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________________ ५२, वर्ष २६, कि०१ अनेकान्त पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिए उनके सन्निट अथवा श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध तीर्थ की उनकी उपस्थिति में किसी का बैर स्थिर नही है । 1 स्थापना कर वे तीर्थकर बने। भगवान के संघ में चौदह था। हजार श्रमण और लनीम हजार श्रमणिया सम्मिलित महावीर की धर्मदेशना और विजय के बन्ध में हई।५९ नन्दीमूत्र के अनुसार चौदह हजार साधु प्रकीर्णकवि सम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जो दो शब्द वह हैं वे इस प्रकार है : कार थे।" इन जात होता है। मम्पूण साधुओं की "Mahavira pro-claimed in India the मख्या इससे अधिक । फापमुत्र के अनुमार, एक लाख message of the salvation that religion is a उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार relating and not a mere socia! cunvention ; श्राविकाएं थी।" यह संख्या भी व्रती श्रावकों की दृष्टि that salvation comes from taking refuge in से ही राम्भव है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालो की सख्या इसरो भी अधिक होनी चाहिए। that true religion, and not from observing the महावीर के प्रभावोत्पादक प्रवचनों से प्रभावित होकर external ceremonies of the community ; that भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा के सन भी उनकी भोर religion can not regard any barrier between आकर्षित हए। उत्तराध्ययन में पाश्र्वापरय केशी और man and man as an external varieiy. गौतम का मधुर मवाद है। मंशय नष्ट होने पर उन्होंने Wondrous to relate ; this teaching rapidly overtopped the barriers of the races abiding भगवान के पाच महाव्रत वाले धर्म को ग्रहण किया ।१२ instinct and conquered the whole country. वाणिज्य ग्राम म भगवान पाश्वनाथ के अनुयायी गागेय For a long period now the influence of अलगार और भगवान महाका के वीच महत्त्वपूर्ण प्रश्नोKshatriya teachers completely suppressed the नर हए । अन्त में मवंश समझतार महावार के सघ में Brahmin power." मिल गौतम न निग्रंन्ध जनक पेठाल पुत्र को समझाअर्थात-महावीर ने डंके की चोट से भारत म मुक्ति का कर सघ में सम्मिलित किया और स्थविरो को समझासा सन्देश घोषित किया कि धर्म कोई महज सामाजिक कर कालस्यवपि अन गार को भी।५ भगवती सूत्र से यह रूढि नही बल्कि वास्तविक सत्य है, वस्तु स्वभाव है, भी ज्ञात हाता है कि भगवान की परिषद् में अन्यतीथिक और मुक्ति उस धर्म मे आश्रय लेने से ही मिल सकता है, संन्यामी भी उपस्थित होते थे। प्रार्य स्कन्धक, अम्बउ", न कि समाज के बाह्य प्राचारो का विधि-विधानो अथवा पुद्गल और शिव" प्रादि परिव्राजको ने भगवान से क्रियाकाण्डो का पालन करने से, और धर्म को प्रश्न किया और प्रसो के समाधान म सन्तुष्ट होकर मन्त दृष्टि मे मनुष्य मनुष्य के बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता। कहते आश्चर्य होता है कि इस शिक्षण ने बद्ध- भगवान के त्यागमय उपदेश को सुनकर : (१) मूल हुई जाति की हदबन्दियो को शीघ्र ही ताड़ डाला वीरागक, (२) वीर यश, (३) सजय, (४) एजेयक, पौर सम्पूर्ण देश पर विजय प्राप्त की । इस वक्त (५) मेय, (६) शिव (७) उदयक, (८) शंख-काशीक्षत्रिय गुरुप्रो के प्रभाव ने बहुत समय के लिए ब्राह्मणो वर्धन ने श्रमण धर्म अगीकार किया था।" मगधाधीश की सत्ता को पूरी तौर से दबा दिया था। (शेष पृ० ५५ पर) २६. औंपपातिक वीर वर्णन, ११ । ३५. भगवती श० १,०६, सूत्र ७४ । ३०. नन्दी सूत्र । ३६. भगवती श०१, उ०१ । ३७. प्रौपपातिक टी० सूत्र ४, पृ७८१२,१६५ । ३१. कल्पसूत्र, सू० १३५, पृ० ४३, सु० १३६, पृ० ४४ । (ख) भगवती श०१४, उ०८। ३२ उत्तराध्ययन, अ०२३, गाथा ७७ । ३८. भगवती श०२, उ०५। ३३. भगवती श० ६, उ० ३२, सूत्र ३७८ । ३६. भगवती श० उ०१० । ३४. सूत्रकृतांग थु० २, ०७, सूत्र ८१२ । ४०. ज्ञातधर्म कथा, प्र०१ । - -- - - ---- --- - - --
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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