्यतरः शुचिः । पर हमें बहुत से अन्य मंगल भी मिलते है। पर वे न तो अपराजितमन्त्रोऽय सर्वविघ्नविनाशनः । प्रतिदिन निययित रूप से सर्व साधारण में पढ़े जाते है मगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।। और न ही मूल मन्त्र-णमोकारगत पच परमेष्ठियो का एसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणो । बोध कराते है। अत: 'मंगल' मे चत्तारि-पाठ की मगलाण च सव्वेसि, पढ़म हवइ मगलं ॥ प्रमुखता णमोकार मन्त्र की भाति सहज सिद्ध हो जाती है। इसी क्रम मे जब हम पूजन प्रारम्भ करते है, हमे __ स्थानकवासी संप्रदाय में 'चत्तारिमंगलं' पाठ 'मगली' 'मगलोत्तमशरण पाठ का माहात्म्य और मंगलोत्तमशरण के नाम से भी प्रनिद है। यतः जब कोई श्रावक मगल ((शेष १० १५२ वर) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य कु० इन्दु राय, एम. ए., शोधछात्रा, लखनऊ भारतवर्ष की विविध संस्कृतियों में अवस्थित है अधिकांश जैन धर्मानुयायियों ने सकुचित प्रवत्तिवश ग्रन्थों जैन संस्कृति, जिसका अपना विशेष दर्शन है, विशिश्ट के मुद्रण का विरोध किया। परिणामस्वरूप जैन साहित्य दृष्टि है। जैन मतावलम्बियों की अपनी पृथक् प्राचार. का अपेक्षित प्रचार एवं प्रसार नहीं हो सका। अन्ततोविचार संहिता है, निजी जीवन पद्धति है। उन माचार. गत्वा १९वीं शती के अन्त तथा २०वी शती के प्रारम्भ विचारों, दर्शन, मादों व मूल्यों को अभिव्यक्त करने में कई जैन तथा जैनेतर विद्वान् 'जैन वाङ्मय' के प्रकाशन वाला वाङ्मय ही "जैन साहित्य ' है। अखिल भारतीय की ओर आकृष्ट हुए और तब से यह साहित्य समस्त ज्ञान-संवर्धन एवं साहित्य-निर्माण के क्षेत्र में जैन साहित्य- विधानों व क्षेत्रों में विपुल मात्रा मे प्रकाश मे पा रहा कारों ने प्राचीन एवं अर्वाचीन समस्त भारतीय भाषाओं है, रचा जा रहा है। यही कारण है कि अब भारतीय में विविध विषयक, बहुविद्यात्मक विपुल साहित्य का मृजन साहित्य का सर्वागपूर्ण इतिहास लिखने वाले मनीषी 'जन करके भारती के भंडार को सुसमद्ध एव समलंकृत किया साहित्य' की पूर्ण उपेक्षा करने में हिचकने लगे है। वर्तहै। "संस्कृत एवं प्राकृत भाषामो में तो अगणित जैन मान समय में रचे जा रहे साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य रचा ही गया, पर माधुनिक देशी भाषाओं की कृतियो का परिचय समाविष्ट हो रहा है।' जननी अपभ्रंश पर तो जैन साहित्यकारो का एकाधिकार- जैन साहित्य अत्यन्त व्यापक, अनेक रूपात्मक और सा ही रहा है । पुरातन हिन्दी भाषा में भी गद्य एवं पद्य बहुमुखी है । अन्यान्य विधानों की भाति जैन प्रबन्धकाव्यों साहित्य का बहुभाग जैन प्रणीत है। परन्तु दुर्भाग्यवश (महाकाव्य तथा खण्डकाव्य) को भी एक सुदीर्घ एवं भारतीय साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य की उपेक्षा सुसमृद्ध परम्परा है । सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश वाङ्मय की जाती रही है। इस उपेक्षा का एक प्रमुख कारण की श्रीवृद्धि करने वाली, जैन काव्यो की परम्परा, सम्प्रति स्वयं जैनियों की धर्मान्धता व रूढ़िवादिता भी था। हिन्दी भाषा में भी प्रगतिमान है। गत सौ वर्षों मे खड़ी इतिहासकारो के अनुसार, मुद्रण कला का कार्य सन् बोली हिन्दी मे अनेकानेक जैन प्रवन्धकाव्यों की सृष्टि ८६८ ई० में चीन में प्रारम्भ हुआ था। भारतवर्ष मे हुई है, जिनमें उल्लेखनीय है - कवि कृष्णलाल विरचित उसका श्रीगणेश सन् १५५६ ई० मे हुमा तथा देवनागरी 'वियोग मालती', श्री दयाचन्द गोयलीय कृत 'सीता लिपि का प्रथम लेख सन १६७८ में छापा गया। मुद्रण चरित्र', कवि राजघरलाल जैन केवलारी कृत 'वीर चरित्र', का यह कार्य अद्यावधि द्रुत वेग से प्रवाहमान है।' १७वीं पन्नालाल जैन विरचित 'मनोरमा चरित्र' व 'भरतेश्वर शती तक अनेकानेक ज्ञान-क्षेत्रों व साहित्यिक विधाओं में काव्य', भंवरलाल सेठी द्वारा रचित 'अंजना पवनञ्जय' जैन वाङ्मय का प्रभूत मात्रा में सृजन हो चुका था, किन्तु कवि मंगलसिंह रचित 'तीर्थकरार्चन', युवा कवि बालचन्द्र १. तीर्थकरो का सर्वोदय मार्ग-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० ५६ २. प्रकाशित जैन साहित्य-डा. ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० ५-६ ३. (क) हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ-डा. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल (ख) हिन्दी साहित्य का इतिहास-सम्पादक डा० नगेन्द्र (ग) हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड)-सम्पादक डा० धीरेन्द्र वर्मा मादि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य जैन प्रणीत 'राजल', कविरत्न गुणभद्र पागास विरचित नहीं रह पाई है, स्थल-स्थल पर कवि का ब्राह्मणत्व 'राम वनवास', 'प्रद्यम्नचरित्र' तथा 'कूमारी अनन्तमती', काव्यावरण से बाहर झलकने लगा है। भगवान महावीर कविवर धन्यकुमार सुधेश कृत 'विराग' और 'परम ज्योति के सम्पूर्ण जीवन की प्रमुख कथा 'अघारव्य लहिदप-मर्दन', महावीर', कवि नाथलाल त्रिवेदी का 'महावीर चरित्रामृत', 'चन्दना-उद्धार' तथा 'अनंग-परीक्षा' प्रादि गौण प्रकरण महाकवि अनप शर्मा प्रणीत 'वर्द्धमान', राजस्थानी कवि सुष्ठ रूप से सुनियोजित है। मूलदास मोहनदास नीमावत कृत 'वीरायण', श्री यति शिल्प सौष्ठव एवं काध्यगत उत्कृष्टता की दृष्टि से मोती हंस जी कृत 'तीर्थकर श्री वर्द्धमान'. कविवर वीरेन्द्र- 'वर्द्धमान' एक सफल महाकाव्य है। महाकवि ने केवल प्रसाद जैन विरचित 'तीर्थकर भगवान महावीर' और चार प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। १९९७ छन्द 'पार्श्व प्रभाकर', श्री मोतीलाल 'मार्तण्ड' ऋषभ प्रणीत संयुत प्रस्तुत महाकाव्य में १९२२ वंशस्थ, ७० द्रुतविल'श्री ऋषभ चरित्र सार', गुजराती कवि हीराचन्द झवेरी म्बित, ३ शार्दूलविक्रीडित तथा २ मालिनी छन्द हैं। कृत 'त्रिभुवन तिलक', श्री गणेश मनि का 'विश्व ज्योति हिन्दी में इतने अधिक वशस्थ छन्दो का प्रयोग और महावीर', महाकवि रघवीर शरण 'मित्र' विरचित 'वीरा- किसी काव्यकार ने एक कृति मे नही किया है। काव्य यन' तथा डा० छल बिहारी गप्त प्रणीत 'तीर्थकर महा- की भाषा प्राद्योपांत प्रांजल व सस्कृतनिष्ठ है। प्रत्यधिक वीर' । उपर्युक्त प्रबन्ध काव्यों में से बीसवी शताब्दी में मोती जाती सामासिक पदावली के प्रयोग से काव्यार्थ में दुलहता मा रचे गये हिन्दी के प्रमख जैन महाकाव्यो का सक्षिप्त गई हैं, कथा प्रवाह भी स्थान-स्थान पर अवरुद्ध हो गया विवरण अग्रिम पंक्तियों में दिया गया है । है। शृगार एव शात रस प्रधान इस महाकाव्य मे अन्य प्राधुनिक युग मे खड़ी बोली हिन्दी मे, सर्वप्रथम सभी रसों का भी प्रसंगानुकूल परिपाक हुमा है। जैन महाकाव्य प्रणयन का श्रेय जैनेतर कवि पण्डित अनूप महाकवि अनूप के उपर्युक्त महाकाव्य के उपरांत शर्मा को प्राप्त है। महाकवि अनप प्रणीत महाकाव्य सन् १९५४ ई० मे कवि धन्यकुमार 'सुधेश' ने 'परम "वर्द्धमान" वीर शासन जयन्ती, श्रावण कृष्ण एक, वीर ही ज्योति महावीर' नामक महाकाव्य का सृजन प्रारम्भ निर्वाण सवत् २४७७ (जलाई सन् १९५१) को भारतीय किया, परन्तु काव्य क किया, परन्तु काव्य की समाप्ति व प्रकाशन से पूर्व सन् ज्ञानपीठ प्रकाशन, बनारस से मद्रित हया था। सम्प्रति १९५६ में कवि वरिन्द्रप्रसाद जैन प्रणीत भनाकाव्य यह महाकाव्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, कनाट प्लेस, नई "तीर्थकर भगवान महाबीर" प्रकाशित हो गया था। ६ दिल्ली से प्राप्त किया जा सकता है। १७ सर्गों में निबद्ध वर्ष के अन्तराल पर, यत्किचित् परिवर्द्धन के साथ सन् महाकाठा के कल १६१ छन्दों में जैन तीर्थकर १९६५ में 'तीर्थंकर भगवान महावीर' महाकाब्य का परम्परा के अन्तिम प्रथांत २४वें तीर्थकर भगवान महावीर, द्वितीय संस्करण 'धी अखिल विश्व जैन मिशन, मलीगंज के जिनका एक नाम वर्द्धमान भी है, पूर्व भवों से लेकर से प्रसारित हुआ। प्रस्तुत महाकाव्य में कुल ७ सर्ग है निर्वाण पर्यन्त तक के जीवन को काव्यात्मक रूप में अनु- जिनका नामकरण क्रमश:-पूर्वाभास, जन्म महोत्सव, स्यूत किया गया है। महाकाव्यकार ने भगवान वर्धमान शिशुवय, किशोरवय, तरुणाई एवं विराग, अभिनिष्क्रमण के इतिवृत्त चित्रण मे दिगम्बर एव श्वेताम्बर मान्यतामों एवं तप, तथा निर्वाण एवं वन्दना-रूप में किया गया है। मे समन्वय स्थापन का प्रयास किया है।' समन्वयवादी सर्ग शीर्षकों से ही तदन्तर्गत निहित कथ्य का माभास दृष्टिकोण अपनाने के अनन्तर भी जैन मान्यतायें प्रक्षण्ण मिल जाता है। महाकाव्यकार ने लोक रजक भगवान १. ' .. कवि न दिगम्बर और श्वेताम्बर माम्नाय मे ही नही, जैन धर्म और ब्राह्मण धर्म में भी सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न किया है।" --"वर्द्धमान" का 'प्रामुख'-लेखक लक्ष्मीचन्द्र जैन, पृ० १७ १. अनूप शर्मा : कृतियाँ और कला-सम्पादक डा० प्रेमनारायण टण्डन, पृ० २०८ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८, वर्ष २६, कि०४ अनेकान्त महावीर के पावन चरित्र का सरल, प्राडम्बर-रहित, सरस काव्य को अलंकृत करने का प्रयत्न किया है।" भाषा में मनोग्राही चित्रण किया है। बिवेच्य महाकाव्य कथा वस्तु की दृष्टि से 'परम ज्योति महावीर' में में छन्द संख्याबद्ध नहीं हैं, किन्तु महाकाव्यकार के शब्दों अपने पूर्वरचित महाकाव्यों से पृथकता इस बात में है कि में-... वास्तव में यह भक्ति की शक्ति ही है जिसने केवल इस कृति में सन्मति भगवान के ४१ चातुर्मासों व मुझसे मेरे प्राराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए।" साधनाकाल का विशद वर्णन कर नायक के जीवनवृत्त को महाकाव्य के परम्परागत लक्षण का अनुकरण करते हए सम्पूर्णता प्रदान की गई है। उल्लेख्य महाकाव्य मे प्रादि कवि ने प्रत्येक सर्ग के अन्त मे छन्द परिवर्तन-क्रम का से अन्त पर्यन्त केवल एक ही छन्द का प्रयोग किया गया निर्वाह किया है । काब्य में आद्योपॉत गेयता व लयात्म- है । ग्रन्थ को माधुर्य एवं प्रसाद गुण सम्पन्न बनाए रखने कता का भी ध्यान रखा है। के लिए सुबोध, सुकोमल व जन प्रचलित भाषा का प्राश्रय ___'वर्द्धमान' तथा 'तीर्थकर भगवान महावीर' के ही लिया गया है । काव्य मध्य मे प्रसंगानुकूल प्रागत जैन पारिवर्ण-विपय पर लिखा जाने वाला तीसरा हिन्दी जैन भाषिक शब्दो, यथा-प्रास्रव, निर्जरा, पुद्गल, प्रासुक, महाकाब्य है, कविवर धन्यकुमार जैन 'सुधेश' विरचित निगोद, पड़गाहना, कुलकर, पचास्तिकाय, अनगार, मानपरम ज्योति महावीर", जो सन् १९६१ मे 'श्री फूल. स्तम्भ, द्वादश भावना स्तम्भ, द्वादश भावनाए प्रादि, की महाकाव्यान्त में प्रादि. की म चन्द जवरचन्द गोधा जैन ग्रथ माला', इन्दौर से प्रकाशित सरल व्याख्या दी गई है। इसी प्रकार, परिशिष्ट २ व पाकवि ने अपने इम ग्रन्थ को 'करुण, धर्मवीर एवं परिशिष्ट ३ मे क्रमशः काव्यान्तर्गत प्रयुक्त ऐतिहासिक शांत रस प्रधान महाकाव्य' संज्ञा प्रदान की है। स्थलों व पात्रों का भी परिचय कवि ने दिया है। सारांपरम ज्योति महावीर" महाकाव्य मे सर्गों की संख्या शतः काव्यशास्त्रीय दृष्टि व महत् प्रयोजन दोनों दृष्टियों २३ है। इस वसत्मिक ग्रथ में कुल २५१६ छन्द हैं से प्रस्तुत महाकाव्य उत्कृष्ट है। जिनका नियमपूर्वक विभाजन किया गया है। प्रत्येक पूर्व विवेचित महाकाव्यों से भिन्न कथ्य व पृथक् प्रासीखित सर्ग में १०८ छन्द है । इसके अतिरिक्त ३३ शैली मे कवि मोतीलाल 'मार्तण्ड' ऋषभदेव ने 'श्री ऋषभ छन्द प्रस्तावना में पृथक रूप से निबद्ध है।' महाकवि ने चरितसार' नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना की है। प्रस्तुत इस बात का ध्यान रखा है कि तीर्थकर भगवान महावीर कृति को लघु प्राकार का महाकाव्य मानना अनुचित न के जीवन व तदसम्बन्धित घटनामों के सम्यक् निर्वाह होगा । विवेच्य महाकाव्य १५ फरवरी, सन् १९६४ में के साथ-साथ महावीर युगीन राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, 'श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगज' से प्रकाशित ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पक्षों का भी समुचित निरू. किया गया। पण हो। अपने इस प्रयास मे कवि पर्याप्त सफल हुआ है। 'श्री ऋषभ चरितसार' को कथावस्तु आदि तीर्थकर जैन संहिता, दर्शन, धर्मादि से भलीभाँति भिज्ञ कवि 'सुधेश' भगवान ऋषभदेव अथवा ऋषभनाथ के पावन चरित्र पर ने जिनेन्द्र भगवान की दिव्य वाणी की मौलिकता को प्राधृत है । हिन्दी भाषा मे तीर्थकर वृषभदेव पर रचा अक्षुण्ण रखने का स्तुत्य प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर तथा जाने वाला कदाचित् उपरोक्त काव्य ग्रन्थ ही प्रकाश में दिगम्बर अवधारणाओं के सत् समन्वय के सम्बन्ध में पाया है। प्रस्तुत महाकाव्य का प्राकार शास्त्र-ग्रन्थों के महाकाव्यकार ने लिखा है-"दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों से समान है तथा इसे तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस' जो कुछ सत्, शिव, सुन्दर प्राप्त हुआ है, उससे इस महा- की शैली का अनुसरण करते हुए दोहा, चौपाई, सोरठा १. 'लीर्थकर भगवान महावीर': "दो शब्द"-श्री वीरेन्द्रप्रसाद जैन, पृ० ३ २. विस्तृत विवरण हेतु देखिए 'कृति की कथा'-'परम ज्योति महावीर' में-श्री धन्यकुमार जैन 'सुधेश', पृ०२०-२१ ३. 'कृति की कथा' : 'परम ज्योति महावीर' में - श्री धन्यकुमार 'सुधेश' पृ० २०-२१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के प्राधुनिक जैन महाकाव्य १५९ आदि छन्दों में संवारा गया है। काव्यारम्भ से पूर्व से पर्याप्त साम्य रखता है, परन्तु काव्य का वर्ण्य विषय मूमिका में बाब कामताप्रसाद जैन ने वेद, उपनिषदादि पूर्णतः पृथक है । 