SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६, वय २६, कि० २ अनेकान्त कदाचित् शब्दों का प्रतिपादक नही है वरन इसका तात्पर्य मिथ्या अनेकान्त है। अन्य सापेक्ष एक धर्म का ग्रहण है-सुनिश्चित दृष्टिकोण । सम्यगनेकान्त है तथा अन्य धर्म का निषेध करके एक का 'स्यात्' निपात है। निपात द्योतक भी होते है और अवधारण करना मिथ्यानेकान्त है। वाचक भी। 'स्यात्' शब्द अनेकान्त-सामान्य का वाचक अनेकान्त अर्थात् राकलादेश का विषय प्रमाणाधीन होता है, फिर भी 'प्रस्ति' आदि विशेप धर्मों का प्रति- होता है और वह एकान्त की प्रर्थात् नयाधीन विकलादेश पादन करने के लिए 'अस्ति' प्रादि सत् धर्मवाचक शब्दों के विषय की अपेक्षा रखता है यथाका प्रयोग करना पडता है। तात्पर्य यह है कि 'स्यात् अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । मन्ति' वाक्य मे प्रस्ति' पद अस्तित्व धर्म का वाचक है, अनेकान्तः प्रमाणात तदेकान्तोऽपिताम्नयात् । और 'स्यात्' अनेकान्त का। -वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र समतभद्र १०२ 'अनेकान्त' शब्द वाच्य है और 'स्याद्वाद' वाचक । प्रर्थात् 'प्रमाण' और 'नय' का विषय होने से अने'स्यात' शब्द जो कि निपान है - एकात का खण्डन करके कान्त, अनेक धर्म वाला पदार्थ भी अनेकान्तरूप है। वह अनेकान्त का समर्थन करता है । इस महत्ता का प्रतिपादन जब प्रमाण के द्वारा समग्रभाव से गृहीत हता है तब वह मनीषियों ने किया है-- अनेकान्त, अनेकधमत्मिक है और जब किसी विवक्षित नय "वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्य प्रति विशेषकः । का विषय होता है तब एकान्त एकधर्मरूप है उस समय स्थानिपातीर्थ योगित्वात तब केवलिनामपि ॥ शेष धर्म पदार्थ में विद्यमान रहकर भी दृष्टि के सामने ___ -- प्राप्तमीमांसा नहीं होते। इस तरह पदार्थ की स्थिति हर हालत में THो वरीयता को न खनन में लोग अनेकान्तरूप ही सिद्ध होती है। इसका अर्थ संशय, अमदिग्धता प्रादि लगा लेते है जो ठीक अनेकान्तदृष्टि या नयदृष्टि विराट् वस्तु को जानने नहीं है। किसी वस्तु का मूल्यांकन करना ही इसकी का वह प्रकार है, जिसमे विवक्षित धर्म को जानकर भी महता है यथा---' स्याद्वाद सर्वथै कान्तत्यामात् विवन- अन्य अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता उन्हे गौण या चिद्विधि' यही नहीं वरन इस नोक की गहनता को अविवक्षित कर दिया जाता है और इस तरह प्रत्येक दशा भी थहाएं पूरी वस्तु का मख्य गौण भाव से स्पर्श हो जाता है। इस 'सर्वयात्वनिषेधको अनेकान्तता द्योतकः । तरह जब मनुष्य की दृष्टि अनेकान्ततत्व का स्पर्श करने कवितर्थ स्यात् शब्दो निपातः ॥" वाली बन जाती है, तब उसके समझाने का ढग निराला -पंचास्तिकाय हो जाता है प्राचार्य हेमचन्द्र ने बीजगगस्तोत्र में इसकी महत्ता को उजागर किया है यथा अनेकान्त वातु की अने कमिना गिद्ध करता है तथा विज्ञानस्यैकमाकार नानाकारकरम्बितम् । स्थाद्वाद उसकी व्याख्या करने में एक साक्षिक मार्ग का इच्छस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।८।। सूत्रपात करता है तथा मानभगी उस मार्ग का व्यवस्थित चित्रमेकमने च रूपं प्रामाणिकं वदन् । विश्लेषण कर उसे पूर्णता प्रदान करती है। योगो बंशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥६॥ अनेकान्त 'प्राण' और 'नय' की दृष्टि से कथञ्चित् इच्छन प्रधान सत्त्वाद्येविरुद्ध गुम्फितं गुण. । अनेकान्तरूप और कथञ्चित् कासमप है। 'प्रमाण' का सांस्यसंख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत ॥१०॥ विषय होने से यह अनेकान्तरूप है। इसके दो भेद बताये डा. शोभनाथ पाठक, एम० ए० (सस्कृत, हिन्दी); गये हैं -- सम्पगनेकान्त श्री मियानकान्त । परम्पर पी.एच. डी., साहित्यरत्न सापेक्ष अनेक धौ का सकन भाव • ग्रहण करना सम्यग मेघनगर नेकान्त है और परस्पर निक्ष अनेक धर्मों का ग्रहण जि. झाबुमा (म.प्र.)
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy