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________________ स्वाध्याय नहीं उतरते और जब तक कोई कृति सहृदयों के हृदय भूखा रहता है। मानव केवल शरीर नही है वह अपने का प्राकर्षण नही कर लेती तब तक शब्द का जन्म मस्तिष्क की शक्ति से ही महान् है। अस्वाध्यायी इस (निष्पन्नता) और कर्ता का कृतित्व कुमार ही है। महिमामय महत्त्व के अवसर से वचित ही रह जाता है। श्रेष्ठ कृतियों के अध्ययन से हमे विचारो मे नवीन शक्ति स्वाध्याय न करने के दुष्परिणाम स्वरूप ही कुछ लोग जो का उन्मेष होता हा प्रतीत होता है। नयी दिशा, नये प्रायु मे प्रौढ होते है, विचारो मे बालक देखे जाते हैं। विचार नये शोध मोर वष्य के अवसर निरन्तर स्वा- उनके विचार कच्ची उम्र वालो के समान अपक्व होते ध्याय करने वालों को प्राप्त होते है। है और इस प्रपरिपक्वता की छाया उनके सभी जीवनस्वाध्याय करते रहने से मनुष्य मेधावी होता है। म्यवहारो मे दिखायी देती है। जो मनुष्य चलता रहता शान की उपासना का माध्यम स्वाध्याय हा है। स्वा- है उसके पास पाप नही पाते। स्वाध्याय के माध्यम ध्यायशील व्यक्ति उन विशिष्ट रचनाप्रो के अनुशालन से व्यक्ति परमात्मा और परलोक से अनायास सम्पर्क से अपने व्यक्तित्व में विशालता को समाविष्ट पाता है। स्थापित कर लेता है। स्वाध्याय प्राभ्यन्तर चक्षुत्रों के वह रचनामो के ही नहीं, अपितु उन-उन रचनाकारो के लिए अंजनशलाका है । दिव्य दृष्टि का वरदान स्वाध्याय से सम्पर्क मे भी प्राता है जिनकी पुस्तके पढ़ता होता है, ही प्राप्त किया जा सकता है। वीवन मे उन्नति प्राप्त करने क्योकि व्यक्ति अपने चिन्तन के पारणामा का हा पुस्तक वाले नियमित स्वाध्यायी थे। एक बार एक महाशय को मे निबद्ध करता है। कोन कैसा है ? यह उसके द्वारा लोकमान्य तिलक की सेवा मे बैठना पड़ा। वह प्रात:निमित साहित्य को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है। काल से ही ग्रन्थो के विविध सन्दर्भ-स्वाध्याय मे लगे थे स्वाध्यायशील व्यक्ति की विचारशक्ति और चिन्तनधारा और इस प्रकार और इस प्रकार दोपहर हो गई। उठकर उन्होंने स्नान केन्द्रित हो जाती है। मन, जो निरन्तर भटकने का किया और भोजन की थाली पर बैठ गये। प्रागन्तुक ने मादी है, स्वाध्याय में लगा देने से स्थिर हान लगता है। पूछा-क्या प्राप संध्या नही करते ? तिलक महाशय और मन की स्थिरता प्रात्मोपलब्धि मे परम सहायक ने उत्तर दिया कि प्रात:काल से अब तक मैं 'सन्ध्या' होती है। एतावता स्वाध्याय के सुदूर परिणाम प्रात्मा ही तो कर रहा था। वास्तव में स्वाध्याय से उपाजित को उत्कर्ष प्रदान करते है। ज्ञान को यदि जीवन मे नही उतारा गया तो निरुद्देश्य पुस्तकालयो, व्यक्तिगत मंग्रहालयों, ग्रन्थ-भण्डारों 'जलताड़न क्रिया' से क्या लाभ ? आँखो की ज्योति को को दीमक लग रही है। नवयुवको का जीवन स्वाध्याय- मन्द किया, समय खोया और जीवन में पाया कुछ नहीं पराङ्मुख हो चला है। जीवन रात-दिन यन्त्र के समान तो 'स्वाध्याय' का परिणाम क्या निकला? स्वाध्याय उपार्जन की चक्की मे पिस रहा है। स्वाध्याय की परि- स्व के अध्ययन के लिए है। संसार की नश्वर प्राकूलता स्थितिया दुर्लभ हो गई है और बदलती परिस्थितियो के से ऊपर उठने के लिए है। स्वाध्याय की थाली में परोसा साथ मनुष्य स्वय भी स्वाध्याय के प्रति विरक्त हो चला हुमा अमृतमय समय जीवन को अमर बनाने में सहायक है। उसका कार्यालया से बचा हुमा समय सिनेमा, रेडियो, है। स्वाध्याय से प्रात्मिक तेज जाग्रत होता है, पुण्य ताश के पत्तों और अन्य सस्ते मनोरजनो में चला जाता की ओर प्रवृत्ति होती है और मोहनीय कर्म का क्षय करने है। स्वाध्याय शब्द की गरिमा से अनजाने लोग विचा- की ओर विचार दौड़ते है। पूर्वजो ने जिस वास्तविक रको की रत्नसम्पदा समान ग्रन्थ माला से कोई लाभ नही सम्पत्ति का उत्तराधिकार हमे सौपा है उस 'वसीयतनामे' उठा पाते। को पढ़ना वैसे भी हमारा नैतिक कर्तव्य है। स्वाध्यायशील न रहन से मन में उदार सदगुणो को श्रत स्कन्धं घीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम्', यह पूजी जमा नही होती। शरीर का भोजनरूपी खुराक मन वानर के समान चचल है, इस जो शास्त्र स्वाध्याय (मम्नमय प्राहार) तो मिल जाती है किन्तु मस्तिष्क में एकतान कर देता है वही धन्य है। स्वाध्याय से हेय
SR No.538029
Book TitleAnekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1976
Total Pages181
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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