SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वाध्याय का अंकुश है। पवित्रता के पत्तन में प्रवेश करने के लिए होती है और उसे प्रात्मोपलब्धि साधन भी कहा जाता है स्वाध्याय तोरणद्वार है । स्वाध्याय न करने वाले अपनी तथापि प्रत्येक स्वाध्यायी निश्चित रूपसे प्रात्मा को प्राप्त योग्यता की डीग हाँकते हैं, किन्तु स्वाध्यायशील उसे करता है ऐसा नहीं माना जा सकता। जैसे 'पर्वतो पवित्र गोपनीय निधि मानकर प्रात्मोत्थान के लिए वह्निमान घुमवत्वात् । यो यो धूमवान् स स वह्निमान्'उसका उपयोग करते है। उनकी मौन प्राकृति पर पर्वत पर अग्नि है, क्योकि वहां धुआँ उठ रहा है। स्वाध्याय के प्रक्षय वरदान मुसकराते रहते हैं, यत्र यत्र वह्निस्तत्र तत्र धूमः'--जहाँ-जहाँ अग्नि है, और जब वे बोलते है तो साक्षात् वाग्देवी उनके मुख- वहां वहा घुम है, यह सर्वथा सत्य नही, क्योंकि मंच पर नर्तकी के समान प्रवतीर्ण होती है । स्वाध्याय निध् म पावक मे घुम नही होता। अतः यह सम्भव है के प्रक्षरो का प्रतिबिम्ब उनकी प्रांखों पर लिखा कि स्वाध्यायादि द्वारा प्रात्मा का साक्षात्कार किया रहता है और ज्ञान की निर्मलधारा से स्नात उनकी जा सके, परन्तु निश्चय ही स्वाध्याय प्रात्मोपलब्धि वाङ्माधरी मे मरस्वती के प्रवाह पवित्र होने के लिए का कारण होगा, यह नही कहा जा सकता। प्रत्युत नित्याभिलाषी होते हैं। एक महान् तत्वद्रष्टा, सफल अनुभवी व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि राजनेता और उत्तम सन्त स्वाध्याय-विद्यालय का स्नातक शास्त्रों की उस अपार शब्द-राशि को पढने से क्या ही हो सकता है। स्वाध्याय एकान्त का सखा है। सभी शिवपुर मिलता है। अरे ! तालु को सखा देने वाले उस स्थानों में सहायक है; विद्वद्गोष्ठियो मे उच्च प्रासन शुक-पाठ से क्या ? एक ही अक्षर को स्वपर-भेद-विज्ञान प्रदान करने वाला है। जैसे पंसा-पैसा डालने पर भी बुद्धि से पढ, जिससे मोक्ष प्राप्ति सुलभ हो।' कोषवृद्धि होती है, उसी प्रकार बिन्दु बिन्दु विचार संग्रह करने से पाण्डित्य की प्राप्ति होती है। शब्दों के अर्थ "बहुयह पठियहं मूढ पर तालू सुक्का जेण । कोषों मे नही, साहित्य की प्रयोगशालानों में लिखे है। एक्कुजि मक्खर तं पठह शिवपुर गम्मइ जेण ॥" हल मोदिवरेनायतु गिरिय सुत्तिदरेनायतु । अनवरत स्वाध्याय करने वाला शब्दों के सर्वतोमखी प्रों पिरिव लांछन तोहरेनायतु, निजपरमात्मनका ज्ञान प्राप्त करता है। स्वाध्याय करने वाले की भांखों ध्यानवनरियवे नरिकगि बलली सत्तंते ॥' में समुद्रो की गहराई, पर्वत-शिखरों की ऊंचाई और प्राकाश की अनन्तता समायी होती है। वह जब चाहता -रत्नाकर (कन्नड कवि) है, बिना तेरे, बिना प्रारोहण-अवगाहन किये उनकी -बहुत अध्ययन करने, तीर्थक्षेत्र (पर्वतादि) की सीमाग्रो को बता सकता है। स्वाध्याय का तप: साधना प्रदक्षिणा करने तथा धर्म विशेष के चिह्न धारण करने से के रूप मे सेवन करने वाला उससे प्रभीष्ट लाभों को क्या ? यदि स्वपरमात्मभाव का ध्यान नही किया तो प्राप्त करता है। उसके प्रभाव में ये बाह्य रूपक क के अरण्यरोदन के यद्यपि स्वाध्याय से प्रास्माभिमुखता की पोर प्रवृत्ति समान ही हैं। 000
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy