SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहिसा के रूप १४७ कारण है, क्योकि न तो शुभोपयोग ही प्रबन्ध का हेतु है काल से पनन्तों बार करता रहा । प्रतः निष्कर्ष ऐसा लेना और न प्रशुभोपयोग ही प्रबन्ध हेतु है । चाहिए कि इस जीव को मोक्ष प्राप्ति के लिये परम समाधि प्राचार्य कुन्द कुन्द प्रवचनसार में लिखते है लेने मे सम्यग्दृष्टि का विश्वास होता है। अतः सम्यग्यदृष्टि 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्ध सपनोगजुदो। वस्तुतः शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, परापेक्षीव्रत-अव्रत मादि पावदि णिबाण सुहं सुहोवजुत्तो व सग्गमुहं ।। प्रव०॥' परकृत भावों मे समता भाव रखकर उनके प्रति मौनी है। ___'धर्म (निश्चय और व्यवहार) से परिण त प्रात्मा एतावता सम्यग्दृष्टि को मौनी और मुनि भी कहा जाता है। जब शुद्धोपयोगी होता है तब निर्वाण पद को प्राप्त करता प्रकृति के विभिन्न रूपो की समष्टि ससार है मोर है और जब शभोपयोग युक्त होता है तब स्वर्ग (आदि) इस समष्टि के माधार पर ही यह चर-अचर जगत अपने के सुखों को प्राप्त करता है। इसमे भी निश्चय (अध्यात्म) विभिन्न रूपो मे दृष्टिगोचर हो रहा है। थोड़ी देर के मार्ग मे नित्ति (शुभ से भी) को ही प्रमुखता दी है। लिये हम ऐसी कल्पना करें कि ससार का प्रत्येक पदार्थ प्राचार्य अमृतचन्द्र जी लिखते है हमें अपने-अपने शुद्ध-एकाकी रूप मे दृष्टिगोचर हो यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या रहा है और किसी से किसी का कोई सम्बन्ध नही है तो मंगच्छते तदा स प्रत्यनीक शक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः ऐसी हमारी कल्पना हमे अन्ततोगत्वा ससार से दूर पहंकथंचिद्विरुद्ध कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्त- चाने की साधन ही बनेगी । इसका भाव ऐसा है कि जब पुरुषोदाहदुखमिव स्वर्गसुग्वबन्धमवाप्नोति । अतः शुद्धो. प्रत्येक पदार्थ के शुद्ध रूप की झलक ससार, शरीर और पयोग: उपादेयः शुभापयोगो हेयः ।। भोगों से विरक्त कग मुक्त पद प्राप्त कराती है तो इससे अर्थात धर्मपरिणत स्वभाव वाला यह प्रात्मा जब विपरीत अर्थात् प्रशुद्ध रूप अवस्था की कल्पना हमे ससार शभोपयोग परिणित से परिणत होता है तब विरुद्ध करायेगी। तात्पर्य ऐसा है कि मिलाप का नाम संसार (बाघक) शक्ति के उदय मे कथचिन् विरुद्ध कार्यकारी और पृथक्त्व का नाम मोक्ष है। चारित्र के कारण स्वर्ग सुख के बधन को वैसे ही प्राप्त जब हम ससार मे हे और संसार व्यवहार मे पाये होता है जैसे अग्नि से तप्त धृत से स्नान करने पर पुरुष बिना हम इस संसार मे सुखी नहीं रह सकते, तब यह प्रावउसके दाह से दुखी होता है; अर्थात् इसके सवरनिर्जरा के श्यक है कि हम अपने ससार-व्यवहार को सही बनाने का विरोधी प्राथव पीर बन्ध होते है । अत: ज्ञानी जीवों को प्रयत्न करें । जब हम पर के सुख-दुख, हानि-लाभ, जीवनमात्र शुद्धोपयोग (प्रात्मरूप) उपादेय और शुभ उपयोग मरण का ध्यान नहीं रखते तब हमे भी अधिकार नहीं कि - इसी प्रसंग मे श्री जयसेनाचार्य का अभिमत भी अपने सुखदुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण का ध्यान रखने देखिए की दूसरो से अपेक्षा करें। ___..यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिण- स्वभावतः ही प्राणी मे चार सज्ञाये पाई जाती है। मति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिक सुखविपरीतमा- इन्हें पूर्व जन्म के संस्कार कहो, या जीव का अपना मोहकुलोत्पादक स्वर्गसुखं लभते । पश्चात परमसमाधिसामग्री प्रज्ञान कहो, इनसे सभी समारी प्राणी बद्ध है, चाहे वे सद्भावे मोक्ष च लभते इति सूत्रार्थ. हेय. । मनुष्य हों या तिर्यच । छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा अर्थात् जब शुभ योग रूप सराग चारित्र में परिणमन जीव आहार करता है यहां तक कि दृष्टव्य भौतिक करता है तब अपूर्व और अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक शरीर छोड़ने (मरने) पर, जब यह जीव जन्मातर मे सुख के स्थान पर उससे विपरीत अर्थात् माकुलता को नवीन शरीर को धारण करने जाता है, तब भी इसे उत्पन्न करने वाले स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है। बाद में अधिक से अधिक तीन समय तक निराहारी रहने का परम समाधि सामग्री के सद्भाव मे मोक्ष भी प्राप्त करता अधिकार है, अन्यथा सर्वकाल और सब-स्थितियों मे है । भाव ऐसा है कि इसे शुभ से प्रात्म-लाभ त्रिकाल मे इसका पाहार से छुटकारा नही। शेष तीन सज्ञायें इसी भी नही होना । क्योंकि इस प्रकार के शुभ तो ये अनादि पाहार पर अवलम्बित है।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy