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________________ जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती श्री मारुतिनन्दद प्रसाद तिवारी सगीत, विद्या और बुद्धि की प्रधिष्ठात्री देवी सर. सरस्वती-प्रान्दोलन के कारण ही जैन प्रागमिक ज्ञान का स्वती भारतीय देवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय रही है। लिपिबद्धीकरण प्रारम्भ हुअा था और उसके परिणामभारतीय देवियों में केवल लक्ष्मी (समृद्धि की देवी) एवं स्वरूप ही प्रागमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप मे सरस्वती ही ऐसी देवियां है जो भारत के ब्राह्मण, बौद्ध और सरस्वती को उसका प्रतीक बनाया गया और उसकी पूजा जैन तीनों प्रमुख धर्मों में समान रूप से लोकप्रिय रही है। प्रारम्भ की गई। प्रागमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को कभी ब्रह्मा की (मत्स्यपुराण) होने के कारण ही उसकी भुजा मे पुस्तक के प्रदर्शन की और कभी विष्णु की (ब्रह्मवैवर्तपुराण) शक्ति बताया परम्परा प्रारम्भ हुई। मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त गया है। ब्रह्मा की पुत्री के रूप में भी सरस्वती का सरस्वती की प्राचीनतम जैन प्रतिमा मे भी देवी की एक उल्लेख किया गया है। बौद्धों ने प्रारम्भ में सरस्वती की भुजा मे पुस्तक प्रदर्शित है। कुषाणयुगीन उक्त सरस्वती पूजा बद्धि की देवी के रूप में की थी, पर बाद में उसे मूर्ति (१३२ ई०) सम्प्रति राजकीय संग्रहालय, लखनऊ मंजश्री की शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। ज्ञातव्य (क्रमांक जे-२४) मे संकलित है। है कि मंजुश्री बौद्धदेव-समूह के एक प्रमुख देवता रहे है। साहित्य में : जैनों में भी सरस्वती प्राचीन काल से ही लोकप्रिय रही अंगविज्जा, पउमचरिउ और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन है. जिसके पूजन की प्राचीनता के हमें साहित्यिक मोर जैन ग्रंथों में सरस्वती का उल्लेख मेधा और बुद्धि की देवी पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त होते है। के रूप मे है । एकाणसा सिरी बुद्धी मेधा कित्ती सरस्वती। प्रारंभिक जैन ग्रन्थो मे सरस्वती का उल्लेख मेघा (अंगविज्जा, प्रध्याय ५८)। पौर बद्धि की देवी के रूप में किया गया है, जिसे प्रज्ञान देवी के लाक्षणिक स्वरूप का निर्धारण पाठवीं शती रूपी अंधकार का नाश करने वाली बताया गया है। ई० में ही पूर्णता प्राप्त कर सका था। पाठवी शती ई० सगीत, ज्ञान और बुद्धि की देवी होने के कारण ही सगीत के ग्रन्थ चतुर्विशतिका (वपट्टिकसूरिकृत) मे हसवाहना ज्ञान और बुद्धि से सबधित लगभग सभी पवित्र प्रतीकों सरस्वती को चतुर्भुज बताया गया है, और उसकी भुजाम्रो (श्वेत रग, वीणा, पुस्तक, पप, हंसवाहन) को उससे में अक्षमाला, पद्म, पुस्तक एवं वेणु के प्रदर्शन का निर्देश सम्बद्ध किया गया था। जैन ग्रन्थों में सरस्वती का मन्य है। वेणु का उल्लेख निश्चित ही प्रशुद्ध पाठ के कारण कई नामों से स्मरण किया गया, यथा श्रुतदेवता, भारती, हुपा है । वास्तव में इसे वीणा होना चाहिए था। शारदा, भाषा, वाक्, वाक्देवता, वागीश्वरी, वागवाहिनी, प्रकटपाणितले जपमालिका क.मलपुस्तकवेणुवराघरा। वाणी और ब्राह्मी। उल्लेखनीय है कि जैनों के प्रमुख पवलहंससमा श्रुतवाहिनी हरतु मे दुरितं भुविभारती ॥ उपास्य देव तीर्थकर रहे है, जिनकी शिक्षाएं जिनवाणी', --चतुर्विशतिका 'मागम' या 'श्रुत' के रूप में जानी जाती थीं। जैन मागम दशवी शती ई० के ग्रन्थ निर्वाणकलिका (पादलिप्तग्रंथों के संकलन एवं लिपिबद्धीकरण का प्राथमिक प्रयास सूरिकृत) मे समान विवरणों का प्रतिपादन किया गया लगभग दूसरी शती ई० पू० के मध्य में मथुरा में प्रारम्भ है। केवल वेणु के स्थान पर वरदमुद्रा का उल्लेख है । हमा था। ऐसी धारणा है कि मथुरा में प्रारम्भ होनेवाले १४१२ ई. के ग्रंथ प्राचारदिनकर (वर्धमानसूरिकृत) में
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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