'पार्श्व प्रभाकर' मे कवि ने जैन तीर्थंकर संस्कृति ग्रन्थों के उद्धरणों का उल्लेख करते हुए महाकाव्य परम्परा के २३वें तीर्थकर 'पार्श्वनाथ' के पूर्व जन्मों से के महानायक ऋषभदेव की ऐतिहासिकता प्रमाणित कर लेकर निर्वाण पर्यन्त तक के जीवन को काव्य का प्राधार दी है। भमिका के उपरांत कवि 'मार्तण्ड' जी की शुद्ध बनाया है। संस्कृत भाषा में 'श्रत वन्दना' निबद्ध है, तदन्तर काव्य कवि वीरेन्द्रप्रसादजी ने महाकाव्य का प्रारम्भ प्रारम्भ हुमा है। विवेच्य महाकाव्य मे सर्ग है जिनके मंगलाचरण या प्रभु वन्दना से न करके भारत देश स्थित शीर्षक क्रमशः है-मंगल सगं, पूर्वभन सर्ग, अवतरण सर्ग, प्राकृतिक सुषमा सम्पन्न काशी-राज्य के वैभव वर्णन से उपकार सर्ग, तप सर्ग, उपदेश सर्ग, विजय सर्ग, स्वप्न सर्ग किया है; परन्तु काव्यारम्भ से पूर्व पृथक रूप से 'प्रणत तथा निर्वाण सर्ग । इन नौ सर्गों मे छन्दो की कुल संख्या प्रणाम' शीर्षक से ८ पंक्तियों की स्तुति लिखी है। प्रभु लगभग ७३५ है । महाकाव्य कार ने प्रत्येक सर्ग में छन्दों पार्श्वनाथ के प्रणमन वन्दना को समर्पित इस लघु स्तुति में की उनके प्रकार के अनुसार पृथक् संख्या दी है, जिससे अनुप्रासिक सौन्दर्य दृष्टव्य है-कवि ने 'प्रणत प्रणाम' में क्रम विशृंखलित व सम्भ्रमकारी हो गया है। प्रयुक्त प्रत्येक शब्द का प्रारम्भ 'प' वर्ण से किया है । पौराणिक महाकाव्यो के लक्षणों का निर्वाह करते 'पार्व प्रभाकर' महाकाव्य पर कविवर मुघरदास विरहुए, प्रथम सर्ग का प्रारम्भ मंगलाचरण, वृषभवन्दना एवं चित 'पार्श्व पुराण' का प्रभाव परिलक्षित होता है, कई देवशास्त्र गुरु-स्तुति से किया गया है। घीर, प्रशांत नायक छन्द तो 'पार्श्व-पुराण' के भाषानुवाद मात्र प्रतीत होते तीर्थंकर ऋषभनाथ के साधना एवं अनुचितक प्रधान है। विवेच्य कृति मे सों की कुल संख्या १० है तथा जीवन पर प्राघृत काव्य मे भी कवि ने बहुल घटनाओं तद तर्गत निबद्ध छन्द लगभग १३८५ है। सर्गों का का समावेश करके ग्रन्थ को रोचक व ग्राह्य बना दिया नामकरण अग्रलिखित क्रम मे हुया है-प्रथम सर्ग 'पूर्वाहै। भगवान ऋषभ के साथ-साथ उनके पुत्र चक्रवर्ती भास', दूसरा 'गर्भकाल', तीसरा 'जन्म-महोत्सव', चौथा सम्राट भरत तथा महायोगी बाहुबलि के जीवनवृत्त को सर्ग 'शिशुवय', पांचवाँ 'किशोरवय', पष्ठम मर्ग 'तरुणवय भी प्रस्तुत काव्य में चारु रूप से सयोजित कर लिया है एवं विराग', सप्तम 'पूर्व-भव दर्शन एवं लोकान्तिक देवाऔर कथा प्रवाह अवाधित रहा है । कधि ने प्रत्येक छन्द चन', अष्टम सर्ग 'अभिनिष्क्रमण, तप एवं केवल ज्ञान', के उपरान्त हिन्दी गद्य मे अर्थ व्याख्या दे दी है जिसकी नवम 'धर्मोपदेश' तथा दशम सर्ग 'निर्वाण वन्दना' । प्रबद्ध पाठक के लिए आवश्यकता नही थी। पाश्र्व प्रभाकर' के उपरान्त कई वर्षों तक कोई हिंदी ___'श्री ऋषभ चरित सार' के पश्चात् साहित्यालोक में जैन महाकाव्य साहित्य जगत मे नही पाया, किन्तु अब माने वाला उल्लेख्य हिन्दी जैन महाकाव्य है कवि तीर्थकर भगवान महावीर के पच्चीस-सौवे गिर्वाणोत्सव बीरेन्द्रप्रसाद जैन प्रणीत "पार्श्व प्रभाकर"। प्रस्तुत महा- के उपलक्ष्य मे विगत दो-तीन वर्षों के भीतर साहित्य की काव्य २२ जनवरी, सन् १९६४ मे पूर्ण हो चुका था किंतु कथा, नाटक, उपन्यास प्रादि समस्त विधामो में विपु. मार्थिक कठिनाइयों वश मुद्रित न हो चुका ।' अन्तत सन् लात्मक जैन साहित्य सृजित हुप्रा तथा निरन्तर रचा जा १९६७ में गौहाटी की दिगम्बर जैन पचायत के प्राथिक रहा है। इसी अवधि-अन्तराल मे महाकाव्य विधा मे सहयोग से, श्री अखिल विश्व-जैन मिशन, अलीगंज प्रणीत दो अत्यन्त उत्कृट कृतियाँ प्रकाश में पाई है। (एटा) से प्रकाशित हुआ। प्राकार-प्रकार, भाषा एवं कविवर रघुवीर शरण मित्र विरचित 'वीरायन' तथा डा. शैली-विधा के परिप्रेक्ष्य में अवलोकें तो 'पार्श्व-प्रभाकर' छलविहारी गुप्त कृत 'तीर्थकर महावीर' । कवि के पूर्व रचित महाकाव्य 'तीर्थकर भगवान महावीर महाकाव्यकार रघुवीरशरण मित्र ने अपने 'वा १. 'पार्श्व-प्रभाकर का 'प्राक्कथन'-श्री वीरेन्द्रप्रसाद जैन Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०, वर्ष २९, कि० ४ भनेकान्त (महावीर मानस महाकाव्य) को हिन्दी साहित्येतिहास के उनकी उपलब्धि और उपयोगिता का प्राकलन किया गया छायावाद-युगीन अप्रतिम कवि जयशंकर प्रसाद की अमर है। कथा-वस्तु की अपेक्षा प्रस्तुत महाकाव्य काव्यगत कृति 'कामायनी' के रूप में टांकने का प्रयास किया है। उत्कृष्टता की दृष्टि से अधिक सफल है । बहुलछन्दात्मक महाकाव्य का शीर्षक 'वीरायन' ही इस मोर संकेत करता इस काव्य में स्थान-स्थान पर स्वतन्त्र प्रगीतों का नियोजन है। प्रस्तुत कहाकाव्य वीर निर्वाण सम्वत् २५०० (सन् स्पृहणीय है । प्रकृति का स्वतन्त्र, मालम्बन तथा उद्दीपन १९७५) में भारतोदय प्रकाशन, वेस्ट एण्ड रोड, मेरठ से सभी रूपों मे मर्मस्पर्शी चित्रण कवि ने किया है । प्रकाशित किया गया है। महाकवि ने जिनेन्द्र भगवान भगवान महावीर के जीवन को सम-सामयिक सन्दर्भ में महावीर की वन्दना, अर्चना तथा उनकी प्रमरवाणी, प्राप्त देखने के परिणामस्वरूप वर्तमानकालीन भारत की बचनों के सुदूरगामी व दीर्घकालीन प्रभाव-प्रसार के उद्देश्य समस्याग्रो, प्रभावों कुरीतियों आदि के निरूपण व उनके से ही प्रस्तुत महाकाव्य की रचना की है। स्वयं महा. समुचित समाधान के उपायों का भी निर्देश इतस्ततः काव्यकार के शब्दों में-"श्रद्धा ने तपस्या का व्रत लिया, प्राप्य है । परन्तु स्थान-स्थान पर प्रभु महावीर की, प्रकृति संकल्प किया कि तपालोक वीर भगवान पर महाकाव्य की, दृश्यादृश्य शक्तियों, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शारदा रचूंगा । 'वीरायन' महाकाव्य से भगवान महावीर का आदि दिव्यादिव्य देवों की, काव्य-साफल्य, जनकल्याण अर्चन किया है और काव्य रचने का उद्देश्य है जन-जन तथा राष्ट्रोद्धार के लिए अभ्यर्थना, वन्दना, प्रार्थना कथामें भगवान महावीर की वाणी का सन्देश देना ।' 'मेरी प्रवाह के व्यवधान है। यह रचना स्वान्तःसुखाय होते हुए भी लोक हितकारी 'अवन्तिका के शब्द शिल्पी' महाकाव्यकार डा० छैल बिहारी गुप्त विरचित 'तीर्थकर महावीर' महाकाव्य, महाकाव्य सम्बन्धी नवीन लक्षणों, नवीन मूल्यों पर हिन्वी जैन महाकाव्यो की नवीनतम उपलब्धि है। मुनि माधारित प्रस्तुत बृहदाकार ग्रन्थ मे १५ सर्ग है, जिनके श्री विद्यानन्द को समर्पित उपर्युक्त ग्रन्थ का प्रणयन १७ शीर्षक तनिहित वर्ण्य विषय के अनुरूप निम्नलिखित अक्टूबर, १९७४, गुरुवार को प्रातः ७ बजकर १० मिनट पर प्रारम्भ हुमा तथा इसकी परिसमाप्ति हई १७ फरवरी, १९७५, सोमवार को प्रातः ८ बजकर १० मिनट पर ।' पुष्प प्रदीप, पृथ्वी पीड़ा, बाल कुमुदनी, जन्म-ज्योति, प्रस्तुत महाकाव्य इसी वर्ष, अर्थात् १९७६ ई. के मार्च बालोत्पन्न, जन्म-जन्म के द्वीप, प्यास और अंधेरा, सन्ताप, महीने मे 'श्री वीर निर्वाण-ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर' विरक्ति, वनपथ दिव्य दर्शन, ज्ञान-वाणी, उद्धार, अनन्त से प्रकाशित हुया है। 