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________________ ६५ वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त गान्धारी, सर्वस्त्रा, महाज्वाला, मानवी, वैरोट्या मछुप्ता अनन्तागति, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपरा ज्वालामालिनी, महाकाली, मानवी, गौरी, गान्धारिका, जिता, बहुरूपा, आम्बिका, पद्मावती, सिद्धदायिका । विराटा, तारिका, (अच्यता,) मानसी और महामानसी। 'प्राचार्य दिनकर,' 'प्रतिष्ठा सारोद्वार,' पौर प्रतिष्ठा यदि उपर्युक्त तालिकाओं का ध्यान पूर्वक अध्ययन किया तिलक' प्रादि ग्रन्यों में इनके नाम कुछ परिवर्तन सहित जाय तो ज्ञात होता है कि जैन धर्मावलम्बियों ने विद्या दिये गये है । यद्यपि जैन ग्रन्थों में यक्षियों को शासन देव देखियो के नाम से शाक्त सम्प्रदाय की देवियों को अपने समूह के अन्तर्गत रखते हुए उन्हें भिन्न भिन्न नामों से धर्म ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। पुकारा गया है। लेकिन हमारी धारणा है कि उपयुक्त जैनधर्म के प्रतिष्ठा शास्त्रों में यक्ष और यक्षियों ग्रन्थों में उद्धृत लगभग सभी नाम शाक्त सम्प्रदाय की को शासन रक्षक देवता अथवा शासन देवता स्वीकार देवियों के है और बचे हुए नाम काल्पनिक है। जैन ग्रन्थों किया गया है। प्रारम्भिक जैन शास्त्रों में शासन देव. मे 'शासनदेवो' के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को स्वीकार नही नामो को तीथंडूरों का सेवक - मानकर उनके प्रति श्रद्धा किया गया है लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि प्रकट की गई है। प्राचार्य सोमदेव, प्राचार्य नेमीचन्द्र गुप्तकाल के पश्चात् जैन धर्मावलम्बियो की साधना विधि और पपाशापर ' ने यक्ष-यक्षियों की शासन देवता स्वी- मोर पूजा पद्धति पर शाक्त सम्प्रदाय का चाहे वह अत्यल्प कार किया है : यद्यपि उपयुक्त विद्वान इस मत से सहमत ही क्यो न हो कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा। इसलिये जैन नही थे कि लौकिक कामना की पूर्ति हेतु शामन देवता प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थों में सरस्वती तथा देवियो के नामो की उपासना की जाय । फिर भी दिगम्बर सम्प्रदाय के और व्यक्तित्व को महत्व प्रदान किया है। कुछ भट्टारकों और श्वेताम्बर परम्पग के कुछ प्राचार्यो की रुचि मन्त्र और तन्त्र में विशेष रूप से थी। लेकिन इस सबन्ध मे एक अन्य प्रमाण की भी चर्चा की जा इतना सब कुछ होने पर भी शासन देवतामों को तीर्थडुर सकती है। साधारणतया जैन मन्दिरी के द्वार के निकट की श्रेणी कभी भी प्राप्त नहीं हुई । 'भैरव' की प्रतिमा स्थापित करने की परम्परा है। कई जैन ग्रन्थो मे शासनदेव के रूप में बहुत सी यक्षणियो बार भैरव की प्रतिमा के स्थान पर उनकी पूजा का स्थान का उल्लेख मिलता है । यद्यपि जैन ग्रथ उनके नामो के भी निर्धारित होना पाया जाता है। हम जानते है कि सबन्ध में एक मत नही हैं । "तिलोय पण्णन्ती' के अनुसार शाक्त सम्प्रदाय में भैरव का दुर्गा से निकट का सम्बन्ध शासन की रक्षा करने वाली यक्षियो के नाम इस प्रकार माना जाता है। अब यदि भैरव को किसी तरह जैन धर्म है-चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वच” खला, वज्र कुशा से सम्बन्धित कर भी दिया गया है तो भी उनका मूल प्रप्रति, चक्रेश्वरी, पुरूषदसा, मनोवेगा,काली, ज्वाला व्यक्तित्व बदलना कठिन है। इस प्रकार संक्षेप में कहा मालिनी, महाकाली, गौरी, गान्धारी, रोटी, अनन्तमती, जा सकता है कि जैन धर्म शाक्त मत से कुछ प्रशो में मानसो, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बह- प्रभावित प्रवश्व हुअा है। रुपिणी, कुष्माण्डी, पना और सिद्धदायिनी। अपराजित खाडा कलसा, छोटे गणेश जी पृच्छा' के अनुसार उनके नाम है,-चक्रेश्वरी, रोहिणी, के मन्दिर के पास जोधपुर प्रज्ञा, वज्र” खला, नरदत्ता, मनोवेगा, कालिका, कारिका, (राजस्थान) ८. सागारधर्मामृत, ३, ७ ६. उप सकाध्ययन, ३६, ६६८ ७ प्रतिष्ठा तिलक।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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