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________________ ७८, वय २६, कि० २ अनेकान्त "जे एगंजाणइ से सव्वं जाणइ जाते हैं। इस लिये इस ज्ञान में किसी प्रकार का अंतराल जे सव्व जाणइ से एग जाणइ" नहीं पड़ता।" इस प्रकार जनदर्शन ने सदा ही त्रिकाल (प्राचारांगसूत्र १, ३, ४, १२२) और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यो की समस्त पर्यायो के भाचार्य कुन्दकुन्द के वचनो का भी यही सार है जो प्रत्यक्ष दर्शन के अर्थ मे सर्वज्ञता मानी है।" इन्द्रियजन्य मात्मा को जानता है, वह सब को जानता है और जो ज्ञान तो जगत के सभी सज्ञी जीवों में पाया जाता है । सब को नहीं जानता, वह एक प्रात्मा को भी नही जानता किन्तु यदि मर्वज्ञ को न माना जाय तो फिर मीन्द्रिय जो जानता है. वह ज्ञान है और जो ज्ञायक है, वही ज्ञान ज्ञान किसे होता है। प्राव सभी तीरों तथा जिन है। जीव ज्ञान है और त्रिकालस्पर्शी द्रव्य ज्ञेय है । यदि केवलियों को सर्वज्ञ, सर्वदर्गी माना गया है ।" जिन को मात्मा पौर ज्ञान को सर्वथा भिन्न माना जाए, तो हमें पूर्ण ज्ञान उपलब्ध हो जाने पर इन्दिर, क्रप और व्यव. अपने ही ज्ञान से अपनी ही प्रात्मा का ज्ञान नही हो धान रहित तीनो लोकों के सम्पूर्ण द्रव्यों और पर्यायों का सकेगा। मात्मा ज्ञान-प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रकट हो जाता है, वे केवली कहे जाते हैं । गया है। ज्ञेय लोकालोक है, इसलिये ज्ञान सर्व व्यापक पर के द्वारा होने वाला जो पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान है, वह है।' यदि प्रात्मा ज्ञान से हीन हो, तो वह ज्ञान प्रचेतन परोक्ष है और केवल जीव के द्वारा ज्ञात ज्ञान प्रत्यक्ष है।" होने से नहीं जानेगा । इसलिये जनदर्शन मे प्रात्मा को मन, इन्द्रिय, परोपदेश उपलब्धि, सस्कार तया प्रकाश ज्ञानस्वभाव कहा गया है । ज्ञान की भाति प्रात्मा सर्वगत आदि पर है । इसलिए इनकी सहायता से होने वाला ज्ञान है। जिनवर सर्वगत है और जगत के सब पदार्थ जिनवर- परोक्ष है। केवल प्रात्मस्वभाव को ही कारण रूप से गत है। क्योकि जिनवर ज्ञानमय है (पूर्णज्ञानी है) और प्रत्यक्ष ज्ञान का साधक कहा गया है। सभी पदार्थ ज्ञान के विषय है इसलिये जिनवर के विषय डा० रमाकान्त त्रिपाठी के शब्दों मे 'सर्वज्ञता' शब्द तथा सर्व पदार्थ जिनवरगत है।' सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान का प्रयोग दो अर्थों में किया जा सकता है-(१) प्रत्येक इन्द्रियों से उत्पन्न हुमा क्षयोपशम ज्ञान रूप नहीं है, किन्तु वस्तु के सार (मूल तत्त्व) को जान लेना सर्वज्ञता है, जैसे प्रतीन्द्रिय ज्ञान है । अतः इन्द्रियों की अपेक्षा न होने में वह ब्रह्म प्रत्येक वस्तु का सार है, ऐसा जान लेना प्रत्येक वस्तु केवलज्ञान-क्रम की अपेक्षा नही रखता। सर्वज्ञ के ज्ञान को जान लेना है और यही सर्वज्ञता है। (२) प्रत्येक मे सभी ज्ञेय पदार्थ युगपत् प्रतिबिम्बित होते है। केवली वस्तु के विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना सर्वज्ञता है। भगवान के ज्ञानवरण और दर्शनावरण दोनो ही कर्मो का मीमासक दूसरे प्रकार की सर्वज्ञता का निषेध करते है। विनाश हो जाने से ज्ञान और दर्शन एक साथ उत्पन्न हो उनके अनुसार पुरुष अपनी सीमित शक्तियो के कारण ६. दम्ब अणतपज्जयमेगमणताणि दव्य जादागि । १०. प्रष्टसहस्री, प्रथम परिच्छद, कारिक । ३ ण बिजाणादि जदि जगव किघ सो सवाणिजाणादि । ११. जो जाणदि पच्चश्व तियाल-गुण-पज्जएहि सजत । ---प्रवचनसार, ४६ लोयालोय सयल सो सत्रह हवे देवो ॥ तथा-एको भावः सर्वथा येन दृष्ट. -कातिकेयानुप्रेक्षा, ३०२ १२. वही, ३०३। सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा । १३. से भगव परहं जिणे केवली सम्वन्न सव्वभावदरिसी सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा सव्वलोए सव्व जीवाण जाणमाणो पासमाणे एव च एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।। णं विहर।" -प्राचारांगसूत्र, २, ३ -प्रमाणनयतत्वालोकालकार, ४,११ तथा-'तज्ज्यति परंज्योतिः सम समस्तैरनन्तपर्यायः । ७. प्रवचनसार, गाथा ३५, ३६ । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलिति पदार्थमालिका यत्र । ८. वही, २३॥ -पुरुषार्थ०,१ ९. वही, २६। १४. प्रवचनसार, गा०५८ ।
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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