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१६ वर्ष २०१
देता है कि वह किसी पूर्व मान्यता प्रौर अन्धश्रद्धा से विश्व-सत्य का निर्णय न करे अपने स्वतन्त्र तार्किक अन्वेषण और वस्तु के अणु-प्रति-अणु तार्किक विश्लेषण द्वारा ही विश्व-तत्व की जाच-पड़ताल करे और उसका स्वतन्त्र ज्ञानात्मक साक्षात्कार करें। यह ध्यातव्य है कि हजारों वर्षों पूर्व जैन इष्टायां ने जन-जीवन का जो प्रन्तर्वेज्ञानिक साक्षात्कार किया था, वह क्रमश. आज की वैज्ञानिक खोजी द्वारा पत्रक प्रमाणित होता जा रहा है। इस प्रकार जैनधमं प्राज के मनुष्य को वैज्ञानिक दृष्टि द्वारा ही पात्मिक थाम्था घोर अनुभूति तक ने जाना चाहता है ।
+ -++ पश्चिम के दार्शनिक जगत् में श्राज अस्तित्ववाद का बोलबाला है, यानी अस्तित्व में जो दीखता है, वही सत्य है। एजिस्टेन्स' में हो कर 'ईस' में पहुंचना है। 'ईसेंस' को पूर्व मान्य करके 'एग्जिस्टेम' का फैसला नही करना है । जैनो के यहा बारह अनुप्रेक्षा श्री या भावनाओ द्वारा जो अस्तित्व श्रौर श्रात्मा का चिन्तन किया गया है, उसमे श्राज का अस्तित्ववाद सर्वांगीण अभिव्यक्ति पा जाता है । अनुप्रेक्षण बताता है कि मनुष्य की स्थिति यहा मनित्य, प्रशरण, एकाकी है। वह अकेला है । अन्तत हम सब एक-दूसरे के लिए अन्य यानी पराये हैं । शरीर अन्तत विनाणी और ग्लानिजनक तत्वों से भरा है ।
अनेकतंत
सामने प्रकट हो जाता है । उस स्थिति में मनुष्य एक मुक्त पुरुष होकर लोक का पूर्ण ज्ञानपूर्वक नित्य भोग करता है । यही मोक्ष है ।
माराश मे यही जैनों का मस्तित्ववाद है और संभवतः आज के अस्तित्ववादी दर्शन मे जहा भी गत्यबरोध है, यहा जैन अष्टिना सही मार्ग मुक्त कर सकती है। यह ध्यातव्य है कि कार्ल येस्पर्स आदि का माज का प्रतिक्रान्तिवादी धस्तित्ववाद (ट्रान्सेंडेंटल एक्जिस्टेशियलिज्म) जैन दर्शन के बहुत निकट श्रा जाता है ।
प्रत. प्रात्मा की मुक्ति के लिए प्रावश्यक है कि अनिष्ट बाहरी पुद्गल परमाणु को हमारे अस्तित्व को कर्म - बन्धन मे बाधने से रोका जाए। अपने को समेट कर अपने सच्चे स्वरूप में ही रहा जाए। इस प्रकार श्रात्म-सवरण द्वारा अपने मे स्वाधीन हो रहने पर पुराने बधे जड़कर्म के बन्धन स्वयं टूट जाते है । तब हमारे पूर्ण ज्ञान में लोक अपने सच्चे स्वरूप में हमारे
इस प्रकार, आप देखेंगे कि आज के युग में प्रस्तित्ववाद आत्म-स्वातन्त्र्य-वाद, सर्व-स्वातन्त्र्य-वाद, स्वच्छन्दवाद, पूर्ण मोगवाद, समाजवाद, गणतंत्रवाद, परोक्षवाद, कलावाद आदि की जो प्रमुख पुकार मानव आत्मा मे ज्वलन्त है, उन सबका मौलिक समाधान जिनेश्वरी के धर्म-दर्शन मे समीचीन रूप से उपलब्ध है ।
एकतन्त्रीय पूँजीवाद प्रोर अधिनायकवाद से दुनिया को उबार कर, एक सच्चे सर्वोदयी साम्यवाद मौर समाजवाद मे प्रतिष्ठित करने के लिए महावीर के धर्मदर्शन को नये सिरे से समझना और पहचानना जरूरी है ।
जैनो के अनुसार तो महावीर ही हमारे युग के तीर्थकर है, यानी हमारे वर्तमान युग-तीर्थ की मागलिक परिचालना का धर्म चक्र उन्हीं भगवान की उँगली पर घूम रहा है। एक बार एकाग्र होकर हम उस धर्म चक्र का दर्शन करे तो शायद हमारे युग की चाल ही बदल जाये । समग्र क्रान्ति और किसे कहते हैं ?
-वीर-निर्वाण-विचार-सेवा, इन्दौर के सौजन्य से । गोविन्द निवास, सरोजनी रोड विले पारले (पश्चिम), बम्बई - ५६
(पृ० ११ का पाश)
महाकवि हस्तिमस्ल की सुभद्रा नाटिका मे भी घादि तीर्थकर ऋषभदेव की बन्दना कई स्थानों पर की गई है। चार को की इस नाटिका में राजा नमि की भगिनी और कच्छराज के पुत्री सुभद्रा का तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत से विवाह की कथा है।" सी-८, युनिवसिटी क्वार्टर्स, दुर्गा नर्सरी रोड, उदयपुर (राज० )
१. प्रजनापवनञ्जय धोर सुभद्रा
नाटिका का सपादन वासुदेव पटवर्धन ने किया है । माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, बबई से प्रकाशित ७ प्रको के प्रजनापवनञ्जय नाटक मे महेन्द्रपुर की कुमारी प्रञ्जना स्वयंवर में विद्याधर पवन जय का वरण करती है । बाद मे प्रजना हनुमत् को जन्म देती है । कथा का प्राधार विमलसूरि का पउमचरिउ है ।