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________________ भगवान महावीर की सर्वज्ञता सर्वज्ञ नहीं हो सकता। यहां यह विचारणीय है कि कुछ चाहिए ? व्यक्तियो के विषय मे सर्वज्ञता का निषेध किया जा सकता जैनदर्शन का प्रतिपादन स्पष्ट है कि किसी एक है, किन्तु सब के विषय में सर्वज्ञता का निषेध नही किया पदार्थ का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त किये बिना सम्पूर्ण जा सकता । क्योकि सब के विषय मे सर्वज्ञता का निषेध पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। यह कहना ठीक नही है सर्वज्ञ ही कर सकता है।" किसी पुरुष द्वारा सम्पूर्ण कि मनुष्य के राग, द्वेष कभी विनष्ट नहीं होते। जो पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने मे मीमांगको को कोई पदार्थ एक देश में नष्ट होते हैं, वे सर्वथा विनष्ट भी हो ग्रापत्ति नहीं है, किन्तु धर्म का ज्ञान वेदो से ही हो । जाते है। जिस प्रकार मेघों के पटलों का मांशिक नाश सकता है। प्रतः पुरुप सर्वज्ञ हो सकता है ; धर्मज्ञ नही।" से उनका सर्वथा विनाश भी होता है, उसो प्रकार राग किन्तु जनदर्शन मे धर्मज्ञता और सर्वज्ञता मे कोई अतर सात का पाक्षिक RITोने में जमा भी nium नहीं माना गया है। सर्वज्ञ होने पर धर्मज्ञता स्वयमेव । हो जाता है। प्रत्येक प्राणी के राग, द्वेष प्रादि से प्रतिफलित हो जाती है। धर्मज्ञता सर्वज्ञता मे अन्तर्भूत है। दोषों की हीनाधिकता देखी जाती है। कैवल्योपलब्धि पर सर्वज्ञ-सिद्ध पुम्प के सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते है। प्रतएव बीतराग शबर, कुमारिल प्रादि मीमासको का कथन है कि । भगवान सर्वज्ञ है। गग, द्वेप व मोह के कारण मनुष्य धर्म प्रतीन्द्रियार्थ है । उसे हम प्रत्यक्ष से नही जान सकते । असत्य बोलते है। जिसके राग, द्वेष और मोह का क्योंकि पुरुष में राग, द्वेष प्रादि दोप पाए जाते है। धर्म अभाव है, वह पुरुष असत्य वचन नहीं कह सकता सर्वज के विषय मे केवल वेद ही प्रमाण है।" मीमांसकों का का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट होता है। जिस तरह सूक्ष्म पदार्थ यह भी कथन है कि सर्वज की प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से (इन्द्रियों से अज्ञेय) जन साधारण के प्रत्यक्ष नही होते उपलब्धि नही होती, इसलिये उसका प्रभाव मानना किन्तु अनुमेय अवश्य होते हैं। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान से चाहिए। मीमांसक पहले नही जाने हुए पदार्थों को बाह्य परमाणु प्रादि अनुमेय होने से किसी न किसी के जानने को प्रमाण मानते है। प्रभाकर मत वाले प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष अवश्य होते है। इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य के अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति तथा कुमारिल ग्रहण को बताने वाले ज्योतिषशास्त्र की सत्यता प्रादि भट्ट इनके साथ ग्रभाव को भी प्रमाण मानते है । वैशेषिक से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। केवल सूक्ष्म ही नहीं, भी ईश्वर को सब पदार्थों का ज्ञाता नहीं मानते । उनका अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को भी हम अनुमान से मत है कि ईश्वर सब पदार्थों को जाने या न जाने, किन्तु जानते है। अतः इन पदार्थों को साक्षात जानने वाला वह इष्ट पदार्थो को जानता है, इतना ही पर्याप्त है। पुरुष सर्वज्ञ है।" प्राचार्य विद्यानन्दि ने विस्तार में सर्वज्ञ यदि ईश्वर कीड़े-मकोड़ो की संख्या गिनने बैठे, तो वह की मीमासा करते हुए सर्वज्ञ-सिद्धि की है। उनका कथन हमारे किस काम का ? अतः ईश्वर के उपयोगी ज्ञान है कि किसी जीव मे दोष और प्रावरण की हानि परिकी ही प्रधानता है। क्योंकि यदि दूर तक देखने वाले को पूर्ण से हो सकती है, क्योकि सभी में हानि की अतिशयत प्रमाण माना जाए, तो फिर गीध पक्षियों की पूजा करनी (तरतमता) देखी जाती है। जिस प्रकार से अपने हेतुपों १५. प्राप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका का 'फोरवर्ड', पृ० २१ । कीटसरूपापरिज्ञान तस्य नः क्वोपयुज्यते ।। १६. धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । - स्याद्वादमंजरी से उद्धृत सर्वमन्य द्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ -तत्त्वसंग्रह, ' १९. देशतो नाशिनो भावा दष्टा निखिलनश्वराः । कारिका ३१२८ (कुमारिल भट्ट) द्रष्टव्य है : प्राप्त मेघपङ्क्त्यादयो यत् एवं रागादयो मताः ।। -स्याद्वादमंजरी, पृ० २६३ मीमांसा-तत्त्वदीपिका, पृ० ७२ २०. सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। १७. शाबरमाष्य १,१,२ । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ।। १८. सर्व पश्यतु वा मा वा तस्वमिष्टं तु पश्यतु । -माप्तमीमांसा, १, ५
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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