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________________ पूजा मूर्ति की नही, मूर्तिमान की : मूर्तिपूजा का इतिहास बहुत प्राचीन है। मनुष्य की धार्मिक चर्या में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । श्रास्था और श्रद्धा के अंग देव प्रतिमानों के चरणपीठ बने हुए है । मूर्ति मे निराकार साकार हो उठता है और इसके भावपक्ष की दृष्टि मे साकार निराकार की सीमात्रों को छू लेता है। मूर्ति प्रकम्प और विश्वल होने से सिद्धावस्था की प्रतीक है। उपासक अपनी समस्त वाह्य चेष्टयों को और शरीर की हलन चलनात्मक स्पन्दन क्रियाओ को योगमुद्रा मे श्रासीन होकर मूर्तिवत् अवल-ग्रडिंग कर ले और सम्म स्थित प्रतिमा के समान तद्गुण हो जाए, यह यह उसकी सफलता है । मूर्ति में मूर्तिवर के गुण मुस्कराते है वह केवल पापणमयी नहीं है। उसके अर्थको पर 'पाषाणपूजक' लाञ्छन लगाना अपने किंचित्कर बुद्धि वैभव का परिचय देना है। मूर्ति में जो व्यक्त सौदर्य है उसके दर्शन तो स्थूल वाले भी कर लेते है किन्तु उसके भावात्मक सौदर्य को पहचानने वाले विरले ही होते है । मूर्तिकार जब किसी अनगढ़ पत्थर को तराशता है, तो उसकी देनी की प्रत्येक टकोर उत्पद्यमान मूर्तिविग्रही देव की प्राणवत्ता को जाग्रत करने में अपना अशेष कौशल तन्मय कर देती है । असीम धैर्य के साथ, श्रश्रान्त परि श्रमपूर्वक उसके तत्क्षण मे गुणाधान की प्रक्रिया कार्य करती रहती है । श्रवयवो के परिष्कार से, रेखाओं की भंगिमा से प्रवरो की बनावट से, चितवन के कौशल से, बरौनियों की छाया में विभात नीलकमल से मन को विशालता से, पोनपुष्ट भुजदण्डों से न केवल मूर्तिकार श्रगसौष्ठव ही तैयार करता है, अपितु वह स्पन्दनरहित प्राणाधान ही मूर्ति मे प्रतिष्ठापित कर देता है । उस मूर्ति को विग्रह को देखने मात्र से प्राण पुलकित हो उठते है, जितकी शक्ति प्रबुद्ध होकर नाच उठती है। जिसको दूढ़कर नेत्र थक गये थे, उसकी मुद्राकित प्रतिमा स्वयं साकार होकर समुपस्थित हो जाती है। हमारा मन जो एक भावसमुद्र है, मूर्ति उसमे पर्व - तिथियो के ज्वार तरंगित कर देती है । जैसे गुलाब के पुष्प सौन्दर्य को देखने वाला उसके मूल मे लगे फोटो को नहीं देखता, उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द कमल पुष्प का प्रणयी जैसे उसके पंकमूल को स्मरण नहीं करता, उसी प्रकार श्रात्मा के समस्त चैतन्य को अपनी प्रशान्त मुद्रा से प्राकर्षित करने वाले भगवान् की प्रतिमा को देखते हुए भक्त के नेत्र उसके पाषाणत्व से ऊपर उठ कर गुणधर्मावच्छिन्न लोकोत्तर व्यक्तित्व का ही दर्शन करने लगता है और उस समय पूजक के कण्ठ से स्तुतिच्छन्द गीयमान होने है उनमे पाषाण की सत्ता के चिन्ह भी नहीं मिलते। भक्त के सम्मुख स्थित प्रतिमा में उसके आराध्य की झलक है, उसकी भावनाओं का प्राकार है । वे प्रभु अनन्त दर्शन और ग्रनन्त ज्ञानमय है । देव, देवेन्द्र उनकी पदवन्दना करते है। उनका वीतराग विग्रह पाषाण मे रति कैसे कर सकता है ? उनका मुक्त प्रात्मा प्रतिमा मे निवद्ध कैसे किया जा सकता है ? यह तो भक्त की भावना है, उसका उद्दाम धनुरोध है जो सिद्धालय मे विराजमान भगवान् के साक्षात् दर्शन के लिए धीर प्रतिमा के माध्यम से उनकी स्तुति करता करता है, पूजाप्रक्षालन करता है। उसकी भावना के समुद्रपर्यन्त विस्तीर्ण मनोराज्य को झुठलाने का साहस स्वयं भगवान् मे भी नही है । वह प्रतिमा के सम्मुख उपस्थित होकर किस भाषा में बोलता है ? सुनने वाले के प्राण गद्गद् हो उठते है, नेत्रो में भाव का समुद्र लहराने लगता हैदृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोयमुपयाति जनस्वचक्षुः । पीत्वा पयः शशिकरद्युतिदुग्बसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरसितु क इच्छेत् ? 'हे भगवन् ! आपके प्रनिमेष विलोकनीय स्वरूप को को देखकर मेरी आँखें दूसरे किसी को देखना नही चाहती। भला इन्दु की ज्योत्स्नाधाय पीने वाले को क्षार समुद्रजल क्या अच्छा लगेगा ? यहाँ मूर्तिपूजक के नेत्रो मे जो पार्थिव से पर दिव्य रूप नाच रहा है उस पाषाणपूजा कहने का साहस किस में है ? पाषाण और मूर्ति मे जो भेद है उस न जानने से ही इस प्रकार की असत् कल्पना लोग करने लगते है । पाषाण को उत्कीर्ण कर उसमे इतिहास और धागम प्रामाण्य से तत्तद् देवता के
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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