'सर्गबद्धो महाकाव्यम्' सूत्र के तथा युगान्तर । जैसा कि सर्ग के नामों से स्पष्ट है, तीर्थ माघार पर कवि ने तीर्थकर भगवान महावीर के इतिवृत्त कर महावीर की प्रमुख कथा चौथे सर्ग से ही प्रारम्भ को पाठ सर्गों में विभाजित किया है। महाकाव्यकार ने होती है। उससे पूर्व तो महाकवि के विविध शब्द पुष्पों से कथा-निर्वाह में ऐतिहासिक सत्यता, साम्प्रदायिक एवं देवादेव इष्टों की अभ्यर्थना, प्राकृतिक सौन्दर्य-सुषमा का। पारम्परिक जैन मान्यताप्रो की अक्षुण्णता का पूरा ध्यान विशद वर्णन तथा सतयुग से कलियुग तक के प्रावर्तन- रखा है। काव्य का कोई भी प्रसंग या कल्पना इतिहास परिवर्तन की विस्तृत विवेचना की है। प्रन्तिम सर्ग विसंगत नही है। इतर प्रकरणो को अनावश्यक विस्तार 'युगांतर' में निर्वाणोपरांत भगवान महावीर के अमर न देकर धीर, प्रशात, धीरोदात्त, सन्मति भगवान महावीर वचनों व सिद्धान्तों की जीवन एवं जगत को देन तथा के जीवनवृत्त को प्रसाद तथा माधुर्य सयुत काव्य शैली में १. 'वीरायन' (महावीर मानस महाकाव्य) का "पूर्वालोक"- लेखक- श्री रघुवीर शरण 'मित्र', पृ० ६.१० २. 'तीर्थकर महावीर' (महाकाव्य)-डा. छलविहारी गूप्त-'उपक्रमणिका' के उपरांत में Page #179 --------------------------------------------------------------------------  Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के माधुनिक जैन महाकाव्य चित्रित किया गया है। महाकाव्य को सर्व बोष गम्य बनाने को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देने वाले १०गी प्रगत के लिए विद्वान् कवि ने दुरूह, क्लिष्ट संस्कृतभित प्रभावकारी है। यद्यपि इन गीतो से कथा-प्रवाह प्रबद्ध शब्दावली का मोह परित्याग कर जन-प्रचलित, सरल हो गया है तदपि प्रभावोत्पादन में वे पूर्ण सफल हो .खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है और उसके महाकाव्यान्त में भी कवि ने एक स्वतन्त्र गीत भगवान परिणामस्वरूप प्रस्तुत महाकाव्य सरस, सुग्राह्य व प्रवाह- महावीर के ढाई हजारवें निर्वाण-वर्ष पर विशेषत: रचा शील बन सका है। है। इस प्रकार कथ्य, विषय-वर्णन तथा शिल्प-सौष्ठव तीर्थकर महावीर' में महाकाब्यकार ने न सर्गों को सभी दृष्टियो से डा० छैलबिहारी गुप्त प्रणीत 'तीर्थकर शीर्षक दिए है, न छन्दों की संख्या । 'वीरायन' की भाति महावीर' उच्च कोटि का महाकाव्य है। प्राशा है कि बहुछन्दात्मक इस ग्रन्थ मे भी एकाधिक स्थलो पर मुक्तक निकट भविष्य मे न केवल भगवान महावीर पर ही, प्रीतों की सयोजना हुई है। द्वितीय सर्ग मे सन्मति प्रभु अपितु 'जिन' परम्परा के पोषक अन्य महानायको क महावीर द्वारा अभिचितित, जीवन की क्षणभंगुरता, पावन-वृत पर भी, उत्कृष्ट महाकाव्य साहित्य प्रागण वस्तूमों व स्वजनो के प्रति मोह-मायादिक की निस्सारता मे पदार्पण करेंगे। 000 प्राकत. अपभ्रन्श तथा अन्य भारतीय भाषाएं भाषा व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राधुनिक भाषाम्रो का विकास इसी जनभाषा से रखती है। जीवन का हरेक क्षण भाषा के माध्यम जुड़ा हुआ है। से अभिव्यक्त होता है। यदि भाषा स्वाभाविक, प्राकृत भाषा का सबन्ध भारतीय प्रार्य शाखा सुबोध और सम्प्रेषणयुक्त है तो व्यक्ति का परिवार से है। विद्वानों ने भारतीय प्रार्य शाखा जीवन दर्पण की भाँति उजागर होता रहेगा और परिवार की भाषामों के विकासको तीन युगों यदि भाषा क्लिष्ट, थोपी हुई तथा रूढ हो तो मे विभक्त किया है :जीवनदर्शन सामान्य जन की परिधि से बाहर १. प्राचीन भारतीय पार्य भापाकाल (१६०० ही घूमता रहता है। उसमे लोकतन्त्रात्मक विकास ई० पू० से ६०० ई०पू० तक), की संभावनाएं क्रमशः कम होती जाती है। मानव २. मध्यकालीन आर्य भाषाकाल (६००ई० पू० इतिहास मे भाषा का यह उतार-चढ़ाव संस्कृति को उतार-चढ़ाव संस्कृति को से १००० ई. तक) तथा बहुत परिवर्तित करता रहा है। भारत में प्राचीन ३. माधुनिक आर्य भाषाकाल (१००० ई. से समय से ही शिष्ट और जन-सामान्य की भाषा वर्तमान समय नक) का समानान्तर, प्रयोग होता रहा है। भगवान् प्राकृत भाषा का जो विकास हुआ है वह महावीर और बुद्ध के समय भी यही स्थिति थी। किसी न किसी रूप में भारतीय भाषामों के इन इन दोनों महापुरुषों ने भाषा की इसी महत्ता को तीनो कालो से जुड़ा हमा है। इस संबन्ध का समझते हुए जनभाषा को ही अपने उपदेशों का अध्ययन करने से प्राकृत और भारतीय प्राधुनिक माध्यम बनाया था। तत्कालीन वह जनभाषा भाषाओं के परस्पर साम्य-वंषम्य का पता इतिहास में मागधी (पालि) व मद्धमागधी चलता है। (प्राकृत) के नाम से जानी गयी है। भारतीय 000 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R-N. 10591,62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन नवाक्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन 46 मूल-प्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ 48 टीकादि प्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर 25353 पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की 7 पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। 15.00 माप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द / 8.00 स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जमलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित / 2.00 स्वतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पोर श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अल कृत सुन्दर जिल्द-सहित। मम्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। 150 पुरत्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द / समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द / 3-60 बनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 : संस्कृत और प्राकृत के 171 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / ... 4.00 समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित 4.00 प्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राज कृष्ण जन ... 1.25 मध्यात्मरहस्य : पं आशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित / 1.00 जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2 : अपभ्रंश के 122 अप्रकाशिन्न ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह। पचपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं. पं परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। 1200 म्याय-बीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरवारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। 700 बन साहित्य पोर इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ को रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे / सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के 1000 से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द / 2000 Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी मे धनुवाद बड़े पाकार के 300 प. परको जिल्द म निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया 5-00 ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित): संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री 12-.. धावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया जैन लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग 25-00%, द्वितीय भाग 25.00 Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित / 6.00