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________________ पहले पहल दिगम्बर भट्टारकों ने वैद्यक विद्या को अनेक वैद्यक ग्रन्थों का अध्ययन एवं मनन करने के उपग्रहण कर चिकित्सा-कार्य प्ररम्भ किया। कालान्तर में गन्त ही इसकी रचा की है। ग्रन्थ के प्रादि मगलाचरण श्वेताम्बर जैन यतियों ने इस में प्रत्यन्त दक्षता प्राप्त की। में भी यह स्पष्ट है कि ग्रन्थ रचना से पूर्व कवि ने आयुर्वेद बाद में ऐसा समय भी पाया कि उनमे क्रमशः शिधिनता मास्त्र का गहन अध्ययन किया है, पर अन्यों का मनन प्राती गई । दिगम्वर प्राचार्यों और विधानों ने प्रायुर्वेद के किया है और उसमे अनिल ज्ञान को शुभव द्वार परिजिन ग्रन्थो का निर्माण किया है वे अधिकाशनः प्राकृत- माजित किया है। संस्कृत भापा गे है। चूकि उन ग्रन्थों के रख-रखाव एवं -रखाव एवं यह सम्पूर्ण प्रस्थ मात ममुद्देशों में विभक्त है। इसमें प्रकाशन मादि की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, कुल ३३२ गाथाग है। इस ग्रन्य को एक अन्य प्रति में, अतः उनमे में अधिकांश नष्ट या लुप्तप्राय हो चुके है। जो माद्यन्त मंगलाचरणरहित अनेक आयुर्वेद ग्रन्थों के प्रमाण बचे हए है उनके विषय मे जैन समाज की रुचि न होने सहित १६७ गाघापो का एक और ग्रन्थ है। उसके अन्त के कारण वे प्रज्ञान है। श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा जो ग्रन्थ में भी इति वैद्यमनोत्सवे लिना है। ये दोनों ग्रन्थ दोहा, रचे गये है वे गत चार सौ वर्षों से अधिक प्राचीन नही सोरठा एवं चौपाई में है। इनमें से एक अन्य प्रकाशित हो है। अतः उनको रचना हिन्दी मे दोहा, चौपाई आदि चमा है. चिन्न वह भी अब मम्भवतः उपलब्ध नहीं है। छन्दो मे हुई है। इस प्रकार के ग्रन्थो मे योग चिन्तामणि, २. वेद्य हुलास - इसका दूसरा नाम तिब्बसाहबी भी वैद्य मनोत्सव-विनोद, रामविनोद, गंगयतिनिदान प्रादि है। इसका कारण यह है कि लूकमान हकीम ने फारसी । हिन्दी बैद्यक ग्रन्थो का प्रकाशन हो चुका है। में तिब्बमाहबी नामक जिस ग्रन्थ की रचना की है उसी __ संस्कृत के वैद्यक ग्रन्थो में पूज्यपाद विरचित वंद्यमार का यह हिन्दी पद्यानुवाद है। तिब्बसाहबी एक प्रामाणिक और उग्रादित्याचार्य विराचन कल्याणकारक नामक ग्रन्थो एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। प्रतः ऐसे ग्रन्थ का का मी हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। इनमे अनुवाद निश्चय ही उपयोगी माबित होगा। हिकमत के वैद्यसार के थिय विद्वानो का मत है कि वह वस्तुन. फारसी अन्यो का अनुवाद उर्दू भाषा में तो हुआ है, किन्तु पूज्यपाद की मोलिक कृति नहीं है, किसी अन्य व्यक्ति ने हिन्दी में नहाय यिनन नही त्रा: ऐ स्थिति में उनके नाम से इस ग्रन्थ की रचना की है। यह एक साहसिक प्रयास ही माना जायगा कि हिकमत हिन्दी में रचित वैद्यक ग्रन्थ विषयक प्रधान अन्य का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो, वह १. वैद्यमनोत्सव -यह ग्रंथ पद्यमय है और दोहा, भी पद्यमय शैली में । इस प्र के अनुशीलन से अनुवादक सोरठा व चौपाई छन्दो में है। इस ग्रन्थ के रचपिना कवि का फारसी भाषा का विद्वान होना और हिन्दी भाषा पर वर नयनसुख है जो केशवराज के पुत्र थे। उन्होने इस ." , पूर्ण अधिकार होना निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है । अनुग्रन्थ की रचना संवत् १६४१ में की है। ग्रंथ में प्राप्त F वादक में काव्य प्रतिभा का होना भी असंदिग्ध है। वा उल्लेख के अनुसार, अकबर के राज्य में सीहनन्द नगर में इम ग्रंथ के रचयिता कविर मलकचन्द्र है। 'धावक चत्र शुक्ला द्वितीया (स० १६४१) को उन्होने इस ग्रंथ धर्मकुल को नाम मलूकचन्द' इन शब्दो के द्वारा अनुवादक के की रचना पूर्ण की। अन्य के प्रारम्भ में 'बावककूल ही अपन नाम का उल्लम निख कर उन्होंने अपना थावक होना प्रतिपादित के अनन्तर लेखक ने उयु पक्त रूप से संक्षेपतः अपना उल्लेख किया है। ग्रन्थ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि किया है, अपना व्यक्तिगत विशेष परिचय कुछ नहीं दिया। प कसा अन्य ग्रन्थ का अनुवाद मात्र ही नही है,, यही कारण है कि कवि का कोई विशेष परिचय प्राप्त प्रपितु मौलिक रूप से इसकी रचना पद्ध रूप में की गई है। नही होता। यह प्रथ में अन्य ग्रंथों की भांति अन्त्य प्रशस्ति सम्पूर्ण प्रन्थ में प्राद्योपान्त की रचना की मौलिकता का भी नही है। इससे ग्रा रचना का काल और रचना स्थान सहज ही भाभास मिलता है इतना प्रवश्य है। कि कवि ने दोनों प्रज्ञात हैं। 000
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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